tag:blogger.com,1999:blog-3618168115936797672024-03-14T13:55:19.070+05:30मैं घुमन्तूक्योंकि पैरों में पहिए हैं और घुमन्तुओं की सोहबत है...Anu Singh Choudharyhttp://www.blogger.com/profile/00504515079548811550noreply@blogger.comBlogger354125tag:blogger.com,1999:blog-361816811593679767.post-82762973543024978592020-04-01T12:11:00.001+05:302020-04-01T12:11:53.243+05:30कोरोना के दिनों में मॉर्निंग पेज भाग ४ <div class="p1" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;">मैंने कल रात कन्टेजियन नाम की एक फ़िल्म देखने की भयंकर ग़लती कर दी. असल ज़िन्दगी में वायरस की भयावहता कम है क्या कि उस पर किताबें पढ़ी जाएं, फ़िल्में देखी जाएं, वो भी लॉकडाउन के दिनों में! लेकिन अमेजॉन प्राइम की ट्रेन्डिंग फ़िल्मों में से है कन्टेजियन. उसी तरह नेटफ़्लिक्स पर भी डिस्टोपिया की फ़िल्में ट्रेन्ड कर रही हैं, सुना है. यानी, हम इंसान सही मायने में मैसोकिस्ट हैं. हमें स्वपीड़न में ही सुख मिलता है. </span></div>
<div class="p2" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; min-height: 14px;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;"></span><br /></div>
<div class="p1" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;">सेल्फ़ आइसोलेशन का आलम ये है कि कचरा निकालने के अलावा पिछले चौदह दिनों में दरवाज़े से बाहर नहीं निकली. बाहर वैसे भी सन्नाटे के अलावा नज़र भी क्या आना है. सूनी सूनी आँखों से सन्नाटा तकते-सुनते लोगों को देखकर मिलेगा भी क्या. कितना लंबा वक़्त काटा होगा सोते हुए ऑटो-टैक्सीवालों ने? भूख लगी होगी तो कहां गए होंगे? फल और सब्ज़ियों के ठेलों पर तो लेटने की जगह भी नहीं होती. उनका पहाड़-सा दिन कैसे कटता होगा? २१ दिनों के पहले चरण के लॉकडाउन का आठवां दिन ही है आज. ऐसे न जाने और कितने दिन काटने होंगे. </span></div>
<div class="p2" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; min-height: 14px;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;"></span><br /></div>
<div class="p1" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;">और नफ़रतें हैं कि कम ही नहीं होती. </span></div>
<div class="p2" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; min-height: 14px;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;"></span><br /></div>
<div class="p1" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;">अपने शहर की एक प्रोबेशनरी आईएएस अफ़सर से बात हो रही थी. कह रही थी कि यहाँ (बिहार में) लोग झूठ बहुत बोलते हैं. ख़ासतौर पर अगड़े, रसूखवाले, ताक़तवर. थ्योरी में जिस तरह के वर्गभेद के बारे में पढ़ा था, ज़मीनी स्तर पर वह अपने सबसे भयानक रूप में दिखाई दे रहा है. अगर कोई ग़रीब पिछड़े वर्ग का इंसान कहीं बाहर से आया है तो उसके लिए दस फ़ोन आ जाएंगे. उसको गाँव से, मोहल्ले से निकालने की सिफ़ारिशें होंगी. लेकिन जिनके पास संसाधन हैं, वे चुपचाप अपने घरों में लुकाए बैठे हैं. मालूम भी नहीं कि वे वायरस के कैरियर हैं या नहीं. जाति और मज़हब के आधार पर वायरस को भी बांट देना कोई हमसे सीखे. </span></div>
<div class="p2" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; min-height: 14px;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;"></span><br /></div>
<div class="p1" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;">ऐसे संकट के दौर में जितनी झूठ और फ़रेब की कहानियाँ हैं, उतने ही मदद के लिए बढ़े हाथ हैं. फंडरेज़िंग, अपने अपने पास के संसाधनों को ज़रूरतमंदों में बांटने की कोशिश, अपने अपने हुनर से दूसरों की मदद करने का जुगाड़, प्रो बोनो काउंसिलिंग, ऑनलाइन स्टैंडअप कॉमेडी, आर्ट, म्युज़िक - कितना कुछ है वहाँ जो उपलब्ध है. </span></div>
<div class="p2" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; min-height: 14px;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;"></span><br /></div>
<div class="p1" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;">बचा रह गया है एक अरमान भी है. वापस घर लौट जाने का अरमान. </span></div>
<div class="p2" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-size: 12px; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; min-height: 14px;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;"></span><br /></div>
Anu Singh Choudharyhttp://www.blogger.com/profile/00504515079548811550noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-361816811593679767.post-22542055599101050592020-03-31T12:31:00.001+05:302020-03-31T12:31:51.149+05:30कोरोना के दिनों में मॉर्निंग पेज भाग ३कोई फ़ोन पर पूछ ले कि दिन कैसे काटती हो, तो मैं हँस देती हूँ।<br />
<br />
ऐसे बेतुके सवाल आदमियों के दिमाग़ में आते कैसे हैं? दिन काटना कहाँ पड़ता है? दिन तो कट जाते हैं। अनदेखे कल को चमकाने में जितनी ऊर्जा लगती है, उसकी आधी ऊर्जा भी फ़र्श और सिंक में पड़े बर्तनों को चमकाने में लगा दिया जाए तो आधा दिन यूँ भी कट जाता है। बाकी का दिन मशीन से कपड़े निकालकर बालकनी में, फिर बालकनी से उतारकर, सोफे पर, फिर सोफे से उतारकर आयरनिंग टेबल पर, फिर आयरनिंग टेबल से अलमारियों में डालने में गुज़र जाता है। जिस लॉकडाउन के लंबे-लंबे ऊबे हुए दिनों को काटने की फ़िक्र में रातों की नींद जाने लगी है, उस लॉकडाउननुमा जीवन के लिए तो हाउसवाइफ़री औरतों को रोज़ तैयार करती रही है। <br />
<br />
'बहुत लिखती होगी इन दिनों के' के तंज़ पर माथा फोड़ लेने का जी करता है। सारी दुनिया के लिए राईटर बन जाने का यही सही समय है, और सारे राईटरों के लिए लिखना छोड़ देना का इससे माक़ूल कोई मौक़ा नहीं।<br />
<br />
ये मौक़ा कई और आदतों को तोड़ देने का है। आस-पास की आदतें धराशायी होने लगी हैं अपनेआप।<br />
<br />
माँ ने छठ का व्रत रखा, लेकिन घाट नहीं गई। बेटी-बेटे ने होमवर्क कर लिया लेकिन अपना बैग नहीं खोला, न उछल उछलकर इस बात की घोषणा की। तीन साल की भतीजी ने अपने जूते पहन लिए लेकिन बाहर निकलने की ज़िद नहीं की। मैंने अपनी कहानियाँ पूरी कर लीं लेकिन संपादक को नहीं भेजा। लोगों ने यात्राएँ शुरु कर दीं लेकिन घर नहीं पहुँचे। कोयल ने कूकना बंद कर दिया लेकिन दूर नीचे खिले बसंत के फूलों की रंगत नहीं उतरी। Anu Singh Choudharyhttp://www.blogger.com/profile/00504515079548811550noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-361816811593679767.post-48626526034719422472020-03-25T09:53:00.001+05:302020-03-25T09:53:43.294+05:30कोरोना के दिनों में मॉर्निंग पेज भाग दो <div class="p1" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;">प्ले लिस्ट तैयार हो गई है। साढ़े छह बजे से ही उठकर झाड़ू-पोंछा कर चुकी हूँ। नहाना-धोना, मेडिटेशन सब हो गया। </span></div>
<div class="p2" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; min-height: 14px;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;"></span><br /></div>
<div class="p1" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;">और धूप है कि अभी बालकनी के एक ही कोने में टंगी हुई है, सिर पर चढ़ी ही नहीं। </span></div>
<div class="p2" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; min-height: 14px;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;"></span><br /></div>
<div class="p1" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;">हम कुछ छह लोग हैं मुंबई में साढ़े तीन कमरों वाले इस अपार्टमेंट में। इस कमरे से उस कमरे भटकने की दर प्रति दो व्यक्ति प्रति पंद्रह मिनट की रहे तब भी कोई न कोई कोना खाली मिल ही जाता है। जानती हूँ कि ख़ुशकिस्मत हूँ। इसलिए भी कि मेरे अलावा इस लॉकडाउन में पाँच जने और हैं इस घर में। इसलिए भी कि एक ही कमरे में दसियों के बीच पैर फैलाने की मारामारी नहीं हो रही। इसलिए भी कि हमारे पास एक ठिया है, जहाँ से भागने की कोई ज़रूरत नहीं। वरना सुबह सुबह फ़ोन पर पतिदेव ने जयपुर से बिहार के लिए पैदल निकल पड़े दस बिहारी मजदूरों की स्टोरी फॉरवर्ड की तो दिमाग़ भन्ना गया। </span></div>
<div class="p2" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; min-height: 14px;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;"></span><br /></div>
<div class="p1" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;">सच तो ये है कि इंसान को बीमारी से डर नहीं लगता। मरने से भी शायद ही लगता हो। डर तो ग़ैरयक़ीनी सूरत-ए-हाल से लगता है। डर तो अनिश्चितताओं से भरे इस काल से लगता है। </span></div>
<div class="p2" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; min-height: 14px;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;"></span><br /></div>
<div class="p1" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;">चौदहवीं मंज़िल की बालकनी से टंगकर सामने दूर महिन्द्रा क्लब के बग़ल की थोड़ी सी खुली ज़मीन पर खिले बसंत रानी के गाछों को घूरने के बाद वापस लौट आती हूँ। इसी बालकनी से ठीक तेरह-चौदह माले ऊपर एक सुपरस्टार ने लटकर अपने इंस्टाग्राम पर एक तस्वीर के साथ टूटी-फूटी कविता पोस्ट की थी तो उसे एक मिलियन से ऊपर लाइक्स मिले थे। बग़ल के अपार्टमेंट की खिड़की पर एक बुज़ुर्ग रिटायर्डनुमा अंकल बैठकर धूप सेंक रहे हैं। उनकी टीवी से न्यूज़ चीख रहा है, जिसमें शायद न उनकी दिलचस्पी है न टीवी के सामने बैठकर आलू छीलती उनकी पत्नी को। उस शोर से बचने की कोशिश में उनकी बेटी बालकनी पर बैठी हुई ऑफ़िस के किसी कॉन कॉल पर बात कर रही है। हम सब बालकनी के बाशिंदे हो गए हैं। बालकनी हमारी आउटिंग है, बालकनी हमारी शरणस्थली। बालकनी हमारी तन्हाई का साथी, बालकनी हमारी कविताओं का म्यूज़। </span></div>
<div class="p2" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; min-height: 14px;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;"></span><br /></div>
<div class="p1" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;">बालकनी की ओर बढ़ती हूँ क्योंकि आज के अनर्गल प्रलाप का कोई हासिल नहीं, और ये तो इक्कीस दिनों के लॉकडाउन का पहला ही दिन है। </span></div>
<div class="p2" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; min-height: 14px;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;"></span><br /></div>
<div class="p2" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; min-height: 14px;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;"></span><br /></div>
<div class="p2" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; min-height: 14px;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;"></span><br /></div>
<div class="p1" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
<br /></div>
Anu Singh Choudharyhttp://www.blogger.com/profile/00504515079548811550noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-361816811593679767.post-84470466383896715012020-03-24T07:31:00.004+05:302020-03-24T07:31:40.881+05:30कोरोना के दिनों में मॉर्निंग पेज भाग १<div class="p1" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;">यहाँ डायरी लिखने, औऱ फिर लिखकर पब्लिश करने की आदत तो कब की जाती रही। न जाने कौन से वे दिन थे जब मैं अपने दिल की सारी खट्टी-मीठी, अच्छी-बुरी बातें यहाँ लिख दिया करती थी। न किसी के कॉमेन्ट की चिंता थी, न पढ़े जाने का डर। </span></div>
<div class="p2" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; min-height: 14px;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;"></span><br /></div>
<div class="p1" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;">उन दिनों मैं एक माँ की तरह, एक औरत की तरह लिख रही थी। अब मैं एक राईटर की तरह लिखने लगी हूँ। उंगलियाँ कीबोर्ड पर उतरीं नहीं कि कंधे पर ये डर सवार हो जाता है कि लोग न जाने क्या कहेंगे। पाठकों की प्रतिक्रिया न जाने कैसी होगी। </span></div>
<div class="p2" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; min-height: 14px;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;"></span><br /></div>
<div class="p1" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;">लोग गूगल भी तो करने लगे हैं मुझे। ख़ुद की पहचान का इस तरह पब्लिक हो जाना कि आपको आपसे ज़्यादा दूसरे समझने, और उस बहाने आपके बारे में राय बनाने का दावा करने लगें तो समझ लीजिए कि राइट टू प्राइवेसी के हनन का जिस ख़तरनाक रास्ते पर हम जाने-अनजाने दस-बारह साल चल पड़े थे, वे रास्ते हमें ही लौट-लौटकर डराने लगे हैं। </span></div>
<div class="p2" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; min-height: 14px;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;"></span><br /></div>
<div class="p1" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;">लेकिन आज की डायरी के इस पन्ने के यहाँ लिखे जाने का मसला ये नहीं है। आज यहाँ आकर डायरी लिखने की वजह बस ये है कि मुझे मेरे डर सताने लगे हैं। ठीक वही डर जिनकी वजह से एक दशक पहले मैंने यहाँ आकर अपनी बातें, अपने डर, अपनी उम्मीदों को रिकॉर्ड करना शुरू किया था। </span></div>
<div class="p2" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; min-height: 14px;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;"></span><br /></div>
<div class="p1" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;">मर जाने का डर सबसे बड़ा होता है। उससे भी बड़ा डर होता है डरते-डरते मर जाने का डर। और सबसे बड़ा डर होता है नाख़ुश, नाराज़ मर जाने का डर। </span></div>
<div class="p2" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; min-height: 14px;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;"></span><br /></div>
<div class="p1" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;">मुझे यही डर फिर से सताने लगा है। और इसलिए यहाँ आकर इन पन्नों पर ये डर दर्ज कर रही हूँ, इस उम्मीद में कि मेरे बच्चे, या मेरा कोई दोस्त, कोई अज़ीज़, या फिर बची हुई नस्ल में बचा रह गया हिंदी का कोई पाठक, मेरे बाद इन पन्नों में कुछ ढूँढने चले तो उसे इस वक़्त की उथल-पुथल और नाख़ुश मर जाने के डर के अलावा थोड़ी सी उम्मीद, थोड़ी सी इंसानियत, थोड़ी सी एक माँ और थोड़ी सी एक औरत भी नज़र आए। </span></div>
<div class="p2" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; min-height: 14px;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;"></span><br /></div>
<div class="p1" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;">सुबह के सात बज रहे हैं और डायनिंग टेबल के जिस कोने पर बैठी मैं अपनी डायरी लिख रही हूँ, वहाँ तक सूरज की किरणें सीधी पहुंचती हैं। मेरी उनींदी आँखें अपने आप चुंधियाने सी लगी हैं। कई दिन हुए, मुझे सुबह की ऐसी धूप में बैठने की आदत नहीं रही। लेकिन अब विटामिन डी को इम्युनिटी के लिए ज़रूरी बताया जा रहा है, और इम्युनिटी न रही तो कोरोना कहाँ से कब धर ले, इसका ठीक-ठीक अंदाज़ा पूरी मेडिकल दुनिया को नहीं, इसलिए चुपचाप धूप में आ बैठना ही अच्छा है। </span></div>
<div class="p2" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; min-height: 14px;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;"></span><br /></div>
<div class="p1" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;">बाहर कर्फ्यू लगा है। अंदर बेइंतहा डर क़ायम है। बेटी खाने के लिए योगर्ट माँगती है तो मैं उसे डाँट देती हूँ। जो है उसी में काम चलाओ। न जाने ये कल मिले न मिले। ये सच है कि हमारी रसोई में तो फिर भी दूध, सब्ज़ी, दाल, चावल, आटा बाक़ी है अभी। ये भी सच है कि अगर कुछ और हफ़्ते घर में बैठना पड़ा तो दाल-चावल के लाले नहीं पडेंगे। हम ख़ुशकिस्मत हैं, और अरियाना हफ़िंग्टन, ओपरा विनफ्रे और दीपक चोपड़ा जैसे इमोशन और स्पिरिचुअल गुरु हमें इसी ख़ुशकिस्मती पर बीस सेकेंड तक हाथ धोते हुए शुक्रगुज़ार होने की सलाह देते रहते हैं। </span></div>
<div class="p2" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; min-height: 14px;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;"></span><br /></div>
<div class="p1" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;">लेकिन बाक़ी की दुनिया का क्या? जिनके डब्बे आने बंद हो गए उनका क्या? जिनकी रोज़ी पर अनिश्चितकाल के ताले पड़ गए, उनका क्या? जिनकी दिहाड़ी से उनका घर चलता था, उनका क्या? जिन्होंने डर के बारे हज़ारों हज़ार की तादाद में अपने गाँव के लिए ट्रेनें लीं - उन गाँवों के लिए, जहाँ न अब खेती होती है, न मज़दूरी के अवसर मिलते हैं - उनका क्या? </span></div>
<div class="p2" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; min-height: 14px;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;"></span><br /></div>
<div class="p1" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;">कहा जा रहा है कि कुदरत ने हमें स्लोडाउन करने के लिए ये रास्ता अपनाया। क्या कुदरत ये नहीं जानती कि सज़ा से भारी सज़ा की मियाद और सज़ा के नतीजे होते हैं? </span></div>
<div class="p2" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; min-height: 14px;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;"></span><br /></div>
<div class="p1" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;">माँ ये भी कहती रहती है कि जिस अपार, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी ईश्वर ने हमें ये आपदा दी है, वही हमें हिम्मत भी देगा, और माफ़ी भी। मुझे अब उस सर्वशक्तिमान पर शंका होने लगी है। </span></div>
<div class="p2" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; min-height: 14px;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;"></span><br /></div>
<div class="p1" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;">फिर कोई कहता है, सरकार की ज़िम्मेदारी है। प्रशासन की ज़िम्मेदारी है। इसलिए कर्फ्यू है, लॉकडाउन है। सरकार पर तो ख़ैर अभी ही नहीं, पहले भी विरले ही भरोसा था। </span></div>
<div class="p2" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; min-height: 14px;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;"></span><br /></div>
<div class="p1" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;">बस एक ही भरोसा है जो क़ायम है। इंसानियत पर। एक-दूसरे पर। अपने आस-पास के लोगों पर। अपने परिवार पर। अपने आप पर। </span></div>
<div class="p2" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; min-height: 14px;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;"></span><br /></div>
<div class="p1" style="-webkit-text-stroke-color: rgb(0, 0, 0); font-family: "Helvetica Neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
<span class="s1" style="font-kerning: none;">अपनी तमाम नाख़ुशियों और नाराज़गी, और ऐसे ही मर जाने के डर के बाद भी हम अपने सबक सीखकर अपने जीने के तौर-तरीके बदल देंगे, इस बात का भरोसा है। जब तक ज़िंदा हैं, हर रोज़ उठकर विटामिन डी लेते हुए टू-डू लिस्ट और योजनाओं की डायरी </span>की चिंदियाँ उड़ाते हुए ख़ुद को भविष्य के बोझ से आज़ाद कर देंगे, इस बात का भरोसा है। </div>
<div style="height: 0px;">
<br /></div>
Anu Singh Choudharyhttp://www.blogger.com/profile/00504515079548811550noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-361816811593679767.post-22510087530589810732019-02-07T18:34:00.000+05:302019-02-07T18:34:01.340+05:30बोलो इतने दिन क्या किया?
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p.p1 {margin: 0.0px 0.0px 0.0px 0.0px; font: 14.0px 'Helvetica Neue'; -webkit-text-stroke: #000000}
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span.s1 {font-kerning: none}
</style>
<br />
<div class="p1">
<span style="-webkit-text-stroke-width: initial; font-size: small;">मुझसे ठीक दस फ़ुट की दूसरी पर डाइनिंग टेबल है। टेबल पर बेतरतीबी से बिखरी हुई कई चीज़ों में मेरा एक वॉलेट भी शामिल है, जिसके हालात उसकी मुफ़लिसी का बयां करने के लिए बहुत है। लेकिन मेरा आज का ये दुखड़ा उस पर्स के नाम नहीं है। मेरा आज का ये दुखड़ा मेज़ के ठीक बीच-ओ-बीच बड़े प्यार से रखे गए स्टील के एक डिब्बे का है, जिसमें नारियल के कुछ लड्डू पड़े हैं। अब सवाल ये है कि नारियल के लड्डुओं का रोना कोई कैसे रो सकता है। लेकिन मैं इस पन्ने पर उन्हीं लड्डुओं का रोना रोने वाली हूँ। हमारी (वु)मैन फ्राइडे (एंड एवरीडे) अनीता ने उस एक डिब्बे में लड्डू क्या रख दिए, मेरे ख़ुद से किए हुए कई वादे उन्हीं लड्डुओं की तरह मेरे ही दाँतों तले चूर-चूर होकर मेरे ही हलक से उतरकर मेरे ही डाइजेस्टिव सिस्टम का अभिन्न हिस्सा बनते जा रहे हैं। </span></div>
<div class="p2">
<span style="font-size: small;"><span class="s1"></span><br /></span></div>
<div class="p1">
<span class="s1"><span style="font-size: small;">ख़ुद से किए हुए असंख्य वादों में से एक चीनी न खाने का वायदा था। और एक वायदा था पर्सनल राइटिंग न करने का। </span></span></div>
<div class="p2">
<span style="font-size: small;"><span class="s1"></span><br /></span></div>
<div class="p1">
<span class="s1"><span style="font-size: small;">दोनों वायदों के पीछे की कहानी मुझे ठीक-ठीक ध्यान नहीं, कि ये समझते समझते समझ में आया होगा शायद कि अत्यधिक चीनी की तरह ही अत्यधिक पर्सनल होकर यहाँ इस ब्लॉग पर सबकुछ उगल देना मेरी बढ़ती उम्र और गिरती सेहत दोनों के हित में नहीं। मुझे विरासत में डायबिटिज़ मिली, और इस ब्लॉग के माध्यम से इंटरनेट और बाद में लेखन की दुनिया में मिली शोहरत अपनी कमाई हुई थी। दोनों मेरी ज़िन्दगी में बहुत धीरे-धीरे साल २०१४ से आने लगे थे। २०१४ में मेरी पहली किताब छपी, २०१५ में दूसरी। २०१६ तक आते-आते मेरी ज़िन्दगी मेरे नियंत्रण से बाहर जा चुकी थी। ब्लड शुगर के साथ-साथ बीपी का गहरा रिश्ता है, और दोनों का उससे भी गहरा रिश्ता तनाव से है। और तनाव का सबसे गहरा रिश्ता ‘डिनायल’ से है। आप चाहें तो अपनी पिछली पीढ़ी की तरह अपनी पूरी ज़िन्दगी इस तरदीद में निकाल सकते हैं कि आपको किसी किस्म की तकलीफ़ है, और आपकी ये कमबख़्त तकलीफ़ आपकी अपनी ही बोई और उगाई हुई है। </span></span></div>
<div class="p2">
<span style="font-size: small;"><span class="s1"></span><br /></span></div>
<div class="p1">
<span class="s1"><span style="font-size: small;">मैं भी इसी तरदीद में हूँ पिछले दो-चार सालों से। ये ज़िन्दगी मेरी अपनी चुनी हुई है। यहाँ के दोस्त-दुश्मन, रिश्ते-नाते, भाई-बंधु सब अपने बनाए हुए हैं। यहाँ तक कि अपनी चुनी हुई तन्हाईयाँ भी हैं। ये सच है कि जितनी ही तेज़ी से मैं लिखती जा रही थी, फैलती जा रही थी, उतनी ही तेज़ी से ख़ुद को दुनिया से काटती भी जा रही थी। ये भी मेरा अपना फ़ैसला था। </span></span></div>
<div class="p2">
<span style="font-size: small;"><span class="s1"></span><br /></span></div>
<div class="p1">
<span class="s1"><span style="font-size: small;">और मैं अकेली इस तरदीद में नहीं हूँ। यहाँ वहाँ लिखते-फैलते-बिखरते हुए एक मैं ही तन्हां नहीं हुई हूँ। इंटरनेट के सर्च इंजन ने हमें हर वर्चुअल स्पेस में जगह दे दी है, हमारी एक नहीं, कई-कई प्रोफ़ाइल्स हैं। एक नहीं कई ज़रिए हैं कि एक-दूसरे की ख़बर ली जा सके। और फिर भी हम तन्हां हैं। जितना ज़्यादा लिखती जा रही हूँ, उतना ही ज़्यादा बोलने-बात करने के लिए कुछ नहीं रह गया। जितने अलग-अलग माध्यमों और डेडलाइन्स और किताबों और स्क्रिप्टों और प्रोजेक्टों में ख़ुद को बाँट दिया है, उतनी ही कम कहानियाँ हैं अब मेरे पास। जितने ही ज़्यादा लोग मुझे पहचानने लगे हैं, उतने ही कम दोस्त हो गए हैं। जितना ही ज़्यादा शुगर पर कंट्रोल करने की कोशिश की है, उतना ही ज़्यादा कमज़ोर महसूस किया है ख़ुद को। </span></span></div>
