बुधवार, 1 अप्रैल 2020

कोरोना के दिनों में मॉर्निंग पेज भाग ४

मैंने कल रात कन्टेजियन नाम की एक फ़िल्म देखने की भयंकर ग़लती कर दी. असल ज़िन्दगी में वायरस की भयावहता कम है क्या कि उस पर किताबें पढ़ी जाएं, फ़िल्में देखी जाएं, वो भी लॉकडाउन के दिनों में! लेकिन अमेजॉन प्राइम की ट्रेन्डिंग फ़िल्मों में से है कन्टेजियन. उसी तरह नेटफ़्लिक्स पर भी डिस्टोपिया की फ़िल्में ट्रेन्ड कर रही हैं, सुना है. यानी, हम इंसान सही मायने में मैसोकिस्ट हैं. हमें स्वपीड़न में ही सुख मिलता है. 

सेल्फ़ आइसोलेशन का आलम ये है कि कचरा निकालने के अलावा पिछले चौदह दिनों में दरवाज़े से बाहर नहीं निकली. बाहर वैसे भी सन्नाटे के अलावा नज़र भी क्या आना है. सूनी सूनी आँखों से सन्नाटा तकते-सुनते लोगों को देखकर मिलेगा भी क्या. कितना लंबा वक़्त काटा होगा सोते हुए ऑटो-टैक्सीवालों ने? भूख लगी होगी तो कहां गए होंगे? फल और सब्ज़ियों के ठेलों पर तो लेटने की जगह भी नहीं होती. उनका पहाड़-सा दिन कैसे कटता होगा? २१ दिनों के पहले चरण के लॉकडाउन का आठवां दिन ही है आज. ऐसे न जाने और कितने दिन काटने होंगे. 

और नफ़रतें हैं कि कम ही नहीं होती. 

अपने शहर की एक प्रोबेशनरी आईएएस अफ़सर से बात हो रही थी. कह रही थी कि यहाँ (बिहार में) लोग झूठ बहुत बोलते हैं. ख़ासतौर पर अगड़े, रसूखवाले, ताक़तवर. थ्योरी में जिस तरह के वर्गभेद के बारे में पढ़ा था, ज़मीनी स्तर पर वह अपने सबसे भयानक रूप में दिखाई दे रहा है. अगर कोई ग़रीब पिछड़े वर्ग का इंसान कहीं बाहर से आया है तो उसके लिए दस फ़ोन आ जाएंगे. उसको गाँव से, मोहल्ले से निकालने की सिफ़ारिशें होंगी. लेकिन जिनके पास संसाधन हैं, वे चुपचाप अपने घरों में लुकाए बैठे हैं. मालूम भी नहीं कि वे वायरस के कैरियर हैं या नहीं. जाति और मज़हब के आधार पर वायरस को भी बांट देना कोई हमसे सीखे. 

ऐसे संकट के दौर में जितनी झूठ और फ़रेब की कहानियाँ हैं, उतने ही मदद के लिए बढ़े हाथ हैं. फंडरेज़िंग, अपने अपने पास के संसाधनों को ज़रूरतमंदों में बांटने की कोशिश, अपने अपने हुनर से दूसरों की मदद करने का जुगाड़, प्रो बोनो काउंसिलिंग, ऑनलाइन स्टैंडअप कॉमेडी, आर्ट, म्युज़िक - कितना कुछ है वहाँ जो उपलब्ध है. 

बचा रह गया है एक अरमान भी है. वापस घर लौट जाने का अरमान. 

मंगलवार, 31 मार्च 2020

कोरोना के दिनों में मॉर्निंग पेज भाग ३

कोई फ़ोन पर पूछ ले कि दिन कैसे काटती हो, तो मैं हँस देती हूँ।

ऐसे बेतुके सवाल आदमियों के दिमाग़ में आते कैसे हैं? दिन काटना कहाँ पड़ता है? दिन तो कट जाते हैं। अनदेखे कल को चमकाने में जितनी ऊर्जा लगती है, उसकी आधी ऊर्जा भी फ़र्श और सिंक में पड़े बर्तनों को चमकाने में लगा दिया जाए तो आधा दिन यूँ भी कट जाता है। बाकी का दिन मशीन से कपड़े निकालकर बालकनी में, फिर बालकनी से उतारकर, सोफे पर, फिर सोफे से उतारकर आयरनिंग टेबल पर, फिर आयरनिंग टेबल से अलमारियों में डालने में गुज़र जाता है। जिस लॉकडाउन के लंबे-लंबे ऊबे हुए दिनों को काटने की फ़िक्र में रातों की नींद जाने लगी है, उस लॉकडाउननुमा जीवन के लिए तो हाउसवाइफ़री औरतों को रोज़ तैयार करती रही है। 

'बहुत लिखती होगी इन दिनों के' के तंज़ पर माथा फोड़ लेने का जी करता है। सारी दुनिया के लिए राईटर बन जाने का यही सही समय है, और सारे राईटरों के लिए लिखना छोड़ देना का इससे माक़ूल कोई मौक़ा नहीं।

ये मौक़ा कई और आदतों को तोड़ देने का है। आस-पास की आदतें धराशायी होने लगी हैं अपनेआप।

माँ ने छठ का व्रत रखा, लेकिन घाट नहीं गई। बेटी-बेटे ने होमवर्क कर लिया लेकिन अपना बैग नहीं खोला, न उछल उछलकर इस बात की घोषणा की। तीन साल की भतीजी ने अपने जूते पहन लिए लेकिन बाहर निकलने की ज़िद नहीं की। मैंने अपनी कहानियाँ पूरी कर लीं लेकिन संपादक को नहीं भेजा। लोगों ने यात्राएँ शुरु कर दीं लेकिन घर नहीं पहुँचे। कोयल ने कूकना बंद कर दिया लेकिन दूर नीचे खिले बसंत के फूलों की रंगत नहीं उतरी। 

बुधवार, 25 मार्च 2020

कोरोना के दिनों में मॉर्निंग पेज भाग दो

प्ले लिस्ट तैयार हो गई है। साढ़े छह बजे से ही उठकर झाड़ू-पोंछा कर चुकी हूँ। नहाना-धोना, मेडिटेशन सब हो गया। 

और धूप है कि अभी बालकनी के एक ही कोने में टंगी हुई है, सिर पर चढ़ी ही नहीं। 

हम कुछ छह लोग हैं मुंबई में साढ़े तीन कमरों वाले इस अपार्टमेंट में। इस कमरे से उस कमरे भटकने की दर प्रति दो व्यक्ति प्रति पंद्रह मिनट की रहे तब भी कोई न कोई कोना खाली मिल ही जाता है। जानती हूँ कि ख़ुशकिस्मत हूँ। इसलिए भी कि मेरे अलावा इस लॉकडाउन में पाँच जने और हैं इस घर में। इसलिए भी कि एक ही कमरे में दसियों के बीच पैर फैलाने की मारामारी नहीं हो रही। इसलिए भी कि हमारे पास एक ठिया है, जहाँ से भागने की कोई ज़रूरत नहीं। वरना सुबह सुबह फ़ोन पर पतिदेव ने जयपुर से बिहार के लिए पैदल निकल पड़े दस बिहारी मजदूरों की स्टोरी फॉरवर्ड की तो दिमाग़ भन्ना गया। 

