प्ले लिस्ट तैयार हो गई है। साढ़े छह बजे से ही उठकर झाड़ू-पोंछा कर चुकी हूँ। नहाना-धोना, मेडिटेशन सब हो गया।
और धूप है कि अभी बालकनी के एक ही कोने में टंगी हुई है, सिर पर चढ़ी ही नहीं।
हम कुछ छह लोग हैं मुंबई में साढ़े तीन कमरों वाले इस अपार्टमेंट में। इस कमरे से उस कमरे भटकने की दर प्रति दो व्यक्ति प्रति पंद्रह मिनट की रहे तब भी कोई न कोई कोना खाली मिल ही जाता है। जानती हूँ कि ख़ुशकिस्मत हूँ। इसलिए भी कि मेरे अलावा इस लॉकडाउन में पाँच जने और हैं इस घर में। इसलिए भी कि एक ही कमरे में दसियों के बीच पैर फैलाने की मारामारी नहीं हो रही। इसलिए भी कि हमारे पास एक ठिया है, जहाँ से भागने की कोई ज़रूरत नहीं। वरना सुबह सुबह फ़ोन पर पतिदेव ने जयपुर से बिहार के लिए पैदल निकल पड़े दस बिहारी मजदूरों की स्टोरी फॉरवर्ड की तो दिमाग़ भन्ना गया।
सच तो ये है कि इंसान को बीमारी से डर नहीं लगता। मरने से भी शायद ही लगता हो। डर तो ग़ैरयक़ीनी सूरत-ए-हाल से लगता है। डर तो अनिश्चितताओं से भरे इस काल से लगता है।
चौदहवीं मंज़िल की बालकनी से टंगकर सामने दूर महिन्द्रा क्लब के बग़ल की थोड़ी सी खुली ज़मीन पर खिले बसंत रानी के गाछों को घूरने के बाद वापस लौट आती हूँ। इसी बालकनी से ठीक तेरह-चौदह माले ऊपर एक सुपरस्टार ने लटकर अपने इंस्टाग्राम पर एक तस्वीर के साथ टूटी-फूटी कविता पोस्ट की थी तो उसे एक मिलियन से ऊपर लाइक्स मिले थे। बग़ल के अपार्टमेंट की खिड़की पर एक बुज़ुर्ग रिटायर्डनुमा अंकल बैठकर धूप सेंक रहे हैं। उनकी टीवी से न्यूज़ चीख रहा है, जिसमें शायद न उनकी दिलचस्पी है न टीवी के सामने बैठकर आलू छीलती उनकी पत्नी को। उस शोर से बचने की कोशिश में उनकी बेटी बालकनी पर बैठी हुई ऑफ़िस के किसी कॉन कॉल पर बात कर रही है। हम सब बालकनी के बाशिंदे हो गए हैं। बालकनी हमारी आउटिंग है, बालकनी हमारी शरणस्थली। बालकनी हमारी तन्हाई का साथी, बालकनी हमारी कविताओं का म्यूज़।
बालकनी की ओर बढ़ती हूँ क्योंकि आज के अनर्गल प्रलाप का कोई हासिल नहीं, और ये तो इक्कीस दिनों के लॉकडाउन का पहला ही दिन है।
3 टिप्पणियां:
इतने गहरे विचार बहुत खूब
मैंने हाल ही में ब्लॉगर ज्वाइन किया है आपसे निवेदन करना चाहती हूं कि आप मेरे पोस्ट को पढ़े और मुझे सही दिशा निर्दश दे
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