<div class="p2">
<span style="font-size: small;"><span class="s1"></span><br /></span></div>
<div class="p1">
<span class="s1"><span style="font-size: small;">तो इसलिए दोस्त, ये न पूछना कि इतने दिनों कहाँ रही और क्या किया। सारे नारियल के लड्डू खा जाने की ख़्वाहिश संभालने के अलावा कैरियर में आगे बढ़ने की कोशिश कर रही हूँ। बच्चों को दूर पहाड़ पर भेजकर एक नए शहर में अपना घर बनाने की कोशिश कर रही हूँ। कई कई अनदेखे मेसेज का जवाब देने के बीच आधी-अधूरी कहानियाँ पूरी करने की कोशिश कर रही हूँ। सो, बीआरबी!</span></span></div>
<div class="p2">
<span style="font-size: small;"><span class="s1"></span><br /></span></div>
<div class="p2">
<span style="font-size: small;"><span class="s1"></span><br /></span></div>
<div class="p2">
<span style="font-size: small;"><span class="s1"></span><br /></span></div>
<div style="height: 0px;">
<br />x</div>
Anu Singh Choudharyhttp://www.blogger.com/profile/00504515079548811550noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-361816811593679767.post-88392369752611530102019-02-02T22:54:00.001+05:302019-02-02T22:54:17.130+05:30फ़ेसबुक से अफ़ेयर और ब्रेकअप की एक दास्तान
<style type="text/css">
p.p1 {margin: 0.0px 0.0px 0.0px 0.0px; font: 17.0px 'Helvetica Neue'; -webkit-text-stroke: #000000}
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span.s1 {font-kerning: none}
</style>
<br />
<div class="p1">
<span style="-webkit-text-stroke-width: initial;"><span style="font-family: Georgia, Times New Roman, serif; font-size: small;">2008 में किसी एक ऊबी हुई-सी दोपहर को मैंने ‘फ़ेसबुक’ गूगल किया, उनके वेबसाईट पर गई, एक अकाउंट क्रिएट किया और वहीं एक पोस्ट छोड़ दी: "आई एम हियर टू” - मैं भी यहीं हूँ. देखते ही देखते पहले आठ फ्रेंड रिक्वेस्ट आए, और फिर बीस-पच्चीस, अठतीस, अठहत्तर, एक सौ बारह... <br /><br />ये सारे अपने लोग थे - बिछड़े हुए कुछ दोस्त, अपने ही ममेरे-फूफेरे-चचेरे भाई-बहन, पुराने दफ़्तर के कुछ सहयोगी, और कुछ अड़ोसन-पड़ोसन, जिनसे मैं पार्क में अपने बच्चों को घुमाते हुए मिला करती थी. औरों की बनिस्पत मैं फ़ेसबुक पर देर से आई थी. फ़ेसबुक तो 2004 में ही लॉन्च हो गया था, और कुछ ही हफ़्तों के भीतर भारत की वाई2के पीढ़ी के बीच ख़ूब लोकप्रिय भी हो गया था. दफ़्तर में सिस्टम के खुलते ही फ़ेसबुक खुल जाया करता, और उसके साथ ही पोकिंग और एक-दूसरे के पन्नों पर कमेन्टिंग का सिलसिला शुरू हो जाता. </span></span></div>
<div class="p2">
<span style="font-family: Georgia, Times New Roman, serif; font-size: small;"><span class="s1"></span></span></div>
<div class="p1">
<span class="s1"><span style="font-family: Georgia, Times New Roman, serif; font-size: small;">मेरे पास फ़ेसबुक पर शेयर करने के लिए कुछ नहीं था, सिवाय उन तन्हां लम्हों के, जब आप अपनी अदद-सी नौकरी को छोड़कर घर में बैठे हुए अपने बच्चों के बड़े होने के इंतज़ार में महसूस किया करते हैं. तस्वीरें भी बच्चों की ही थीं, कहानियाँ भी बच्चों की ही थी. तब वे दो साल के थे और मेरे पास उनकी शरारतों के हजार क़िस्से, और उतनी ही तस्वीरें थीं. <br /><br />और मैं अकेली नहीं थी. धीरे-धीरे फ़ेसबुक के ज़रिये मैं उन माँओं के बारे में जानने और पढ़ने लगी जिन्होंने बच्चों की परवरिश के लिए अपना कैरियर छोड़ा था. कोई केक बेक कर रही थी, तो किसी ने फ़ोटोग्राफ़ी के शौक़ को संजीदगी से लेना शुरू कर दिया था. मेरे जैसे कई माँएँ ऐसी भी थीं जिनके पास शब्दों के अलावा कुछ और नहीं था, इसलिए फ़ेसबुक पर ही अपनी आड़ी-तिरछी कविताएँ, लेख, छोटी कहानियाँ और संस्मरण लिखकर अपने गुबार निकाल रही थीं. </span></span></div>
<div class="p2">
<span style="font-family: Georgia, Times New Roman, serif; font-size: small;"><span class="s1"></span><br /></span></div>
<div class="p1">
<span class="s1"><span style="font-family: Georgia, Times New Roman, serif; font-size: small;">मेरे लिए फ़ेसबुक ने ऐसे ही लोगों के जुड़ने का रास्ता खोल दिया. वो दौर ब्लॉगिंग का भी था, तो जिसके ब्लॉग पढ़ा करते थे, फ़ेसबुक पर उनसे जुड़ते भी चले गए. फ़ेसबुक एक किस्म का इक्वलाइज़र था: सबको एक-से धरातल पर ले आनेवाला. जो दफ़्तर में बॉस हुआ करते थे, सीनियर हुआ करते थे, यहाँ तक कि हमारी नज़रों में सेलीब्रिटी हुई करते थे, फ़ेसबुक ने उनकी दुनिया हमारे सामने उघेड़ कर रख थी. हम हैरान थे कि हम सबके डर और हमारी तकलीफ़ें, हमारी असुरक्षा और थोड़ी-सी वाहवाही पाने की हमारी चाहत कितनी तो एक-सी है. <br /><br />फ़ेसबुक ने सोशल हायरेकी पूरी तरह से मिटा दिया. सिक्स डिग्री ऑफ़ सेपरेशन (यानी, सभी जीवित इंसानों का महज छह स्टेप की दूरी में ‘फ्रेंड’ का ‘फ्रेंड’ होना) हंगेरियन बुद्धिजीवी फ्रिग्ये कारिंटी की एक कोरी कल्पना और सैद्धांतिक थ्योरी भर नहीं रही. दुनिया वाकई में सिमटने लगी थी और इसके लिए मुझे और आपको किसी कोलंबिया यूनिवर्सिटी या किसी एमआईटी के भारी-भरकम शोध को समझने की कतई ज़रूरत नहीं थी. <br /><br />इसलिए क्योंकि एक मार्क ज़करबर्ग और उनकी टीम ने ये बात क्रैक कर ली थी कि वाकई दुनिया को इस बात का न सिर्फ़ यकीन दिलाया जा सकता है कि वे एक बिल क्लिंटन या एक जॉर्ज बुश या एक बराक ओबामा से न सिर्फ़ छह स्टेप्स की दूरी पर हैं, बल्कि ये बात सफलतापूर्वक साबित भी की जा सकती है. दो-चार बड़ी सेलीब्रिटीज़ के मेरी फ्रेंड लिस्ट में आते ही मुझे भी इस थ्योरी पर पक्का यकीन हो गया. </span></span></div>
<div class="p2">
<span style="font-family: Georgia, Times New Roman, serif; font-size: small;"><span class="s1"></span><br /></span></div>
<div class="p1">
<span class="s1"><span style="font-family: Georgia, Times New Roman, serif; font-size: small;">फ़ेसबुक न सिर्फ़ अभिव्यक्ति का, या लोगों से जुड़ने का ज़रिया था, बल्कि मेरे जैसे लोगों के लिए तो अवसरों का ख़ज़ाना भी था. और ये ख़ज़ाना फ़ेसबुक पर ही इतना बड़ा था कि मुझे तो ट्विटर तक जाने की ज़रूरत भी नहीं हुई. मेरी पोस्ट पर न सिर्फ़ लोगों के कमेंट आने लगे बल्कि यहाँ-वहाँ लिखने के अवसर भी मिलने लगे. <br /><br />फ़ेसबुक और ब्लॉग पर लिखते-लिखते तो मैं कहानियाँ भी लिखने लगी, और छपने भी लगी. बाकी अवसरों का तो क्या ही कहना! मुझे ये अच्छी तरह याद है कि मैं बहुत दिनों से अनुवाद के कुछ काम के लिए एक बड़ी पब्लिशर से संपर्क साधने की कोशिश कर रही थी. कई महीनों की मशक्कत के बाद जब आख़िरकार मिलने का मौक़ा मिला तो उन्होंने मुझसे कहा, “तुम्हारे बच्चे बहुत प्यारे हैं. फ़ेसबुक पर तस्वीरें देखी हैं मैंने. उन्हें मेरी ओर से बहुत प्यार देना.” <br /><br />यानी, थैंक्स टू फ़ेसबुक, पर्सनल और प्रोफ़ेशनल - सब गड्डमड्ड हो गया था. बिज़नेस नेटवर्किंग की एक मीटिंग में मैंने एक मैनेजमेंट कन्सलटेंट को यहाँ तक कहते सुना कि आप सोशल मीडिया, ख़ासकर अपने फ़ेसबुक पर, क्या पोस्ट कर रहे हैं, उसका ख़्याल रखिए क्योंकि आप लगातार अपने पोटेन्शियल रेक्रूटर्स (या इन्वेस्टर्स या क्लायंट) की निगरानी में हैं.</span></span></div>
<div class="p2">
<span style="font-family: Georgia, Times New Roman, serif; font-size: small;"><span class="s1"></span><br /></span></div>
<div class="p1">
<span class="s1"><span style="font-family: Georgia, Times New Roman, serif; font-size: small;">आप निगरानी में हैं. यू आर अंडर सर्वेलेंस. जॉर्ज ऑरवेल ने अपनी किताब ‘1984’ जिस ‘बिग ब्रदर’ की परिकल्पना की थी उसकी आँखें और हम सबमें उग आयी थीं और उसके दिमाग़ का ख़ुराफ़ात हमारी ज़रूरत बन गया था. फ़ेसबुक, और फ़ेसबुक ही क्यों, सोशल मीडिया पर रहते-रहते हम सब स्टॉकर्स की एक ऐसी पीढ़ी में तब्दील होते जा रहे थे जिसके पास दूसरों के पेज पर जाकर पोक करने, एक-दूसरे के इन्बॉक्स में उलटे-सीधे मेसेज छोड़ने, अपनी-अपनी ढफली लिए अपने-अपने राग अलापने, और दुनिया की तमाम सारी चीज़ों की ओर उंगली उठाते हुए सारे ठीकरे दूसरों के माथे फोड़ने की दुर्व्यसन के हद तक की आदत बन चुकी थी. और इसका न सिर्फ़ फ़ेसबुक ने, बल्कि हम जैसे लोगों की तरह नकली कहानियाँ बेचनेवालों से लेकर असली सत्ताओं की कुर्सियाँ बेचने और खरीदनेवालों तक ने ख़ूब फ़ायदा उठाया. </span></span></div>
<div class="p2">
<span style="font-family: Georgia, Times New Roman, serif; font-size: small;"><span class="s1"></span><br /></span></div>
<div class="p1">
<span class="s1"><span style="font-family: Georgia, Times New Roman, serif; font-size: small;">फ़ेसबुक की सीनियर मैनेजमेंट और फ़ाउंडिंग टीम के एक एक्स-एक्ज़ीक्यूटिव शॉन बेकर ने पिछले साल एक सार्वजनिक मंच से कहा, “सोशल वैलिडेशन का ये एक फ़ीडबैक लूप है... ठीक उसी तरह का लूप जो मेरे जैसा एक हैकर इसलिए बनाता है ताकि इंसानी मनोविज्ञान की कमज़ोरियों का ज़्यादा से ज़्यादा शोषण कर सके.” ये वही शॉन बेकर थे जिन्होंने 2004 में फ़ेसबुक शुरू होने के पाँच महीने बाद ही टीम ज्वाइन की और ज़करबर्ग ने जिनके लिए कहा कि “फ़ेसबुक को एक कॉलेज प्रोजेक्ट से एक रियल कंपनी बनाने में बेकर ने अहम भूमिका निभाई है”। ये वही बेकर थे जो फ़ेसबुक की बदौलत अरबपति बने थे, और इतने ही सफल हो गए ‘ग्लोबल पब्लिक हेल्थ’ के क्षेत्र में काम करने लगे (और इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि करोड़ों इंसानों के दिमाग़ पर काबिज़ होने के बाद अब दुनिया की सेहत बनाने में योगदान दे रहे हैं!) </span></span></div>
<div class="p2">
<span style="font-family: Georgia, Times New Roman, serif; font-size: small;"><span class="s1"></span><br /></span></div>
<div class="p1">
<span class="s1"><span style="font-family: Georgia, Times New Roman, serif; font-size: small;">बहरहाल, फ़ेसबुक कंपनी के भीतर से निकली असहमतियों और विरोध, नाराज़गी और नाइत्तिफ़ाकी की ये इकलौती आवाज़ नहीं है. फ़ेसबुक के यूज़र ग्रोथ के पूर्व वाइस प्रेसिडेंट रहे चमथ पालिहापितिया ने कहा कि उन्हें इस बात का गहरा पछतावा (‘गिल्ट’) है कि उन्होंने ऐसे “औज़ारों पर काम किया जो समाज की सामाजिक संरचना को ही तहस-नहस कर रही है. और इसका रिश्ता सिर्फ़ उन रूसी विज्ञापनों से नहीं है. ये एक ग्लोबल समस्या है. यहाँ तो वही समाज की वही नींव खोखली हो रही है जहाँ लोग एक-दूसरे से पेश आते हैं”. एक नहीं बल्कि फ़ेसबुक में काम करनेवाले ऐसे कई टॉप एक्ज़ीक्यूटिवों के बयान सामने आए जिसमें उन्होंने कहा था कि उनके अपने घरों में फ़ेसबुक का इस्तेमाल करने पर पाबंदी है.</span></span></div>
<div class="p2">
<span style="font-family: Georgia, Times New Roman, serif; font-size: small;"><span class="s1"></span><br /></span></div>
<div class="p1">
<span class="s1"><span style="font-family: Georgia, Times New Roman, serif; font-size: small;">लेकिन ये भी सच था कि फ़ेसबुक की ही बदौलत मेरी पहली किताब ‘नीला स्कार्फ़’ की छपने से पहले ही तकरीबन दो हजार कॉपियाँ प्रीबुक हो गईं (और ये हिन्दी प्रकाशन की दुनिया में एक किस्म की अद्भुत घटना थी). ये फ़ेसबुक की ही बदौलत था कि मेरे पास लगातार अवसरों का ताँता लग रहा था - मैं अपने कैरियर के शिखर पर थी. फ़ेसबुक से मिली एक पहचान की बदौलत एक अख़बार से जुड़ने का मौक़ा मिला जिसके लिए रिपोर्टिंग करते हुए मुझे गोएनका और लाडली जैसे सम्मानित अवॉर्ड तक मिल गए. फ़ेसबुक की वजह से ही मेरे पास एक बड़ा पाठक वर्ग था, चाहनेवाले लोग थे, मेरी पहचान थी, मेरी वाहवाहियाँ थीं. फ़ेसबुक की वजह से ही मेरे पास मीडिया का एक बड़ा नेटवर्क भी था. दोस्त तो ख़ैर थे ही. फ़ेसबुक मेरे डेटाबैंक भी था. पिछले दस सालों की ज़िन्दगी का लेखा-जोखा था वहाँ. ब़कायदा तस्वीरों के साथ. </span></span></div>
<div class="p2">
<span style="font-family: Georgia, Times New Roman, serif; font-size: small;"><span class="s1"></span><br /></span></div>
<div class="p1">
<span class="s1"><span style="font-family: Georgia, Times New Roman, serif; font-size: small;">तो फिर ऐसा क्या हुआ कि दिसंबर की एक सुबह मुझपर जैसे कोई फ़ितूर सवार हुआ और मैंने अपना फ़ेसबुक अकाउंट डिएक्टिवेट कर दिया? </span></span></div>
<div class="p2">
<span style="font-family: Georgia, Times New Roman, serif; font-size: small;"><span class="s1"></span><br /></span></div>
<div class="p1">
<span class="s1"><span style="font-family: Georgia, Times New Roman, serif; font-size: small;">उसके पीछे दो मूल और दो गौण कारण थे: मैं रात-रात जगकर नोटिफ़िकेशन के इंतज़ार की बुरी आदत की वजह से ज़ाया होने लगी थी. कई सालों तक रात में अधपकी नींद में उठकर अपने पेज का ट्रैफ़िक देखना, अपने पोस्ट पर का ट्रैक्शन देखना, और उससे ख़ुद को लगातार ‘जज’ करने से मैं आजिज़ हो चुकी थी. <br /><br />और दूसरा कारण ये था कि आस-पास का वर्चुअल शोर मेरे आत्मविश्वास की धज्जियाँ उड़ा रहा था. मैं तनाव में थी, डिप्रेस्ड थी, अकेली थी, परेशान थी, हारी हुई थी. लेकिन फ़ेसबुक पर मैं रोल मॉडल थी (अब तो और भी ज़्यादा क्योंकि मेरे मम्मी-पापा समेत मेरे मायके-ससुराल के रिश्तेदारों की पूरी फौज मुझे मैग्निफाइंग लेंस लगाकर फ़ेसबुक पर देख रही थी). मैं दो ज़िन्दगियाँ जीते-जीते थक गई थी. और दो गौण कारण ज़ाहिर है, वैसी न्यूज़ रिपोर्ट्स थीं जिनका मैंने ऊपर ज़िक्र किया है. फ़ेसबुक पर डेटा प्राइवेसी का उल्लंघन करने से लेकर रंगभेद और फ़ेक न्यूज़ और राजनीतिक प्रोपोगैंडा (ख़ासकर दक्षिणपंथी) को शह देने का आरोप लगता रहा है। </span></span></div>
<div class="p2">
<span style="font-family: Georgia, Times New Roman, serif; font-size: small;"><span class="s1"></span><br /></span></div>
<div class="p1">
<span class="s1"><span style="font-family: Georgia, Times New Roman, serif; font-size: small;">इस जनवरी उस फ़ेसबुक के बिना मेरे एक साल और एक महीने पूरे हो जाएँगे, जिसकी लत में मैंने चूल्हे पर का खाना जलाया है, अपने बच्चों की पूरी बात नहीं सुनी, अपनी रातों की नींद ख़राब की है. और तो और, लाल बत्ती पर नोटिफ़िकेशन देखने के चक्कर में अपनी गाड़ी का करीब-करीब एक्सिडेंट भी करवा डाला है. <br /><br />और इस साल में मेरे ज़िन्दगी क्या बदला है? मैंने इस बात का भी लेखा-जोखा किया और पता चला कि इस साल मैंने उतनी किताबें पढ़ीं जितनी पिछली दस सालों में मिलाकर नहीं पढ़ पाई. तकरीबन उतनी ही फ़िल्में देखने का मौक़ा (और वक्त) भी मिला. इस साल भी नए दोस्त बने, नए शहर मिले, नया देश मिला, नए तजुर्बों ने दिल और दिमाग में नई खिड़कियाँ खोलीं. <br /><br />और कम से कम ये एक बात मैं दावे के साथ कह सकती हूँ: फ़ेसबुक के बिना की इस एक साल ज़िन्दगी ने मुझे ये हौसला दिया है कि मैं बिना इस डर के लिख (या जी) सकती हूँ कि मेरे लिखे या कहे या सोचे हुए पर दुनिया की प्रतिक्रिया क्या होगी (या इस post को कितने लाइक्स, शेयर या कमेंट मिलेंगे)! </span></span></div>
<div class="p3">
<span class="s1"><span style="font-family: Georgia, Times New Roman, serif; font-size: small;"> </span></span></div>
Anu Singh Choudharyhttp://www.blogger.com/profile/00504515079548811550noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-361816811593679767.post-24820389520220577462018-08-28T20:29:00.002+05:302018-08-28T20:29:54.302+05:30चिंता का एक सबब सिक्किम में<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: "helvetica neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
सिक्किम के पहाड़ पर एक स्कूल है, और स्कूल में हैं कुल ढाई सौ बच्चे। इसी स्कूल में सातवीं क्लास में पढ़नेवाले दो बच्चे हमारे भी हैं। दिल्ली शहर की धूल-धक्कड़ और धुँए से दूर हिमालय की आगोश में अपने शहराती बच्चों को भेजने का फ़ैसला करना बहुत आसान नहीं था तो बहुत मुश्किल भी नहीं था। जिस रोज़ हम स्कूल में दाख़िले की बात करने गए थे, उस रोज़ हमने सुबह के सूरज को कंचनजंघा की चोटियों से होकर स्कूल के आंगन में गिरते हुए देखा था। और देखा था हिमालय के अलग-अलग पहाड़ों से आए हुए अलग-अलग देशों और राज्यों के बच्चों को सुबह की उसी धूप में नहाते हुए, खेलते हुए, कुलांचे भरते हुए। मैंने अपने पति से कहा था, “एक तो सिक्किम भूटान का पड़ोसी है, दूसरे इस स्कूल में भूटान के इतने सारे बच्चे हैं। और कुछ नहीं तो यहाँ का हैपीनेस इन्डेक्स देश के बाकी जगहों से तो ज़्यादा ही होगा। बच्चे शहर की मारा-मारी और बेमतल के तनाव से दूर रहेंगे।”</div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: "helvetica neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; min-height: 24px;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: "helvetica neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
<a href="https://4.bp.blogspot.com/-ViB_SHZroGQ/W4Vi_J8j1_I/AAAAAAAAJCY/wtEa7Fhwqn866ptrcab6paHZTVw0F1Y8wCLcBGAs/s1600/IMG_20180703_093036.jpg" imageanchor="1" style="background-color: transparent; clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="1200" data-original-width="1600" height="240" src="https://4.bp.blogspot.com/-ViB_SHZroGQ/W4Vi_J8j1_I/AAAAAAAAJCY/wtEa7Fhwqn866ptrcab6paHZTVw0F1Y8wCLcBGAs/s320/IMG_20180703_093036.jpg" width="320" /></a>इसलिए स्कूल के वार्षिक समारोह के दौरान जब दो बच्चों ने एक ख़ास विषय पर अपनी राय पेश की तो मेरे रोंगटे खड़े हो गए। और मेरी हैरानी का ठिकाना न रहा। सिक्किम जैसे ख़ुशहाल राज्य में बच्चे एक सार्वजनिक मंच से, वो भी अपने माँ-बाप और अभिभावकों के सामने ‘सुसाइड’ जैसे विषय पर क्यों बात कर रहे हैं भला? </div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: "helvetica neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; min-height: 24px;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: "helvetica neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
उस कार्यक्रम के कुछ ही दिन पहले - २ जुलाई को - बच्चों को गर्मी छुट्टियों के बाद गैंगटोक पहुँचाने के बाद वापस लौटते हुए रास्ते में एक मनहूस घड़ी की गवाह हुई थी मैं। पहाड़ों और उत्तर बंगाल के मैदानों को जोड़ने वाले ऐतिहासिक तीस्ता कॉरोनेशन ब्रिज से कूदकर सिलिगुड़ी की एक महिला ने ख़ुदकुशी कर ली। और तकलीफ़ की बात तो ये कि हादसा दिन दहाड़े हुआ था, जब दोनों ओर से गाड़ियों का आना-जाना लगा हुआ था। वो महिला तकरीबन साठ किलोमीटर दूर से सिलिगुड़ी शहर से अपनी स्कूटी पर आई, स्कूटी को पुल के पास लगाया और इससे पहले कि उसके चारों ओर भागती-दौड़ती दुनिया को कुछ समझ भी आता, वो औरत तीस्ता की गहराईयों में समा चुकी थी। </div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: "helvetica neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; min-height: 24px;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: "helvetica neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; min-height: 24px;">
<b>अंधेरे यहाँ भी, वहाँ भी</b></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: "helvetica neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
उस घटना के दस दिन बाद मुंबई के जिस अंधेरी इलाके में मैं रहती हूँ, और जो इलाका फ़िल्म और टीवी के सफल चेहरों के साथ-साथ दशकों से संघर्षरत ख़्वाबमंद एक्टरों, डायरेक्टरों, राईटरों का घर माना जाता है, उसी अंधेरी के सात बंगला इलाके की एक इमारत से कूदकर 32 साल के एक युवा स्क्रिप्टराईटर ने अपनी जान दे दी। बिहार से मुंबई आए इस लड़के के माँ-बाप दो दिन पहले ही अपने बेटों के पास रुककर वापस घर लौटे थे। बॉलीवुड डांसर अभिजीत शिंदे की ख़ुदकुशी की ख़बर तो चौबीस घंटे पुरानी भी नहीं हुई। </div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: "helvetica neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; min-height: 24px;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: "helvetica neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
इसलिए गैंगटोक के एक सभागार में मंच पर खड़े होकर नवीं और दसवीं क्लास के दो बच्चों ने कुछ आंकड़े पेश किए तो दर्शकों में ज़रूर एक हलचल हुई। आपके लिए कुछ आंकड़े यहाँ पेश-ए-नज़र है: </div>
<ol style="background-color: white; color: #222222; font-family: sans-serif;">
<li style="font-family: "helvetica neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; margin: 0px;">दुनिया भर में आत्महत्या का दर प्रति एक लाख की आबादी पर चालीस है। वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइज़ेशन के मुताबिक हर चालीस सेकेंड पर दुनिया में कहीं न कहीं कोई न कोई अपनी जान दे चुका होता है।<br /></li>
<li style="font-family: "helvetica neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; margin: 0px;">जिस भूटान को हम उसके कुल राष्ट्रीय आनंद यानी ग्रॉस नेशनल हैपीनेस के लिए जानते हैं, वो देश डब्ल्यू हेल्थ ऑर्गनाइज़ेशन के अध्ययन के मुताबिक आत्महत्या के मामले में दुनिया में 21वें स्थान पर है।<br /> </li>
<li style="font-family: "helvetica neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; margin: 0px;">भारत आत्महत्या के मामले में 12वें स्थान पर है, और आधे से ज़्यादा मामलों में कारण या तो पारिवारिक और अत्यंत घरेलू होते हैं या फिर मानसिक परेशानियों से उपजा हुआ अवसाद। (ये बात ग़ौरतलब इसलिए भी है क्योंकि बाक़ी के देशों में आत्महत्या के कारणों पर नज़र डालें तो इनमें विस्थापित, बेरोज़गार, युद्ध या युद्धजैसी परिस्थितियों, जातिगत हिंसा और संघर्षों की वजह से शोषित, पीड़ित, भूख से लड़ते और अपनी ज़मीन छोड़ने के मजबूर पनाहगीरों की संख्या अधिक है।)<br /></li>
<li style="font-family: "helvetica neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; margin: 0px;">और जिस सिक्किम में बैठे हुए हम दुनिया भर की आत्महत्या दर के बारे में सुन रहे थे, उस सिक्किम में ख़ुदकुशी की दर भारत के राष्ट्रीय दर से तीन गुणा ज़्यादा है। यानी कि 2015 में अगर भारत का औसत प्रति एक लाख की आबादी पर 10.6 की आत्महत्या का दर रहा तो सिक्किम में प्रति एक लाख की आबादी पर 37.5 आत्महत्या के मामले दर्ज हुए। </li>
</ol>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://4.bp.blogspot.com/-SN_qVVJblLs/W4VimYs0PvI/AAAAAAAAJCQ/8JjnGws3Ql0yn-ytQ-Gd_NpwQow94I9bwCLcBGAs/s1600/IMG_20180813_072926.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="1600" height="320" src="https://4.bp.blogspot.com/-SN_qVVJblLs/W4VimYs0PvI/AAAAAAAAJCQ/8JjnGws3Ql0yn-ytQ-Gd_NpwQow94I9bwCLcBGAs/s320/IMG_20180813_072926.jpg" width="320" /></a></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: "helvetica neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; min-height: 16px; text-align: left;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: "helvetica neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से सिक्किम दिल्ली और चंडीगढ़ के बाद भारत का तीसरा सबसे अमीर राज्य है। इसी साल स्वतंत्रता दिवस के मौक़े पर बीस से ज़्यादा सालों से सिक्किम के मुख्यमंत्री पवन चामलिंग के दावा किया कि राज्य शत-प्रतिशत साक्षरता दर हासिल करने की राह में बड़ी तेज़ी से अग्रसर है। अभी नरेन्द्र मोदी का पहला बड़ा सपना - राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान देश भर में शुरू भी नहीं हुआ था, तभी 2008 में ही सिक्किम में खुले में शौच से मुक्त राज्य घोषित कर दिया गया था। 2016 में सिक्किम को शत-प्रतिशत ऑर्गैनिक राज्य घोषित कर दिया गया। और तो और, कामकाजी महिलाओं की स्थिति के लिहाज़ से सिक्किम देश का सबसे उत्तम राज्य माना जाता है। </div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: "helvetica neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; min-height: 16px;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: "helvetica neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; min-height: 16px;">