सच तो ये है कि इंसान को बीमारी से डर नहीं लगता। मरने से भी शायद ही लगता हो। डर तो ग़ैरयक़ीनी सूरत-ए-हाल से लगता है। डर तो अनिश्चितताओं से भरे इस काल से लगता है। 

चौदहवीं मंज़िल की बालकनी से टंगकर सामने दूर महिन्द्रा क्लब के बग़ल की थोड़ी सी खुली ज़मीन पर खिले बसंत रानी के गाछों को घूरने के बाद वापस लौट आती हूँ। इसी बालकनी से ठीक तेरह-चौदह माले ऊपर एक सुपरस्टार ने लटकर अपने इंस्टाग्राम पर एक तस्वीर के साथ टूटी-फूटी कविता पोस्ट की थी तो उसे एक मिलियन से ऊपर लाइक्स मिले थे। बग़ल के अपार्टमेंट की खिड़की पर एक बुज़ुर्ग रिटायर्डनुमा अंकल बैठकर धूप सेंक रहे हैं। उनकी टीवी से न्यूज़ चीख रहा है, जिसमें शायद न उनकी दिलचस्पी है न टीवी के सामने बैठकर आलू छीलती उनकी पत्नी को। उस शोर से बचने की कोशिश में उनकी बेटी बालकनी पर बैठी हुई ऑफ़िस के किसी कॉन कॉल पर बात कर रही है। हम सब बालकनी के बाशिंदे हो गए हैं। बालकनी हमारी आउटिंग है, बालकनी हमारी शरणस्थली। बालकनी हमारी तन्हाई का साथी, बालकनी हमारी कविताओं का म्यूज़। 

बालकनी की ओर बढ़ती हूँ क्योंकि आज के अनर्गल प्रलाप का कोई हासिल नहीं, और ये तो इक्कीस दिनों के लॉकडाउन का पहला ही दिन है। 




मंगलवार, 24 मार्च 2020

कोरोना के दिनों में मॉर्निंग पेज भाग १

यहाँ डायरी लिखने, औऱ फिर लिखकर पब्लिश करने की आदत तो कब की जाती रही। न जाने कौन से वे दिन थे जब मैं अपने दिल की सारी खट्टी-मीठी, अच्छी-बुरी बातें यहाँ लिख दिया करती थी। न किसी के कॉमेन्ट की चिंता थी, न पढ़े जाने का डर। 

उन दिनों मैं एक माँ की तरह, एक औरत की तरह लिख रही थी। अब मैं एक राईटर की तरह लिखने लगी हूँ। उंगलियाँ कीबोर्ड पर उतरीं नहीं कि कंधे पर ये डर सवार हो जाता है कि लोग न जाने क्या कहेंगे। पाठकों की प्रतिक्रिया न जाने कैसी होगी। 

लोग गूगल भी तो करने लगे हैं मुझे। ख़ुद की पहचान का इस तरह पब्लिक हो जाना कि आपको आपसे ज़्यादा दूसरे समझने, और उस बहाने आपके बारे में राय बनाने का दावा करने लगें तो समझ लीजिए कि राइट टू प्राइवेसी के हनन का जिस ख़तरनाक रास्ते पर हम जाने-अनजाने दस-बारह साल चल पड़े थे, वे रास्ते हमें ही लौट-लौटकर डराने लगे हैं। 

लेकिन आज की डायरी के इस पन्ने के यहाँ लिखे जाने का मसला ये नहीं है। आज यहाँ आकर डायरी लिखने की वजह बस ये है कि मुझे मेरे डर सताने लगे हैं। ठीक वही डर जिनकी वजह से एक दशक पहले मैंने यहाँ आकर अपनी बातें, अपने डर, अपनी उम्मीदों को रिकॉर्ड करना शुरू किया था। 

मर जाने का डर सबसे बड़ा होता है। उससे भी बड़ा डर होता है डरते-डरते मर जाने का डर। और सबसे बड़ा डर होता है नाख़ुश, नाराज़ मर जाने का डर। 

मुझे यही डर फिर से सताने लगा है। और इसलिए यहाँ आकर इन पन्नों पर ये डर दर्ज कर रही हूँ, इस उम्मीद में कि मेरे बच्चे, या मेरा कोई दोस्त, कोई अज़ीज़, या फिर बची हुई नस्ल में बचा रह गया हिंदी का कोई पाठक, मेरे बाद इन पन्नों में कुछ ढूँढने चले तो उसे इस वक़्त की उथल-पुथल और नाख़ुश मर जाने के डर के अलावा थोड़ी सी उम्मीद, थोड़ी सी इंसानियत, थोड़ी सी एक माँ और थोड़ी सी एक औरत भी नज़र आए। 

सुबह के सात बज रहे हैं और डायनिंग टेबल के जिस कोने पर बैठी मैं अपनी डायरी लिख रही हूँ, वहाँ तक सूरज की किरणें सीधी पहुंचती हैं। मेरी उनींदी आँखें अपने आप चुंधियाने सी लगी हैं। कई दिन हुए, मुझे सुबह की ऐसी धूप में बैठने की आदत नहीं रही। लेकिन अब विटामिन डी को इम्युनिटी के लिए ज़रूरी बताया जा रहा है, और इम्युनिटी न रही तो कोरोना कहाँ से कब धर ले, इसका ठीक-ठीक अंदाज़ा पूरी मेडिकल दुनिया को नहीं, इसलिए चुपचाप धूप में आ बैठना ही अच्छा है। 

बाहर कर्फ्यू लगा है। अंदर बेइंतहा डर क़ायम है। बेटी खाने के लिए योगर्ट माँगती है तो मैं उसे डाँट देती हूँ। जो है उसी में काम चलाओ। न जाने ये कल मिले न मिले। ये सच है कि हमारी रसोई में तो फिर भी दूध, सब्ज़ी, दाल, चावल, आटा बाक़ी है अभी। ये भी सच है कि अगर कुछ और हफ़्ते घर में बैठना पड़ा तो दाल-चावल के लाले नहीं पडेंगे। हम ख़ुशकिस्मत हैं, और अरियाना हफ़िंग्टन, ओपरा विनफ्रे और दीपक चोपड़ा जैसे इमोशन और स्पिरिचुअल गुरु हमें इसी ख़ुशकिस्मती पर बीस सेकेंड तक हाथ धोते हुए शुक्रगुज़ार होने की सलाह देते रहते हैं। 

लेकिन बाक़ी की दुनिया का क्या? जिनके डब्बे आने बंद हो गए उनका क्या? जिनकी रोज़ी पर अनिश्चितकाल के ताले पड़ गए,  उनका क्या? जिनकी दिहाड़ी से उनका घर चलता था, उनका क्या? जिन्होंने डर के बारे हज़ारों हज़ार की तादाद में अपने गाँव के लिए ट्रेनें लीं - उन गाँवों के लिए, जहाँ न अब खेती होती है, न मज़दूरी के अवसर मिलते हैं - उनका क्या? 

