यहाँ डायरी लिखने, औऱ फिर लिखकर पब्लिश करने की आदत तो कब की जाती रही। न जाने कौन से वे दिन थे जब मैं अपने दिल की सारी खट्टी-मीठी, अच्छी-बुरी बातें यहाँ लिख दिया करती थी। न किसी के कॉमेन्ट की चिंता थी, न पढ़े जाने का डर।
उन दिनों मैं एक माँ की तरह, एक औरत की तरह लिख रही थी। अब मैं एक राईटर की तरह लिखने लगी हूँ। उंगलियाँ कीबोर्ड पर उतरीं नहीं कि कंधे पर ये डर सवार हो जाता है कि लोग न जाने क्या कहेंगे। पाठकों की प्रतिक्रिया न जाने कैसी होगी।
लोग गूगल भी तो करने लगे हैं मुझे। ख़ुद की पहचान का इस तरह पब्लिक हो जाना कि आपको आपसे ज़्यादा दूसरे समझने, और उस बहाने आपके बारे में राय बनाने का दावा करने लगें तो समझ लीजिए कि राइट टू प्राइवेसी के हनन का जिस ख़तरनाक रास्ते पर हम जाने-अनजाने दस-बारह साल चल पड़े थे, वे रास्ते हमें ही लौट-लौटकर डराने लगे हैं।
लेकिन आज की डायरी के इस पन्ने के यहाँ लिखे जाने का मसला ये नहीं है। आज यहाँ आकर डायरी लिखने की वजह बस ये है कि मुझे मेरे डर सताने लगे हैं। ठीक वही डर जिनकी वजह से एक दशक पहले मैंने यहाँ आकर अपनी बातें, अपने डर, अपनी उम्मीदों को रिकॉर्ड करना शुरू किया था।
मर जाने का डर सबसे बड़ा होता है। उससे भी बड़ा डर होता है डरते-डरते मर जाने का डर। और सबसे बड़ा डर होता है नाख़ुश, नाराज़ मर जाने का डर।
मुझे यही डर फिर से सताने लगा है। और इसलिए यहाँ आकर इन पन्नों पर ये डर दर्ज कर रही हूँ, इस उम्मीद में कि मेरे बच्चे, या मेरा कोई दोस्त, कोई अज़ीज़, या फिर बची हुई नस्ल में बचा रह गया हिंदी का कोई पाठक, मेरे बाद इन पन्नों में कुछ ढूँढने चले तो उसे इस वक़्त की उथल-पुथल और नाख़ुश मर जाने के डर के अलावा थोड़ी सी उम्मीद, थोड़ी सी इंसानियत, थोड़ी सी एक माँ और थोड़ी सी एक औरत भी नज़र आए।
सुबह के सात बज रहे हैं और डायनिंग टेबल के जिस कोने पर बैठी मैं अपनी डायरी लिख रही हूँ, वहाँ तक सूरज की किरणें सीधी पहुंचती हैं। मेरी उनींदी आँखें अपने आप चुंधियाने सी लगी हैं। कई दिन हुए, मुझे सुबह की ऐसी धूप में बैठने की आदत नहीं रही। लेकिन अब विटामिन डी को इम्युनिटी के लिए ज़रूरी बताया जा रहा है, और इम्युनिटी न रही तो कोरोना कहाँ से कब धर ले, इसका ठीक-ठीक अंदाज़ा पूरी मेडिकल दुनिया को नहीं, इसलिए चुपचाप धूप में आ बैठना ही अच्छा है।
बाहर कर्फ्यू लगा है। अंदर बेइंतहा डर क़ायम है। बेटी खाने के लिए योगर्ट माँगती है तो मैं उसे डाँट देती हूँ। जो है उसी में काम चलाओ। न जाने ये कल मिले न मिले। ये सच है कि हमारी रसोई में तो फिर भी दूध, सब्ज़ी, दाल, चावल, आटा बाक़ी है अभी। ये भी सच है कि अगर कुछ और हफ़्ते घर में बैठना पड़ा तो दाल-चावल के लाले नहीं पडेंगे। हम ख़ुशकिस्मत हैं, और अरियाना हफ़िंग्टन, ओपरा विनफ्रे और दीपक चोपड़ा जैसे इमोशन और स्पिरिचुअल गुरु हमें इसी ख़ुशकिस्मती पर बीस सेकेंड तक हाथ धोते हुए शुक्रगुज़ार होने की सलाह देते रहते हैं।
लेकिन बाक़ी की दुनिया का क्या? जिनके डब्बे आने बंद हो गए उनका क्या? जिनकी रोज़ी पर अनिश्चितकाल के ताले पड़ गए, उनका क्या? जिनकी दिहाड़ी से उनका घर चलता था, उनका क्या? जिन्होंने डर के बारे हज़ारों हज़ार की तादाद में अपने गाँव के लिए ट्रेनें लीं - उन गाँवों के लिए, जहाँ न अब खेती होती है, न मज़दूरी के अवसर मिलते हैं - उनका क्या?
कहा जा रहा है कि कुदरत ने हमें स्लोडाउन करने के लिए ये रास्ता अपनाया। क्या कुदरत ये नहीं जानती कि सज़ा से भारी सज़ा की मियाद और सज़ा के नतीजे होते हैं?
माँ ये भी कहती रहती है कि जिस अपार, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी ईश्वर ने हमें ये आपदा दी है, वही हमें हिम्मत भी देगा, और माफ़ी भी। मुझे अब उस सर्वशक्तिमान पर शंका होने लगी है।
फिर कोई कहता है, सरकार की ज़िम्मेदारी है। प्रशासन की ज़िम्मेदारी है। इसलिए कर्फ्यू है, लॉकडाउन है। सरकार पर तो ख़ैर अभी ही नहीं, पहले भी विरले ही भरोसा था।
बस एक ही भरोसा है जो क़ायम है। इंसानियत पर। एक-दूसरे पर। अपने आस-पास के लोगों पर। अपने परिवार पर। अपने आप पर।
अपनी तमाम नाख़ुशियों और नाराज़गी, और ऐसे ही मर जाने के डर के बाद भी हम अपने सबक सीखकर अपने जीने के तौर-तरीके बदल देंगे, इस बात का भरोसा है। जब तक ज़िंदा हैं, हर रोज़ उठकर विटामिन डी लेते हुए टू-डू लिस्ट और योजनाओं की डायरी की चिंदियाँ उड़ाते हुए ख़ुद को भविष्य के बोझ से आज़ाद कर देंगे, इस बात का भरोसा है।
3 टिप्पणियां:
थोड़ी सी इंसानियत थोड़ी सी उम्मीद और बहुत सा आप जैसे लेखकों का लिखा हुआ हौंसला दे जाता है ��
Best Birthday Gifts Online
Birthday Gifts Online
Send Online Gifts India
एक टिप्पणी भेजें