<b>सिक्किम, एक घर वो भी</b> </div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: "helvetica neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
मैं अक्सर ये बात कहती हूँ कि सिक्किम इकलौता ऐसा राज्य है जहाँ मुझे कभी भी एक लम्हे के लिए भी किसी बात का ख़ौफ़ नहीं हुआ - क्या पहनना है, क्या खाना है, कौन-सी सड़क पर किस तरह चलना है, और रात के कितने बजे चलना है। बिहार और उत्तर भारत में अपनी पूरी ज़िन्दगी गुज़ार देने के बाद सिक्किम जैसी किसी जगह पर होना, जहाँ निगाहें आपकी पीठ (या आपके सीने) से नहीं चिपकती, किसी भी लड़की या औरत के लिए सबसे महफ़ूज़ अहसास है। महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा के मामले उस राज्य में न के बराबर सुनने को मिलते हैं। इसलिए, अपनी बेटी को सुरक्षा का यकीन और अपने बेटे को महिलाओं का सम्मान करने की सीख देने के लिए हमें सिक्किम से बेहतर कोई जगह नहीं मिली। </div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: "helvetica neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; min-height: 16px;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: "helvetica neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
लेकिन जब वहाँ रहने का मौक़ा मिला, तो स्थानीय आबादी के संघर्षों की नई-नई परतों को देखने-समझने के हालात भी बने। टैक्सी ड्राईवरों से बात करते हुए, गलियों के मुहानों पर छोटी-छोटी दुकानें चलानेवाली औरतों से मिलते हुए, होटलों और रेस्टुरेन्टों में काम करनेवाले लड़कों से बोलते-बतियाते हुए दबी-छुपी ज़ुबान में ड्रग्स, ख़ासतौर पर फ़ार्मास्युटिकल ड्रगों, की लत के बारे में सुनने को मिला। टैक्सी ड्राईवर अक्सर ये बात बड़े फ़ख्र से बताया करते हैं कि वे बिना ड्रग या शराब के गाड़ी चलाते हैं, और इस बात को अपने यूनिक सेलिंग प्वाइंट की तरह इस्तेमाल करते हैं। इसी से अंदाज़ा लगा लीजिए कि ड्रग की लत कितनी बुरी तरह से सिक्किम के युवाओं को खाए जा रही है। </div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://3.bp.blogspot.com/-jOKvru9_j_U/W4VjQd7wmhI/AAAAAAAAJCg/qxQtb1_DBVI85i6vAvI7I0hqu0ceLOQSACLcBGAs/s1600/IMG_20180813_070329.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="1600" height="320" src="https://3.bp.blogspot.com/-jOKvru9_j_U/W4VjQd7wmhI/AAAAAAAAJCg/qxQtb1_DBVI85i6vAvI7I0hqu0ceLOQSACLcBGAs/s320/IMG_20180813_070329.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: "helvetica neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; min-height: 16px;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: "helvetica neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
ड्रग की लत आत्महत्या का एक कारण तो है ही, वहाँ बेरोज़गारी भी बहुत बड़ी समस्या है। और नज़दीक से देखें तो ड्रग की लत भी ज़िन्दगी में लक्ष्यहीनता से ही उपजती है। सिक्किम जैसा राज्य पूरी तरह पर्यटन पर निर्भर है। साक्षरता दर बहुत ऊँचा है। दूर-दराज के गाँवों में भी पढ़ाई-लिखाई को लेकर जागरुकता है। शहरों के कॉफ़ी-शॉप में अक्सर किताब पढ़ते बच्चे आपको मिल जाएंगे। सुबह-शाम बच्चों के काफ़िलों के स्कूल ड्रेसों की रंगों से पहाड़ी के ऊंचे-नीचे रास्तों को रंगते रहते हैं। </div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: "helvetica neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; min-height: 16px;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: "helvetica neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
पढ़ाई तो है लेकिन नौकरियाँ नहीं हैं। रोज़गार के अवसर नहीं हैं। इसलिए एम्पलायमेंट एजेन्सियों का कारोबार उस राज्य में धड़ल्ले से चलता है। बड़े बड़े कमीशन लेकर ये एजेंसियाँ सिक्किम के पहाड़ी युवाओं को एक बेहतर भविष्य के सपने दिखाती हैं और उन्हें यूरोप के छोटे से किसी देश में मूंगफली के दानों जितनी सैलेरी पर, अमानवीय हालातों में काम करने के लिए भेज देती हैं। थोड़ी सी भूख मिटने का लालच, उसकी चाहत इतनी बड़ी होती है कि मूंगफली के दानों जैसी ये सैलेरी न छोड़ते बनती है न लेने का कुछ हासिल होता है। </div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: "helvetica neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; min-height: 16px;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: "helvetica neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
अगर सिक्किम के ये हालात आपको पंजाब की याद दिला रहे हैं तो इसमें कोई हैरानी नहीं। ये सच है कि ऊँची साक्षरता दर और समृद्धि वाले देश के इन दो अलग-अलग कोनों की कहानियाँ एक-सी सुनाई देंगी आपको। बस किरदारों के नाम और उनकी शक्लें बदल जाएँगी।</div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: "helvetica neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; min-height: 16px;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: "helvetica neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
ऐसे में उन दो स्कूली बच्चों की चिंता जायज़ थी। और कुछ सुझाव भी उन्हीं बच्चों की तरफ़ से आए थे। </div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: "helvetica neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; min-height: 16px;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: "helvetica neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
अपने साथियों का आह्वान करते हुए उन दोनों ने मंच से कहा कि अपने माँ-बाप, अपने अभिभावकों से संवाद का ज़रिया बचाए रखें। ज़िन्दगी इन्साग्राम की सतरंगी तस्वीरें और बहुरंगी हैशटैग नहीं, बल्कि उनके पीछे की हक़ीकत है जिससे बचने की नहीं बल्कि आँखें मिलाने की ज़रूरत है। और पेरेन्ट्स से उन दो बच्चों ने गुज़ारिश की कि वे अपने बच्चों की ज़िन्दगी में दिलचस्पी लें। उन्हें यकीन दिलाएं कि सफलता से कहीं बड़ा ज़िन्दगी की इस रोज़मर्रा की लड़ाई में बने रहने का हौसला है। </div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: "helvetica neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; min-height: 16px;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: "helvetica neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
<b>दुख की तासीर एक-सी</b></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: "helvetica neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
दरअसल, निजी कुछ भी नहीं होता। ख़ुदकुशी भी निजी दुख से उपजी हुई नियति कतई नहीं होती। हर ख़ुदकुशी एक समाज के रूप में हमारी हार की ओर इशारा करती है। जब कुदरत की आपदाओं और सरकार की उदासीनता से परेशान एक किसान कीटनाशक खाकर या अपने ही खेत के किसी पेड़ से लटककर अपनी जान देता है, तो वो सरकार की और प्रशासन की हार है। जब अपने सपनों से हारा हुआ एक नौजवान अपनी जान दे देता है, तो वो भी एक समाज की हार है, कि ये सफलताओं के कैसे उपभोक्तावादी मापदण्ड तय कर दिए हैं हमने? जब स्कूल से और अपने रिज़ल्ट से हारा हुआ एक किशोर अपनी जान देता है तो ये शिक्षा-प्रणाली की हार है। जब एक औरत नदी में कूद जाती है तो ये एक परिवार की हार है। </div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: "helvetica neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; min-height: 16px;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: "helvetica neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
वाकई, निजी कुछ भी नहीं होता, और एक निजी दुख भी अक्सर एक से ज़्यादा इंसानों की ज़िन्दगियाँ तबाह करने के लिए बहुत होता है। </div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: "helvetica neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; min-height: 16px;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: "helvetica neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
अवसरों से कहीं बड़े तो हमने सपने पैदा कर दिए हैं। काम-धंधा है नहीं और जहाँ नज़र दौड़ाइए, वहाँ अरमानों को हवा देते निर्लज्ज इश्तहारों का जमावड़ा है। क्या सिक्किम, क्या अंधेरी - जितनी बड़ी कमाई नहीं, उसके दस गुणा कर्ज़ हैं। तो फिर हल क्या है? </div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: "helvetica neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; min-height: 16px;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: "helvetica neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
उन दो बच्चों की बात ध्यान से सुनना, जो सार्वजनिक मंच पर खड़े होकर सुने जाने की गुहार लगा रहे थे। संवाद हल है। विवेक हल है। कंजूसियाँ हल हैं। अपनी चादर में पैबंद लगाकर भी उसमें अपने पैरों को मोड़े रखना, मगर चादर से बाहर पाँव न जाने देना हल है। हौसलों के इश्तहार, उनका खुलेआम प्रदर्शन हल है। अपने-अपने भीतर की खिड़कियों को खोलकर दूसरों के भीतर झाँकने की कोशिशें हल हैं। हम अगर अपने कंधों से अपने ही अरमानों का बोझ उतारकर उन्हें हौसलों की ज़मीन में जब तक दफ़न नहीं कर देंगे, तब तक मैं, आप, सिक्किम, पंजाब, अंधेरी और अहमदाबाद आत्महत्याओं के आंकड़े गिनते जाने से ज़्यादा कुछ कर भी नहीं पाएंगे। </div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: "helvetica neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; min-height: 16px;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: "helvetica neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
बारहवीं के नतीजे निकले थे, और मैं अपनी ही अपेक्षाओं के ख़िलाफ़ औंधे मुँह गिरी थी। सपना पढ़ने के लिए दिल्ली जाने का था। मुझे राँची की उस तंग सोच वाली ज़िन्दगी से निजात चाहिए था। लेकिन मेरे रास्ते अब बंद हो गए थे। रिज़ल्ट देखकर आने के बाद मैंने अपने आप को एक कमरे में बंद कर लिया। दुपट्टा गले में डालकर पंखे से लटकने की कोशिश की, लेकिन घुटती हुई साँसों ने इतनी तकलीफ़ दी कि उतरने पर मजबूर होना पड़ा। फिर शेविंग किट से ब्लेड निकालकर बहुत देर तक बैठी रही। लेकिन नस काटने का दर्द सोच से ही परे था। घर दो मंज़िला था, तो छत से कूदने का कोई फ़ायदा नहीं था। कांके डैम घर से दो-ढाई किलोमीटर दूर था। मरने के लिए कोई इतनी दूर क्यों जाता? इसलिए दादी को दी जानेवाली बीपी और नींद की सारी गोलियाँ एक बार में खा लीं। </div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: "helvetica neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; min-height: 16px;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: "helvetica neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
ऐसा नहीं था कि उस घर में मैं अकेली थी। मेरे मम्मी-पापा, चाचा-चाची, भाई-बहन और दादा-दादी समेत भरा-पूरा परिवार वहीं, उसी कमरे से बाहर था। लेकिन किसी ने ये नहीं सोचा होगा कि कमरा बंद किए मैं अपनी कहानी ख़त्म करने चली थी। घंटों कमरे से नहीं निकली तो पापा ने दरवाज़े को धक्का देकर कुंडी तोड़ी और मेरे पास आए। मैं बिस्तर पर औंधी पड़ी हुई थी शायद। लेकिन बस गहरी नींद में थी, क्योंकि पापा मुझे नींद से उठाने में कामयाब रहे थे। उस रोज़ पापा ने कुछ कहा नहीं था, बस ज़ोर से गले लगा लिया था। जिस पिता की गोद से उतरने के बाद उस रोज़ तक कभी छूने की या नज़दीक जाने की हिम्मत भी नहीं थी, उस पिता की ओर से आया हुआ इतना अनकहा हौसला ही बहुत था। </div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: "helvetica neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal; min-height: 16px;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: "helvetica neue"; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
काश इतना ही अनकहा हौसला हर उस डूबती हुई रूह को मिल जाए जिसके सामने सिर्फ़ निराशा के अंधेरे होते हैं। अपनी जान लेने का फ़ैसला, या अपनी ज़िन्दगी बर्बाद कर देने का फ़ैसला, ज़रूर निजी होता है। लेकिन किसी को बचा लेने की कोशिश हमेशा साझा होती है। उन दो बच्चों की साझा कोशिश ने सिक्किम की ऊँची आत्महत्या दर के बावजूद सिक्किम के समाज पर मेरा यक़ीन और पुख़्ता कर दिया था। </div>
Anu Singh Choudharyhttp://www.blogger.com/profile/00504515079548811550noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-361816811593679767.post-5638386611227276042017-04-02T23:05:00.001+05:302017-04-02T23:19:47.528+05:30कभी भूला, कभी याद किया 'बॉस बेबी' को <i>रॉटेन टोमैटोज़</i> पर बमुश्किल पचास फ़ीसदी वोट्स मिले हैं। <i>आईएमडीबी</i> पर तो दस में छह। वैसे भी ब्रीफ़केस लिए नवजात की ज़ुबान से मैनेजमेंट ज्ञान हम कितना पचा पाएँगे?<br />
<br />
गूगल पर 'बॉस बेबी' के ख़िलाफ़ हासिल की गई मेरी कोई दलील काम नहीं आती, और हम शाम का शो देखने को निकल पड़ते हैं। सच कहूँ तो ये रिश्वत है। मैं उन्हें उनकी मर्ज़ी से दो फ़िल्में दिखा दूँ तो बच्चे मुझे मेरी मर्ज़ी की दो फ़िल्में देखने के लिए जाने देंगे।<br />
<br />
ऐसे ही <i>ट्रांज़ैक्शन्स</i> और <i>बार्टर</i> पर इन दिनों मेरी ज़िन्दगी टिकी हुई है। मैं डेढ़ घंटे का वक्त फ़िजियोथेरेपिस्ट को देती हूँ तो मुझे तीन घंटे की <i>पेनलेस</i> दिनचर्या मिल पाती है। दिन में पंद्रह-पंद्रह के सेट वाले चार <i>आइसोमेट्रिक एक्सरसाइज़</i> करती हूँ तब जाकर रात में बिना तकलीफ़ करवट बदल पाती हूँ।<br />
<br />
ख़ैर, इस बार भी <i>बार्टर</i> में सही सौदा नहीं मिला। 'बॉस बेबी' बहुत ख़राब फ़िल्म है। बच्चे मुख्य किरदार हैं, और बच्चों की सोच, हकीक़त और यहाँ तक कि उनकी कॉमेडी से कितनी दूर है इस फ़िल्म की कहानी! यकीन नहीं होता कि ये फ़िल्म उसी डायरेक्टर की फ़िल्म है जिसने 'मैडागास्कर' सीरीज़ की फ़िल्में बनाई, 'पुस इन द बूट्स' बनाई।<br />
<br />
बाकी के सौदों की तरह इस सौदे की विफलता का दोष भी मैं अपनी उम्र पर मढ़ देती हूँ।<br />
<br />
***<br />
<br />
मैंने 'फिलौरी' नहीं देखी। मैं न 'सेल्समैन' देख पाई और न 'रंगून' देखने का मौक़ा मिला।<br />
<br />
देखने को तो मैं कुछ भी नहीं देखा। कुछ भी नहीं पढ़ पाई। बहुत सारी फ़िल्में छूट गईं और बहुत सारी किताबें सिरहाने वैसे ही अनछुई पड़ी हैं।<br />
<br />
फ़िल्म देखने के बाद मैं एक कॉफ़ी शॉप में ले आई हूँ बच्चों को। मैं एक खाली घर में वापस नहीं जाना चाहती। कहीं कुछ है जो होकर भी नहीं है।<br />
<br />
अपने लिए मसाला चाय-टोस्ट और बच्चों के लिए हॉट चॉकलेट और कुकीज़ का ऑर्डर देने के बाद मैं वापस फ़ोन पर लग गई हूँ। बच्चों के पास कुछ और करने को नहीं, इसलिए दोनों मेन्यू कार्ड पढ़ने लगे हैं। हम तीनों आपस में कुछ नहीं बोल रहे।<br />
<br />
इन दिनों लिखने-पढ़ने में मेरा मन नहीं लगता।मैं कहीं आना-जाना नहीं चाहती। मुझे याद नहीं आ रहा कि मैं आख़िरी बार सेक्टर अठारह के इस मार्केट में आख़िरी बार कब आई थी। इसलिए तो मुझे न बीच की सड़कों के वन-वे हो जाने की ख़बर थी न नए <i>डाइवर्ज़न</i> का पता था।<br />
<br />
फ़ोन पर भी देखने को कुछ नहीं है। तीन ईमेल हैं, जिनके मैं <i>मोनोसिलेबल्स</i> में जवाब दे देती हूँ।<br />
<br />
और कुछ करने को नहीं इसलिए मैं एक नाम गूगल करती हूँ। भानुमती के पिटारे की तरह इंटरनेट भी साँप, बिच्छू, कीड़े-मकोड़ों सी ज़हरीली बातें उगलने लगता है। मैं घबराकर फ़ोन बंद कर देती हूँ।<br />
<br />
इंटरनेट के संस्कारों में सिर्फ़ सियापा और अधूरी, एकतरफ़ा जानकारियाँ ही है क्या? जिस इंटरनेट और सोशल मीडिया की बनाई हुई हूँ मैं, उसी से ऐसा वैराग्य क्यों? मैं 'सर्फ़र' से 'सफ़रर' कब बन गई?<br />
<br />
मेरा ही नहीं, आदित का भी ध्यान कहीं और है। मेरे देखते-देखते, मेरे सामने उसके हाथ से चॉकलेट मिल्क का पूरा कप छलक उठता है और गर्म लिक्विड से उसकी टी-शर्ट और जींस सराबोर है। वो घबराकर मुझे देखता है।<br />
<br />
मैं बिल्कुल रिएक्ट नहीं करती। कुछ नहीं बोलती। सिर्फ़ उसको देखती रहती हूँ।<br />
<br />
आदित भी बिल्कुल रिएक्ट नहीं करता। हाथ में कप लिए मुझे देखता रह जाता है।<br />
<br />
हमारे बगल वाली मेज़ से एक लड़का उछलकर आदित तक आ गया है। उसके हाथ में बहुत सारे पेपर नैपकिन्स हैं। अचानक हमारे आस-पास बहुत सारी हलचल है। हमारी टेबल वेट कर रहा लड़का पोंछा लिए लपक आता है। दो लड़के आदित के कपड़े पोंछते हुए उससे पूछ रहे हैं कि कहीं उसके हाथ-पैर जले तो नहीं?<br />
<br />
अपने आस-पास की इतनी हलचल से शर्मिंदा मैं और आदित बाथरूम का रास्ता ढूँढते हैं।<br />
<br />
आदित को दूध गिराने की आदत है। बचपन से। मैंने इसी ब्लॉग पर लिखा भी है उसके बारे में कभी।लेकिन उसे कुछ कहते नहीं बनता। मेरी बेख़्याली जितना मुझे नुकसान पहुँचाती है, उससे कहीं ज़्यादा तकलीफ़ बच्चों को होती है।<br />
<br />
हम फिर भी फ़ोन के स्क्रीन से नज़रें नहीं हटा पाते।<br />
<br />
***<br />
<br />
मैं कई हफ़्तों के बाद आज ड्राईविंग सीट पर हूँ। बाहर का शहर संडे के कोलाहल में डूबा हुआ है। सामने मल्टीस्टोरीड पार्किंग के हर फ्लोर पर कंस्ट्रक्शन लाईट्स चमचमा रही हैं। ये शहर मेरे देखते-देखते बदल गया। जिस नोएडा को हम गाँव समझा करते थे, जिस अट्टा में पहली बार एक मल्टीप्लेक्स खुलने का जश्न हमने 'हैदराबाद ब्लूज़' जैसी एक फ़िल्म देखकर मनाया था, उस नोएडा की आब-ओ-हवा, ज़मीन-ओ-आसमान पर अब नाज़ेबा समृद्धि के प्रतीक-चिन्ह काबिज़ हैं।<br />
<br />
हम बहुत देर तक सेक्टर अठारह से निकलने की कोशिश में ट्रैफ़िक में फँसे रह जाते हैं।<br />
<br />
एफ़एम पर अनिरुद्ध एलएलबी का इंटरव्यू राहुल बोस का साथ चल रहा है, जो 'पूर्णा' की फिल्मिंग के बारे में बता रहे हैं। मेरा मन अफ़सोस से भर जाता है। काश मैंने 'बॉस बेबी' जैसी फ़िल्म के बदले 'पूर्णा' देखी होती। ड्रीमवर्क्स एनिमेशन को हम जैसे दर्शकों के हजार रुपए से बहुत फ़र्क नहीं पड़ेगा, एक इन्डिपेन्डेंट हिंदुस्तानी सिनेमा को ज़रूर पड़ेगा।<br />
<br />
राहुल बोस बता रहे हैं कि कैसे सिक्किम में पंद्रह हजार फ़ुट की ऊँचाई पर शूटिंग के दौरान जब सड़कें भी बर्फ़ हो गई थीं तो जान की बाज़ी लगाकर क्रू ने फ़िल्म की शूटिंग की थी। मैं उसी वक़्त राहुल बोस को गले लगाना चाहती हूँ। जिन दिनों राहुल बोस ने अपनी पहली निर्देशित फ़िल्म (<i>एवरीवन सेज़ आई एम फ़ाइन</i>) रिलीज़ की थी उन दिनों मैं मुंबई में रह रही थी। मुझे याद है कि मैंने तकरीबन सोलह साल पहले वो फ़िल्म अंधेरी के फ़ेम ऐडलैब्स में जाकर देखी थी। राहेजा टावर के बगल में। फ़ेम ऐडलैब्स अब पीवीआर है शायद।<br />
<br />
हम अभी भी जाम में फँसे हुए हैं। बच्चे पीछे की सीट पर खुसफुसाते हुए बात कर रहे हैं कि क्या मम्मा उन्हें ये फ़िल्म दिखाने ले जाएगी? मैं अपने जवाब से कोई दख़लअंदाज़ी नहीं करती। हम चींटियों की रफ़्तार से आगे बढ़ रहे हैं। अनिरुद्ध एलएलबी ने एक सॉन्ग ब्रेक ले लिया है।<br />
<br />
<i>ऊँचे नीचे रास्ते और मंज़िल तेरी दूर...</i> गाना बजने लगता है और इस धीमी ट्रैफ़िक में भी मेरी याददाश्त सुपरसॉनिक स्पीड से कई साल पहले पहुँच जाती है।<br />
<br />
***<br />
<br />
मैंने दसवीं तक की पढ़ाई उर्सुलाइन कॉन्वेंट में की। एक हिंदी मीडियम स्कूल में, जो कहने को एक कॉन्वेंट था। दरअसल था तो कॉन्वेंट ही। मिशनरी स्कूल था हमारा, लेकिन गौतम बुद्ध के मध्यम मार्ग पर बख़ूबी चलते हुए सरकारी और मिशनरी - दोनों किस्म के वैल्यू सिस्टम को बड़े कारगर तरीके से ढोया करता था। इसलिए हम स्कूल में मेला (जिसे 'फ़ेट' कहते हैं) लगाकर अपने ऑडिटोरियम के लिए चंदा भी जमा किया करते थे और तीन सौ सताईस रुपए की सालाना स्कूल फ़ीस का मज़ा भी लिया करते थे। इसलिए हम थीं तो बिहार बोर्ड की लायक छात्राएँ, लेकिन मिसेज़ नाम्बियार और सिस्टर ग्लोरिया जैसी अंग्रेज़ी टीचर्स ने ब्रॉन्टे सिस्टर्स और जेन ऑस्टीन के लिए उतनी ही मुहब्बत पैदा की जितनी शिद्दत से चिड़ीमार सर ने (उनका असली नाम अब याद नहीं) सुभाषितानी के श्लोक रटवाए।<br />
<br />
बहरहाल, उर्सुलाइन कॉन्वेंट की एक और मज़ेदार बात थी। हमें गाहे-बगाहे हमारे ऑडिटोरियम में पर्दा लगाकर उसपर हिंदी फ़िल्में दिखाई जाती थीं। 'रजनीगंधा', 'छोटी-सी बात', 'मुकद्दर का सिकंदर', 'नमक हराम', 'आनंद'... ये वो फ़िल्में हैं जो मुझे स्कूल में पर्दे पर देखना याद है। हमसे शायद दो या डेढ़ रुपए लिए जाते थे फ़िल्म दिखाने के, और अक्सर शनिवार को हाफ़ डे के स्कूल के बाद फ़िल्म दिखाया जाता था।<br />
<br />
'खुद्दार' भी वो फ़िल्म है जो स्कूल में देखना याद है।<br />
<br />
<i>ऊँचे नीचे रास्ते </i><br />
<i>और मंज़िल तेरी दूर </i><br />
<i>राह में राही रुक न जाना </i><br />
<i>होकर के मजबूर </i><br />
<br />
किशोर कुमार गा रहे हैं और अपने सेक्टर के मोड़ तक पहुँचने से पहले मैं स्कूल के ऑडिटोरियम में पहुँच चुकी हूँ।<br />
<br />
एक और 'खुद्दार' वीसीआर पर देखना याद है। गोविंदा और करिश्मा कपूर वाली। <i>सेक्सी सेक्सी सेक्सी मुझे लोग बोलें</i>... इसी फ़िल्म का तो गाना था वो! 'सेक्सी' टर्म इन दिनों नौजवान फ़ेमिनिस्टों की बहस में एक नया आयाम जोड़ रहा है। <br />
<br />
<i>ये हमारी ज़िन्दगी </i><br />
<i>एक लंबा सफर ही तो है </i><br />
<i>चलते हैं जिसपे हम </i><br />
<i>अनजानी डगर ही तो है </i><br />
<i>देख संभलना, बचके निकलना </i><br />
<i>जो नहीं चलते देख के आगे </i><br />
<i>ठोकर से हैं चूर</i><br />
<br />
हम कॉलोनी के गेट में घुस चुके हैं। मेरे मल्टीट्रैक दिमाग़ का एक ट्रैक शब्द-दर-शब्द साथ-साथ गुनगुना रहा है। मैं हैरान हूँ कि मुझे ये गाना अभी तक याद है।<br />
<br />
फिर ये भी याद आया है कि मैं फ़िल्म देखने के बाद घर में बिना बताए अपनी एक सहेली रिंकू पटोदिया के घर चली गई थी। रिंकू डिप्टी पाड़ा में रहती थी। उसकी माँ लॉयर थी, और वो पहली ऐसी लड़की थी जिसकी माँ के बारे में मैंने सुना था कि वे काम पर जाया करती हैं। मुझे ये भी याद आया कि रिंकू पटोदिया ने छठी क्लास में अपना नाम बदलकर नेहा पटोदिया कर लिया था। मैं रिंकू की अच्छी दोस्त बन गई थी, लेकिन नेहा की दोस्त कभी नहीं बन पाई। पता नहीं क्यों।<br />
<br />
यानी 'खुद्दार' मैंने छठी क्लास से पहले देखी होगी।<br />
<br />
अब तो मेरे बच्चे छठी क्लास में हैं।<br />
<br />
हमने गाड़ी पार्क कर दी है, और मैं फिर भी बैठकर पूरा गाना ख़त्म होने का इंतज़ार कर रही हूँ। या शायद इस बात का इंतज़ार कर रही हूँ कि राहुल बोस किस हीरोइन पर बायोपिक बनाना चाहते हैं, जिसके बारे में अनिरुद्ध ने सॉन्ग ब्रेक में जाने से पहले टीज़ किया था।<br />
<br />
बच्चे गाड़ी से उतर चुके हैं, इसलिए मुझे भी मजबूरी में इंजन ऑफ़ करना पड़ता है। मुझे मालूम नहीं चल पाया कि राहुल किसी हीरोइन की कहानी पर अगली फ़िल्म बनाने जा रहे हैं।<br />
<br />
मैं सीढ़ियाँ चढ़ रही हूँ। बच्चे गीत गुनगुना रहे हैं। <i>ऊँचे नीचे रास्ते और मंज़िल तेरी दूर</i>...<br />
<br />
ये हीरोइनप्रधान फ़िल्मों का दौर है। ये 'अनारकली', 'पूर्णा', 'शबाना', 'फिलौरी', 'नूर', 'मातृ', 'मॉम', 'बेग़म जान' का दौर है।<br />
<br />
मैं घर का ताला खोलते हुए सोच रही हूँ कि मेरे दोस्त अरिंदम सिल की नई फ़िल्म भी तो 'दुर्गा सहाय' है, और मैंने भी बनाया तो क्या - 'द गुड गर्ल शो'!<br />
<br />
'बॉस बेबी' देखकर वक़्त बर्बाद करने का अफ़सोस थोड़ा और बढ़ गया है।<br />
<br />
फिर याद आता है कि कभी कुछ ज़ाया नहीं होता। जब मेरे लिए अमिताभ बच्चन की 'ख़ुद्दार' देखना ज़ाया नहीं हुआ तो आज की शाम भी क्यों ज़ाया मान ली जाए?<br />
<br />
मुझे मालूम है कि 'खुद्दार' का गीत मजरूह सुल्तानपुरी ने लिखा और म्यूज़िक आर डी बर्मन ने दिया।मुझे ये भी याद है कि अमिताभ बच्चन वाली 'खुद्दार' कादर ख़ान ने लिखी और गोविंदा वाली इक़बाल दुर्रानी ने। मुझे ये भी याद है कि अमिताभ बच्चन वाली 'खुद्दार' में एक और गाना था - <i>अंग्रेज़ी में कहते हैं कि आई लव यू</i>... और मुझे ये भी याद है कि गोविंदा वाली 'खुद्दार' का मशहूर गाना <i>तुमसा कोई प्यारा कोई मासूम नहीं है</i> था।<br />
<br />