कहा जा रहा है कि कुदरत ने हमें स्लोडाउन करने के लिए ये रास्ता अपनाया। क्या कुदरत ये नहीं जानती कि सज़ा से भारी सज़ा की मियाद और सज़ा के नतीजे होते हैं? 

माँ ये भी कहती रहती है कि जिस अपार, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी ईश्वर ने हमें ये आपदा दी है, वही हमें हिम्मत भी देगा, और माफ़ी भी। मुझे अब उस सर्वशक्तिमान पर शंका होने लगी है। 

फिर कोई कहता है, सरकार की ज़िम्मेदारी है। प्रशासन की ज़िम्मेदारी है। इसलिए कर्फ्यू है, लॉकडाउन है। सरकार पर तो ख़ैर अभी ही नहीं, पहले भी विरले ही भरोसा था। 

बस एक ही भरोसा है जो क़ायम है। इंसानियत पर। एक-दूसरे पर। अपने आस-पास के लोगों पर। अपने परिवार पर। अपने आप पर। 

अपनी तमाम नाख़ुशियों और नाराज़गी, और ऐसे ही मर जाने के डर के बाद भी हम अपने सबक सीखकर अपने जीने के तौर-तरीके बदल देंगे, इस बात का भरोसा है। जब तक ज़िंदा हैं, हर रोज़ उठकर विटामिन डी लेते हुए टू-डू लिस्ट और योजनाओं की डायरी की चिंदियाँ उड़ाते हुए ख़ुद को भविष्य के बोझ से आज़ाद कर देंगे, इस बात का भरोसा है। 

गुरुवार, 7 फ़रवरी 2019

बोलो इतने दिन क्या किया?


मुझसे ठीक दस फ़ुट की दूसरी पर डाइनिंग टेबल है। टेबल पर बेतरतीबी से बिखरी हुई कई चीज़ों में मेरा एक वॉलेट भी शामिल है, जिसके हालात उसकी मुफ़लिसी का बयां करने के लिए बहुत है। लेकिन मेरा आज का ये दुखड़ा उस पर्स के नाम नहीं है। मेरा आज का ये दुखड़ा मेज़ के ठीक बीच-ओ-बीच बड़े प्यार से रखे गए स्टील के एक डिब्बे का है, जिसमें नारियल के कुछ लड्डू पड़े हैं। अब सवाल ये है कि नारियल के लड्डुओं का रोना कोई कैसे रो सकता है। लेकिन मैं इस पन्ने पर उन्हीं लड्डुओं का रोना रोने वाली हूँ। हमारी (वु)मैन फ्राइडे (एंड एवरीडे) अनीता ने उस एक डिब्बे में लड्डू क्या रख दिए, मेरे ख़ुद से किए हुए कई वादे उन्हीं लड्डुओं की तरह मेरे ही दाँतों तले चूर-चूर होकर मेरे ही हलक से उतरकर मेरे ही डाइजेस्टिव सिस्टम का अभिन्न हिस्सा बनते जा रहे हैं। 

ख़ुद से किए हुए असंख्य वादों में से एक चीनी न खाने का वायदा था। और एक वायदा था पर्सनल राइटिंग न करने का। 

दोनों वायदों के पीछे की कहानी मुझे ठीक-ठीक ध्यान नहीं, कि ये समझते समझते समझ में आया होगा शायद कि अत्यधिक चीनी की तरह ही अत्यधिक पर्सनल होकर यहाँ इस ब्लॉग पर सबकुछ उगल देना मेरी बढ़ती उम्र और गिरती सेहत दोनों के हित में नहीं। मुझे विरासत में डायबिटिज़ मिली, और इस ब्लॉग के माध्यम से इंटरनेट और बाद में लेखन की दुनिया में मिली शोहरत अपनी कमाई हुई थी। दोनों मेरी ज़िन्दगी में बहुत धीरे-धीरे साल २०१४ से आने लगे थे। २०१४ में मेरी पहली किताब छपी, २०१५ में दूसरी। २०१६ तक आते-आते मेरी ज़िन्दगी मेरे नियंत्रण से बाहर जा चुकी थी। ब्लड शुगर के साथ-साथ बीपी का गहरा रिश्ता है, और दोनों का उससे भी गहरा रिश्ता तनाव से है। और तनाव का सबसे गहरा रिश्ता ‘डिनायल’ से है। आप चाहें तो अपनी पिछली पीढ़ी की तरह अपनी पूरी ज़िन्दगी इस तरदीद में निकाल सकते हैं कि आपको किसी किस्म की तकलीफ़ है, और आपकी ये कमबख़्त तकलीफ़ आपकी अपनी ही बोई और उगाई हुई है। 

मैं भी इसी तरदीद में हूँ पिछले दो-चार सालों से। ये ज़िन्दगी मेरी अपनी चुनी हुई है। यहाँ के दोस्त-दुश्मन, रिश्ते-नाते, भाई-बंधु सब अपने बनाए हुए हैं। यहाँ तक कि अपनी चुनी हुई तन्हाईयाँ भी हैं। ये सच है कि जितनी ही तेज़ी से मैं लिखती जा रही थी, फैलती जा रही थी, उतनी ही तेज़ी से ख़ुद को दुनिया से काटती भी जा रही थी। ये भी मेरा अपना फ़ैसला था। 

और मैं अकेली इस तरदीद में नहीं हूँ। यहाँ वहाँ लिखते-फैलते-बिखरते हुए एक मैं ही तन्हां नहीं हुई हूँ। इंटरनेट के सर्च इंजन ने हमें हर वर्चुअल स्पेस में जगह दे दी है, हमारी एक नहीं, कई-कई प्रोफ़ाइल्स हैं। एक नहीं कई ज़रिए हैं कि एक-दूसरे की ख़बर ली जा सके। और फिर भी हम तन्हां हैं। जितना ज़्यादा लिखती जा रही हूँ, उतना ही ज़्यादा बोलने-बात करने के लिए कुछ नहीं रह गया। जितने अलग-अलग माध्यमों और डेडलाइन्स और किताबों और स्क्रिप्टों और प्रोजेक्टों में ख़ुद को बाँट दिया है, उतनी ही कम कहानियाँ हैं अब मेरे पास। जितने ही ज़्यादा लोग मुझे पहचानने लगे हैं, उतने ही कम दोस्त हो गए हैं। जितना ही ज़्यादा शुगर पर कंट्रोल करने की कोशिश की है, उतना ही ज़्यादा कमज़ोर महसूस किया है ख़ुद को। 

तो इसलिए दोस्त, ये न पूछना कि इतने दिनों कहाँ रही और क्या किया। सारे नारियल के लड्डू खा जाने की ख़्वाहिश संभालने के अलावा कैरियर में आगे बढ़ने की कोशिश कर रही हूँ। बच्चों को दूर पहाड़ पर भेजकर एक नए शहर में अपना घर बनाने की कोशिश कर रही हूँ। कई कई अनदेखे मेसेज का जवाब देने के बीच आधी-अधूरी कहानियाँ पूरी करने की कोशिश कर रही हूँ। सो, बीआरबी!




