कोई फ़ोन पर पूछ ले कि दिन कैसे काटती हो, तो मैं हँस देती हूँ।
ऐसे बेतुके सवाल आदमियों के दिमाग़ में आते कैसे हैं? दिन काटना कहाँ पड़ता है? दिन तो कट जाते हैं। अनदेखे कल को चमकाने में जितनी ऊर्जा लगती है, उसकी आधी ऊर्जा भी फ़र्श और सिंक में पड़े बर्तनों को चमकाने में लगा दिया जाए तो आधा दिन यूँ भी कट जाता है। बाकी का दिन मशीन से कपड़े निकालकर बालकनी में, फिर बालकनी से उतारकर, सोफे पर, फिर सोफे से उतारकर आयरनिंग टेबल पर, फिर आयरनिंग टेबल से अलमारियों में डालने में गुज़र जाता है। जिस लॉकडाउन के लंबे-लंबे ऊबे हुए दिनों को काटने की फ़िक्र में रातों की नींद जाने लगी है, उस लॉकडाउननुमा जीवन के लिए तो हाउसवाइफ़री औरतों को रोज़ तैयार करती रही है।
'बहुत लिखती होगी इन दिनों के' के तंज़ पर माथा फोड़ लेने का जी करता है। सारी दुनिया के लिए राईटर बन जाने का यही सही समय है, और सारे राईटरों के लिए लिखना छोड़ देना का इससे माक़ूल कोई मौक़ा नहीं।
ये मौक़ा कई और आदतों को तोड़ देने का है। आस-पास की आदतें धराशायी होने लगी हैं अपनेआप।
माँ ने छठ का व्रत रखा, लेकिन घाट नहीं गई। बेटी-बेटे ने होमवर्क कर लिया लेकिन अपना बैग नहीं खोला, न उछल उछलकर इस बात की घोषणा की। तीन साल की भतीजी ने अपने जूते पहन लिए लेकिन बाहर निकलने की ज़िद नहीं की। मैंने अपनी कहानियाँ पूरी कर लीं लेकिन संपादक को नहीं भेजा। लोगों ने यात्राएँ शुरु कर दीं लेकिन घर नहीं पहुँचे। कोयल ने कूकना बंद कर दिया लेकिन दूर नीचे खिले बसंत के फूलों की रंगत नहीं उतरी।
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