१४ फरवरी की दोपहर भरी भीड़ के सामने इश्क-मोहब्बत पर कुछ पढ़ना है, और मेरे हाथ-पैर अभी से ठंडे हो रहे हैं। मैं ख़ुद को लव पोएट या राईटर मानती ही नहीं। मुझसे प्यार की बातें नहीं लिखी जातीं (यूं तो आजकल कुछ भी नहीं लिखा जाता, लेकिन ख़ैर...)।
सोचा कि पुराने पन्नों से कुछ निकाल लूं और वही पढ़ डालूं। कमाल की बात है कि अपना ही लिखा हुआ एक साल बाद ही कितना पुराना, कितना बचकाना लगने लगता है। आपको अपने ही काम में कई सारी ग़लतियां दिखाई देने लगती हैं। लगता है कि इसे बेहतर, और बेहतर किया जा सकता है। हम अपने ही सबसे बड़े आलोचक बन जाया करते हैं।
अपने भीतर बैठा ये आलोचक कमाल का होता है। सबसे बड़ा मेन्टल ब्लॉक यही पैदा करता है। हम ये नहीं लिख सकते। हम अच्छा नहीं लिख सकते। इसको और बेहतर किया जा सकता था। इसमें नया क्या है? इसमें पुराना भी तो कुछ नहीं। भीतर बैठा आलोचक लगातार शोर मचाता रहता है।
यही वजह है कि हम लिखते-लिखते रह जाते हैं, और शोर के बदले ख़ामोशी चुन लेते हैं। बाहर तो इतना शोर है ही। अब अंदर के शोर को भी झेलना पड़े तो फिर हम बिना लिखा-पढ़ी किए ही ठीक हैं भैय्या। ये एक और मुसीबत कौन झेलेगा?
लेकिन लिखना एक किस्म का नशा होता है। लिखने से ज़्यादा उसपर मिलनेवाली प्रतिक्रियाओं की उम्मीद हैंगओवर बनाए रखती हैं। इसलिए लिखने के इस एडिक्शन से हम कभी निकल ही नहीं पाते। इसलिए शोर के बीच शब्द चुनने की आदत बन जाती है।
मसला ये है कि चुने गए शब्द और ख़्यालों में नयापन कैसे बचाए रखा जाए? मुझे तो लगता है कि दुनिया में कोई ऐसी बात है नहीं जो पहले कही न गई हो। कोई ऐसा आईडिया भी नहीं है जिसपर पहले काम न किया गया हो। फिर हम क्या अलग कर रहे हैं? जब हर घंटे कहानियां रची जा रही हैं, शब्द रिकॉर्ड किए जा रहे हैं, बातें हो ही रही हैं, तो फिर हमारे कहने का फ़ायदा?
जैसे हर इंसान एक-दूसरे से अलग होता है वैसे ही हर इंसान की आवाज़ और कहने का तरीका भी एक-दूसरे से अलग होता है। हम बेशक जीते वही हैं जो हमसे पहले और हमारे साथ की नस्लें जी रही हैं - लेकिन हमारे भीतर की ख़ुशी, शोक, संताप - ये सब निजी हैं। हर इंसान के लिए ख़ास। चांद-सूरज वही हैं लेकिन अलग-अलग नज़रों से देखे जा रहे हैं, इसलिए सबकीे एक्सप्रेशन का तरीका अलग-अलग होगा, ख़ास होगा। ये और बात है कि हर नज़र का सौंदर्यबोध और फिर हर नज़र से होकर उतरने वाली लम्हों की परछाईयां भी अलग होंगी, उनका असर भी अलग होगा।
मैं अक्सर सोचती हूं कि क्या सबको लिखना आ सकता है? क्या लिखना संगीत की तरह है? या फिर ललित कला के अन्य माध्यमों की तरह? क्या लिखने में रियाज़ की ज़रूरत नहीं पड़ती?
दुनिया में दो किस्मों के लोग होते हैं - पहली किस्म नैसर्गिक रूप से हुनरमंद लोगों की होती है। इनमें प्रतिभा पैदाईशी होती है, और एक न एक दिन ये पैदाईशी प्रतिभा तमाम पर्दों के पीछे से भी चमकती हुई दिखाई दे ही जाती है। दूसरे किस्म के वो लोग होते हैं जो शायद हुनरमंद नहीं होते लेकिन स्किल्ड होते हैं। वे लगातार अपनी मेहनत से, अपने जज्बे से, अपनी लगातार कोशिशों से अपने स्किल पर काम करते रहते हैं और उसे निखारते रहते हैं।
आप किस कैटगरी में आते हैं, ये ईमानदारी से समझना बहुत ज़रूरी होता है। (यूं तो आप न भी समझें, और इस बारे में कुछ न भी करें तो दुनिया को इससे कोई बहुत ज़्यादा फ़र्क़ पड़ने वाला है नहीं। इस दुनिया में बहुत अच्छे और बहुत बड़े करोड़ों सुखनवर आते हैं, और एक दिन चले जाते हैं)। लेकिन ये समझना बहुत ज़रूरी है कि आपकी ख़ुशी और आपका संतोष कहां टिकता है। वो कौन सा काम है जो आपको सही मायने में ख़ुशी देता है? वो कौन सी पहचान है जिसपर आपको वाकई फख़्र है?