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शनिवार, 2 फ़रवरी 2019

फ़ेसबुक से अफ़ेयर और ब्रेकअप की एक दास्तान


2008 में किसी एक ऊबी हुई-सी दोपहर को मैंने ‘फ़ेसबुक’ गूगल किया, उनके वेबसाईट पर गई, एक अकाउंट क्रिएट किया और वहीं एक पोस्ट छोड़ दी: "आई एम हियर टू” - मैं भी यहीं हूँ.  देखते ही देखते पहले आठ फ्रेंड रिक्वेस्ट आए, और फिर बीस-पच्चीस, अठतीस, अठहत्तर, एक सौ बारह...

ये सारे अपने लोग थे - बिछड़े हुए कुछ दोस्त, अपने ही ममेरे-फूफेरे-चचेरे भाई-बहन, पुराने दफ़्तर के कुछ सहयोगी, और कुछ अड़ोसन-पड़ोसन, जिनसे मैं पार्क में अपने बच्चों को घुमाते हुए मिला करती थी. औरों की बनिस्पत मैं फ़ेसबुक पर देर से आई थी. फ़ेसबुक तो 2004 में ही लॉन्च हो गया था, और कुछ ही हफ़्तों के भीतर भारत की वाई2के पीढ़ी के बीच ख़ूब लोकप्रिय भी हो गया था. दफ़्तर में सिस्टम के खुलते ही फ़ेसबुक खुल जाया करता, और उसके साथ ही पोकिंग और एक-दूसरे के पन्नों पर कमेन्टिंग का सिलसिला शुरू हो जाता. 
मेरे पास फ़ेसबुक पर शेयर करने के लिए कुछ नहीं था, सिवाय उन तन्हां लम्हों के, जब आप अपनी अदद-सी नौकरी को छोड़कर घर में बैठे हुए अपने बच्चों के बड़े होने के इंतज़ार में महसूस किया करते हैं. तस्वीरें भी बच्चों की ही थीं, कहानियाँ भी बच्चों की ही थी. तब वे दो साल के थे और मेरे पास उनकी शरारतों के हजार क़िस्से, और उतनी ही तस्वीरें थीं.

और मैं अकेली नहीं थी. धीरे-धीरे फ़ेसबुक के ज़रिये मैं उन माँओं के बारे में जानने और पढ़ने लगी जिन्होंने बच्चों की परवरिश के लिए अपना कैरियर छोड़ा था. कोई केक बेक कर रही थी, तो किसी ने फ़ोटोग्राफ़ी के शौक़ को संजीदगी से लेना शुरू कर दिया था. मेरे जैसे कई माँएँ ऐसी भी थीं जिनके पास शब्दों के अलावा कुछ और नहीं था, इसलिए फ़ेसबुक पर ही अपनी आड़ी-तिरछी कविताएँ, लेख, छोटी कहानियाँ और संस्मरण लिखकर अपने गुबार निकाल रही थीं. 

मेरे लिए फ़ेसबुक ने ऐसे ही लोगों के जुड़ने का रास्ता खोल दिया. वो दौर ब्लॉगिंग का भी था, तो जिसके ब्लॉग पढ़ा करते थे, फ़ेसबुक पर उनसे जुड़ते भी चले गए. फ़ेसबुक एक किस्म का इक्वलाइज़र था: सबको एक-से धरातल पर ले आनेवाला. जो दफ़्तर में बॉस हुआ करते थे, सीनियर हुआ करते थे, यहाँ तक कि हमारी नज़रों में सेलीब्रिटी हुई करते थे, फ़ेसबुक ने उनकी दुनिया हमारे सामने उघेड़ कर रख थी. हम हैरान थे कि हम सबके डर और हमारी तकलीफ़ें, हमारी असुरक्षा और थोड़ी-सी वाहवाही पाने की हमारी चाहत कितनी तो एक-सी है.

फ़ेसबुक ने सोशल हायरेकी पूरी तरह से मिटा दिया. सिक्स डिग्री ऑफ़ सेपरेशन (यानी, सभी जीवित इंसानों का महज छह स्टेप की दूरी में ‘फ्रेंड’ का ‘फ्रेंड’ होना) हंगेरियन बुद्धिजीवी फ्रिग्ये कारिंटी की एक कोरी कल्पना और सैद्धांतिक थ्योरी भर नहीं रही. दुनिया वाकई में सिमटने लगी थी और इसके लिए मुझे और आपको किसी कोलंबिया यूनिवर्सिटी या किसी एमआईटी के भारी-भरकम शोध को समझने की कतई ज़रूरत नहीं थी.

इसलिए क्योंकि एक मार्क ज़करबर्ग और उनकी टीम ने ये बात क्रैक कर ली थी कि वाकई दुनिया को इस बात का न सिर्फ़ यकीन दिलाया जा सकता है कि वे एक बिल क्लिंटन या एक जॉर्ज बुश या एक बराक ओबामा से न सिर्फ़ छह स्टेप्स की दूरी पर हैं, बल्कि ये बात सफलतापूर्वक साबित भी की जा सकती है. दो-चार बड़ी सेलीब्रिटीज़ के मेरी फ्रेंड लिस्ट में आते ही मुझे भी इस थ्योरी पर पक्का यकीन हो गया. 

फ़ेसबुक न सिर्फ़ अभिव्यक्ति का, या लोगों से जुड़ने का ज़रिया था, बल्कि मेरे जैसे लोगों के लिए तो अवसरों का ख़ज़ाना भी था. और ये ख़ज़ाना फ़ेसबुक पर ही इतना बड़ा था कि मुझे तो ट्विटर तक जाने की ज़रूरत भी नहीं हुई. मेरी पोस्ट पर न सिर्फ़ लोगों के कमेंट आने लगे बल्कि यहाँ-वहाँ लिखने के अवसर भी मिलने लगे.

फ़ेसबुक और ब्लॉग पर लिखते-लिखते तो मैं कहानियाँ भी लिखने लगी, और छपने भी लगी. बाकी अवसरों का तो क्या ही कहना! मुझे ये अच्छी तरह याद है कि मैं बहुत दिनों से अनुवाद के कुछ काम के लिए एक बड़ी पब्लिशर से संपर्क साधने की कोशिश कर रही थी. कई महीनों की मशक्कत के बाद जब आख़िरकार मिलने का मौक़ा मिला तो उन्होंने मुझसे कहा, “तुम्हारे बच्चे बहुत प्यारे हैं. फ़ेसबुक पर तस्वीरें देखी हैं मैंने. उन्हें मेरी ओर से बहुत प्यार देना.”