सिनेमा कैसे-कैसे हमसे रिश्ता बनाता है न? यही अजीब-सा रिश्ता फ़िल्मकारों के लिए पहला और आख़िरी ग्रैटिफ़िकेशन होता है। सिनेमा जीते-भोगते-समझते-सराहते-दुत्कारते हुए हम यादें गढ़ रहे होते हैं। ऑल काइन्ड्स ऑफ़ मेमोरिज़, जिस पर लिखते हुए नोरा एफ़्रॉन बड़ी सहजता से लिख देती हैं - आई रिमेम्बर नथिंग - मुझे कुछ याद नहीं!<br />
<br />
और ये याद भी बड़ी ग़ज़ब चीज़ है। कुछ भी बर्बाद जाने नहीं देती। बच्चों के ग्यारहवें और मेरे अड़तीसवें का अफ़सोस भी अचानक पिघल गया है। :)<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<iframe allowfullscreen="" class="YOUTUBE-iframe-video" data-thumbnail-src="https://i.ytimg.com/vi/8VisTZ-rwig/0.jpg" frameborder="0" height="266" src="https://www.youtube.com/embed/8VisTZ-rwig?feature=player_embedded" width="320"></iframe></div>
<br />
<br />
<br />Anu Singh Choudharyhttp://www.blogger.com/profile/00504515079548811550noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-361816811593679767.post-57629999174588239302017-03-02T08:31:00.002+05:302017-03-02T08:31:54.870+05:30मोहब्बत २ मार्च की!हम सबकी ज़िन्दगी में एक मुश्किल तारीख़ होती है। २ मार्च मेरी ज़िन्दगी की सबसे मुश्किल तारीख़ है।<br />
<br />
हम सबकी ज़िन्दगी में एक वो शख़्स ज़रूर होता है जिससे हम बेइंतहा मोहब्बत करते हैं। बिना शर्त। बिना नापे तौले। बिना किसी अपेक्षा या उम्मीद के। ये जो मुश्किल तारीख़ होती है न हमारी ज़िन्दगी की, ऐसे ही किसी शख़्स के गुज़र जाने की तारीख़ होती है।<br />
<br />
बाबा आज होते तो बयासी साल के हुए होते। बाबा के बयासी का न हो पाने का अफ़सोस उतना बड़ा नहीं जितना बड़ा ये अफ़सोस है कि वे हमारे भीतर-बाहर के कई ऐसे यकीन फलते-फूलते देखने के लिए बाक़ी न रहे जिनके बीज उन्होंने अपने हाथों से हमारी रूहों में डाला था। बाबा ये देखने के लिए बाक़ी न रहे कि हम हर रोज़ उन्हें नई शिद्दत और अथाह ईमानदारी से जीते हैं। बाबा ये देखने के लिए बाक़ी न रहे कि हमने उनका बनाया हुआ घोंसला छोड़ा तो अपने लिए पूरी की पूरी डाल ढूँढ डाली। ऐसी-वैसी नहीं बल्कि बरगद की डाल, बाबा। हमने कई जड़ों से ख़ुद को जोड़ लिया है। ससुराल से लेकर मायके के बीच, भाई-भतीजे से लेकर देयाद-गोतिया के बीच हमने कई परिवार बसा लिए हैं बाबा। और कुछ जुटा न जुटा, मोहब्बत ख़ूब जोड़ी है, बाँटी है।<br />
<br />
प्यार करना भी तो आपसे ही सीखा था!<br />
<br />
आपकी पिछली और इस बार की बरसी के बीच एक और ग़ज़ब की बात हो गई, बाबा। मुझे प्यार में माफ़ी देना आ गया। ख़ुद को माफ़ करना, और उनको माफ़ करना जिनसे मोहब्बत में गुनाह हो जाते हैं। जिनकी फ़ितरत में दूसरों का दिल दुखाना नहीं होता, उन्हें माफ़ कर देना चाहिए। मोहब्बत में नैतिक-अनैतिक कुछ नहीं होता। मोहब्बत के नियम-क़ायदे नहीं होते। मोहब्बत की दुनिया में सिर्फ़ और सिर्फ़ रूह का कानून चला करता है। उस रूह को चोट न पहुँचे, बस इतना ही हो हासिल मोहब्बत का। बाक़ी तो जिसका हाथ छूट गया, उसके लिए प्यार बाक़ी है। जिसे छोड़ दिया उससे तो दुगुनी मोहब्बत है।<br />
<br />
बाबा, माई लव गुरु, थैंक यू फॉर टीचिंग मी हाउ टू लव, एंड हाउ टू फॉरगिव इन लव। एंड थैंक यू फॉर गिविंग मी द मोस्ट डिफ़िकल्ट डे ऑफ़ माई लाइफ़। आई लव यू!<br />
<br />
<br />Anu Singh Choudharyhttp://www.blogger.com/profile/00504515079548811550noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-361816811593679767.post-65030255462037014732016-10-08T11:00:00.000+05:302016-10-08T11:00:23.511+05:30लिखना, और चलना तनी हुई एक रस्सी पर मैं गहरी उदासियों के गीत सुनना चाहती हूँ। इश्क़ में सराबोर, टूटती हुई सिसकियों-हिचकियों और दरकती हुई हँसी में भींगे हुए गीत। लेकिन घर के दोनों बच्चे और उन बच्चों के दम पर हँसती-चहकती गृहस्थी उदासियों को सिरे से नकार देती है। इसलिए तमाम सारे डर और तवील उदासियों की पतवार उखाड़कर अपनी बालकनी पर के गमलों में हरियाली उगाते हैं, रंगीन मधुमालती के झाड़ रोपते हैं और काँटों के बीच से दहकते बुगनवेलिया को देखकर ख़ुश होते फिरते हैं। <div>
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घर भरा-पूरा है। बच्चों की ख़ातिर कामवालियाँ सालों से मेरी तमाम ज़्यादतियाँ बर्दाश्त करती रहती हैं, मेरा साथ नहीं छोड़तीं। मेरे मम्मी-पापा, सास-ससुर अपनी-अपनी सहूलियतों को दरकिनार कर हमारी सहूलियत को मज़बूत बनाते रहते हैं। मैं वैसी एक ख़ुशनसीब औरत हूँ जिसके एक फ़ोन कॉल पर उसका पूरा सपोर्ट सिस्टम अपनी सारी ताक़त लगाकर उसकी ज़रूरतें पूरी करता है। और मैं दुष्ट औरत - उनके इस निस्सवार्थ मोहब्बत का ख़ूब बेजां इस्तेमाल भी करती हूँ। </div>
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बात मई-जून की है। मैं एक नए प्रोजेक्ट के लिए स्क्रिप्ट लिखने की दुरूह कोशिश में पागल हुई जा रही थी। लॉन्ग फ़ॉर्मैट मैंने कभी किया नहीं है, इसलिए बार-बार कोशिश के बावजूद मुझसे लिखा ही न जाए। जितनी बार मैं अपने आधे-अधूरे ड्राफ्ट उन दो लोगों को भेजूँ जिनपर मुझे सबसे ज़्यादा भरोसा है, उनका फ़ीडबैक मेरा दिल तोड़ जाता था। मुझे लगता था कि या तो इन लोगों की अपेक्षाएँ ज़रूरत से ज़्यादा बड़ी हैं या मैंने इतने साल अपने स्किल को ओवरएस्टिमेट किए रखा है। मुझसे पाँच एपिसोड की एक स्क्रिप्ट नहीं लिखी जा रही थी! </div>
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और एक बताऊँ मैं आपको? पहला एपिसोड तो मैंने पिछले साल अक्टूबर में ही लिख लिया था - संगम हाउस में अपनी रेसिडेन्सी के दौरान! अब मेरी सहूलियतों की हद ही देखिए कि मुझे परिवार और ज़िम्मेदारियों से पूरे एक महीने की छुट्टी इसलिए मिल गई थी ताकि मैं शहर और रोज़मर्रा के जंजालों से दूर, बहुत दूर, नृत्यग्राम जैसे स्वप्नरूपी किसी एक द्वीप पर लिख सकूँ, अपने साथ वक़्त बिता सकूँ। संगम हाउस में गुज़रा एक महीना मेरी ज़िन्दगी का सबसे ख़ुशनुमा तजुर्बा रहा है, लेकिन उसपर फिर कभी लिखूँगी। बहरहाल, उस स्क्रिप्ट की बात को अंतड़ियों में फँसी हुई थी कहीं। </div>
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मैं इस बात की बदगुमानी में जीती आ रही हूँ कि मैं बहुत प्रोग्रेसिव हूँ। अपने से पंद्रह-बीस साल बच्चों से उनके ज़माने की बातें कर सकती हूँ, उनके साथ हँस-बोल सकती हूँ। गेम ऑफ़ थ्रोन्स, हाउस ऑफ़ कार्ड्स और नार्कोस देखती हूँ। इलिना फेरान्ते पर फर्राटेदार बात कर सकती हूँ। न्यूडिटी, मेडिटेशन और मेटाफ़िजिक्स - तीनों को उनके शुद्ध रूप में स्वीकार करती हूँ। अपने दस साल के बच्चे के सेक्स, पीरियड्स, क्रश, लव, पॉर्नोग्राफी, सेक्सुअल कॉन्टेंट, किस, स्मूच और सेक्सुएलिटी से जुड़े बचकाने सवालों का ठीक-ठाक कूल जवाब देती हूँ। </div>
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और फिर भी मुझसे चार कैरेक्टर्स ठीक से क्रिएट नहीं हो पा रहे थे? जिन चार लड़कियों की कहानी मैं सुनाना चाहती थी वो उम्र में मुझसे अठारह-बीस साल छोटी थीं। और ये फ़ासला उन्हें ठीक तरह से समझने में आड़े आ रहा था। मैं अठारह साल की एक लड़की की कहानी सोच तो रही थी, उसकी तरह उसका फ़साना नहीं बुन पा रही थी। उम्र और तजुर्बा आड़े आ रहा था क्योंकि अपने सारे कूल कोशन्ट के बावजूद मेरा पूर्वाग्रह आड़े आ रहा था। </div>
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पूजा, सैम, डेब और मेघना - इन चार लड़कियों के किरदार रच रही थी मैं। हर एक शख़्सियत दूसरे से जुदा होती है। हर नज़रिया और फिर हालात पर हर रेस्पॉन्स एक-दूसरे से भिन्न होता है। हम अपने शरीर में रहते हुए अपनी ही रूह की साँसें गिनते हुए हर हाल में एक-से नहीं होते। चेन्ज इकलौता कॉन्सटेंट है। हम हर लम्हा बदल रहे हैं। हमारी समझ हर लम्हा बदल रही है। </div>
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लेकिन कुछ स्टीरियोटाईप्स हैं जो हमारी सोशल और इमोशनल कंडिशनिंग करते हैं। इसलिए हम ये मानकर चलते हैं कि ये शख़्सियत तो बिल्कुल ऐसी ही होगी, उसके एक्सटर्नल और इन्टरनल कॉन्फ्लिक्ट्स भी हम एक खांचे में ढालकर समझने की कोशिश करते हैं। ह्यूमन साइकॉलोजी की सभी थ्योरिज़ उन्हीं पर आधारित होती हैं। </div>
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और यहीं एक कहानीकार अपना हुनर दिखाता है। उन खाँचे में होते हुए भी कैसे एक किरदार उस खाँचे को तोड़कर अपने लिए नई-नई ज़मीनें, नए आसमान ढूँढता है - सारी कहानियाँ उसी तलाश का सार होती हैं। </div>
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मैं वहीं मात खा रही थी। कैरेक्टर स्केच के कई कई ड्राफ्ट, कई कई रेफ़रेंस ढूँढ लेने के बाद भी मुझे उन लड़कियों के किरदार नहीं मिल रही थी जिनके सहारे मुझे अपनी कहानी कहनी थी। </div>
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शब्दों में कहानियाँ कहना और विज़ुअल स्टोरीटेलिंग में एक अहम फ़र्क़ ये होता है कि शब्द आपके लिए कहने और न कहने की गुंजाईश छोड़ते हैं। आप अपनी सहूलियत और अपने हुनर के हिसाब से जितना चाहें, जैसा चाहें, शब्दों का इस्तेमाल कर सकते हैं। विज़ुअल स्टोरीटेलिंग में 'interpretation' और 'inference', दोनों बहुत 'intelligent' होता है। तो मैं निजी तौर पर विज़ुअल स्टोरीटेलिंग को इन तीन I's का कॉम्बिनेशन मानती हूँ। विज़ुअल स्टोरीटेलिंग में शब्द जितने कम होंगे, डायलॉग जितना क्रिस्प होगा, वो स्टोरी उतनी ही पसंद की जाएगी। वहाँ इन्टरप्रेटेशन और इन्फेरेन्स दोनों विज़ुअल और एक्शन के बग़ैर हो ही नहीं सकता। </div>
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एक और बहुत बड़ा अंतर है दोनों अलग-अलग किस्मों की स्टोरीटेलिंग में। आप कहानियाँ अपने लिए, और अधिक से अधिक अपने पाठकों के लिए लिखते हैं। लेखक और पाठक के बीच एक ही पुल होता है, बस एक ही - हवा में लटकता हुआ, अदृश्य, आज़ाद। लेकिन विज़ुअल स्टोरीटेलिंग में क्रिएटर और दर्शक के बीच का पुल कई खंभों पर टिका होता है। एक भी खंभा डगमगाया तो कहानी गई हाथ से। </div>
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मैं शायद इसी कोलैबोरेटिव प्रोसेस से डर रही थी। मुझसे किरदार इसलिए नहीं रचे जा रहे थे क्योंकि मेरे भीतर का रेज़िसटेन्स बहुत बड़ा था। मैं जो रच रही थी, उसे बाक़ी लोग किसी और तरीके से इन्टरप्रेट कर रहे थे, उसका इन्फ़ेरेंस कुछ और निकाल रहे थे। यानी, मैं जो लिख रही थी उसमें और मेरे सामने बैठा जो उसे विज़ुअलाइज कर रहा था उसमें एक बहुत बड़ा गैप था। </div>
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वो गैप इसलिए भी था क्योंकि एक राइटर के तौर पर मेरे दिमाग़ में क्लारिटी ही नहीं थी कि मैं क्रिएट क्या करना चाहती थी। You can't create without absolute clarity in your head. जो स्क्रीन पर दिखाई देता, जो संवादों के माध्यम से कहा जाता - उसके अलावा कई और भी तो ऐसे लम्हे थे जो वो किरदार जी रहे थे, जो उन किरदारों के एक्शन को तय करता था!</div>
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तो इस तरह कई महीनों के ऊहापोह के बाद प्रक्रिया समझ में आ रही थी थोड़ी-थोड़ी। </div>
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अव्वल तो ये कि आप आइसोलेशन में रहकर क्रिएट कर ही नहीं सकते, कम से कम इस फॉर्मैट के लिए तो बिल्कुल नहीं। </div>
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दूसरा, आप कितने ही कामयाब स्टोरीटेलर क्यों न हो, हर कहानी के साथ-साथ आपको ख़ुद को नए सिरे से रचना पड़ता है। स्टोरीटेलिंग के कम्फ़र्ट ज़ोन तक आप कभी पहुँच ही नहीं सकते। पूरी ज़िन्दगी लग भी जाए तब भी। आप स्क्रीनराइटिंग की स्किल हासिल कर सकते हैं, लेकिन क़िस्सागोई स्किल के साथ-साथ डिलिजेंस भी होती है जहाँ हर रचना के साथ आपको एक अँधे कुँए में उतरने का माद्दा रखना ही पड़ेगा। </div>
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तीसरा, जब तक आप डेस्क पर बैठेंगे नहीं और लिखेंगे नहीं तबतक कहानी पैदा कहाँ से होगी? हमारे दिमाग़ में चलनेवाली कहानियाँ काग़ज़ पर उतरनेवाली कहानियों और बाद में स्क्रीन पर दिखाई देने वाली कहानियों से एकदम जुदा होती है। आप बेशक अच्छे आइडिएटर होंगे, बिना एक्ज़ीक्यूशन के किसी कहानी का कोई मतलब ही नहीं होता। </div>
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चौथा, मदद माँगने में संकोच कैसा! मुझे अपनी कहानी के अहम मोड़, टर्निंग प्वाइंट्स तब समझ में आए जब मैंने बार-बार उस कहानी के बारे में अपने आस-पास के लोगों से बात की। उनसे उनके अपने तजुर्बे पूछे। हर रिस्पॉन्स के पीछे का तर्क समझने के लिए जब तक टीम के साथ लंबी बहस हुई नहीं, तब तक स्क्रिप्ट लिखी ही नहीं जा सकी। </div>
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पाँचवा, फ़ियरलेसनेस और करेज - निडरता और हिम्मत वो लाइफ़ स्किल है जिसे हम सबसे ज़्यादा अंडरएस्टिमेट करते हैं। और कुछ सिखाएँ न सिखाएँ, ख़ुद को और अपने बच्चों को, अपने से छोटों को, अपने आस-पास के लोगों को हिम्मत करना ज़रूर सिखाएँ। इस दुनिया को अगर हम कुछ पॉज़िटिव दे सकते हैं, तो वो यही भरोसा है। पूरी दुनिया इसी एक लाइफ़ स्किल के दम पर चलती है। क्रिएटिव प्रोसेस भी। </div>
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आख़िरी बात, हम लिखने के क्रम में कई बार फ़ेल होते हैं। कई बार अपने ही लिखे हुए पर उबकाई आती है। अपनी नालायकी पर दीवार पर सिर दे मारने का जी करता है। लेकिन असफलता के इन्हीं पत्थर-से लम्हों को तोड़कर कोई एक अंकुर फूट पड़ता है जिसकी किस्मत में पेड़ बन जाना होता है। बंजर ज़मीनों में खेत लगाने से पहले कई बार जोतना पड़ता है उनको। </div>
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और एक आख़िरी बात - इस बार पक्का आख़िरी ही - भरे-पूरे घर में प्रेम बोया-उगाया जाता है लेकिन इस ख़ुशहाली में आपके भीतर का रचनाकार आत्मसन्तोषी हो जाता है, बिल्कुल कम्पलेसेन्ट। और कम्पलेसेंसी से रचनाएँ नहीं निकल सकतीं। </div>
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इसलिए मैं साल में दो-चार बार अपने भरे-पूरे घर से भाग जाया करती हूँ। बच्चों से छुपकर उदास नज़्में सुनती हूँ, अपने भीतर की तन्हाई बचाए रखती हूँ और याद दिलाती रहती हूँ कि ख़ुद को कि समंदर की गहराईयों में भी बवंडर और तूफ़ान छुपा करते हैं। ख़ुशी मेरे साथ-साथ चलती है, मेरे कांधों पर उड़-उड़कर बैठी चली आती है और मैं उसे दुरदुराती रहती हूँ। उदास-सी शक्ल बनाती हूँ तो बिटिया होठों के दोनों कोरों खींचकर मेरे चेहरे पर मुस्कान चिपकाने चली आती है, किसी बात पर ख़ामोश होती हूँ तो बच्चे बार-बार मुँह चूमते हैं, गले लगाते हैं। चुप हो जाती हूँ तो घर की दीवारों को अपनी बातों, क़िस्सों और लतीफ़ों से रंगते रहते हैं। </div>
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और इसलिए भरे-पूरे घर को दूर पहुँचाकर मैंने अपने घर में अँधेरे जलाए और फिर लिखी उन चार लड़कियों की कहानी, उनके साथ रोई और उनके साथ खुलकर हँसती रही। और फिर पति और बच्चों के पास जाकर उनकी हथेलियों पर कई दुआएँ रखीं, उनके लिए अपने भीतर कई गुना प्यार और इज्ज़त को बढ़ाती रही, ये वायदा किया ख़ुद से कि मेरा परिवार, मेरा सपोर्ट सिस्टम, मेरे यार-दोस्तों के लिए ही करूँगी जो भी करूँगी। परिवार और काम, हक़ीकत और ख़्वाब, दिल और दिमाग़, रूह और जिस्म साथ-साथ ही रहेंगे। हमेशा। </div>
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क्रिएटिव प्रॉसेस एक टाइटरोप वॉक भी है बॉस! </div>
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Anu Singh Choudharyhttp://www.blogger.com/profile/00504515079548811550noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-361816811593679767.post-81365886344127967402016-10-04T08:36:00.003+05:302016-10-04T11:11:00.426+05:30सेरेन्डिपिटी भी कोई चीज़ होती है यार!मैं अक्सर इस बात से हैरान होती हूँ कि कैसे दिमाग़ की कोई एक ख़लल अदना-सी ख़्वाहिश रच लेती है, मन उस ख़्वाहिश को पालता-पोसता रहता है और फिर अचानक कुछ ऐसा होता है कि सारी वाह्य ताकत मिलकर उस ख़्वाहिश को पूरा करने में लग जाती है। अगर इसे <i>लॉ ऑफ़ अट्रैक्शन</i> की कोई एक टूटी-फूटी थ्योरी ही मान लें तब भी मैंने अपनी ज़िन्दगी में कई बार इस थ्योरी को काम करते देखा है।<br />
<br />
पिछले हफ़्ते मैं अपनी साइकोथेरेपिस्ट के पास बड़ी हैरान-परेशान गई थी। मेरे पास मेरी नाजायज़ दुश्चिताओं का पिटारा था। हाल ही में एक सहेली के पति का अचानक सफ़र से लौटते हुए देहांत हो गया। दोनों पति-पत्नी अपनी बच्ची को विदेश की एक यूनिवर्सिटी में छोड़कर वापस अपने शहर लौट रहे थे। हवाई जहाज़ में ही दिल का दौरा पड़ा और उतरते-उतरते तक, अस्पताल तक पहुँचते पहुँचते तक उस दिल के दौरे ने एक अच्छे-ख़ासे सेहतमंद इंसान की जान ले ली। इस हादसे के लिए कोई तैयार नहीं था। हादसे के लिए कब कहाँ कोई तैयार हो पाता है!<br />
<br />
मैंने मौत को कई बार बहुत करीब से देखा है। आख़िरी हिचकी में साँस जाते हुए देखा है, और जानती हूँ कि जिससे आप बेइंतहा मोहब्बत करते हैं, जिसके इर्द-गिर्द आपकी दिनचर्या चलती है, जिसके होने से आपके वजूद का एक हिस्सा है उसके चले जाने का, और इस तरह अचानक बड़ी तकलीफ़ में चले जाने का अफ़सोस और उस अफ़सोस से पैदा हुई असहायता कितनी बड़ी होती है। रात को अपने बिस्तर पर लेटो तो वो अफ़सोस, वो हेल्पलेसनेस हज़ारों सूई की नोंक से पूरे बदन, पूरी सोच को छलनी किए रहता है।<br />
<br />
और चिंता की फ़ितरत तो मालूम है न? चुंबक से भी ख़तरनाक तासीर है उसकी। एक पालो तो हज़ार लोहे के कील की तरह की शंकाएँ आकर्षित करती है अपनी ओर। <br />
<br />
बहरहाल, मैं अपनी थेरेपिस्ट के सामने बैठी थी। एक हज़ार शिकायतों का पिटारा था। मेरी पीठ पिछले एक महीने से इस बुरी तरह तकलीफ़ में थी कि मेरा उठना-बैठना-चलना मुश्किल था। मेरे भीतर एक अजीब किस्म का डिटैचमेंट पैदा हो रहा था। दुनिया को छोड़-छाड़ कर किसी गुमनाम जगह भाग जाने की ख़्वाहिश सिर उठाने लगी थी। रात-रात भर ये ख़्याल आता था कि अगर हममें से कोई एक भी मर गया तो ज़िन्दगी में क्या थमेगा, क्या चलेगा। सवालों की शख़्सियत किसी लिहाज से ख़ुशमिजाज़ तो कतई नहीं थी। हम क्यों हैं, किसलिए हैं, ये भागदौड़ क्यों, जीवन का मकसद क्या, मरकर क्या और जीकर क्या। बेतुके। बेहद बेतुके सवाल।<br />
<br />
हम भरे-पूरे भी कमाल हैं, और तन्हा भी कमाल हैं।<br />
<br />
थेरेपिस्ट ने कहा, "आँखें बंद करो और उन तीन लम्हों के बारे में सोचो जब <i>यू फ़ेल्ट लकी, रियली रियली लकी</i>।" ऐसे तीन लम्हों के बारे में सोचना दुश्वार लगा। आँखें बंद किए सोचती रही। और बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के जवाब दिमाग़ में तोप से निकले गोलों की तरह गूँजने लगे।<br />
<br />
मुझे जन्म देने का सुख मिला है - एक बार में दो हसीन बच्चों को। और मुझे याद आए मेरे ही अपने लोग, जिन्होंने अपनी आधी ज़िन्दगी और पूरी कमाई एक बच्चे की कोशिश में निकाल दी।<br />
<br />
मेरी टूटी हुई पीठ और शरीर में बहुत सारी तकलीफ़ के बावजूद मेरे पास एक घर है जहाँ मैं सुकून से जी सकती हैं, परिवार है जो मेरी दुखती रग पर हर वक़्त पेनकिलर लगाने के लिए तैयार रहता है, और इतने तो पैसे हैं ही कि मैं एक सेशन के लिए थेरेपिस्ट की सर्विस लेने की क्षमता रखती हूँ।<br />
<br />
मुझे कई वो लम्हे याद आए जब मुझे प्यार मिला, बेइंतहा प्यार - एकदम अनकंडिशनल। ये लोग जो अपने पहलू में मेरे लिए जगह बनाते रहे हैं, मेरे दोस्त हैं, मेरे परिचित हैं, और कई बार तो अजनबी भी रहे हैं। ये वो लोग हैं जिनसे में काम-बेकाम, वक्त-बेवक्त, कभी ख़ुदगर्ज़ी में और कभी बेहद निस्सवार्थ भाव से मिलती रही हूँ। जिनसे अपना कुछ न कुछ बाँटती रही हूँ। ये बाँटना हमेशा इन्टैन्जिबल रहा है - अमूर्त। वक्त के रूप में, दर्द के रूप में, डर के रूप में, ख़्वाब के रूप में, यकीन के रूप में और शंकाओं के रूप में। इनमें से कईयों ने मेरे सामने सरेंडर किया यकीन से, कुछ के सामने मैं अपने भरोसे समेटने के लिए बिखरी हूँ। ये लोग क्यों हैं? ये लोग क्यों थे? किस्मत ही थी न! ख़ुश-किस्मत! लक! <br />
<br />
और फिर आँखें बंद किए-किए ही मुझे याद आया एक शब्द - <i>सेरेन्डिपिटी</i>!<br />
<br />
"<i>सो, अनु! ओपन योर आईज़ एंड टेल मी… व्हाट मेड यू फ़ील रियली रियली लकी?</i>" थेरेपिस्ट ने पूछा।<br />
<br />
"<i>सेरेन्डिपिटी। इन्सिडेन्ट्स ऑफ़ सेरेन्डेपिटी हैव मेड मी फ़ील रियली रियली लकी</i>," मैंने जवाब दिया।<br />
<br />
मैं सेरेन्डिपिटी नाम की एक गोली लिए लौट आई, इस सलाह के साथ कि मैं तबतक किसी की कोई मदद नहीं कर सकती जबतक ख़ुद ठीक न रहूँ। ये भी सच लगा कि मेरा डर किसी के काम नहीं आनेवाला था, उस सहेली के काम भी नहीं जो वैसे भी अपनी ज़िन्दगी से जूझ रही थी। शायद सेरेन्डिपिटी मेरे काम आती, शायद उसके लिए सेरेन्डिपिटी का इंतज़ार काम आता। <br />
<br />
शब्दकोश <i>सेरेन्डिपिटी</i> के लिए ये तर्जुमा देता है - आकस्मिक लाभ, या अकस्मात से कुछ खोज करना। मैं सेरेन्डिपिटी को सुखद संयोग से जोड़ती हूँ। सेरेन्डिपिटी मेरे लिए वो हसीन इत्तिफ़ाक़ है जो ज़िन्दगी में मेरा यकीन बचाए रखता है।<br />
<br />
जितनी ही बार मैं अचानक कुछ छोटा-बड़ा खोजने निकली हूँ, उतनी ही बार मेरे हाथ कुछ न कुछ लगा ज़रूर है। थेरेपिस्ट के सामने मैं एक्ज़िटेंशियल क्राइसिस के जवाब ढूँढने गई थी, जवाब में मुझे अपनी ही ज़िन्दगी का सबसे बड़ा हसीन राज़ मिल गया! सेरेन्डिपिटी ही तो है।<br />
<br />
एक मिसाल देती हूँ। पिछले हफ़्ते मुक्तेश्वर जाने से दो दिन पहले मेरे पब्लिशर शैलेश भारतवासी मुझसे मेरे घर पर मिलने आए, इसलिए क्योंकि मैंने अपनी ही कुछ किताबें मँगाई थीं उनसे। बातों बातों में अपने नए प्रोजेक्ट के बारे में बात करते हुए मैंने शैलेश से कहा कि मैं एक मेल सिंगर की तलाश कर रही हूँ। शैलेश ने मुझे एक युवा सिंगर का नाम बताया, और हम दोनों ने मिलकर यूट्यूब पर उस सिंगर को खोजने की बहुत कोशिश की लेकिन मेरे हाथ कुछ न आया। बस सिंगर का नाम रह गया ज़ेहन में - हरप्रीत।<br />
<br />
दो दिन बाद मैं शताब्दी में थी। कोई प्लानिंग थी नहीं लेकिन उसी ट्रेन में शैलेश दिखे - अकस्मात। और शैलेश को देखते ही मेरे दिमाग़ में फिर वो नाम आया - हरप्रीत, और ये कि मुझे वापस दिल्ली लौटकर इस सिंगर का पता करना है।<br />
फिर मैं मुक्तेश्वर में थी, बल्कि सोनापानी के एक रिसॉर्ट में, जहाँ हम इकलौते मेहमान थे। मेज़बानों से बात करते हुए पता चला कि सोनापानी एक म्यूज़िक फ़ेस्टिवल और फ़िल्म फ़ेस्टिवल ऑर्गनाइज़ करता है। कुछ फ़ितरत मिलती थी, और कुछ बातचीत में मज़ा आ रहा था इसलिए मैंने अपने मेज़बानों से अपने नए प्रोजेक्ट की बात की और उन्हें वो गाने भी सुनाए जो हमने कम्पोज़ करवाए थे।<br />
<br />
मेरी मेज़बान दीपा ने कहा, "तुमने हरप्रीत को सुना है कभी?" मैं चौंक गई। ये वही नाम तो था जिसके बारे में मैं पता करने की कोशिश कर रही थी! दीपा अपना आईपैड ले आई और मैंने हरप्रीत के कुछ गीत वहीं बैठे-बैठे ही सुन लिए। अगले दो घंटे में मेरे पास न सिर्फ़ हरप्रीत की पूरी सीडी थी (जो मुझे दीपा ने तोहफ़े में दी) बल्कि तीन दिन के भीतर दिल्ली में हरप्रीत से मिलवाने का वायदा भी था (मैं आज हरप्रीत से मिल रही हूँ!)।<br />
<br />
सोचा कहाँ, खोजा कहाँ और खोज पूरी कहाँ जाकर हुई!<br />
<br />
ये है सेरेन्डिपिटी। अब सोच रही हूँ तो ध्यान में आ रहा है कि जिस प्रोजेक्ट के लिए मैं हरप्रीत से एक बार मिलना चाहती थी, वो पूरा का पूरा प्रोजेक्ट ही सेरेन्डिपिटी के दम पर निकला है (उस प्रोजेक्ट - <i>द गुड गर्ल शो</i> के बारे में बातें फिर कभी)। इतनी ही अहमियत रखते हैं ये हसीन इत्तिफ़ाक़ और हम बेकार में अपना रोना लेकर दुनिया भर में भटकते फिरते हैं। अपने ग़म, अपने दुख, अपने डर बचाए रखते हैं ताकि लोगों के हिस्से के प्यार हमें मिलता रहे। दुनिया को एक ग़मगीन इंसान ख़ूब प्यारा होता है। दुख में डूबे गीत सबसे हसीन होते हैं। टूटे हुए एक दिल के क़िस्से बटोरने वाला कहानीकार हम सबका अजीज़ होता है।<br />
<br />
लेकिन फिर भी, सेरेन्डिपिटी भी एक चीज़ होती है यार जो बटोरती है, समेटती है, यकीन देती है। ये <i>सेरेन्डिपिटी</i> अकाट्य, अटल <i>लॉ ऑफ़ अट्रैक्शन</i> का अकाट्य, अटल सत्य है।Anu Singh Choudharyhttp://www.blogger.com/profile/00504515079548811550noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-361816811593679767.post-14557208909051790702016-09-30T09:08:00.000+05:302016-09-30T09:08:22.361+05:30नापना पहाड़, छूना गहराईयाँ!