मैं ये अच्छी तरह जानती हूं कि मैं लिखने की (या ख़ुद को अभिव्यक्त करने की) नैसर्गिक प्रतिभा के साथ पैदा नहीं हुई। मुझसे बेहतर कई और लोग हैं जो लिखें, इसकी वाकई दुनिया को ज़रूरत है। उनका शब्द-चयन बेहतर है। उनके पास विचारों की कमी नहीं। वे अधिकारपूर्ण तरीके से अपनी बात कह सकते हैं और निष्कर्ष देने का भी हक़ रखते हैं। लेकिन ये उनकी अभिव्यक्ति का तरीका है। मैं किस तरह और कितने लंबे समय तक अपनी बातों के सिरे ढूंढने की, उनमें नए ख़्यालों की गिरहें लगाने की कोशिश करती रहती हूं - ये मेरे लिए ज़्यादा अहम है। मुझसे हुनरमंद कई और हैं, इसलिए मुझे कोशिश ही नहीं करनी चाहिए - यही बात दुनिया के हर कलाकार ने कही होती तो हमारे पास कविताओं, कहानियों, नाटकों, फिल्मों, रंगों, शब्दों का भंडार न होता। सोशल मीडिया की ज़रूरत किसी को न पड़ती। हम एक-दूसरे से अपनी बातें कहने और उन्हें सुनने के प्यासे न होते।
ये ज़रूर लगता है अक्सर कि मैं गहरे उतरने से डरती हूं क्योंकि तैरना नहीं आता। इसलिए भी डरती हूं क्योंकि लगता है, डूबने पर मोती मिले न मिले, ज़हरीले सांप और बिच्छू ज़रूर मिलेंगे पानी के भीतर। इसलिए कई-कई महीनों तक पढ़ना छोड़ देती हूं। लिखना बंद कर देती हूं। मैदान छोड़ देना कितना आसान काम है, नहीं?
लेकिन फिर अंदर से कोई कोसता है। किस बात का डर है? अपनी मिडियॉक्रिटी का? किस बात का डर है? और सीखने से डरने का? किस बात का डर है? कि लोग हंसेंगे और कहेंगे कि इसे तो आता भी नहीं कुछ और चली है बड़ी तीसमार खां बनने। किस बात का डर है? कि भीतर और उतरूंगी कि बाहर से कटने लगूंगी?
ऐसे ही डर पाले रहते हैं हम। इन्हीं डरों के साथ जीते हैं, इसलिए सबसे पहले और सबसे आसानी से अपने सच से मुंह मोड़ लेते हैं। ये जो मॉर्निंग पेज है न, उसी डर की आंखों में आंखें डालकर देखने का ज़रिया है। मैं अगले एक महीने में कहां हूं - ये इन्हीं मॉर्निंग पन्नों से, इसी ब्लॉग से पता चल जाएगा। लेकिन फिलहाल तो अगले एक महीने ख़ुद के डर को बाहर निकालकर धीरे-धीरे पानी में घुसने की कोशिश करने जा रही हूं।
जिस दिन ज़िन्दगी के जहाज़ से छलांग लगाकर गहरे समंदर में डुबकी लेने के लिए तैयार हो जाऊंगी, यहीं इसी जगह ये बात रेकॉर्ड भी करूंगी। आज तो एक कहानी लिखनी है, और अपना पहला कॉलम - वो भी अंग्रेज़ी में। वो भी एक इंटरनेशनल वेबसाईट के लिए। देखें कहां तक और कैसे पहुंचते हैं। फिलहाल कल सुबह तक के लिए विदा।
3 टिप्पणियां:
सुबह की शुरुआत इस से बेहतर और क्या पढ़ के हो सकती है?
शुक्रान, जगाने के लिए :)
सुबह की शुरुआत इस से बेहतर और क्या पढ़ के हो सकती है?
शुक्रान, जगाने के लिए :)
इन दिनों अनु जी मेरी हालत भी कुछ ऐसी ही है। लिखने की सोचूं तो लगता है की काफ़ी कुछ है, पर जैसे ही पेन को पकडू तो लगता है की शब्द मुह चिड़ा के भाग रहे है मन से ।
कई लोगों के हिसाब से लिखना बेहद आसान काम है, चार लाइन्स लिख दो भैया और हो गया। पर वो ये नहीं जानते की बात सुकून की होती है जो कभी कभी 4 पन्नें लिखने के बाद भी नहीं मिलती, और कभी कभी चार शब्द को लिखने के बाद मिल जाती है। वही सुकून लिखने के नशे को जिन्दा रखता है ।
बेहद उम्दा लेख लिखा है ।
शुक्रिया ।
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