यानी, थैंक्स टू फ़ेसबुक, पर्सनल और प्रोफ़ेशनल - सब गड्डमड्ड हो गया था. बिज़नेस नेटवर्किंग की एक मीटिंग में मैंने एक मैनेजमेंट कन्सलटेंट को यहाँ तक कहते सुना कि आप सोशल मीडिया, ख़ासकर अपने फ़ेसबुक पर, क्या पोस्ट कर रहे हैं, उसका ख़्याल रखिए क्योंकि आप लगातार अपने पोटेन्शियल रेक्रूटर्स (या इन्वेस्टर्स या क्लायंट) की निगरानी में हैं.

आप निगरानी में हैं. यू आर अंडर सर्वेलेंस. जॉर्ज ऑरवेल ने अपनी किताब ‘1984’ जिस ‘बिग ब्रदर’ की परिकल्पना की थी उसकी आँखें और हम सबमें उग आयी थीं और उसके दिमाग़ का ख़ुराफ़ात हमारी ज़रूरत बन गया था. फ़ेसबुक, और फ़ेसबुक ही क्यों, सोशल मीडिया पर रहते-रहते हम सब स्टॉकर्स की एक ऐसी पीढ़ी में तब्दील होते जा रहे थे जिसके पास दूसरों के पेज पर जाकर पोक करने, एक-दूसरे के इन्बॉक्स में उलटे-सीधे मेसेज छोड़ने, अपनी-अपनी ढफली लिए अपने-अपने राग अलापने, और दुनिया की तमाम सारी चीज़ों की ओर उंगली उठाते हुए सारे ठीकरे दूसरों के माथे फोड़ने की दुर्व्यसन के हद तक की आदत बन चुकी थी. और इसका न सिर्फ़ फ़ेसबुक ने, बल्कि हम जैसे लोगों की तरह नकली कहानियाँ बेचनेवालों से लेकर असली सत्ताओं की कुर्सियाँ बेचने और खरीदनेवालों तक ने ख़ूब फ़ायदा उठाया. 

फ़ेसबुक की सीनियर मैनेजमेंट और फ़ाउंडिंग टीम के एक एक्स-एक्ज़ीक्यूटिव शॉन बेकर ने पिछले साल एक सार्वजनिक मंच से कहा, “सोशल वैलिडेशन का ये एक फ़ीडबैक लूप है... ठीक उसी तरह का लूप जो मेरे जैसा एक हैकर इसलिए बनाता है ताकि इंसानी मनोविज्ञान की कमज़ोरियों का ज़्यादा से ज़्यादा शोषण कर सके.” ये वही शॉन बेकर थे जिन्होंने 2004 में फ़ेसबुक शुरू होने के पाँच महीने बाद ही टीम ज्वाइन की और ज़करबर्ग ने जिनके लिए कहा कि “फ़ेसबुक को एक कॉलेज प्रोजेक्ट से एक रियल कंपनी बनाने में बेकर ने अहम भूमिका निभाई है”। ये वही बेकर थे जो फ़ेसबुक की बदौलत अरबपति बने थे, और इतने ही सफल हो गए ‘ग्लोबल पब्लिक हेल्थ’ के क्षेत्र में काम करने लगे (और इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि करोड़ों इंसानों के दिमाग़ पर काबिज़ होने के बाद अब दुनिया की सेहत बनाने में योगदान दे रहे हैं!) 

बहरहाल, फ़ेसबुक कंपनी के भीतर से निकली असहमतियों और विरोध, नाराज़गी और नाइत्तिफ़ाकी की ये इकलौती आवाज़ नहीं है. फ़ेसबुक के यूज़र ग्रोथ के पूर्व वाइस प्रेसिडेंट रहे चमथ पालिहापितिया ने कहा कि उन्हें इस बात का गहरा पछतावा (‘गिल्ट’) है कि उन्होंने ऐसे “औज़ारों पर काम किया जो समाज की सामाजिक संरचना को ही तहस-नहस कर रही है. और इसका रिश्ता सिर्फ़ उन रूसी विज्ञापनों से नहीं है. ये एक ग्लोबल समस्या है. यहाँ तो वही समाज की वही नींव खोखली हो रही है जहाँ लोग एक-दूसरे से पेश आते हैं”. एक नहीं बल्कि फ़ेसबुक में काम करनेवाले ऐसे कई टॉप एक्ज़ीक्यूटिवों के बयान सामने आए जिसमें उन्होंने कहा था कि उनके अपने घरों में फ़ेसबुक का इस्तेमाल करने पर पाबंदी है.

लेकिन ये भी सच था कि फ़ेसबुक की ही बदौलत मेरी पहली किताब ‘नीला स्कार्फ़’ की छपने से पहले ही तकरीबन दो हजार कॉपियाँ प्रीबुक हो गईं (और ये हिन्दी प्रकाशन की दुनिया में एक किस्म की अद्भुत घटना थी). ये फ़ेसबुक की ही बदौलत था कि मेरे पास लगातार अवसरों का ताँता लग रहा था - मैं अपने कैरियर के शिखर पर थी. फ़ेसबुक से मिली एक पहचान की बदौलत एक अख़बार से जुड़ने का मौक़ा मिला जिसके लिए रिपोर्टिंग करते हुए मुझे गोएनका और लाडली जैसे सम्मानित अवॉर्ड तक मिल गए. फ़ेसबुक की वजह से ही मेरे पास एक बड़ा पाठक वर्ग था, चाहनेवाले लोग थे, मेरी पहचान थी, मेरी वाहवाहियाँ थीं. फ़ेसबुक की वजह से ही मेरे पास मीडिया का एक बड़ा नेटवर्क भी था. दोस्त तो ख़ैर थे ही. फ़ेसबुक मेरे डेटाबैंक भी था. पिछले दस सालों की ज़िन्दगी का लेखा-जोखा था वहाँ. ब़कायदा तस्वीरों के साथ. 

तो फिर ऐसा क्या हुआ कि दिसंबर की एक सुबह मुझपर जैसे कोई फ़ितूर सवार हुआ और मैंने अपना फ़ेसबुक अकाउंट डिएक्टिवेट कर दिया? 

उसके पीछे दो मूल और दो गौण कारण थे: मैं रात-रात जगकर नोटिफ़िकेशन के इंतज़ार की बुरी आदत की वजह से ज़ाया होने लगी थी. कई सालों तक रात में अधपकी नींद में उठकर अपने पेज का ट्रैफ़िक देखना, अपने पोस्ट पर का ट्रैक्शन देखना, और उससे ख़ुद को लगातार ‘जज’ करने से मैं आजिज़ हो चुकी थी.