<div class="p1">
<span class="s1">आदित पहाड़ की एक चोटी पर खड़ा है। अभी-अभी ठीक दस मिनट पहले मैंने उस चोटी से नीचे झाँकने की ज़ुर्रत की थी। बड़े-बड़े नुकीले पत्थरों से बना हुआ पहाड़ का वो हिस्सा कई छोटी छोटी पहाड़ियों में बँटता हुआ नीचे मुक्तेश्वर की खाई में कहाँ जाकर मिलता है, चोटी से आप ये नहीं देख सकते। नीचे दूर तक पसरी मुक्तेश्वर की गहरी खाई है, गाँव हैं, घर है कहीं कहीं और हरियाली को चूमते बादल हैं। हमें यहाँ तक लेकर आए हमारे ड्राईवर खेमराज साब का दावा है कि मुक्तेश्वर वैली उत्तराखंड की सबसे बड़ी, सबसे खुली हुई वैली है। मैं एक बार फिर नीचे झाँककर देखती हूँ। वाकई, ये जगह खुलकर साँस लेती-सी लगती है! हालाँकि जिस तेज़ी से पर्यटन के व्यवसाय के लिए पहाड़ कट रहे हैं और गाँव गायब हो रहे हैं, उतनी ही तेज़ी से ये वैली सिकुड़ती जा रही है। </span></div>
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://2.bp.blogspot.com/-OSbL4xvZbkM/V-3YijuIKII/AAAAAAAADg4/25Lzb5TSnAU3aivSfOFkP9yPUuvDoFSFQCLcB/s1600/AditAdya.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="225" src="https://2.bp.blogspot.com/-OSbL4xvZbkM/V-3YijuIKII/AAAAAAAADg4/25Lzb5TSnAU3aivSfOFkP9yPUuvDoFSFQCLcB/s400/AditAdya.jpg" width="400" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">"हम कितना नीचे जा सकते हैं, माँ?"</td></tr>
</tbody></table>
<div class="p1">
<span class="s1"><br /></span></div>
<div class="p2">
<span class="s1"></span><br /></div>
<div class="p1">
<span class="s1">ध्यान वापस आदित की ओर है जो अभी भी पहाड़ की चोटी पर खड़ा अपने ट्रेनरों के निर्देश को ध्यान से सुन रहा है। नीचे की खाई और आदित के बीच का फ़ासला देखकर मेरा कलेजा मुँह को आ जाता है। धड़कनों की आवाज़ तेज़ होते-होते चेहरे पर पसरने लगती हैं। मेरे भीतर से कोई चीख-चीखकर कहने को बेताब है, "बेटा, उतर जाओ वहाँ से। कोई ज़रूरत नहीं है एडवेंचर करने की। रैपलिंग या रॉक क्लाइम्बिंग नहीं करोगे तो दुनिया इधर की उधर थोड़े न हो जाएगी?" </span></div>
<div class="p1">
<span class="s1"><br /></span></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://3.bp.blogspot.com/-KAr0TOrH2y4/V-3ZHXtAyQI/AAAAAAAADg8/lnaFl2tHOcsXf2n5sIlbN22Cn3-OYwt6gCLcB/s1600/Adit03.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="320" src="https://3.bp.blogspot.com/-KAr0TOrH2y4/V-3ZHXtAyQI/AAAAAAAADg8/lnaFl2tHOcsXf2n5sIlbN22Cn3-OYwt6gCLcB/s320/Adit03.jpg" width="180" /></a></div>
<div class="p1">
<span class="s1">बेवकूफ़ी है, इस तरह पहाड़ नापने की कोशिश। </span></div>
<div class="p1">
<span class="s1"><br /></span></div>
<div class="p1">
<span class="s1">मुझे सुहैल शर्मा की याद आ जाती है जो 2015 के एवरेस्ट एवलांच में मौत को छूकर आया था, और फिर निकल गया था अगली ही टोली के साथ एवरेस्ट की चोटी छूकर आने की ख़ातिर। मैं सुहैल से काठमांडू में मिली थी, नेपाल भूकंप के दौरान। पूछा था मैंने उससे कि पहाड़ों से ख़तरे मोल लेने की ये कौन-सी आदत है? उसने मुझे एक सिर्फ़ एक जवाब दिया था, "मैं एवरेस्ट की चोटी पर खड़ा होकर एक हाथ में अपने पापा की तस्वीर और दूसरे में तिरंगा लिए एक फ़ोटो ऑप चाहता हूँ बस।" मैं जवाब की अगली कड़ियों का इंतज़ार करती रही थी। बड़ी देर से समझ आया था कि सुहैल का जवाब ख़त्म हो गया था। वो वाकई बस इसी एक लम्हे के लिए अपनी जान हथेली पर लिए एवरेस्ट को नापने निकला था। पागल कहीं का!</span></div>
<div class="p2">
<span class="s1"></span><br /></div>
<div class="p1">
<span class="s1">लेकिन आदित - दस साल का आदित - इस रॉक क्लाइम्बिंग के लिए क्यों निकला था? मैं क्यों बुत बैठे उसे वो करते हुए देख रही थी जो वो करना चाहता था? मैं चीख-चीखकर उसे मना क्यों नहीं कर रही थी? जहाँ मेरा बेटा खड़ा था वहाँ से नीचे जाने पर किसी इंसानी जिस्म का क्या हाल हो सकता था, मेरे लिए ये सोच भी वर्जित थी। लेकिन मन का क्या है?! वर्जनाएँ तोड़-तोड़कर शंकाओं के लिए नई-नई ज़मीनें तलाश करता रहता है ये मन!</span></div>
<div class="p2">
<span class="s1"></span><br /></div>
<div class="p1">
<span class="s1">आदित उतनी देर में रस्सियों में बँधा हुआ पहाड़ से नीचे उतरने लगा था। पत्थर पर पाँव रखकर नब्बे डिग्री पर अपने शरीर को झुलाता हुआ, संभल संभल कर हवा में लटके अपने शरीर के लिए पैरों से अपने लिए ज़मीन तलाश करता हुआ... पहाड़ की चोटी और सत्तर फीट नीचे तक के उसके सफ़र के बीच दो इंस्ट्रक्टर उसकी हौसला अफ़्ज़ाई कर रहे थे, एक ऊपर से और एक नीचे से। मैं वहाँ से अलग होकर बैठी थी, करीब पचास फीट दूर, चुपचाप उसके एक-एक कदम के साथ अपनी साँस-साँस गिनती हुई। </span></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://2.bp.blogspot.com/-je12RfwnYQs/V-3ZpNxTMQI/AAAAAAAADhA/rihZjcIP6zIFTFX1IE6YmK1oG9dZ-djEACLcB/s1600/Adit02.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="320" src="https://2.bp.blogspot.com/-je12RfwnYQs/V-3ZpNxTMQI/AAAAAAAADhA/rihZjcIP6zIFTFX1IE6YmK1oG9dZ-djEACLcB/s320/Adit02.jpg" width="180" /></a></div>
<br />
<div class="p2">
<span class="s1"></span><br /></div>
<div class="p1">
<span class="s1">दूर कहीं से किसी के गाने की आवाज़ आ रही थी। जहाँ हम थे वहाँ सैलानी मुक्तेश्वर घाटी का 220डिग्री नज़ारा देखने के लिए आते हैं। खुले हुए दिनों में नंदादेवी भी दिखाई पड़ती हैं वहाँ से, लेकिन उस दिन घने बादलों और धूप के बीच की लुकाछिपी थी। सैलानियों का आना शुरू हो गया था। गानेवाला गाइड उनके मनोरंजन के लिए कभी मोहम्मद रफी तो कभी सुरेश वाडेकर की घटिया नकल उतार रहा था। कुमार सानू तक आते-आते उसको झेलना आसान हो गया था। जितनी बार वो होSSSओSSS का आलाप लेता, उतनी बार मुझे इस बात का डर लगने लगता कि कहीं आदित का ध्यान उसकी बेसुरी आवाज़ से तो नहीं भटक जाएगा। </span></div>
<div class="p2">
<span class="s1"></span><br /></div>
<div class="p1">
<span class="s1">लेकिन ऊपर बढ़ती सैलानियों की भीड़ से बेपरवाह आदित जितनी सहजता से धीरे-धीरे नीचे उतरता चला गया था, उतनी ही आसानी से ऊपर चढ़ने की शुरुआत भी कर दी थी उसने। उसके इंस्ट्रक्टर और ऊँची आवाज़ में उसे निर्देश देने लगे थे, मेरे बगल में बैठी आद्या की जकड़ मेरे हाथ पर मज़बूत होती चली गई थी। आदित के बाद इस एडवेंचर के लिए आद्या को उतरना था। </span></div>
<div class="p2">
<span class="s1"></span><br /></div>
<div class="p1">
<span class="s1">आदित के ऊपर पहुँचते ही बिना देर किए मैंने आद्या को पहाड़ की ओर धकेल दिया। अब जाओ, तुम भी कर लो अपनी ज़िद पूरी! भीड़ बढ़ती जा रही थी। पता नहीं कहाँ से गुजराती टूरिस्टों का एक पूरा जखीरा उस पहाड़ पर उतर आया था। जिन रस्सियों को दूर ले जाकर पेड़ों में बाँधा गया था, और जिनके सहारे बच्चे उतर रहे थे, उन रस्सियों को लोग आते-जाते उठा-उठाकर देखते। किनारे से चलने की ज़ेहमत किसी को गवारा नहीं थी। इंस्ट्रक्टर चिल्लाते रहे, लेकिन लोग उन्हीं रस्सियों के आर-पार आते-जाते रहे। मुझे डर था कि कहीं रस्सियाँ ढीली होकर बच्चों को नुकसान न पहुँचा दे। तबतक आद्या के कमर में रस्सियाँ बँध चुकी थी और अब पहाड़ की चोटी पर खड़ी होने की बारी उसकी थी। </span></div>
<div class="p2">
<span class="s1"></span><br /></div>
<div class="p1">
<span class="s1">मैं जहाँ थी, वहीं बैठी रही। बस दो बार चीखकर लोगों पर रस्सियाँ छूते ही बरसी थी। उससे ज़्यादा योगदान मेरा था नहीं। बच्चे अपना डर एडवेंचर करते हुए निकाल रहे थे, मेरे लिए उनको देखकर अपना जिगर संभाले रखने का काम ही बहुत था। </span></div>
<div class="p2">
<span class="s1"></span><br /></div>
<div class="p1">
<span class="s1">आद्या के पैर काँप रहे थे। चोटी से उतरते हुए उसके कदम डगमगाने लगे थे। उसके चेहरे पर डर साफ़ दिखाई दे रहा था। भीड़ बढ़ गई थी और आस-पास पहाड़ों से झाँकती हुई, आद्या को देखती हुई गुजराती पब्लिक की लाइव कमेन्ट्री भी चालू हो गई थी। "देख न, छोरी को देख... क्या कर रही है!" "अरे रस्सी बँधी हुई है।" "तो क्या हुआ?" "आप माँ हो उसकी?" मेरे बगल में एक अधेड़ अंकल आकर खड़े हो गए। मैंने कुछ कहा नहीं, सिर्फ़ सिर हिला दिया। "इसमें क्या मज़ा मिल रहा है आपको, हैं? बच्चों को ऐसे नीचे उतार दिया? कुछ हो-हवा गया तो?" मैं चुपचाप आद्या को देख रही थी। उसके पैर अभी भी काँप रहे थे। अपनी बहुमूल्य राय मुझसे बाँट लेने के बाद अंकल पहले आद्या का, और फिर मुक्तेश्वर घाटी का वीडियो लेने में मसरूफ़ हो गए। मेरे जी में एक बार को आया कि उनके हाथ से फ़ोन खींचकर नीचे पहाड़ों के बीच कहीं फेंक दूँ! </span></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://4.bp.blogspot.com/-O7GV-z1YhfU/V-3bONt63wI/AAAAAAAADhM/pIpFL_b39sQA5Ptdbjyru8jLgiSB-z1MgCLcB/s1600/Adit04.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="400" src="https://4.bp.blogspot.com/-O7GV-z1YhfU/V-3bONt63wI/AAAAAAAADhM/pIpFL_b39sQA5Ptdbjyru8jLgiSB-z1MgCLcB/s400/Adit04.jpg" width="225" /></a></div>
आद्या मुश्किल से दस फीट भी नहीं उतर पाई थी। या तो वो डर गई थी, या फिर लोगों की इतनी बड़ी भीड़ देखकर इतनी नर्वस हो गई थी कि उसे इंस्ट्रक्टरों के निर्देश ठीक से समझ नहीं आ रहा था। वजह जो भी हो, वो डर के बार-बार रस्सी छोड़ देती थी और उसका शरीर पहाड़ से टकराते हुए झूल जाता था। मैं चीख भी नहीं सकती थी। तमाशा देखनेवालों की भीड़ ने वो ज़िम्मा उठा लिया था।<br />
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<div class="p1">
<span class="s1">इतनी देर में आद्या को देखने की ख़ातिर आदित उसी बड़े से पत्थर के कोने से झाँकने लगा जहाँ से रैपलिंग की शुरुआत होती थी। मैंने दूर से देखा कि उसका आधा शरीर पहाड़ से लटका हुआ है और वो वहीं से अपनी बहन का हौसला बढ़ाने की कोशिश कर रहा है। भीड़ की रनिंग कमेंट्री की झल्लाहट थी और आद्या की डर का डर भी था, मैं ज़ोर से आदित पर चिल्लाई। आदित ने सहमकर अपना शरीर पत्थर के पीछे खींच लिया और दूर कोने में जाकर बैठ गया। बिना आदित पर ध्यान दिए मैंने चिल्लाकर आद्या से कहा कि अगर उसका एडवेंचर करने का मन नहीं है तो वो वापस आ सकती है। "यू हैव ट्राइड वेल आदू। वापस आने का मन हो तो बोलो," मैंने कहा। </span></div>
<div class="p2">
<span class="s1"></span><br /></div>
<div class="p1">
<span class="s1">आद्या ने मेरी नहीं सुनी और धीरे-धीरे पहाड़ उतरती रही। नाराज़ होकर बैठ उसके भाई ने नहीं देखा कि कैसे अचानक आद्या के पैर बड़े भरोसे के साथ पत्थरों के कोने तलाशते हुए अपने लिए ग्रिप ढूंढ रहे हैं और फिर कैसे उन्हीं ग्रिप को खोजते हुए वो वापस ऊपर चढ़ने लगी है। बल्कि क्लाइम्बिंग का सफर उसने बड़ी तेज़ी से तय किया। चीखने-चिल्लाने वाली भीड़ अब आद्या के लिए तालियाँ बजा रही थी। लोग साँस रोके पत्थरों के पीछे से झुक-झुककर उसके ऊपर आने का इंतज़ार कर रहे थे। कुछ लोगों ने तो ऊपर से ही उसके लिए ग्रिप ढूँढने का काम शुरू कर दिया था। "बच्ची, बाएँ देखो बाएँ..." "तुम्हारे पैर के दस इंच नीचे… हाँ हाँ बस उधर ही उधर ही…" "अपना शरीर ऊपर खिसकाओ… न न… रस्सी दाएँ से नहीं, बाएँ से पकड़ो…!" </span></div>
<div class="p1">
<span class="s1"><br /></span></div>
<div class="p1">
<span class="s1">कुछ लोगों के शोरगुल का असर था, कुछ आद्या के भीतर लौट आया आत्मविश्वास था - आद्या बड़ी तेज़ी से ऊपर चढ़ते हुए वापस पहाड़ की चोटी पर जा खड़ी हुई। लोग उसके लिए तालियाँ बजा रहे थे, चियर कर रहे थे। कोने में आदित मुँह फुलाए आँसू बहा रहा था। मैं उसको चढ़ते देखते हुए इतनी मशगूल हो गई कि उसकी तस्वीरें लेना ही भूल गई! </span></div>
<div class="p1">
<span class="s1"><br /></span></div>
<div class="p1">
<span class="s1">आदित पहले उतरा था, डरा भी नहीं था, बहादुरी से एडवेंचर किया था उसने। जबकि आद्या डर रही थी। उसका पूरा शरीर काँप रहा था। वो तो आद्या से ज़्यादा बहादुर था। लेकिन इतने सारे लोगों ने उसके लिए तालियाँ तो बजाईं नहीं। ऊपर से मम्मा की डाँट पड़ी सो अलग। </span></div>
<div class="p2">
<span class="s1"></span><br /></div>
<div class="p1">
<span class="s1">मैंने दोनों बच्चों को गले लगाया। आदित को दो मिट्ठू ज़्यादा मिले - एक उसकी बहादुरी के लिए, और एक माफ़ी के तौर पर। गुजराती सैलानियों की टीम बिखरकर चौली की जाली की ओर बढ़ने लगी थी। लेकिन नाना-नानी, बाबा-दादी, काका-काकी की उम्र के लोग आते-जाते बच्चों के सिर पर हाथ फिरा रहे थे। आद्या के कंधों को ज़्यादा शाबाशियाँ मिलीं। आदित के सिर पर हाथ फिराने के लिए लोगों को मैं और बच्चों के इंस्ट्रक्टर, दोनों को याद दिलाना पड़ता था। </span></div>
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<div class="p1">
<a href="https://3.bp.blogspot.com/-se-z1kwvvZ0/V-3c27CaL3I/AAAAAAAADhc/Ta1NSQQP-ZoWb3yt0gKpXkMuU4Ikaw-2ACLcB/s1600/Wewalktogether.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;"><img border="0" height="320" src="https://3.bp.blogspot.com/-se-z1kwvvZ0/V-3c27CaL3I/AAAAAAAADhc/Ta1NSQQP-ZoWb3yt0gKpXkMuU4Ikaw-2ACLcB/s320/Wewalktogether.jpg" width="180" /></a><span class="s1">और इस एडवेंचर ने मुझे - आदित और आद्या की मम्मा को ज़िन्दगी के दो-चार सबक हाथ-ओ-हाथ दे दिए। </span></div>
<ul class="ul1">
<li class="li1"><span class="s1">हममें से अधिकांश लोग चोटी पर बैठे हुए खाई की ओर देख रहे होते हैँ। छलाँग लगाकर गहराई को नापने की हिम्मत जो रखता है, क़ायनात उसी के हिस्से में हैरानियाँ और चमत्कार रखती है।</span></li>
<li class="li1"><span class="s1"><i>लीप एंड द नेट विल अपियर</i>। कूदो और ये यकीन रखो आसमानों के पास तुम्हारी हिफ़ाज़त के लिए रस्सियों के जाल फेंकने का हुनर है। <i>ऑल्वेज़ हैव फेथ</i>। </span></li>
<li class="li1"><span class="s1">डर जीतना बड़ा होता है, उस पर जीत उतनी ही बड़ी होती है। </span></li>
<li class="li1"><span class="s1">तुम्हारी किस्मत कभी आदित की तरह होगी कि तुम्हारी बहादुरियों और जज्बे से ज़्यादा आद्या-सी कोशिशों पर तालियाँ बजेंगी, तारीफ़ें मिलेंगी। लेकिन पहाड़ नापने की हिम्मत न हम तालियों के लिए करते हैं न तारीफ़ों के लिए। वो हिम्मत हम अपने लिए करते हैं, ख़ुद गिरते संभलते हैं। तालियाँ और वाहवाहियाँ फ्रिंज बेनेफ़िट हो सकती हैं, लक्ष्य नहीं। लक्ष्य तो चिड़िया की आँख है। सॉरी, पहाड़ की वो चोटी, जिसपर सही सलामत लौट जाना है। </span></li>
<li class="li1"><span class="s1">तुम्हें गिरते-सँभलते देखकर किनारों पर से चीख-चीखकर सलाह देने वाले बहुत मिलेंगे। तुम्हारे गिरने पर वो कहेंगे, "हम न कहते थे?" तुम्हारी जीत पर कहेंगे, "हमें तो इसके दम-खम का पहले से अंदाज़ा था!" जहाँ खड़े हैं वहाँ से उनके वश में इतना ही है बस। उनकी परवाह न करना, उनसे ख़ुद को बचाए रखना इस दुनिया का सबसे दुरूह मेडिटेशन है। </span></li>
<li class="li1"><span class="s1">ज़िन्दगी की गहराईयों और ऊँचाईयों को नापने-पहचानने का काम हम अपने लिए करते हैं, किसी के सामने कुछ प्रूव करने के लिए नहीं। हम ख़तरे अपने लिए उठाते हैं। अपने डर अपने लिए बचाए रखते हैं और अपने लिए उनपर फ़तह हासिल करते हैं। (सुहैल मर के लौट आने के बाद भी एवरेस्ट पर चढ़ाई के लिए क्यों निकल पड़ा था, अचानक ये बात मुझे समझ आ गई थी!) </span></li>
<li class="li1"><div style="text-align: left;">
<a href="https://3.bp.blogspot.com/-Vr84JDrcJ5M/V-3cuSZAMvI/AAAAAAAADhY/32UVRbhX5L8gWPTdvuIv1FqzWSNPI1OJACLcB/s1600/GettingReady.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em; text-align: center;"><img border="0" height="320" src="https://3.bp.blogspot.com/-Vr84JDrcJ5M/V-3cuSZAMvI/AAAAAAAADhY/32UVRbhX5L8gWPTdvuIv1FqzWSNPI1OJACLcB/s320/GettingReady.jpg" width="180" /></a>और आख़िरी बात - मुझे अब लगातार ब्लॉग लिखना शुरू कर देना चाहिए। यूँ लग रहा है कि जैसे मैंने अपनी किसी प्यारी सहेली से दिल की बात कह दी हो! </div>
<span class="s1"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://3.bp.blogspot.com/-Vr84JDrcJ5M/V-3cuSZAMvI/AAAAAAAADhY/32UVRbhX5L8gWPTdvuIv1FqzWSNPI1OJACLcB/s1600/GettingReady.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><br /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</span></li>
</ul>
<div class="p1">
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Anu Singh Choudharyhttp://www.blogger.com/profile/00504515079548811550noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-361816811593679767.post-38397007969269073122016-02-05T09:48:00.003+05:302016-02-05T09:48:23.521+05:30इश्क़, ख़ुदा और पछतावाकहाँ से शुरु करे कोई जब छूटी हुई दास्तानों का सिरा मौसमों की आवाजाही में भटक गया हो कहीं।<br />
<br />
ज़िन्दगी क़ायदों के राग अलापती है और बेतरतीबी से बाज़ नहीं आती। बच्चे गोद से उतरकर शहर की सड़कें नापने लगे हैं। तोतली बोलियों की ज़ुबान पुख़्ता, भरे-पूरे निर्देशों में तब्दील हो चुकी है। जब बच्चों की अभिव्यक्ति का अंदाज़ बदल गया है तो फिर ज़िन्दगी कैसे वैसी की वैसी रहे जनाब? ज़िन्दगी भी बदली है, और हमने उसके मायने भी बदल डाले हैं। उस गंभीर, दार्शनिक मुद्दे पर गहन बातचीत फिर कभी।<br />
<br />
लेकिन वाकई वजूद से जुड़े सवाल बदल गए हैं। मैं कौन हूं और कहां हूं, क्यों हूं जैसे सवालों की जगह कहीं ज़्यादा व्यावहारिक सवालों ने ले ली है। एटमॉस्फियर में कितनी परतें होती हैं और हर लेयर का काम क्या है? फ्रिक्शन और ग्रैविटी के बीच का रिश्ता क्या है? पार्ट्स ऑफ स्पीच कितने किस्म के होते हैं? मिक्स्ड फ्रैक्शन को सिर्फ दो स्टेप में डेसिमल में कैसे बदलेंगे? फोटोसिंथेसिस की परिभाषा क्या है?<br />
<br />
सवाल दरिया की लहरे हैं। मैं नाचीज़, नासमझ, मूढ़ उनमें कतरा-कतरा विकीपीडिया के लिंक्स डालती रहती हूं।<br />
मेरे बालों में अब इतनी ही सफेदी उतर आई है कि मैं उन्हें मेहंदी की लाल परतों के नीचे छुपाने की नाकाम कोशिश भी नहीं करती। इतना ही सुकून आ चला है भीतर कि जिस्म का फ़िजिक्स न दिन के चैन पर हावी होता है न रातों की नींद उड़ाता है। पढ़ लिया बहुत। पढ़ लिया मर्सिया कि उम्र अब चेहरे पर अपने रंग दिखाने लगी है। आंखें कमज़ोर होती हों तो हों, नज़र तो नहीं बदली न। उंगलियों पर शिकन पड़ती हो तो पड़े, मोहब्बत पर पकड़ तो ढीली नहीं हुई। पैर कमज़ोर हुए हों तो क्या है, कोई बरसों पुराना दोस्त, कोई अज़ीज़, कोई जानशीं महबूब एक बार बुलाओ और मैं न आऊँ तो फिर कहना। दिन घट रहे हैं तो क्या हुआ? ज़िन्दगी तो बढ़ रही है हर रोज़। <br />
<br />
सुकून है। है सुकून कहीं भीतर। उम्मीद के आख़िरी पुल पर ही सही, लेकिन बैठा है वो कहीं - महबूब। ज़र्रा-ज़र्रा नूर बिखराता, वस्ल की डूबती-उतराती शामों को रौशन करता, हम आशिक़ों के सब्र का इम्तिहान लेता है वो। कई जिस्मों, कई ज़िन्दगियों से होकर कई सूरतों में उसको ढूंढते हुए जो हर बार ये रूह मौत और ज़िन्दगी के बीच की जो हज़ारों यात्राएं करती है, उसी के लिए करती है।<br />
<br />
इसलिए सुनो ओ इश्क़ में डूबे हुए एक मारी हुई मति के बदकिस्मत सरताज, जिससे मिलना प्यार से मिलना। उंगलियों से यूँ छूना कि कई जन्मों की गिरहें खुलकर फ़ानी हो जाएं। साबुन के टुकड़े-सा यूँ पिघलना हथेलियों पर कि कई जन्मों के पाप धुल जाएँ। जितना बार गुज़रना अपने किसी महबूब के जिस्म से होते हुए, ऊँचे पहाड़ों और गहरी घाटियों में उलझी-हुई बेचैन हवाओं की तरह गुज़रना। उसके जिस्म को ख़ुदा का ठौर समझना और अपने इश्क़ को सज्दा।<br />
<br />
जिस दिन इतनी निस्वार्थ मोहब्बत तुममें आ जाएगी, उस दिन तुम वस्ल और फ़िराक़ की दुश्चिंताओं से आज़ाद हो जाओगे। फिर मत पढ़ना तुम गीता और पुराण। मत रटना आयतें। मत सुनना ओल्ड टेस्टामेंट से मूसा की ज़िन्दगी और मौत की कहानियां। उस दिन - उस एक दिन - बन जाओगे तुम इंसान।<br />
<br />
लेकिन तब तक चलो गमलों में बंद तुलसी के सेहत की फ़िक्र करें। रंग-बिरंगे गेंदे के फूलों की मालाएँ गूंधे। अगरबत्ती और धूप की ख़ुशबुओं में छुपाएँ अपने मन के कोनों में चढ़ी मैल के दुर्गंध। चढ़ते हुए सूरज के सामने हाथ बांधे रटते रहें अपने मुरादों की अंतहीन सूचियाँ और ढ़ारते रहें शिवलिंग पर गंगा के कई तीरों से जुटाया गया जल।<br />
<br />
तब तक चलो फिर से झाड़ लें अपने जानमाज़ की धूल और सभी मेहराबों का मुँह मोड़ दें काबे की ओर।<br />
<br />
सुनो, जमा कर लो दुनिया भर की मोमबत्तियाँ और रौशन कर डालो एक-एक गिरिजाघर को कि दिलों के अंधेरों को रौशन करने का कोई और रास्ता सूझता नहीं है।<br />
<br />
चलो न ढूंढे अपना कोई एक महबूब दरियादिल ख़ुदा जो आसानी से हमें हमारे गुनाहों से निजात दिला सके।<br />
<br />
...कि टूटकर मोहब्बत होती नहीं हमसे, और गुनाहों की गठरी अब ढोई नहीं जाती और।Anu Singh Choudharyhttp://www.blogger.com/profile/00504515079548811550noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-361816811593679767.post-79596686933446433662015-08-14T12:38:00.002+05:302015-08-14T12:39:54.940+05:30मसान से उपजा हुआ दुख <div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif;">
एक भारीपन है जो गया ही नहीं कल से। एक इम्पल्स में स्क्रीन खोलकर बैठ गई हूं, एक राईटर के इन्बॉक्स तक अपना संदेश पहुंचाने के लिए। इसलिए क्योंकि संवाद के बाकी सारे पब्लिक प्लैटफॉर्म बेमानी लग रहे हैं। मुझे वाहवाहियां नहीं लिखनी। न समीक्षा लिखनी है कि किसी ब्लॉग, किसी मैगेज़ीन में डाल दूं। मुझे तो बस अपना दुख बांटना है। मसान से उपजा हुआ दुख।<br />
<span style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif;"><br /></span></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif;">
<span style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif;">ज़िन्दगी ऑटोपायलट मोड में है, जो चलती रहती है। बच्चों का होमवर्क, प्लेट में बचे सहजन के टुकड़े और दो-चार आलुओंं जूठन, दरवाज़े के बाहर जमा हो गए जूतों की भीड़, बिस्तर की सिलवटों, फर्श पर औचक चली आई फिसलन के बीच। ज़िन्दगी एक लीक पर चलती रहती है। अहसास पत्थर हो गए हैं, और ख़्याल भुरभुरी मिट्टी। लेकिन जो कल दोपहर से अटका हुआ है गले में, वो बाहर निकल आने की कोई सूरत नहीं पाता। हलक में अटके हुए उस भारीपन का रिश्ता 'मसान' से है। </span></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif;">
<br />
कल देखी मैंने मसान। अकेले। स्पाइस मॉल के सबसे छोटे ऑडी नंबर पांच में। सिर इतने थे कि गिने जा सकते थे, फुसफुसाहटें ऐसी कि कानों को चुभती थीं। फिल्म देखने से पहले मैंने मसान का कोई रिव्यू नहीं पढ़ा था। जानबूझकर। कुछ हैरतें अपने लिए एकदम महफ़ूज़ रखनी होती हैं - इस तरह महफूज़ कि किसी और के ख़्याल उसे करप्ट न कर सकें। मसान के लिए वो हैरत ऐसी ही थी बस। मैं फ़िल्म समीक्षक नहीं हूं। न आपके आम दर्शकों में से एक हूं। इन दोनों के बीच-बीच की हूँ। इसलिए, न समीक्षकों की ज़ुबां में बात करना आता है न किसी आम दर्शक की तरह वाहवाहियों का समां बांधने का शऊर है।</div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif;">
<br />