और दूसरा कारण ये था कि आस-पास का वर्चुअल शोर मेरे आत्मविश्वास की धज्जियाँ उड़ा रहा था. मैं तनाव में थी, डिप्रेस्ड थी, अकेली थी, परेशान थी, हारी हुई थी. लेकिन फ़ेसबुक पर मैं रोल मॉडल थी (अब तो और भी ज़्यादा क्योंकि मेरे मम्मी-पापा समेत मेरे मायके-ससुराल के रिश्तेदारों की पूरी फौज मुझे मैग्निफाइंग लेंस लगाकर फ़ेसबुक पर देख रही थी). मैं दो ज़िन्दगियाँ जीते-जीते थक गई थी. और दो गौण कारण ज़ाहिर है, वैसी न्यूज़ रिपोर्ट्स थीं जिनका मैंने ऊपर ज़िक्र किया है. फ़ेसबुक पर डेटा प्राइवेसी का उल्लंघन करने से लेकर रंगभेद और फ़ेक न्यूज़ और राजनीतिक प्रोपोगैंडा (ख़ासकर दक्षिणपंथी) को शह देने का आरोप लगता रहा है। 

इस जनवरी उस फ़ेसबुक के बिना मेरे एक साल और एक महीने पूरे हो जाएँगे, जिसकी लत में मैंने चूल्हे पर का खाना जलाया है, अपने बच्चों की पूरी बात नहीं सुनी, अपनी रातों की नींद ख़राब की है. और तो और, लाल बत्ती पर नोटिफ़िकेशन देखने के चक्कर में अपनी गाड़ी का करीब-करीब एक्सिडेंट भी करवा डाला है.

और इस साल में मेरे ज़िन्दगी क्या बदला है? मैंने इस बात का भी लेखा-जोखा किया और पता चला कि इस साल मैंने उतनी किताबें पढ़ीं जितनी पिछली दस सालों में मिलाकर नहीं पढ़ पाई. तकरीबन उतनी ही फ़िल्में देखने का मौक़ा (और वक्‍त) भी मिला. इस साल भी नए दोस्त बने, नए शहर मिले, नया देश मिला, नए तजुर्बों ने दिल और दिमाग में नई खिड़कियाँ खोलीं.

और कम से कम ये एक बात मैं दावे के साथ कह सकती हूँ: फ़ेसबुक के बिना की इस एक साल ज़िन्दगी ने मुझे ये हौसला दिया है कि मैं बिना इस डर के लिख (या जी) सकती हूँ कि मेरे लिखे या कहे या सोचे हुए पर दुनिया की प्रतिक्रिया क्या होगी (या इस post को कितने लाइक्स, शेयर या कमेंट मिलेंगे)!         
   

मंगलवार, 28 अगस्त 2018

चिंता का एक सबब सिक्किम में

सिक्किम के पहाड़ पर एक स्कूल है, और स्कूल में हैं कुल ढाई सौ बच्चे। इसी स्कूल में सातवीं क्लास में पढ़नेवाले दो बच्चे हमारे भी हैं। दिल्ली शहर की धूल-धक्कड़ और धुँए से दूर हिमालय की आगोश में अपने शहराती बच्चों को भेजने का फ़ैसला करना बहुत आसान नहीं था तो बहुत मुश्किल भी नहीं था। जिस रोज़ हम स्कूल में दाख़िले की बात करने गए थे, उस रोज़ हमने सुबह के सूरज को कंचनजंघा की चोटियों से होकर स्कूल के आंगन में गिरते हुए देखा था। और देखा था हिमालय के अलग-अलग पहाड़ों से आए हुए अलग-अलग देशों और राज्यों के बच्चों को सुबह की उसी धूप में नहाते हुए, खेलते हुए, कुलांचे भरते हुए। मैंने अपने पति से कहा था, “एक तो सिक्किम भूटान का पड़ोसी है, दूसरे इस स्कूल में भूटान के इतने सारे बच्चे हैं। और कुछ नहीं तो यहाँ का हैपीनेस इन्डेक्स देश के बाकी जगहों से तो ज़्यादा ही होगा। बच्चे शहर की मारा-मारी और बेमतल के तनाव से दूर रहेंगे।”

इसलिए स्कूल के वार्षिक समारोह के दौरान जब दो बच्चों ने एक ख़ास विषय पर अपनी राय पेश की तो मेरे रोंगटे खड़े हो गए। और मेरी हैरानी का ठिकाना न रहा। सिक्किम जैसे ख़ुशहाल राज्य में बच्चे एक सार्वजनिक मंच से, वो भी अपने माँ-बाप और अभिभावकों के सामने ‘सुसाइड’ जैसे विषय पर क्यों बात कर रहे हैं भला? 

उस कार्यक्रम के कुछ ही दिन पहले - २ जुलाई को - बच्चों को गर्मी छुट्टियों के बाद गैंगटोक पहुँचाने के बाद वापस लौटते हुए रास्ते में एक मनहूस घड़ी की गवाह हुई थी मैं। पहाड़ों और उत्तर बंगाल के मैदानों को जोड़ने वाले ऐतिहासिक तीस्ता कॉरोनेशन ब्रिज से कूदकर सिलिगुड़ी की एक महिला ने ख़ुदकुशी कर ली। और तकलीफ़ की बात तो ये कि हादसा दिन दहाड़े हुआ था, जब दोनों ओर से गाड़ियों का आना-जाना लगा हुआ था। वो महिला तकरीबन साठ किलोमीटर दूर से सिलिगुड़ी शहर से अपनी स्कूटी पर आई, स्कूटी को पुल के पास लगाया और इससे पहले कि उसके चारों ओर भागती-दौड़ती दुनिया को कुछ समझ भी आता, वो औरत तीस्ता की गहराईयों में समा चुकी थी। 


अंधेरे यहाँ भी, वहाँ भी
उस घटना के दस दिन बाद मुंबई के जिस अंधेरी इलाके में मैं रहती हूँ, और जो इलाका फ़िल्म और टीवी के सफल चेहरों के साथ-साथ दशकों से संघर्षरत ख़्वाबमंद एक्टरों, डायरेक्टरों, राईटरों का घर माना जाता है, उसी अंधेरी के सात बंगला इलाके की एक इमारत से कूदकर 32 साल के एक युवा स्क्रिप्टराईटर ने अपनी जान दे दी। बिहार से मुंबई आए इस लड़के के माँ-बाप दो दिन पहले ही अपने बेटों के पास रुककर वापस घर लौटे थे। बॉलीवुड डांसर अभिजीत शिंदे की ख़ुदकुशी की ख़बर तो चौबीस घंटे पुरानी भी नहीं हुई।   