सिर्फ़ इतना बता सकती हूं कि मसान ने कुछ यादों की चीटियां हथेलियों पर छोड़ दी है। कल से बस वो यादें रेंगती जाती हैं, काटती जाती हैं। वो शहर बनारस नहीं था, इलाहाबाद नहीं था। डूबने को कोई गंगा नहीं थी, न वो घाट था जिस पर किसी को जलाते हुए ये यकीन हो कि जिस्म के साथ दुखों का बवंडर भी जल गया... कि आत्मा को मुक्ति मिली। न वो संगम था कहीं, कि उम्मीद बंधे दुबारा लौट आने की। इस बार किसी और के साथ।</div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif;">
<br />
मसान की कहानी किसकी रही होगी, इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। लेकिन उस कहानी में सबको अपने-अपने दुखों की परछाई ज़रूर दिखती होगी। दुख बड़ा या छोटा नहीं होता। दुख बस दुख होता है। इसलिए तो एक मृत्यु के दुख को हम चिता पर जली देह के साथ भूल जाते हैं, और लेकिन जीते-जागते इंसान के बिछोह का दुख राख की तरह सुलगता रहता है। दुख की तरह ही प्रेम भी बड़ा या छोटा नहीं होता। प्रेम बस प्रेम होता है। चेतन मन की सारी समझ को झुठलाता हुआ प्रेम। अजर, अमर प्यास वाला प्रेम। रूह को चीरकर जिस्म से होकर गुज़रता हुआ प्रेम। उस धड़धड़ाती रेल के नीचे कमज़ोर पुल-सा थरथराता प्रेम! दुख और प्रेम के इस गंगा-जमुनी संगम में जो अदृश्य सरस्वती दिखाई नहीं देती मसान में, वो उम्मीद है। धू-धू जलती चिताओं के बीच भी जिस्म और रूह, प्रेम और दुख के पुनर्जन्म की उम्मीद। एक जानलेवा-सी डुबकी में सिक्कों की बजाए एक अंगूठी निकाल लाने की उम्मीद। दो कमज़ोर चप्पुओं वाली उस डूबती-सी नाव के किनारे पर लौट आने की उम्मीद। घोर अपमान और सज़ा के साथ-साथ बची रह गई माफ़ी की उम्मीद। मसान में उम्मीद पुनर्जीवन की! </div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif;">
<br />
कहानियां वो नहीं होतीं जो आप लिखते हैं। किरदार वो नहीं होते जो आप रचते हैं। कहानियां, और किरदार, वो होते हैं जिन्हें जीते हुए आप नए सिरे से रचे जाते हैं। जिनसे गुज़रते हुए आप फिर एक बार बनते हैं, बिगड़ते हैं, संवरते हैं, निखरते हैं। कहानियां वो होती हैं जो आपकी पत्थर होती जा रही ज़िन्दगी का सीना चीरकर वेदनाओं के अंकुर निकाल लाने का माद्दा रखती हैं। जिनसे होकर गुज़रते हुए आपके दुखों की चींटियां चमड़ी की खोल चीरकर बाहर निकलती हैं, और फिर रेंगती हुई कहीं किसी बिल में गुम होकर आश्रय पा जाती हैं। मसान ने बनानेवालों को कितना हील किया होगा, मालूम नहीं। मसान ने देखनेवालों को ज़रूर थोड़ा-थोड़ा हील किया है। 'मसान' से उपजा हुआ दुख यूनिवर्सल है, प्रेम और मृत्यु की तरह।</div>
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<br /></div>
Anu Singh Choudharyhttp://www.blogger.com/profile/00504515079548811550noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-361816811593679767.post-19553327556456055892015-08-13T09:23:00.000+05:302015-08-13T09:24:57.935+05:30कहना फिर कभी, सुनना फिर कभी आज कल कुछ और बड़ी चिंताएं तारी हैं - सब्ज़ी बनने से पहले कम से कम दो बार धुलती है नहीं, बिस्तर पर की चादरें हर हफ़्ते बदल तो दी जाती हैं न, घर में कहीं चलो तो पैरों के नीचे धूल तो नहीं आती? अच्छा है वक़्त पर सोना, और वक़्त पर जगना। ये भी अच्छा है कि ज़िन्दगी में कोई दुर्व्यसन नहीं। मैं सिगरेट-शराब नहीं पीती। आख़िरी बार वाइन कब पी थी, याद नहीं। सिगरेट के आख़िरी कश का स्वाद ज़ुबां से कब का उतर गया। दिन में कितने ग्लास पानी पीती हूं और कितनी देर योग-ध्यान करती हूं - इसका हिसाब ज़रूरी हो गया है।<br />
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और कितना ही अच्छा है कि सारे गुण भरे हुए हैं भीतर - संवेदना, समझ, सुकून। एक माँ, और एक औरत को बिल्कुल ऐसा ही होना चाहिए। रसोई के डिब्बों में समृद्धि अंटी पड़ी हो, बालकनी में शांति कोंपलों से फूट-फूट जाती हो, कमरों में कपूर-सी पवित्रता बांधती हो, फर्श पर अपने सुघड़ होने की परछाई मुस्कुराती हो, सुसंस्कृत बच्चे सिर पर मौजूद अदृश्य ताज हों। </div>
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ज़िन्दगी का हासिल बस इतना ही होना चाहिए न? यही तो होना चाहिए - एक अच्छा-सा घर, दो गाड़ियां, बैंक अकाउंट में उतने पैसे जितने से ज़िन्दगी आराम से कटती रहे, अच्छे कपड़े-लत्ते, इज्ज़त, शोहरत, तीन कामवालियां जो आकर आपकी गृहस्थी बारी-बारी से संभाल जाती हों। ज़िन्दगी का हासिल बस इतना ही होना चाहिए। सच में। ज़िन्दगी का हासिल वाकई बस इतना ही होना चाहिए। </div>
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मैं तुम्हें किस तरह के क़िस्से सुनाऊं दोस्त? तुमसे बात भी करूं तो क्या? कहूं तो क्या? सुनूं तो क्या? ये कि ग्रोफर्स पर सब्ज़ियां सैंतीस के मार्केट से थोड़ी सस्ती मिल जाएंगी? या फिर ये कि बिग बाज़ार में नॉन-स्टिक फ्राइंग पैन पर भारी डिस्काउंट था? या मैं तुम्हें ये बताऊं कि मल्टिप्लिकेशन की छह किस्म की स्ट्रैटेजी होती है - बाइनरी, लैटिस, एरिया मॉडल, ऐरे मेथड, रिपीटेड एडिशन और चिप मॉडल? या फिर ये बताऊं कि बादामरोगन में दही डालकर बाल में लगाओ, और एक घंटे छोड़ दो तो बाल एकदम सॉफ्ट हो जाते हैं? या फिर ये बताऊं कि पीठ दर्द का इकलौता इलाज नैचुरोपैथी में है, और आयुष के सेंटर्स दिल्ली के बेहतर हैं, नोएडा के नहीं? </div>
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श्श्श्श्शशशश... शोर बिल्कुल मत मचाओ। मेरे भीतर का लफंगा मन फिलहाल योग निद्रा के अभ्यास में मसरूफ़ है। जिस रोज़ उठकर लुच्चापंती करेगा, उस रोज़ आऊंगी सुनाने क़िस्से। इन दिनों कहने के लिए वाकई कुछ नहीं है। </div>
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Anu Singh Choudharyhttp://www.blogger.com/profile/00504515079548811550noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-361816811593679767.post-6785872341293798852015-07-15T03:48:00.003+05:302015-07-15T03:48:50.250+05:30अटकी हुई स्क्रिप्ट - डे थ्री भीतर से भरने लगो तो बाहर से कटने लगते हैं। ये मेरी रचना-प्रक्रिया का हिस्सा है।<br />
<br />
सारा वक़्त ख़ुद में उलझी-उलझी चलती हूँ। बात किसी से कर रही होती हूँ, सोच कहीं रही होती हूँ। किसी से मिलने-जुलने या बात करने का मन नहीं करता। नींद या तो बहुत आती है या बिल्कुल नहीं आती। सोचती हूँ कि बीमार पड़ जाऊँ - टायफॉय या मलेरिया या जॉन्डिस जैसा कुछ हो जाए तो ऑफ़िस न जाने की वजह मिल जाए, डेडलाइन से पिंड छूटे। झूठ बोल नहीं सकती, क्योंकि जानती हूँ बीमार पड़ने का बहाना किया तो चार कॉलीग या दोस्त और धमक आएंगे घर पर बीमार की मिज़ाजपुर्सी करने।<br />
<br />
लेकिन अब तैयार होने लगी हूँ लिखने के लिए। इतने दिनों से जैसे भीतर का घड़ा भर रही थी। छोटे-छोटे काम रास्ते से हटाने ज़रूरी हैं। वो कॉलम जिन्हें लिख देने का वायदा किया था, और जिसके लिए एडिटर कई मेल कर चुकी है... वो अनुवाद जो बस आज के आज ही जाना है... वो किताब जो हर हाल में अब एडिट हो ही जानी चाहिए... तीन मिनट की फ़िल्म की स्क्रिप्ट भी लिखकर आज ही देनी है... सब ख़त्म करके अब अपनी स्क्रिप्ट, अपनी कहानी की ओर मुड़ने का वक़्त हो चला है।<br />
<br />
किसी ने बताया था कि १५ जुलाई को सितारों की गति और उनकी जगहों में बहुत बदलाव होने वाला है। आनेवाला वक़्त हम सबके लिए, यहाँ तक कि देश के लिए भी अच्छा है। आज है १५ जुलाई। पता नहीं सितारों की गति बदली या नहीं। लेकिन एक ही वक़्त पूरी दुनिया के लिए अच्छा या बुरा कैसे हो सकता है? सबकी किस्मत एक-सी होती तो ये दुनिया एकरूप न होती? कहते हैं कि किस्मतें जुड़ी होती हैं सबकी। हम जहां कहीं भी होते हैं, जिस भी लम्हे, जिन भी हालातों में... वहाँ किसी न किसी वजह से होते हैं... इसलिए होते हैं क्योंकि यूनिवर्स एक बहुत ही महीन, बहुत ही सोफिस्टिकेटेड मैथेमैटिकल कैलकुलेशन पर चलता है। उस कैलकुलेशन में हम सब एनवेरिएबल फैक्टर्स हैं, और हमारे कर्म वेरिएबल फैक्टर्स। हर माइक्रो-लम्हे का गणित इन्हीं दो फैक्टर्स पर निर्भर है। मेरा बीजगणित बचपन से बहुत कमज़ोर है, इसलिए मुझे शायद ये कैलकुलेशन समझ न आए। जिसे समझ में आता है, उसकी बात पर यकीन कर लेने में भलाई है। यूँ भी क्या बुरा है ये सोचना कि आनेवाले दिनों में सब अच्छा-अच्छा होगा?<br />
<br />
घड़ी तीन चालीस का वक़्त दिखा रही है और आँखों से अधूरी नींद बहे जा रही है निरंतर। पता नहीं क्या सूझा है कि पहले मन की भड़ास, अलाय-बलाय बाहर निकाल देने का इरादा बना लिया है मैंने। उसके बाद शायद काम पर लौटना आसान हो जाए। पूरे दिन के चक्कर हैं। इन चक्करों में कई लोगों से मिलना भी शामिल है। मैं एक ही दिन में इतने सारे कमिटमेंट करती ही क्यों हूँ? अपने ही चैन की दुश्मन आपे-आप हूँ!<br />
<br />
बग़ल में रश्मि बंसल की किताब औंधे मुँह पड़ी हुई कह रही है - अराइज़, अवेक। स्वामी विवेकानंद को काहिलों से जाने कैसा बैर था कि एक जुमला छोड़ गए। सदी गुज़र गई लेकिन वो जुमला हज़ारों की मेज़ों के ऊपर चिपका पूरे देश को जगाने का ढोंग भरता रहता है। पता नहीं वो गोल क्या है, और वो रास्ते क्या जिन पर चलते चलनेवाले अंतहीन सफ़र पर रहते हैं। अराइज़! अवेक! एंड स्टॉप नॉ
ट टिल द गोल इज़ रिच्ड। सोने मत दीजिए स्वामी जी। बिल्कुल सोने मत दीजिए। इसी किताब का अनुवाद करना है मुझे? हो गई छुट्टी। रात की जूठन में थोड़ा-सा चैन भी बचा होगा तो उसे डस्टबिन में फेंक देने का पूरा इंतज़ाम मैंने अपने ही हाथों कर लिया।<br />
<br />
हआ बहुत अनु सिंह। लौटो काम पर। इंतज़ार है कि तुम्हारी एडिटर ने रात में तुम्हें इतना ही कोसा होगा कि सपने में भी जगाने आ गई वो नैन्सी!<br />
<br />
शुक्र है कि शुक्रवार को बजरंगी भाई जान रिलीज़ होने को है। इस पागलपन में सैनिटी का थोड़ी-सी उम्मीद! <br />
<br />Anu Singh Choudharyhttp://www.blogger.com/profile/00504515079548811550noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-361816811593679767.post-79225871392825333692015-07-14T06:18:00.001+05:302015-07-14T06:18:34.887+05:30अटकी हुई फ़िल्म स्क्रिप्ट - डे टू हमें इन्सटेंट ग्रै
टिफिकेशन की आदत पड़ी हुई है। डेडलाइन माथे पर नाचने लगे तो किसी न किसी तरह कुछ लिख दिया। किसी तरह ख़्यालों को एक स्ट्रक्चर दिया, और हो गई कहानियाँ, कविताएँ, लेख, विचार, कॉलम, ब्लॉग, वगैरह वगैरह तैयार। जितनी तेज़ी से लिख लिया, उतनी ही तेज़ी से उस लिखे हुए पर प्रतिक्रियाएँ भी हासिल हो गईं। लिखना फेसबुक स्टेटस मेसेज पर लाइक की कामना से आगे जाता ही नहीं कमबख़्त। लिखना बस इसलिए, क्योंकि जल्दी से जल्दी कोई बात कह देनी है किसी तरह।<br />
<br />
जब हम लॉन्ग फॉर्मै
ट में लिखने बैठते हैं तो यही सबसे बड़ी समस्या होती है। काम जब तक पूरा नहीं हो जाता, तब तक किसी को दिखाना संभव नहीं होता। हमारी तरफ से पूरा हो भी गया तो भी उसमें स्ट्रक्चर के बिखरे हुए होने का डर सताता रहता है। फेसबुक के स्टेटस मेसेज की तरह उसको हाथ के हाथ लाइक नहीं मिलते।<br />
<br />
लॉन्ग फॉर्मैट भीतर ही भीतर हमें तन्हां करता रहता है, दुनिया से काटता रहता है, ख़ामोश रहने पर मजबूर करता रहता है। लॉन्ग फॉर्मैट सीखाता है कि हर छोटी-छोटी बात कहकर और उस पर प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार कर अपनी ऊर्जा मत ज़ाया करो। ये ऊर्जा बचाए रखो, क्योंकि अभी कई और ड्राफ्ट्स लिखे जाने हैं। अभी बहुत सारा काम और होना है।<br />
<br />
कल मैंने भाई को मॉर्निंग पेज या डायरी लिखने की सलाह दी तो उसने बहुत अच्छी एक बात कही। ज़रूरी नहीं कि जो लॉन्गहैंड लिखता हो, या शब्दों का खेल समझता हो, उसका थॉट प्रॉसेस बहुत साफ-सुथरा ही होगा। हम कई बार अच्छा लिखने की बदगुमानी में verbose होते चले जाते हैं। सटीक, साफ-सुथरे ख्यालों का पता नहीं होता, बस शब्दों को सजाने-सँवारने के चक्कर में लगे रहते हैं। कई बार शॉर्टहैंड लिखना टू-द-प्वाइंट सोचने के लिए ज़रूरी होता है। और अपनी बात अच्छी तरह कम्युनिकेट करने के लिए भी। मुझे अचानक उसकी बात में बहुत दम नज़र आया। वाकई ज़्यादा लिखने के चक्कर में हम ज़्यादा शब्द ज़ाया भी करते हैं, और जो कहना होता है वो कह नहीं बाते। बीटिंग द बुश मुहावरा किसी राईटर के कॉन्टेक्स्ट में ही पैदा किया गया होगा।<br />
<br />
ख़ैर, लॉन्गहैंड फॉर्मैट लिखने की एक समस्या ये भी है कि ज़्यादा-ज़्यादा लिखा जाता है लेकिन काम का बहुत कम निकल पाता है। स्क्रिप्ट लिखते हुए भी ठीक यही हो रहा है। एक सीन इतना लंबा और बोरिंग हो जाता है कि ख़ुद ही कोफ़्त होने लगती है। वही बात इशारों में, या किसी एक छोटे से एक्शन के ज़रिए भी तो कही जा सकती है। कहानीकार होने और स्क्रिप्टराईटर होने में यही अंतर है।<br />
<br />
मैं जिस चीज़ से परेशान हूं उसे अपने लर्निंग प्रोसेस की सीढ़ियां क्यों नहीं मान लेती? ऐसे कितने राईटर होंगे जिन्हें एक साथ कई किस्म की चीज़ें कई तरह के फॉर्मैट में लिखने का मौका मिल रहा होगा? मैं ख़ुशनसीब हूं कि मैं एक ही दिन में किसी बड़े उपन्यासकार की रचना एडिट कर रही होती हूँ, वेब के लिए कॉन्टेन्ट लिख रही होती हूँ, किसी किताब का अनुवाद कर रही होती हूं, किसी टीवी चैनल के प्रोमो के लिए स्क्रिप्ट लिख रही होती हूं, किसी अंग्रेज़ी वेबसाइट के लिए अगले कॉलम के आईडिया सोच रही होती हूँ और उसके साथ-साथ अपने लॉन्ग फॉर्मैट के साथ संघर्ष भी कर रही होती हूँ। हर बार लिखना - ख़राब या अच्छा, शॉर्ट या लॉन्ग, संभला हुआ या बिखरा हुआ, अपने लेखन को मांजने का ज़रिया क्यों नहीं हो सकता? लिखने के साथ इतना सारा रोमांस जोड़ देने की इजाज़त मुझे है क्या?<br />
<br />
और अगर है, तो उस रोमांस को बचाए रखना भी मेरा ही काम है। लिखना अब मेरे लिए रोमांस रहा नहीं, वो कई सालों की शादी हो गई है जो बस है - दिन-रात, आजू-बाजू, भीतर-बाहर.... वजूद का एक अकाट्य हिस्सा, जिसके लिए लॉयल्टी में ही चैन है। अपनी तमाम उलझनों और कोफ़्त के बावजूद। उस रिश्ते में कुछ एक्साइटिंग करने की बेमानी और नाजायज़ ख़्वाहिश के बावजूद। इसलिए क्योंकि लॉयल्टी में सुख है। जिन्होंने लेखन को रोमांस बनाकर उसे बचाए रखा, जिलाए रखा और उसमें ज़िंग डालते रहे, वो ऊबते रहे, डूबते रहे। मेरे लिए लेखन शादी ही ठीक। टेढ़ा है, मगर मेरा है। बोरिंग है, लेकिन फिर भी मेरा है। एकरस है, फिर भी मेरा है। रुलाता है, थकाता है, मगर फिर भी मेरा है। इसलिए हर सुबह और शाम इस शादी के लिए ख़ुद को दुरुस्त बनाए रखना है, मेहनत करते रहनी है। जो कई सालों से शादी-शुदा है, वो जानता है कि एक रिश्ते को सुकूनदायक बनाए रखना कोई हँसी-ठठा नहीं। शादी लाइफलॉन्ग है। लिखना कई जन्मों के आर-पार से होते हुए हर जन्म में पाल लिया गया वही लाइफलॉन्ग फितूर है।<br />
<br />
इसलिए निजात है नहीं अनु सिंह। किसी भी तरह से नहीं। रोकर-धोकर, तमाम सारी शिकायतें करके भी बस ये समझ लो कि लिखना रोमांस नहीं है। लिखना जीने की ज़रूरत है। इसलिए खाली पन्ने निहारते रहने और लिखने को रोमांटिसाइज़ करते रहने से अच्छा है कि हर रोज़ ख़राब या अच्छा, जैसा भी हो लिखा जाए।<br />
<br />
आज की डेडलाइन क्या है, देखो तो ज़रा।<br />
<br />
आज की चुनौतियां? ब्रिंग इट ऑन, वर्ल्ड!Anu Singh Choudharyhttp://www.blogger.com/profile/00504515079548811550noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-361816811593679767.post-86124495914091799582015-07-13T07:40:00.000+05:302015-07-13T07:40:07.003+05:30अटकी हुई फ़िल्म स्क्रिप्ट - डे वन दिनभर लिखती रहती हूँ - कभी किसी के लिए, कभी किसी के लिए। काम अब सिर्फ़ शब्दों का खेल हो गया है। इसलिए कहानियाँ गायब हो गई हैं, शब्द बचे रह गए हैं।<br />
<br />
एक थकन सी तारी रहती है इन दिनों। टीएसएच लेवल बहुत बढ़ा हुआ है। जी में आता है, रोती रहूँ। लेकिन रोने की भी फ़ुर्सत नहीं। दिन हरसिंगार की डाल है तो डेडलाइन वो अजगर जो उस डाल की जान ही नहीं छोड़ता। माली को फिर भी उम्मीद है कि मौसम बदलेंगे। पेड़ों से पत्ते झर-झरकर गिरेंगे जिस रोज़, उस रोज़ अजगर किसी और डाल का रास्ता अख़्तियार करेगा। या कोई सँपेरा ही कहीं आ जाए कहीं से। काबू में अजगर भी होगा एक दिन, डेडलाइन का डर भी।<br />
<br />
तब तक एक बोझिल गर्दन पर जलती आँखें और तपता माथा कायम रहे, यही उम्मीद है।<br />
<br />
कोहिनूर की कहानी आंतों में जाकर अटक गई है कहीं। ग़म के क़िस्से लिखना आसान है। हँसी और मज़ाक से कहकहे ढूंढ निकालने के बहानों के लिए लिखना बहुत मुश्किल। वो भी, कहानी अगर बच्चों की ज़ुबां में कहनी हो तो...<br />
<br />
इन दिनों यही सोचती रहती हूँ कि बच्चे अपने आस-पास के लोगों को किस तरह देखते हैं, उनके बारे में क्या सोचते हैं, उनके भीतर क्या डिस्ट्रक्टिव और क्या कन्सट्रक्टिव है, रिबेलियन की भावना पहली बार कब और क्यों आती है, वो कौन-सी वाइब होती है जो एक खूंखार दिखनेवाले इंसान की बेतरतीबी उन्हें बहुत आसानी से जोड़ देती है जबकि एक शांत दिखनेवाला, दुनिया की नज़र से सफल और क़ायदे का इंसान उन्हें बिल्कुल रास नहीं आता। बच्चों के लिए मुमकिन क्या है और असंभव की परिभाषा क्या है?<br />
<br />
दस सीन के इर्द-गिर्द ही घूम रही हूं पिछले कितने दिनों से। कहानी आगे बढ़ने से इंकार कर रही है। कहती है, पहले जितना बनाया है, उसे अच्छी तरह तैयार तो करो, उससे संतुष्ट तो हो जाओ। भीतर का एडिटर नुक्ताचीं करता रहता है। बाहर का दबाव लिखने से रोके रहता है। अजीब सी हालत है। न हरसिंगार के पत्ते झड़ने का नाम ले रहे हैं, न अजगर किसी और चंदन की तलाश में निकलने को तैयार है।<br />
<br />
फिर भी ये उम्मीद है कि कहानी एक न एक दिन ख़ुद को कह ही डालेगी। फ़िल्म की स्क्रिप्ट लिखने का हुनर भी एक न एक दिन आ ही जाएगा।Anu Singh Choudharyhttp://www.blogger.com/profile/00504515079548811550noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-361816811593679767.post-32230085978435789472015-05-02T08:17:00.002+05:302015-05-02T08:17:56.383+05:30भटकना बेसबब, रिपोर्ट काठमांडू से <!--[if gte mso 9]><xml>
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<br />
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;">एयर इंडिया की जिस फ्लाईट
में मैं हूं, उसमें तीन तरह के लोग हैं – अपने घर की ओर जा रहे नेपाली नागरिक,
देशी-विदेशी राहत एजेंसियों के लोग और पत्रकार। काठमांडू जाने की कोई और चौथी वजह
नहीं हो सकती। काठमांडू के रनवे पर क्रैक की ख़बर आई है, इसलिए विमान में बिठा दिए
जाने के बाद भी हमें रोक दिया गया है। हम ये भी नहीं जानते कि अगले दो घंटे में हम
काठमांडू में होंगे या नहीं। </span><span style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;"></span></span></div>
<br />
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;">मेरी बगल की सीट पर बैठे
बुज़ुर्ग की आँखें जितनी ही ख़ामोशी से दुआ में बंद हैं, उतना ही ऊंचा शोर उंगलियां
प्रेयर बीड्स पर मचा रही हैं। हिम्मत नहीं हो रही पूछने की, सब भूकंप में चला गया
या बाकी भी है कुछ? </span><span style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;"></span></span></div>
<br />
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;">काठमांडू में उतरते ही जो
बाकी रह गया, वो दिखने लगता है। चारों ओर राहत का सामान बिखरा पड़ा है। एक कार्गो
विमान अभी-अभी उतरा है। कोई नाम नहीं लिखा, इसलिए बताना मुश्किल है, लेकिन राहत सामग्री
पर रेड क्रॉस के लेबल चिपके हैं। अलग-अलग देशों की सेना के विमान हैं। भारतीय वायुसेना
के भी। सब अपने-अपने घेरों में सामान उतार रहे हैं। कन्वेयर बेल्ट पर भी काग़ज़ के
गत्तों और कार्टूनों में लिपटे सामान दिखाई देते हैं – दवाएं, मच्छरदानियां,
स्लीपिंग बैग्स। चार दिन पहले आए भूकंप की वीरानी हर कोने में पसरी है। एयरपोर्ट
पर नेपाली कस्टम अधिकारी कम हैं, अलग-अलग देशों और राहत एजेंसियों के डेस्क
ज़्यादा हैं। </span><span style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;"></span></span></div>
<br />
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;">“</span><span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;">आज काम पर
लौटा हूं। कहीं मन नहीं लग रहा। मेरा घर भक्तापुर में है। उधर सब खतम हो गया। पूरा
घर गिर गया। मां बीमार है। बेटी उधर तराई में है। बार-बार फोन करके पूछती है कि कैसा
है हमलोग। उसको क्या बोलेंगे? क्या बताएंगे? समझ में ही नहीं आ रहा करें क्या... सब
खतम हो गया,</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;">”</span><span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;"> मुझे लेने पहुँचे
ड्राईवर कुमार भगत ने मेरे एक सवाल के जवाब में इतनी लंबी बात कह डाली है। </span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;"></span></span></div>
<br />
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;">एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही धँसी हुई सड़क है। </span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;">“</span><span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;">भूकंप की वजह से</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;">”</span><span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;">, ड्राईवर बताता है। शहर की तासीर
में एक अजीब-सी बेचैनी घुली है। गाड़ियों पर लदे ढेर सारे लोग हैं। मुमकिन है मेरा
वहम है, लेकिन सब भागते दिखाई दे रहे हैं। </span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;"></span></span></div>
<br />
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;">न्यू बानेश्वर तक पहुंचते-पहुंचते वहम यकीन में बदल जाता है। कई किलोमीटर लंबी
कतार में अपने अपने सामान के साथ खड़े लोग वाकई काठमांडू से भाग रहे हैं – तराई की
ओर, अपने गांवों की ओर, हिंदुस्तान की ओर... अख़बारों में छपे आंकड़े बताते हैं कि
तकरीबन चार लाख लोग राजधानी छोड़कर जा चुके हैं। </span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;"></span></span></div>
<br />
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;">शहर में जगह जगह गिरी इमारतों को देखकर लगता है कि इंसानों के साथ-साथ इंसानों
की बनाई दुनिया की भी अपनी-अपनी किस्मत होती है। एक जगह एक घर पूरा का पूरा ढहा
पड़ा है तो उसके ठीक बगल वाली इमारत साबुत खड़ी है। यूं लगता है कि जैसे कुदरत ने
बच्चों का खेल खेला। जहां गिर पड़ा, वहां अपना हथौड़ा चलने दिया। </span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;"></span></span></div>
<br />
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><b><span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;">आर्मी बेस रिलीफ़ कैंप </span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;"></span></b></span></div>
<span style="font-size: large;"><b>
</b></span><br />
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;">शहर के ठीक बीचोंबीच बने इस राहत शिविर में घुसते ही एक वैन दिखाई देता है। प्लास्टिक
बोतलों में पीने का पानी बांटा जा रहा है। कॉलेज के कुछ बच्चे हाथों में केले और
पानी बोतलें लिए तंबुओं के बाहर खेलते बच्चों को बांट रहे हैं। किरण गौतम अपने
पूरे परिवार के साथ यहां है। लगन में जिस तीन-मंज़िला मकान को बनाने में दो
पीढ़ियां लग गईं, उस मकान को ढहने में ठीक एक मिनट का वक्त लगा। टेंट के बाहर किरण
का चार साल का पोता खेल रहा है। घर के बाकी लोग यूं ही इधर-उधर लेटे हुए हैं। किसी
से कुछ भी पूछना बेकार है। वो बताएंगे क्या, मैं पूछूंगी क्या। भूकंप ने जान बख़्श
दी तो रही-सही उम्मीद ज़िन्दगी बख़्श ही देगी।<span>
</span><span> </span><span> </span></span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;"></span></span></div>