इसलिए गैंगटोक के एक सभागार में मंच पर खड़े होकर नवीं और दसवीं क्लास के दो बच्चों ने कुछ आंकड़े पेश किए तो दर्शकों में ज़रूर एक हलचल हुई। आपके लिए कुछ आंकड़े यहाँ पेश-ए-नज़र है: 
  1. दुनिया भर में आत्महत्या का दर प्रति एक लाख की आबादी पर चालीस है। वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइज़ेशन के मुताबिक हर चालीस सेकेंड पर दुनिया में कहीं न कहीं कोई न कोई अपनी जान दे चुका होता है।
  2. जिस भूटान को हम उसके कुल राष्ट्रीय आनंद यानी ग्रॉस नेशनल हैपीनेस के लिए जानते हैं, वो देश डब्ल्यू हेल्थ ऑर्गनाइज़ेशन के अध्ययन के मुताबिक आत्महत्या के मामले में दुनिया में 21वें स्थान पर है।
     
  3. भारत आत्महत्या के मामले में 12वें स्थान पर है, और आधे से ज़्यादा मामलों में कारण या तो पारिवारिक और अत्यंत घरेलू होते हैं या फिर मानसिक परेशानियों से उपजा हुआ अवसाद। (ये बात ग़ौरतलब इसलिए भी है क्योंकि बाक़ी के देशों में आत्महत्या के कारणों पर नज़र डालें तो इनमें विस्थापित, बेरोज़गार, युद्ध या युद्धजैसी परिस्थितियों, जातिगत हिंसा और संघर्षों की वजह से शोषित, पीड़ित, भूख से लड़ते और अपनी ज़मीन छोड़ने के मजबूर पनाहगीरों की संख्या अधिक है।)
  4. और जिस सिक्किम में बैठे हुए हम दुनिया भर की आत्महत्या दर के बारे में सुन रहे थे, उस सिक्किम में ख़ुदकुशी की दर भारत के राष्ट्रीय दर से तीन गुणा ज़्यादा है। यानी कि 2015 में अगर भारत का औसत प्रति एक लाख की आबादी पर 10.6 की आत्महत्या का दर रहा तो सिक्किम में प्रति एक लाख की आबादी पर 37.5 आत्महत्या के मामले दर्ज हुए।                  

प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से सिक्किम दिल्ली और चंडीगढ़ के बाद भारत का तीसरा सबसे अमीर राज्य है। इसी साल स्वतंत्रता दिवस के मौक़े पर बीस से ज़्यादा सालों से सिक्किम के मुख्यमंत्री पवन चामलिंग के दावा किया कि राज्य शत-प्रतिशत साक्षरता दर हासिल करने की राह में बड़ी तेज़ी से अग्रसर है। अभी नरेन्द्र मोदी का पहला बड़ा सपना - राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान देश भर में शुरू भी नहीं हुआ था, तभी 2008 में ही सिक्किम में खुले में शौच से मुक्त राज्य घोषित कर दिया गया था। 2016 में सिक्किम को शत-प्रतिशत ऑर्गैनिक राज्य घोषित कर दिया गया। और तो और, कामकाजी महिलाओं की स्थिति के लिहाज़ से सिक्किम देश का सबसे उत्तम राज्य माना जाता है। 

सिक्किम, एक घर वो भी 
मैं अक्सर ये बात कहती हूँ कि सिक्किम इकलौता ऐसा राज्य है जहाँ मुझे कभी भी एक लम्हे के लिए भी किसी बात का ख़ौफ़ नहीं हुआ - क्या पहनना है, क्या खाना है, कौन-सी सड़क पर किस तरह चलना है, और रात के कितने बजे चलना है। बिहार और उत्तर भारत में अपनी पूरी ज़िन्दगी गुज़ार देने के बाद सिक्किम जैसी किसी जगह पर होना, जहाँ निगाहें आपकी पीठ (या आपके सीने) से नहीं चिपकती, किसी भी लड़की या औरत के लिए सबसे महफ़ूज़ अहसास है। महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा के मामले उस राज्य में न के बराबर सुनने को मिलते हैं। इसलिए, अपनी बेटी को सुरक्षा का यकीन और अपने बेटे को महिलाओं का सम्मान करने की सीख देने के लिए हमें सिक्किम से बेहतर कोई जगह नहीं मिली। 

लेकिन जब वहाँ रहने का मौक़ा मिला, तो स्थानीय आबादी के संघर्षों की नई-नई परतों को देखने-समझने के हालात भी बने। टैक्सी ड्राईवरों से बात करते हुए, गलियों के मुहानों पर छोटी-छोटी दुकानें चलानेवाली औरतों से मिलते हुए, होटलों और रेस्टुरेन्टों में काम करनेवाले लड़कों से बोलते-बतियाते हुए दबी-छुपी ज़ुबान में ड्रग्स, ख़ासतौर पर फ़ार्मास्युटिकल ड्रगों, की लत के बारे में सुनने को मिला। टैक्सी ड्राईवर अक्सर ये बात बड़े फ़ख्र से बताया करते हैं कि वे बिना ड्रग या शराब के गाड़ी चलाते हैं, और इस बात को अपने यूनिक सेलिंग प्वाइंट की तरह इस्तेमाल करते हैं। इसी से अंदाज़ा लगा लीजिए कि ड्रग की लत कितनी बुरी तरह से सिक्किम के युवाओं को खाए जा रही है। 


ड्रग की लत आत्महत्या का एक कारण तो है ही, वहाँ बेरोज़गारी भी बहुत बड़ी समस्या है। और नज़दीक से देखें तो ड्रग की लत भी ज़िन्दगी में लक्ष्यहीनता से ही उपजती है। सिक्किम जैसा राज्य पूरी तरह पर्यटन पर निर्भर है। साक्षरता दर बहुत ऊँचा है। दूर-दराज के गाँवों में भी पढ़ाई-लिखाई को लेकर जागरुकता है। शहरों के कॉफ़ी-शॉप में अक्सर किताब पढ़ते बच्चे आपको मिल जाएंगे। सुबह-शाम बच्चों के काफ़िलों के स्कूल ड्रेसों की रंगों से पहाड़ी के ऊंचे-नीचे रास्तों को रंगते रहते हैं। 

पढ़ाई तो है लेकिन नौकरियाँ नहीं हैं। रोज़गार के अवसर नहीं हैं। इसलिए एम्पलायमेंट एजेन्सियों का कारोबार उस राज्य में धड़ल्ले से चलता है। बड़े बड़े कमीशन लेकर ये एजेंसियाँ सिक्किम के पहाड़ी युवाओं को एक बेहतर भविष्य के सपने दिखाती हैं और उन्हें यूरोप के छोटे से किसी देश में मूंगफली के दानों जितनी सैलेरी पर, अमानवीय हालातों में काम करने के लिए भेज देती हैं। थोड़ी सी भूख मिटने का लालच, उसकी चाहत इतनी बड़ी होती है कि मूंगफली के दानों जैसी ये सैलेरी न छोड़ते बनती है न लेने का कुछ हासिल होता है। 

अगर सिक्किम के ये हालात आपको पंजाब की याद दिला रहे हैं तो इसमें कोई हैरानी नहीं। ये सच है कि ऊँची साक्षरता दर और समृद्धि वाले देश के इन दो अलग-अलग कोनों की कहानियाँ एक-सी सुनाई देंगी आपको। बस किरदारों के नाम और उनकी शक्लें बदल जाएँगी।

ऐसे में उन दो स्कूली बच्चों की चिंता जायज़ थी। और कुछ सुझाव भी उन्हीं बच्चों की तरफ़ से आए थे। 

अपने साथियों का आह्वान करते हुए उन दोनों ने मंच से कहा कि अपने माँ-बाप, अपने अभिभावकों से संवाद का ज़रिया बचाए रखें। ज़िन्दगी इन्साग्राम की सतरंगी तस्वीरें और बहुरंगी हैशटैग नहीं, बल्कि उनके पीछे की हक़ीकत है जिससे बचने की नहीं बल्कि आँखें मिलाने की ज़रूरत है। और पेरेन्ट्स से उन दो बच्चों ने गुज़ारिश की कि वे अपने बच्चों की ज़िन्दगी में दिलचस्पी लें। उन्हें यकीन दिलाएं कि सफलता से कहीं बड़ा ज़िन्दगी की इस रोज़मर्रा की लड़ाई में बने रहने का हौसला है। 

दुख की तासीर एक-सी
दरअसल, निजी कुछ भी नहीं होता। ख़ुदकुशी भी निजी दुख से उपजी हुई नियति कतई नहीं होती। हर ख़ुदकुशी एक समाज के रूप में हमारी हार की ओर इशारा करती है। जब कुदरत की आपदाओं और सरकार की उदासीनता से परेशान एक किसान कीटनाशक खाकर या अपने ही खेत के किसी पेड़ से लटककर अपनी जान देता है, तो वो सरकार की और प्रशासन की हार है। जब अपने सपनों से हारा हुआ एक नौजवान अपनी जान दे देता है, तो वो भी एक समाज की हार है, कि ये सफलताओं के कैसे उपभोक्तावादी मापदण्ड तय कर दिए हैं हमने? जब स्कूल से और अपने रिज़ल्ट से हारा हुआ एक किशोर अपनी जान देता है तो ये शिक्षा-प्रणाली की हार है। जब एक औरत नदी में कूद जाती है तो ये एक परिवार की हार है। 

वाकई, निजी कुछ भी नहीं होता, और एक निजी दुख भी अक्सर एक से ज़्यादा इंसानों की ज़िन्दगियाँ तबाह करने के लिए बहुत होता है। 

अवसरों से कहीं बड़े तो हमने सपने पैदा कर दिए हैं। काम-धंधा है नहीं और जहाँ नज़र दौड़ाइए, वहाँ अरमानों को हवा देते निर्लज्ज इश्तहारों का जमावड़ा है। क्या सिक्किम, क्या अंधेरी - जितनी बड़ी कमाई नहीं, उसके दस गुणा कर्ज़ हैं। तो फिर हल क्या है? 

उन दो बच्चों की बात ध्यान से सुनना, जो सार्वजनिक मंच पर खड़े होकर सुने जाने की गुहार लगा रहे थे। संवाद हल है। विवेक हल है। कंजूसियाँ हल हैं। अपनी चादर में पैबंद लगाकर भी उसमें अपने पैरों को मोड़े रखना, मगर चादर से बाहर पाँव न जाने देना हल है। हौसलों के इश्तहार, उनका खुलेआम प्रदर्शन हल है। अपने-अपने भीतर की खिड़कियों को खोलकर दूसरों के भीतर झाँकने की कोशिशें हल हैं। हम अगर अपने कंधों से अपने ही अरमानों का बोझ उतारकर उन्हें हौसलों की ज़मीन में जब तक दफ़न नहीं कर देंगे, तब तक मैं, आप, सिक्किम, पंजाब, अंधेरी और अहमदाबाद आत्महत्याओं के आंकड़े गिनते जाने से ज़्यादा कुछ कर भी नहीं पाएंगे।     

बारहवीं के नतीजे निकले थे, और मैं अपनी ही अपेक्षाओं के ख़िलाफ़ औंधे मुँह गिरी थी। सपना पढ़ने के लिए दिल्ली जाने का था। मुझे राँची की उस तंग सोच वाली ज़िन्दगी से निजात चाहिए था। लेकिन मेरे रास्ते अब बंद हो गए थे। रिज़ल्ट देखकर आने के बाद मैंने अपने आप को एक कमरे में बंद कर लिया। दुपट्टा गले में डालकर पंखे से लटकने की कोशिश की, लेकिन घुटती हुई साँसों ने इतनी तकलीफ़ दी कि उतरने पर मजबूर होना पड़ा। फिर शेविंग किट से ब्लेड निकालकर बहुत देर तक बैठी रही। लेकिन नस काटने का दर्द सोच से ही परे था। घर दो मंज़िला था, तो छत से कूदने का कोई फ़ायदा नहीं था। कांके डैम घर से दो-ढाई किलोमीटर दूर था। मरने के लिए कोई इतनी दूर क्यों जाता? इसलिए दादी को दी जानेवाली बीपी और नींद की सारी गोलियाँ एक बार में खा लीं। 

ऐसा नहीं था कि उस घर में मैं अकेली थी। मेरे मम्मी-पापा, चाचा-चाची, भाई-बहन और दादा-दादी समेत भरा-पूरा परिवार वहीं, उसी कमरे से बाहर था। लेकिन किसी ने ये नहीं सोचा होगा कि कमरा बंद किए मैं अपनी कहानी ख़त्म करने चली थी। घंटों कमरे से नहीं निकली तो पापा ने दरवाज़े को धक्का देकर कुंडी तोड़ी और मेरे पास आए। मैं बिस्तर पर औंधी पड़ी हुई थी शायद। लेकिन बस गहरी नींद में थी, क्योंकि पापा मुझे नींद से उठाने में कामयाब रहे थे। उस रोज़ पापा ने कुछ कहा नहीं था, बस ज़ोर से गले लगा लिया था। जिस पिता की गोद से उतरने के बाद उस रोज़ तक कभी छूने की या नज़दीक जाने की हिम्मत भी नहीं थी, उस पिता की ओर से आया हुआ इतना अनकहा हौसला ही बहुत था। 

काश इतना ही अनकहा हौसला हर उस डूबती हुई रूह को मिल जाए जिसके सामने सिर्फ़ निराशा के अंधेरे होते हैं। अपनी जान लेने का फ़ैसला, या अपनी ज़िन्दगी बर्बाद कर देने का फ़ैसला, ज़रूर निजी होता है। लेकिन किसी को बचा लेने की कोशिश हमेशा साझा होती है। उन दो बच्चों की साझा कोशिश ने सिक्किम की ऊँची आत्महत्या दर के बावजूद सिक्किम के समाज पर मेरा यक़ीन और पुख़्ता कर दिया था।