<br />
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><b><span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;">धरहरा स्मारक </span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;"></span></b></span></div>
<span style="font-size: large;"><b>
</b></span><br />
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;">विकास शर्मा की दुकान है धरहरा से दस कदम दूर। हिलती हुई इमारत गिरी तो दूसरी
ओर। जिन घरों और दुकानों पर इमारत गिरी, उनका क्या हुआ होगा, ये विकास न भी बताएं
तो इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं। धरहरा के आस-पास की दुकानें खुल गई हैं। जो
मकान बच गए हैं, उनमें ज़िन्दगी का कारोबार शुरू हो गया है। पांच दिन पहले तक
सैलानी दो सौ दस फ़ीट ऊँचे इस टावर पर चढ़कर काठमांडू घाटी का नज़ारा देखने आया
करते थे। अब गिरे हुए टावर को देखने के लिए भीड़ जमा है, वो भी इस कदर कि बाहर तक
की सड़कों पर जाम लग गया है। <span> </span></span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;"></span></span></div>
<br />
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><b><span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;">काष्टमंडप और बसंतपुर दरबार स्कावयर <span> </span></span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;"></span></b></span></div>
<span style="font-size: large;"><b>
</b></span><br />
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;">लकड़ी के बने जिस मंडप के नाम पर काठमांडू का नाम पड़ा, वो मंडप, राजा के पुराने
महल और मंदिर धराशायी पड़े हैं। काष्टमंडप के आंगन में धंसी हुई इमारत से थोड़ी
दूर लोग तंबुओं में रह रहे हैं। इलाके की सफाई करने के लिए नेपाली पुलिस और सेना की
मदद के लिए सैंकड़ों वॉलेंटियर जुट गए हैं। ईटें और लकड़ी के टुकड़े साफ किए जा
रहे हैं। धीरे-धीरे जगह साफ करना मुमकिन है, इन ऐतिहासिक इमारतों को वापस खड़ा करना
नामुमकिन। <span> </span></span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;"></span></span></div>
<br />
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><b><span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;">गन्गाभू</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;"></span></b></span></div>
<span style="font-size: large;"><b>
</b></span><br />
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;">न्यू बस पार्क से थोड़ी दूर एक गली में गेस्ट हाउस के बाहर भारी भीड़ जमा है।
अमेरिकी बचावकर्मी नेपाली सेना के साथ अभी भी कुछ खोज रहे हैं। भीड़ हटने के नाम
नहीं लेती। उम्मीद बाकी है कि पांच दिन के बाद भी मलबे में फँसा एक आदमी ज़िंदा निकाला
जा सकेगा। उम्मीद नामुमिकन पर भारी पड़ी है। १४४ घंटे के बाद भी ज़िंदा निकला है
एक आदमी यहां से। भीड़ तालियों से उसका स्वागत करती है। दूर से इस चमत्कार की तस्वीर
नहीं खिंची जा सकती, लेकिन एंबुलेंस की तस्वीर सैंकड़ों लोग अपने अपने मोबाइल
कैमरों में क़ैद कर रहे हैं।<span> </span></span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;"></span></span></div>
<br />
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><b><span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;">स्वयंभू मंदिर<span> </span></span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;"></span></b></span></div>
<span style="font-size: large;"><b>
</b></span><br />
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;">पहाड़ के ऊपर बने इस बौद्ध मंदिर से पूरा काठमांडू दिखता है। मंदिर में विदेशी
सैलानियों की एक छोटी सी टुकड़ी अभी भी मौजूद है। वे मंदिर देखने नहीं आए, मंदिर को
पहुंची क्षति को देखने आए हैं। ऊपर पहाड़ पर मंदिर के आस-पास दो सौ से ज़्यादा लोग
रहते थे। उनकी आमदनी का ज़रिया मंदिर ही था। उर्मिला का मकान और दुकान – दोनों
मंदिर के पास था। दोनों में से कुछ भी नहीं बचा। जिस ईश्वर ने कहर ढाया, उसी ईश्वर
के टूटे-फूटे आंगन में उर्मिला और उसके बच्चों ने शरण ली है। ऊपर से बोरों में भरकर
ज़रूरत का सामान टूटे हुए घर से नीचे लाने की नामुमकिन कोशिश जारी है। खाना सब साथ
मिलकर मंदिर में ही बना रहे हैं। पेट किसी तरह भर रहा है, भरा हुआ दिल भर किसी
सूरत में खाली नहीं होता। <span> </span></span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;"></span></span></div>
<br />
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><b><span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;">सीतापायला </span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;"></span></b></span></div>
<span style="font-size: large;"><b>
</b></span><br />
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;">स्वंयभू से आते हुए मेन रोड पर ही गिरे हुए मकान दिखते हैं। उधर से गुज़रने वाली
बसें और गाड़ियां भी अपनी रफ़्तार धीमी कर लेती हैं, जैसे शोक में हों। दूसरी ओर
नेपाली सेना की एक टुकड़ी का जमावड़ा लगा है, लेकिन जवान किनारे खड़े हैं। और जगहों
की तरह कोई मलबे में से कुछ भी खोजने की कोशिश नहीं कर रहा। कुछ लोग ज़रूर सामान ढूंढने
की नाकाम कोशिश कर रहे हैं। कहीं से टूटा हुए चूल्हा झांक रहा है तो कहीं से टूटी हुई
चप्पलें। मलबे से इतनी तीखी दुर्गंध आ रही है कि एक पल के लिए भी खड़े रहना
मुश्किल है। इन चार मंज़िला इमारतों में से ३९ लाशें निकाली गईं। जो ज़िंदा बचा रह
गया, उसके लिए कुछ भी बाकी नहीं रहा।<span> </span></span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;"></span></span></div>
<br />
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><b><span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;">पशुपति मंदिर </span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;"></span></b></span></div>
<span style="font-size: large;"><b>
</b></span><br />
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;">बागमती के किनारे जलती लाशों को देखकर ज़िन्दगी के सारे दुख छोटे लगते हैं।
तीन दिन पहले तक यहां सैंकड़ों लाशें एक साथ जल रही थीं। आठ चिताएं अभी भी सुलग
रही हैं। मरने वाले शायद भूकंप पीड़ित न हों, लेकिन उनकी मौत का मुकर्रर वक्त
मुश्किल साबित हुआ है। लकड़ियां अभी भी मुश्किल से मिलती हैं। जो मिलती भी हैं,
बारिश की वजह से गीली पड़ी हैं। जो शरीर बेजान हो गया, उसे किसी सूरत में संभाला
नहीं जा सकता। इसलिए हर हाल में चिताएं सजा ही जाती हैं। मौत किसी के साथ कोई
भेदभाव नहीं करती। जो ज़िंदा हैं, वे करते हैं। यहां घाट भी दो हैं – एक वीआईपी
घाट और दूसरा आम जनता के लिए। कौन जाने कि भूकंप ने पूछकर जानें लीं या नहीं। मंदिर
में भीड़ नहीं है। अपने ही तांडव से पाशुपति अपने घर के कुछ हिस्से भी नहीं बचा
पाए वैसे। मुख्य मंदिर सुरक्षित है, लेकिन भूकंप का असर वृद्धाश्रम और बाहर की इमारतों
पर साफ दिखाई पड़ रहा है।<span> </span><span> </span></span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;"></span></span></div>
<br />
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><b><span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;">सड़क पर स्टूडियो </span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;"></span></b></span></div>
<span style="font-size: large;"><b>
</b></span><br />
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;">कांतिपुर टीवी का न्यूज़रूम इन दिनों सड़क पर से चल रहा है। पूछताछ करने पर
मालूम चलता है कि दफ्तर की इमारत के गिरने का डर था, इसलिए स्टूडियो और न्यूज़रूम
सड़क पर एक तंबू में डाल दिया गया। हालांकि कांतिपुर पब्लिकेशन्स के लोग अभी भी
उसी दफ्तर से काम कर रहे हैं। टीवी ड्रामा ढूंढता है, और सड़क पर स्टूडियो ले आने
से बड़ा ड्रामा और क्या होता? इंसान हर सूरत में तिजारत के बहाने निकाल ही लेता
है।<span> </span></span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;"></span></span></div>
<br />
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><b><span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;">जीना यहां, मरना यहां </span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;"></span></b></span></div>
<span style="font-size: large;"><b>
</b></span><br />
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;">नेपाल रेड क्रॉस के दफ्तर में गाड़ियों और लोगों का हुजूम जुट रहा है। पूरी
दुनिया से रेड क्रॉस प्रतिनिधि पहुंच रहे हैं यहां। दफ्तर के भीतर एक रजिस्ट्रेशन
डेस्क पर वॉलेंटियर की भीड़ जुटी है। अशोक महरजान अपने परिवार के २२ लोगों को लेकर
पहुँचे हैं यहां, वॉलेंटियर करने के लिए। सोलह से लेकर पचास तक की उम्र के लोग हैं।
सबके घर टूट गए। शुरू के चार दिन अपने आप को संभालने में लग गए। घर का ज़रूरी
सामान जमाकर राहत शिविर में पहुंचाया जा चुका है तो अब परिवार निश्चिंत होकर दूसरों
की मदद के लिए यहां पहुंचा है। मानवता के नाते यहां आए हैं। आखिर तो हम सब मुसीबत में
हैं। पूरा देश मुसीबत में है, अशोक इतना ही कहते हैं और वापस अपनी बेटी और भांजे
के साथ कतार में लगकर ट्रकों में से राहत सामग्री के डिब्बे उतारने में लग जाते
हैं। जो ज़िन्दगी बची रह गई, वो किसी के काम आ सके – बस इसी की ख़ातिर। </span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;"></span></span></div>
<br />
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-size: large;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;"><b>नोट</b> – काठमांडू में भूकंप से कुल </span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;">1,039 </span><span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;">मौत हुई है। पिछले पांच दिनों में चार लाख से ज़्यादा लोग
काठमांडू छोड़कर जा चुके हैं। पानी की बोतल अब भी दस रुपए में ही मिल रही है, और
होटलों में जो भी खाने को मिलता है, उसकी कीमत अभी तक नहीं बढ़ी। जब भूकंप ने पक्षपात
किया, तो इंसान भी कैसे बाज़ आता? ये काठमांडू का सुरक्षित इलाका है, जहां
ज़िन्दगी अपनी गति पकड़ने लगी है। काठमांडू में कई प्रभावित इलाके ऐसे हैं जहां
पीने के पानी, खाने, टॉयलेट और मूलभूत स्वास्थ्य सुविधाओं की सख़्त ज़रूरत
है।<span> </span><span> </span></span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;"></span></span></div>
<br />
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<span style="font-size: large;"><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;"><span>( ये रिपोर्ट सबसे पहले www.satyagrah.com पर प्रकाशित हुई।) </span><span> </span></span><span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; line-height: 107%;"></span></span>
<br />
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<br />
हम कई साल एक ही घर में रहे - पूरे बचपन। परिवार के आकार के हिसाब से घर बनता गया, फैलता गया। लेकिन ज़मीन-जगह वही रही। आस-पड़ोस वही रहा। ख़ुशबुएं, बदबू वही रहीं।<br />
<br />
फिर दिल्ली आई और हर तीन-छह महीने में ठिकाना बदलता गया। पहले मामाजी का घर, फिर किसी दोस्त का घर, फिर पीजी, फिर हॉस्टल, फिर हॉस्टल के इस कमरे से उस कमरे में भटकना, फिर पीजी, फिर हॉस्टल... कई साल ये सिलसिला चलता रहा। सामान था नहीं मेरे पास। एक गद्दा, एक रजाई, एक तकिया, दो सूटकेस,दो एयरबैग, एक बाल्टी, एक मग और तीन कार्टूनों में गृहस्थी सिमट जाया करती थी। फिर जहां-जहां से होकर गुज़रते, वहां-वहां अपने हिस्से का थोड़ा-सा कुछ वहीं छोड़ देते।<br />
<br />
कई साल बाद एक किस्म की स्थिरता एकअदद-सी नौकरी और अपनी सबसे पुरानी सहेली के फ्लैटमेट बन जाने पर आई। मयूर विहार वो ठिकाना था जो ढाई-तीन साल तक बना रहा। फिर से वही घर, वही आस-पड़ोस, वही ख़ुशबुएं... <br />
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शादी हुई तो कुल दस साल में ये चौथी बार है कि हम ठिकाना बदल रहे हैं, इस उम्मीद में कि ये आख़िरी बार है कि सामान बंध रहा है, यादें सिमट रही हैं और घर-दिमाग़ से कचरा बाहर किया जा रहा है।<br />
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घर क्या था, और क्या हो गया है, ये भी सोचने की बात है। नींद में अपने बच्चों से पूछा मैंने, घर कहां है तुम्हारा? आधी नींद में ही जवाब आया उनका, २७६, नोएडा। यानी जिस घर में अभी तक हम गए भी नहीं वो उनका नया घर, नया पता बन गया। बाकी के जिन दो घरों में उन्होंने अपना बचपन निकाला वो भी मायने नहीं रखता। ये भी मायने नहीं रखता कि उनके पिता के लिए घर पूर्णियां है, और उनकी मां को तो ख़ैर मालूम ही नहीं कि घर कहां था और कहां खो गया। घर कहां बनेगा और कहां घूमता रहेगा साथ-साथ।<br />
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सही कह रहे थे बच्चे। घर वही है जहां हम सामान खोलकर बसेरा डाल देते हैं। जहां प्यार रसोई के डिब्बों में बंद होकर खानों में सजा दिया जाता है, जहां उम्मीदें तस्वीरों में ढालकर दीवारों पर टांग दी जाती हैं, जहां सलीका बिस्तर पर बेडकवर बन जाता है, जहां खलबलियां और बेचैनियां इधर-उधर, यहां-वहां चोरी-छुपे कोनों में पड़ी रहती हैं।<br />
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घर कई चीज़ों का कुल जमा योग होता है। थोड़ी यादें, थोड़ी पहचान, थोड़े ख्वाब, थोड़े शिकवे, थोड़ी नाराज़गियां.... घर में थोड़ा-थोड़ा सब होता है। और घर में होता है कि यादों का जमावड़ा। जहां सबसे ज़्यादा यादें बना डालीं, वो घर सबसे ज़्यादा हसीन था।<br />
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मैं घर के फिज़िकल स्पेस को लेकर निर्मम हूं। जो छोड़ देती हूं, बस छोड़ देती हूं। लौटकर नहीं जाती वहां। आठ साल जिस घर में गुज़रे, और जहां मेरे बच्चों ने चलना-दौड़ना, हंसना-बोलना सिखा, उस घर को छोड़ा तो दुबारा उस गली से गुज़री तो भी मुड़कर उस घर को नहीं देखा। मोह नहीं बसता दिल में। यादें बसती हैं, वो भी अत्यंत निर्विकार भाव से। इतना ही कि उन यादों की मुस्कुराहटें और तकलीफ़ें दोनों अब विह्वल नहीं करतीं।<br />
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हम बक्सों में फिर से एक बार सामान बंद करने लगे हैं। फिर से घर से ढेर सारा कचरा निकलने लगा है। मैं हैरान हूं कि जिन खिड़की, दीवारों को अपनी पसंद के पर्दों, तस्वीरों से सजाया उनसे कितनी आसानी से मोह टूट गया। हम जहां होंगे, फिर वहां घर बनेगा।<br />
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इसलिए शायद मेरे लिए घर कई जगहों पर है, और घर कहीं नहीं है। जितनी देर जहां होते हैं, उतनी देर ईमानदारी से लगाव बना रहे, बस इतना बहुत है।<br />
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वरना तो स्थायी घर ये दुनिया भी नहीं। हम सब सफर में हैं। हम सबको अभी कई घर बनाने हैं, कई डेरों में उखड़ना-बसना है।उन घरों में कुछ काम पूरे करने हैं, कुछ सेवाएं देनी हैं, कुछ ख्वाब जीने हैं। मेरे होने के सबब बस इतना सा है। <br />
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मैं इतनी निर्विकार क्यों होती जा रही हूं? या फिर निर्मोही? Anu Singh Choudharyhttp://www.blogger.com/profile/00504515079548811550noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-361816811593679767.post-80815155036399324512015-03-30T09:00:00.001+05:302015-03-30T09:00:36.119+05:30जवाब जिनके नहीं, वो सवाल होते हैं (मॉर्निंग पेज ३८)<br />
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उसने अपने बाल पीठ पर बिखेर रखे थे। पीठ सिसकियों की वजह से हिचकोले लेती थी। जितनी बार पीठ में कंपन होती, कैंची टेढ़ी पड़ जाती। मैं पीठ को झकझोर के कहना चाहती थी कि खुलकर रो ले। जैसे बाल बिखेरे हैं, वैसे दुख को बिखर जाने दे।<br />
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शुक्र है कि ख़्वाब था कोई।<br />
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पूरी शाम ऑपरेशन ब्लू स्टार के बारे में पढ़ते हुए निकाल दी थी, और जानती थी कि सपने में दिखाई देने वाला ये लंबे बालों वाला पुरुष उसी सोचे हुए का नतीजा है, जो मेरे अवचेतन में ठहर गया था कहीं।<br />
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मैं स्वर्ण मंदिर कभी नहीं गई। पहले जाती तो दीवारों पर इतिहास के निशान नहीं ढूंढती। लेकिन अब जाऊंगी तो न भी ढूंढू तो इतिहास की रूहें भटकती हुई नज़र आएंगी।<br />
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ये अजीब बात है कि इस दुनिया में सत्ता और सत्ता की राजनीति इतनी ही बलवान होती है कि एक-दूसरे की जड़ें उखाड़ फेंकने के लिए, और कुर्सी के ज़रिए दौलत और रसूख जिए जाने के लिए कोई किसी भी हद तक, किसी भी किस्म की साज़िशें कर सकता है। अब ये भी समझ में आने लगा है कि धर्म और जाति के झगड़े भी दरअसल सत्ता के झगड़ों की उपज हैं। सत्ता के ये झगड़े उतने ही प्राचीन हैं, जितना पुरातन मानव इतिहास है।<br />
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सत्ता की बिसात पर चालें बदल जाती हैं, और है अगर ये खेल ही तो फिर शह और मात के इस खेल में वजीर और बादशाह बाद में जाते हैं, उनसे पहले सैकड़ों मासूमों की जान चली जाती है। ये दुनिया के हर कॉन्फ्लिक्ट का सत्य है।<br />
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मैं कई सारे सवालों से उलझी हुई जगी हूं। वो कौन सा वैज्ञानिक या गणितीय समीकरण है जिसके आधार पर यूनिवर्स चलता है? हमारी किस्मतें कौन तय करता है? ये कौन तय करता है कि हम पैदा कहां होंगे, और मरेंगे कैसे? मौत इतने इतने तरीकों की क्यों होती है? हमारी किस्मतें साझा कैसे होती हैं? हम जिस वक्त जहां होते हैं, वहां क्यों है? एक इंदिरा गांधी की मौत से साढ़े तीन हजार लोगों की मौत कैसे जुड़ गई? क्या ये साझा किस्मतें नहीं थीं?<br />
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अगर ये कायनात क्रिया और प्रतिक्रिया के सरल से समीकरण पर चलती हैं तो फिर क्या कुछ ऐसे कर्म नहीं किए जा सकते जिससे साझा किस्मतें बदलें? इस कायनात की किस्मत बदले? क्या इंसानों के गुनाहों का बोझ इतना भारी है कि उसकी चोट रह-रहकर पहुंचती रहती है? जब गुनहगारों की भीड़ पैदा होती जा रही है तो मसीहा कहां गए?<br />
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न्यूटन ने प्रकृति के तीन नियम दे दिया तो फिर वही साइंसदानउसे दुरुस्त बनाए रखना क्यों नहीं सिखा पाया? हम धर्म के पाठ तोतों की तरह रटते हैं,अपने कर्मों को और उसके असर को समझने के पाठ क्यों नहीं पढ़ते?<br />
हमारा वक्त एक-दूसरे की जड़ें खोदने, एक-दूसरे की शिकायतें करने, दुखों का अंबार बढ़ाए रखने में क्यों जाता है? <br />
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जिस सुकून की तलाश में भटकती रहती हूं, उस सुकून को तबाह करने के लिए सवाल बहुत हैं। <br />
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<br />Anu Singh Choudharyhttp://www.blogger.com/profile/00504515079548811550noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-361816811593679767.post-45122363121365467112015-03-29T07:30:00.002+05:302015-03-29T07:31:13.723+05:30करो बस इतना कि करम धुल जाए <u><b>(मॉर्निंग पेज ३७) </b></u><br />
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लोग शायद सुबह-सुबह उठकर अपने अपने ईश को पुकारते होंगे।<br />
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लोग शायद सुबह-सुबह उठकर योग, ध्यान, कसरत, सैर करते होंगे।<br />
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ये भी मुमकिन है कि लोग सुबह-सुबह उठकर फोन देखते हों, फेसबुक खोलते हों या फिर मेल पढ़ते हैं।<br />
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मैं सुबह उठते ही सबसे पहली बात ये सोचती हूं कि सुजाता नहीं आई अब तक, और अगर उसने आज छुट्टी ले ली तो मेरा क्या होगा!<br />
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सुजाता मेरे घर में कई सालों से काम करती है। बहुत कम बोलती है, और जितना हो सके, उतनी ख़ामोशी से काम निपटाकर चली जाती है। एक घंटे में मेरी वो दुनिया संभाल जाती है वो जिसको वापस बिखेरने में मेरे बच्चों को एक मिनट भी नहीं लगता। घर के कामों में मेरा बिल्कुल मन नहीं लगता। खाना बनाना दुनिया की सबसे बड़ी सज़ा - बल्कि सबसे अनप्रोडक्टिव काम लगता है। अगर सफाई करने की मजबूरी आ जाए तो ये सोचकर कुढ़ती रहती हूँ कि इतनी देर में कोई और काम किया होता। बच्चों के साथ वक्त बिताती। कहीं घूम आती। कोई किताब पढ़ लेती। कोई और काम ही कर लेती। और कुछ नहीं तो सो ही जाती।<br />
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घर के कामों के पीछे मेरी घोर घृणा का कारण इतिहास के पन्नों में छुपा है। मेरी मां घर में रहती थी और सुबह चार बजे से घर के काम में लग जाती थी। उन्हें तवे और कढ़ाही की किनारियों पर चिपकी कालिख से ऐसी ही नफरत थी जितनी मुझे उस कालिख को साफ करने की मजबूरी से है। मैंने मां को जितना रसोई में उलझते हुए देखा, उतनी ही रसोई से दूर होती गई। संयुक्त परिवार के इतने काम होते थे कि मां हमेशा थकी हुई रहती थी।<br />
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मैं उस थकन से बचना चाहती थी। मैं उन कामों से भी बचना चाहती थी जिनका कोई पारिश्रमिक नहीं मिलता, कोई क्रेडिट भी नहीं मिलता। ये और बात है कि बाद में ऐसे काम करती रही, करती रही, करती रही...<br />
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इसलिए क्योंकि कर्म से बचकर कोई कहां जाएगा? जिस घर में आप रह रहे हों उसे यूं ही नहीं छोड़ा जा सकता। जिन बच्चों को आप इस दुनिया में लेकर आए, और उनकी परवरिश की ज़िम्मेदारी उठाई, उनकी खातिर घर को वक्त देना होता है। जो घर में बिखरा-बिखरा हैरान-परेशान और उलझा हुआ है, वो समाज क्या बनाएगा?<br />
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बस, अपनी तमाम नफरतों को परे रखकर घर को घर बनाने की कवायद हर रोज़ चलती रहती है।<br />
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और जब ये कवायद करनी ही है तो फिर कुढ़ना-चिढ़ना क्या?<br />
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मैं कल ईशा फाउंडेशन की वेबसाईट पर पढ़ रही थी कि जिस काम को आप सबसे ज़्यादा नापसंद करते हैं, वही काम अपना मन और ध्यान लगाकर करना चाहिए। कर्म (जिसे कर्मा कहा जाता है आजकल) के रास्ते की अड़चनों को दूर करने का ये सबसे अच्छा तरीका है। जो काम मुझे पसंद है, वो तो मैं हर हाल में करूंगी ही। मुझे पढ़ना पसंद है तो मैं रात में देर तक पढ़ने के बहाने ढूंढ ही लूंगी। मुझे लोगों से मिलना-जुलना पसंद है तो उसके लिए वक्त भी निकल आएगा और शरीर भी साथ देगा। मुझे लिखना पसंद है तो वो मैं पीठ के दर्द और टेढ़ी गर्दन के साथ भी कर लूंगी। मुझे सफर करना पसंद है तो शहर से बाहर जाने के तमाम बहानों के आगे ब्लड प्रेशर और हाइपरटेन्शन तेल लेने चला जाएगा।<br />
<br />
लेकिन मुझे घर के कामों में उलझन होती है (और बिना सुजाता मेरा काम नहीं चलता) तो एक दिन काम करना पड़ेगा तो मैं थक जाऊंगी, बीमार पड़ जाऊंगी, नाराज़ रहूंगी।<br />
<br />
अपनी ज़िन्दगी की स्लेट पर बार-बार लिखी जा रही किसी भी अनर्गल चुनौती को तोड़ना है, और उसके बीच से रास्ता निकालना है, तो वो करना होगा जो मुझे सख्त नापसंद है। घर के कोने-कोने की सफाई नहीं है ये, अपने मन के कोनों में पड़ी धूल-मिट्टी को साफ करने की प्रक्रिया है। कपड़े नहीं धुल रहे, करम के मैले कपड़ों की सफाई हो रही है। रसोई और फ्रिज नहीं साफ हो रहा, बीमारियां साफ हो रही हैं ताकि अच्छी सेहत के लिए जगह बनाई जा सके। अलमारियां कहां ठीक हो रही हैं, ठीक तो अपनी हथेली पर बिखरी हुई टेढी-मेढ़ी लकीरें हो रही हैं।<br />
<br />
जिस काम को जितने प्यार से किया जाएगा, उस काम में मन उतना ही लगेगा। मन जहां लगेगा, वहां खुश रहेगा। मन खुश रहेगा तो घर खुश रहेगा।<br />
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और अनु सिंह, तुमने ये सोच लिया कि घर के काम अनप्रो़क्टिव होते हैं? <br />
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<br />Anu Singh Choudharyhttp://www.blogger.com/profile/00504515079548811550noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-361816811593679767.post-91603001641067979132015-03-23T06:51:00.001+05:302015-03-23T06:51:12.760+05:30रॉबिन्सन क्रूसो, फिर चलने का वक्त आ गया है!(मॉर्निंग पेज ३१)
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ऐसा भी होता है कि इत्ते बड़े शहर में आप किसी चिड़िया की आवाज़ से उठें?<br />
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पहले लगा कि फ़ोन पर का अलार्म है जो बच्चों ने बदल दिया होगा। फिर खिड़की के पास गई, इस यकीन के लिए कि आवाज़ वाकई बाहर से ही आ रही थी या नहीं। चैत का ये महीना ख़ास होता है। मेरे जैसे सांप-बिच्छू-मेंढक, जिन्हें ठंड बहुत लगती है और जो पूरे जाड़े खिसियाए हुए ज़मीन के नीचे सुस्त पड़े रहते हैं, उनके बाहर निकलने का वक़्त होता है ये। अगले छह-आठ महीने सुबह उठने में तकलीफ़ नहीं होगी। अगले छह-आठ महीने दिन लंबे होंगे और कोई भी काम करने का मन करेगा।<br />
<br />
सुबह इसलिए भी अच्छी लग रही है क्योंकि किसी डेडलाईन के दबाव में नहीं उठी। मॉर्निंग पेज लगातार लिखते रहने का कम से कम ये फ़ायदा तो हुआ है कि जितने ज़्यादा डर नहीं होते, उनसे कहीं ज़्यादा डर से निपटने के रास्ते सूझने लगे हैं।<br />
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डर और तन्हाई में एक अलग किस्म का रोमांस होता है वैसे। इश्क़ में टूटा हुआ दिल सबसे शायराना होता है। हम अपनी रंज़िशें, अपने ग़म, अपनी तकलीफ़ें बचाए रखते हैं क्योंकि उससे ख़ुराक हासिल है। मुझसे किसी क़िस्सागो ने कहा था कभी कि जब भीतर-भीतर बिखरा रहता हूं तो बाहर-बाहर निकलनेवाले शब्द बहुत सहेजे हुए निकलते हैं। मेरे भीतर के शब्द ख़त्म ने हो जाएं, इसलिए मैं हमेशा बिखरा-बिखरा रहना चाहता हूँ। मुझे आज तक उस क़िस्सागो की समझ पर तरह आता है। अपनी कहानियों और अपनी कविताओं, अपनी रंगों और अपने किरदारों के लिए हम ख़ुद को किस क़दर तकलीफ़ज़दा बनाए रखते हैं! एक म्यूज़ हमेशा होता है भीतर, जिससे लड़ते रहते हैं और फिर रूठ जाते हैं उससे तो लिखना आसान हो जाता है।<br />
<br />
कविताएं सुकून में नहीं लिखी जातीं। कहानियां लिखने हुए कोई शांतमना कैसे हो सकता है? जब कोई कॉन्फ़्लिक्ट ही नहीं है भीतर, तो कोई किस तरह से लिखे और क्या लिखे।<br />
<br />
मैंने अपने भीतर के अपने उस म्यूज़ से समझौता कर लिया है। मुझे उसके साथ की दोस्ती रास आने लगी है।<br />
<br />
लेकिन 'मम्मा की डायरी' को पूरा करते हुए ये क़दम उठाना ज़रूरी था। मैं अपने सबसे बेशक़ीमती रिश्तों के बारे में कैज़ुअली नहीं लिख सकती थी। भीतर के उस म्यूज़ से लगातार संवाद करना था, उससे सही और ग़लत के विषय में बातें करती रहनी थी, इसलिए मैं बिखरने का ख़तरा नहीं उठा सकती थी। जब अपने घरों और अपने परिवारों, अपने रिश्तों और अपनी मोहब्बतों को सही मायने में निभाने का वक्त आता है तब हम गिरहों को खोलने के रास्ते ढूंढते रहते हैं।<br />
<br />
बच्चों को एक उलझी-उलझी मां नहीं चाहिए। पति जब एक सुलझी हुई, समझदार पत्नी के पास लौटता है तो घर की सुख-शांति उसे चैन से जीने की वजहें देती है। पिछले तीन महीने में अगर मैंने अपने भीतर के म्यूज़ को कुछ भी याद दिलाया है, तो यही दो बातें हैं। इसलिए म्यूज़ ख़ामोश रहा भीतर। मुझसे उसने वफ़ादारी निभाई।<br />
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क्रिएट करने की प्रक्रिया भी कितनी अजीब होती है! हम पता नहीं कब और कैसे वो होने लगते हैं जो अपने शब्दों के ज़रिए कहना चाहते हैं।<br />
<br />
'नीला स्कार्फ़' की रचना के दौरान मैं भीतर से बग़ावती हो गई थी। और पूरी तरह ख़ामोश। मुझे रिश्तों में कमियां दिखती थीं क्योंकि मैं वही देखना चाहती थी। मेरे पास सारी कहानियाँ ख़ामोशी की थीं, ख़ामोश क्रांतियों की थीं। अब 'नीला स्कार्फ़' के किरदारों के बारे में सोचती हूँ तो लगता है कि हर किरदार कितना जटिल था, कितना उलझा हुआ, और कितना बेचैन!<br />
<br />
'मम्मा की डायरी' में बेचैनियाँ हैं, लेकिन ठहरी हुई। 'मम्मा की डायरी' में सिर्फ़ मैं और मैं हूँ हर जगह। किसी और की कहानी सुनाते हुए भी। मैं शुरू से जानती थी कि इस किताब के रास्ते मुझे क्या हासिल करना है। मुझे मालूम था कि इस किताब के ज़रिए मुझे अपनी ज़िन्दगी के रिश्ते टटोलने हैं और उनसे साथ शांति वार्ता शुरू करनी है। मुझे सीज़ फ़ायर चाहिए था, पीस। वो हासिल हो गई है। और तो नहीं मालूम कि क्या हुआ है, लेकिन किताब के ख़त्म होते ही मैं ख़ुद को पूरी तरह healed महसूस कर रही हूँ।<br />
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आज से किताब का ऑनलाइन प्रोमोशन शुरू हो जाएगा। मैं अपना ही लिखा हुआ पब्लिक स्पेस में डालती रहूँगी और बार-बार डालती रहूँगी। आज से अपने लिखे हुए से डिटैच हो जाना बहुत ज़रूरी है। वरना जिन ज़ख्मों को भरने के लिए इतने महीने पता नहीं कितनी बार एक-एक चैप्टर के ड्राफ्ट लिखती रही, उन्हें सोते-जागते-हँसते-रोते-खाते-पीते जीती रही, उन्हीं ज़ख्मों के वापस कुरेदे जाने की संभावना बहुत बड़ी है।<br />
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अगर लिखना आपको सुकून देता है तो छपना आपको वल्नरेबल बनाता है। (इसलिए कई बार डायरी और मॉर्निंग पेज अलमारियों में बंद रखे जाने चाहिए।) यहां से वो सिलसिला शुरू होता है जहाँ लगातार आपको जज किया जाएगा, आपकी सोच और आपके लेखन पर कई तरह की प्रतिक्रियाएं आएंगी। छपते ही लिखा हुआ आपका नहीं, दुनिया का हो जाता है।<br />
<br />
अब जब आपने शब्दों की गठरी बांधकर उन्हें एक किताब के तौर पर वक़्त के समंदर में फेंक देने की हिम्मत दिखा ही दी है तो फिर उससे ख़ुद को जुदा कर लेने में ही अपना और अपने म्यूज़, दोनों का हित है।<br />
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समंदर अंतहीन है। गहरा है। सुनो रॉबिनस क्रूसो, जो गठरी फेंककर तुम हल्के हो गए उसके डूबने-उतराने की फ़िक्र से आज़ाद होकर अब जहाज़ को किसी नए रास्ते ले चलने की तैयारी करो। मौसम खुल गया है। म्यूज़ को उठाकर उससे और नई-नई बातें करने का वक्त आ गया है।<br />
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Anu Singh Choudharyhttp://www.blogger.com/profile/00504515079548811550noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-361816811593679767.post-59669332384093965112015-03-11T10:13:00.001+05:302015-03-11T10:13:19.106+05:30मॉर्निंग पेज २१: बददुआ जो बात कहना नहीं चाहते, उससे बचने के लिए हम दुनिया भर के वाहियात काम करते फिरते हैं।
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मैं भी कर रही हूं। सुबह से इधर-उधर, यहां-वहां। मॉर्निंग पेज से बचती हूं कि चोरी पकड़ ली जाएगी। ईमानदारी का वायदा है तो बच नहीं पाऊंगी कहने से। इसलिए चुप रहना ही बेहतर...<br />
<br />
मैं पढ़ने में हमेशा ठीक-ठाक थी, औसत से बेहतर। लेकिन ग्यारहवीं औऱ बारहवीं में पूरी तरह चौपट निकली। पढ़ने में उन दो साल बिल्कुल मन नहीं लगा। आस-पास के सारे बच्चे इंजीनियरिंग और मेडिकल जैसे भारी-भरकम इम्तिहानों की तैयारी करते थे। मैं भी इंजिनियरिंग की तैयारी कर रही थी, कम से कम ढोंग तो कर ही रही थी। बिलिएंट ट्यूटोरियल्स के क्लास करने जाती। स्कूल से आकर कभी काँके, कभी डोरंडा ट्यूशन पढ़ने जाती। शहर को कोई कोना नहीं छोड़ा था मैंने। बस अपने भीतर का कौना देखने की हिम्मत नहीं मिली। किसी ने सिखाया ही नहीं। किसी ने बताया ही नहीं। भेड़चाल थी। सब चलते थे भीड़ में। मैं भी चलती थी। भीड़ से जुदा क्या वजूद होता है? उस उम्र में किसी का क्या वजूद होता है? <br />
<br />
लेकिन फिर भी एक बेचैनी थी। ट्यूशनों और क्लासों में मन नहीं लगता। छूटने के लिए बेचैन रहती। दूर ट्यूशन पढ़ने इसलिए जाती थी क्योंकि रास्ते भर लोग दिखते थे, वक्त कटता था। शहर में घूमना-भटकना उसी उम्र में शुरु हुआ। मैं खूब भटकती थी। कभी अकेली, कभी किसी दोस्त के साथ। रांची का कोई कोना नहीं छोड़ा - कोई बाज़ार नहीं, कोई मोहल्ला नहीं, कोई डैम, किसी डैम का किनारा नहीं।<br />
<br />
सिर्फ़ दो ही सब्जेक्टस में मन लगता था - हिंदी और अंग्रेज़ी, जब मैं वाकई क्लास में होना चाहती थी। अंग्रेज़ी के कई टीचर आते और जाते। लेकिन क्लास के भीतर टीचर वही रहते - केकी दारुवाला, टैगोर, ईलियट, शेक्सपियर, वर्ड्सवर्थ, एमिली ब्रॉन्ट, जेन ऑस्टिन। क्लास के बाहर ऐगथा क्रिस्टी, शिडनी शेल्डन, जेफ्री आर्चर, मिल्स एंड बून्स, आयन रैंड, टू किल अ मॉकिंग बर्ड। अंग्रेज़ी के उपन्यास मुझे उस दुनिया में ले जाते जहाँ मैं कभी हो नहीं सकती थी। कभी मैडिसन काउंटी, कभी फ्रांस का कोई गांव तो कभी बर्फ़ीली झील का कोई किनारा। कभी कॉन्सनट्रेशन कैंप तो कभी पांच सौ यूएस मिलियन डॉलर की कंपनी का कोई बोर्ड रूम! हर दुनिया अद्भुत थी - अनदेखी, अनजानी। हर किरदार मज़ेदार था - सनकी, पागल, कन्फ़्यूज़ड, बेवकूफ़, शातिर, ख़तरनाक, जटिल... हिंदी की कहानियाँ और उपन्यासों की ख़ुशबू जानी-पहचानी होती। दुनिया देखी-देखी सी लगती। एक भाषा का मोह था जो जोड़े रखता, पकड़े रखता।<br />
<br />
मैं नहीं जानती मैं ऑर्गैनिक केमिस्ट्री पढ़ कैसे रही थी। मुझे पीरियॉडिक टेबल कभी याद नहीं हुआ। फ़िज़िक्स ठीक उसी तरह माथे के ऊपर से गुज़रता जैसे किसी वृत्त के ऊपर से टैन्जेन्ट गुज़रता है कोई। वेक्टर किस बला का नाम है, और क्यों है, मुझे आजतक समझ में नहीं आया। <br />
<br />
उन दो सालों का और कुछ भी याद नहीं, सिर्फ और सिर्फ़ भटकना याद है। और पढ़ना याद है। वो अजीब किस्म का जुनून था, इश्क-सा जुनून। इश्क में मैं अगर कोई शहर हुई हूँ कभी, तो वो रांची हुई हूँ। इश्क़ में और कोई शहर बन ही नहीं पाऊँगी उस तरह। इश्क़ में कहीं सबसे ज़्यादा गई हूँ तो वो है रांची क्लब के पीछे की ब्रिटिश लाइब्रेरी जो अब इंटरनेशनल लाइब्रेरी कही जाती है। इश्क़ या तो सड़कों पर बहुत बहुत बहुत भटकाता था या किताबों की गंध में डूबकर ठहर जाता था।<br />
<br />
दो साल की उस भटकन और बेचैनी का नतीजा था बारहवीं का रिज़ल्ट।<br />
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जिस दिन रिज़ल्ट निकला उस दिन मैं सदमे में रही। मैं हो गई थी, हिंदी और अंग्रेज़ी में आए अंकों की मेहरबानी से बाइज्ज़त पास हो गई थी। लेकिन मैं टॉपर नहीं रही। मैं वो नहीं रही जो मुझे होना चाहिए था, जो मुझे बन जाना चाहिए था। अब मैं इंजीनियर तो किसी क़ीमत पर नहीं बन सकती थी।<br />
<br />
उस रोज़ मैंने कुछ नींद की गोलियाँ बाबा की दराज़ से निकाली और कुछ अपनी परदादी के कमरे से, जिन्हें हाई बीपी की वजह से सोने की दवाई दी जा रही थी। कुल मिलाकर पच्चीस गोलियां रही होंगी। मैंने वो सारी गोलियां फांक लीं।<br />
<br />
बस फांक ली। बिना सोचे-समझे। किसी ने कुछ कहा नहीं था, लेकिन किसी से कुछ सुनने की हिम्मत नहीं थी मुझमें। न कोई शिकायत, न कोई ताना। ऐसा भी नहीं था कि मेरे एक्ज़ाम के रिज़ल्ट को लेकर लोग बहुत शॉक में हों। मेरे परिवार के बच्चे जैसा रिज़ल्ट लेकर आते हैं, उससे बेहतर ही था जो भी था। किसी के मन में मेरे लिए बड़ी ख़्वाहिशें रही हों, ऐसा भी नहीं था। किसी को कुछ कहने की ज़रूरत नहीं थी।<br />
<br />
ये अंधेरे मेरे चुने हुए थे। इन अंधेरों से बाहर निकलने का रास्ता मेरा देखा हुआ था। ये फ़ितूर मेरे पाले हुए थे। इनसे निजात भी मुझे ही पाना था। सोलह साल की उम्र में वैसे भी अपनी रची दुनिया में सिर्फ़ हम होते हैं। सिर्फ़ हम। अकेले। भटके हुए। परेशान।<br />
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नींद की गोलियां खा लेने से आसान मरने का कोई और तरीका नहीं था। घर में इतने सारे लोग थे कि कोई कमरा और कोई पंखा दस मिनट के लिए भी खाली मिले, सवाल ही नहीं था। बाथरूम में घुसकर अपने दुपट्टे से अपना ही गला घोंटने की कोशिश की। दो मिनट के बाद हिम्मत जवाब दे गई। बाथरूम में इतनी जगह भी नहीं थी कि ठीक से गिर सकूं। फ़िनायल की दुर्गंध मुझसे बर्दाश्त होती नहीं थी, इसलिए कोने में रखे फ़िनायल को उठाकर पी लेने का कोई मतलब नहीं था। चूहे मारने की दवा चूहों को मुक्ति दिलाने के काम आ गई थी। तीन मंज़िला छत से कूदती भी तो चौधरी नर्सिंग होम पहुंचती। नर्सिंग होम के बगीचे से हमारी दीवार लगी थी। बस नींद की गोलियां थी, वो भी ०.२५ एमजी की। वो भी इतनी ही जितनी एक हफ्ते में किसी को ज़रूरत पड़ती हो। लेकिन घर में तीन जगह थीं।<br />
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पच्चीस गोलियां। कुल मिलाकर पच्चीस गोलियां। ०.२५ एमजी की २५ गोलियां। बस इतना ही। मेरे भीतर उतनी ही स्ट्रेंथ में हिम्मत थी, जितनी गोलियां की मेडिकली स्ट्रेंथ थी। कुछ पेट में गईं गोलियाँ और कुछ उल्टियों में निकल गई।<br />
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मर जाने के लिए इतने से क्या होता? लेकिन बेहोशी के लिए उतनी गोलियां काफी थीं। मैं अगले कई घंटे बेसुध सोती रही। पूरा दिन। पूरी शाम। पूरी रात।<br />
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अगली सुबह पापा उठाकर ले गए थे अपने कमरे में। पापा कभी प्यार जताते नहीं हैं, सिर पर हाथ रखकर या गले लगाकर तो बिल्कुल नहीं। लेकिन उस दिन पापा ने दोनों किया। कहा कि अच्छा हुआ तुम्हारे रिज़ल्ट अच्छे नहीं आए। तुम्हें अपनी ताक़त और कमज़ोरी, दोनों का अंदाज़ा लग गया।<br />
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पापा बिल्कुल नॉर्मल थे। उन्होंने मुझसे गोलियों के बारे में पूछा नहीं तो मैंने बताया नहीं। किसी ने नहीं पूछा। मैंने किसी से नहीं बताया।<br />
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ऐसा नहीं कि उस दिन के बाद ज़िन्दगी नई हो गई। लेकिन उस दिन के बाद मर जाने जैसा बेवकूफ़ी भरा ख़्याल उतनी तीव्रता से कभी नहीं आया।<br />
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मैं ज़िंदा बच गई थी और बाद में अपने हिस्से का बहुत सारा अपमान भी झेलना पड़ा। गोलियाँ खाने का कोई अफ़सोस भी नहीं रहा। सिर्फ़ साइड इफेक्ट कई महीनों तक रहे - चेहरे पर निकल आए बहुत सारे मुँहासों के रूप में। टीनेज का वो धब्बा न अब मेरे चेहरे पर है न रूह पर। टीनेज कितना ख़तरनाक और बेहूदा, सिरफ़िरा और बेतुका हो सकता है - इसकी याद ज़रूर बाकी रह गई है।<br />
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परसों सुबह हमारे एक पारिवारिक दोस्त की बेटी ने छत से कूदकर खुदकुशी कर ली। उसकी उम्र ठीक वही रही होगी जिस उम्र में मैंने नींद की गोलियाँ फाँक ली थी। उसने न इम्तिहान देने का इंतज़ार किया, न रिज़ल्ट देखने का। उसके लिए टॉपर न बने रहने का डर इतना बड़ा था कि उस बदतमीज़ लड़की ने छत से कूद जाने में चैन समझा। उसके माँ-बाप ने उससे कभी कुछ नहीं कहा था। सारे अंधेरे उसके चुने हुए थे। सारा फ़ितूर उसका पाला हुआ था। टीनेज उससे न संभला।<br />
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दो दिन से ठीक से सोई नहीं हूँ और बार-बार उसके माँ-बाप का चेहरा आँखों के आगे घूमता है। घरों की दीवार पर लगी उसकी तस्वीरें, उसकी स्टडी टेबल पर रखा एडमिट कार्ड और लंच का डिब्बा जो उसकी माँ ने सुबह तैयार किया होगा, बहुत सारे स्टिक ऑन्स पर बहुत ख़ूबसूरत हैंडराईटिंग में लिखे गए फॉर्मूले, दीवारों से ऊँचा बुक रैक, बुक रैक से भारी उम्मीदों का बोझ... सब छोड़कर कूद गई लड़की छत से। एक मिनट भी न लगाया। उसको अंदाज़ा भी था कि वो लौटकर आ नहीं पाएगी? या खेल लगा कोई? कूदे-फांदे-रोए-धोए-लौट आए?<br />
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मैं दो दिन से सोच रही हूं कि टीनेज की कौन सी तकलीफ़ इतनी बड़ी और असह्य होती है कि एक मिनट में अपनी ही जान लेने पर उतारू हो जाए इंसान। इसमें मां-बाप का कसूर कहां होता है? इसमें किसका कसूर होता है आख़िर? ये किस तरह का पागलपन है जिससे मैं-आप सब गुज़रते हैं, फिर भी एक-दूसरे को ठीक से बचा नहीं पाते। समझ नहीं पाते। कह नहीं पाते। सुन नहीं पाते।<br />
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वो लड़की और कुछ डिज़र्व नहीं करती, सिवाय इसके कि कहीं किसी आसमान पर कोई फ़रिश्ता उसे मिले और उसके चेहरे पर खींचकर दो थप्पड़ मारे। फिर वापस उसे इसी दुनिया में मरने-जीने के लिए भेज दे और तब तक उसे बार-बार इस ज़मीन पर भेजता रहे जब तक उसे ज़िन्दगी की अहमियत का अंदाज़ा न लग जाए, जब तक उसे ये समझ न आ जाए कि एक सिपाही के मैदान से भाग जाने पर न सिपाही को जंग से आज़ादी मिलती है और न जंग ख़त्म होती है।<br />
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तुम बार-बार पैदा होती रहो इसी दुनिया में लड़की, तुम्हें मैं यही बददुआ देती हूँ।<br />
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<br />Anu Singh Choudharyhttp://www.blogger.com/profile/00504515079548811550noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-361816811593679767.post-77212597531218110502015-03-09T08:07:00.003+05:302015-04-10T21:06:42.349+05:30मॉर्निंग पेज २० और लौटना इलाहाबाद से सुबह-सुबह इस पेज पर लौटने की ख़ुशी अद्भुत है। चार दिन लिख नहीं सकी, और चार दिन सबसे ज़्यादा अपनी डायरी को मिस करती रही।<br />
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हम इलाहाबाद में थे। हाई कोर्ट के पास, ओल्ड कैंट एरिया में। होली की हुड़दंग के बीच हमें जो इलाहाबाद दिखाई दिया उसमें एक पुराने शहर की ख़ूबसूरती और चार्म है। जब तक आप एक बार इलाहाबाद से होकर न गुज़रें, तब तक ये वाकई समझना मुश्किल है कि कैसे एक शहर किसी का म्यूज़ बन सकता है। ये इलाहाबाद चंदर और सुधा का शहर है। यही वो शहर है जहाँ प्यार दोनों की रूहों में पिघले हुए लोहे की तरह बचा रह गया था। यही वो शहर है जिसके वर्णन से खुलता है गुनाहों का देवता... इस शहर में ही हो सकती है रोम-रोम चुभती मोहब्बत। धर्मवीर भारती का म्यूज़ इलाहाबाद। महादेवी वर्मा का शहर इलाहाबाद। बच्चन का ये शहर - इलाहाबाद। <br />
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<div style="background-color: #dee7de; font-family: Mangal, 'Arial Unicode MS', Utsaah, CDAC-GISTYogesh, Tahoma, Verdana, Arial, Helvetica, 'Bitstream Vera Sans', sans-serif; font-size: 14px; text-align: justify; text-indent: 30px;">
अगर पुराने जमाने की नगर-देवता की और ग्राम-देवता की कल्पनाएँ आज भी मान्य होतीं तो मैं कहता कि इलाहाबाद का नगर-देवता जरूर कोई रोमैण्टिक कलाकार है। ऐसा लगता है कि इस शहर की बनावट, गठन, जिंदगी और रहन-सहन में कोई बँधे-बँधाये नियम नहीं, कहीं कोई कसाव नहीं, हर जगह एक स्वच्छन्द खुलाव, एक बिखरी हुई-सी अनियमितता। बनारस की गलियों से भी पतली गलियाँ और लखनऊ की सडक़ों से चौड़ी सडक़ें। यार्कशायर और ब्राइटन के उपनगरों का मुकाबला करने वाले सिविल लाइन्स और दलदलों की गन्दगी को मात करने वाले मुहल्ले। मौसम में भी कहीं कोई सम नहीं, कोई सन्तुलन नहीं। सुबहें मलयजी, दोपहरें अंगारी, तो शामें रेशमी! धरती ऐसी कि सहारा के रेगिस्तान की तरह बालू भी मिले, मालवा की तरह हरे-भरे खेत भी मिलें और ऊसर और परती की भी कमी नहीं। सचमुच लगता है कि प्रयाग का नगर-देवता स्वर्ग-कुंजों से निर्वासित कोई मनमौजी कलाकार है जिसके सृजन में हर रंग के डोरे हैं।</div>
<div style="background-color: #dee7de; font-family: Mangal, 'Arial Unicode MS', Utsaah, CDAC-GISTYogesh, Tahoma, Verdana, Arial, Helvetica, 'Bitstream Vera Sans', sans-serif; font-size: 14px; text-align: justify; text-indent: 30px;">
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और चाहे जो हो, मगर इधर क्वार, कार्तिक तथा उधर वसन्त के बाद और होली के बीच के मौसम से इलाहाबाद का वातावरण नैस्टर्शियम और पैंजी के फूलों से भी ज्यादा खूबसूरत और आम के बौरों की खुशबू से भी ज्यादा महकदार होता है। सिविल लाइन्स हो या अल्फ्रेड पार्क, गंगातट हो या खुसरूबाग, लगता है कि हवा एक नटखट दोशीजा की तरह कलियों के आँचल और लहरों के मिजाज से छेडख़ानी करती चलती है। और अगर आप सर्दी से बहुत नहीं डरते तो आप जरा एक ओवरकोट डालकर सुबह-सुबह घूमने निकल जाएँ तो इन खुली हुई जगहों की फिजाँ इठलाकर आपको अपने जादू में बाँध लेगी। खासतौर से पौ फटने के पहले तो आपको एक बिल्कुल नयी अनुभूति होगी। वसन्त के नये-नये मौसमी फूलों के रंग से मुकाबला करने वाली हल्की सुनहली, बाल-सूर्य की अँगुलियाँ सुबह की राजकुमारी के गुलाबी वक्ष पर बिखरे हुए भौंराले गेसुओं को धीरे-धीरे हटाती जाती हैं और क्षितिज पर सुनहली तरुणाई बिखर पड़ती है।</div>
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'गुनाहों का देवता' की शुरुआत ही इलाहाबाद के कुछ इस तरह के वर्णन से होती है। इतने सालों बाद भी इलाहाबाद कम, बहुत कम बदला है। वो तो भला हो आद्या का, कि होली पर लहंगा खरीदने की ज़िद की उसने। वरना मुझे शहर उस तरह नज़र ही न आता जैसा होली के एक दिन पहले दिखाई दे गया था। सिविल लाइन्स बाज़ार एक महानगर और किसी छोटे शहर का मिक्स्ड ब्रीड है। कटरा की गलियों में घुसकर थोक दुकानों पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराना मेरे जैसे नोस्टालजिस्ट लोगों का परम धर्म है।<br />
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लोग होली की दोपहरी रंग खेलकर आराम फ़रमा रहे थे। हम पतिदेव के भांग के नशे का इलाज कराने मिलिट्री अस्पताल की ओर दौड़ रहे थे। वक़्त ने इजाज़त दी तो उस एक दोपहर को मैं फिर से जीना चाहूँगी। इसलिए क्योंकि जितना प्यार भाँग के नशे में बड़बड़ाते पति पर आता है, उतना ही होली के नशे में डूबे इलाहाबाद पर आया।<br />
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लोग अगले दिन फिर से होली खेल रहे थे और हम शहर धाँग रहे थे। बाहर से छू-छूकर देख रहे थे वो इतिहास जो इस शहर ने जिया है। यूनिवर्सिटी, साइंस फैकल्टी, आर्ट्स फैकल्टी, हिंदू छात्रावास, हाई कोर्ट, एल्फ्रेड पार्क, इलाहाबाद फोर्ट, त्रिवेणी, स्वराज भवन, खुसरो पार्क, कैथेड्रल...<br />
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पहले यमुना और फिर गंगा और फिर त्रिवेणी पर डोलते नाव पर ही कहीं लौट आने की दुआ भूल आई हूँ।<br />
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चिड़िया को खिलाने के लिए रखी नमकीन पर्स में ही लौटा आई हूँ।<br />
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अमरनाथ झा चौराहे पर छूट गई हैं प्रेम कहानियाँ।<br />
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लौटना होगा फिर से, इलाहाबाद। <br />
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Anu Singh Choudharyhttp://www.blogger.com/profile/00504515079548811550noreply@blogger.com0