सिक्किम के पहाड़ पर एक स्कूल है, और स्कूल में हैं कुल ढाई सौ बच्चे। इसी स्कूल में सातवीं क्लास में पढ़नेवाले दो बच्चे हमारे भी हैं। दिल्ली शहर की धूल-धक्कड़ और धुँए से दूर हिमालय की आगोश में अपने शहराती बच्चों को भेजने का फ़ैसला करना बहुत आसान नहीं था तो बहुत मुश्किल भी नहीं था। जिस रोज़ हम स्कूल में दाख़िले की बात करने गए थे, उस रोज़ हमने सुबह के सूरज को कंचनजंघा की चोटियों से होकर स्कूल के आंगन में गिरते हुए देखा था। और देखा था हिमालय के अलग-अलग पहाड़ों से आए हुए अलग-अलग देशों और राज्यों के बच्चों को सुबह की उसी धूप में नहाते हुए, खेलते हुए, कुलांचे भरते हुए। मैंने अपने पति से कहा था, “एक तो सिक्किम भूटान का पड़ोसी है, दूसरे इस स्कूल में भूटान के इतने सारे बच्चे हैं। और कुछ नहीं तो यहाँ का हैपीनेस इन्डेक्स देश के बाकी जगहों से तो ज़्यादा ही होगा। बच्चे शहर की मारा-मारी और बेमतल के तनाव से दूर रहेंगे।”
इसलिए स्कूल के वार्षिक समारोह के दौरान जब दो बच्चों ने एक ख़ास विषय पर अपनी राय पेश की तो मेरे रोंगटे खड़े हो गए। और मेरी हैरानी का ठिकाना न रहा। सिक्किम जैसे ख़ुशहाल राज्य में बच्चे एक सार्वजनिक मंच से, वो भी अपने माँ-बाप और अभिभावकों के सामने ‘सुसाइड’ जैसे विषय पर क्यों बात कर रहे हैं भला?
उस कार्यक्रम के कुछ ही दिन पहले - २ जुलाई को - बच्चों को गर्मी छुट्टियों के बाद गैंगटोक पहुँचाने के बाद वापस लौटते हुए रास्ते में एक मनहूस घड़ी की गवाह हुई थी मैं। पहाड़ों और उत्तर बंगाल के मैदानों को जोड़ने वाले ऐतिहासिक तीस्ता कॉरोनेशन ब्रिज से कूदकर सिलिगुड़ी की एक महिला ने ख़ुदकुशी कर ली। और तकलीफ़ की बात तो ये कि हादसा दिन दहाड़े हुआ था, जब दोनों ओर से गाड़ियों का आना-जाना लगा हुआ था। वो महिला तकरीबन साठ किलोमीटर दूर से सिलिगुड़ी शहर से अपनी स्कूटी पर आई, स्कूटी को पुल के पास लगाया और इससे पहले कि उसके चारों ओर भागती-दौड़ती दुनिया को कुछ समझ भी आता, वो औरत तीस्ता की गहराईयों में समा चुकी थी।
अंधेरे यहाँ भी, वहाँ भी
उस घटना के दस दिन बाद मुंबई के जिस अंधेरी इलाके में मैं रहती हूँ, और जो इलाका फ़िल्म और टीवी के सफल चेहरों के साथ-साथ दशकों से संघर्षरत ख़्वाबमंद एक्टरों, डायरेक्टरों, राईटरों का घर माना जाता है, उसी अंधेरी के सात बंगला इलाके की एक इमारत से कूदकर 32 साल के एक युवा स्क्रिप्टराईटर ने अपनी जान दे दी। बिहार से मुंबई आए इस लड़के के माँ-बाप दो दिन पहले ही अपने बेटों के पास रुककर वापस घर लौटे थे। बॉलीवुड डांसर अभिजीत शिंदे की ख़ुदकुशी की ख़बर तो चौबीस घंटे पुरानी भी नहीं हुई।
इसलिए गैंगटोक के एक सभागार में मंच पर खड़े होकर नवीं और दसवीं क्लास के दो बच्चों ने कुछ आंकड़े पेश किए तो दर्शकों में ज़रूर एक हलचल हुई। आपके लिए कुछ आंकड़े यहाँ पेश-ए-नज़र है:
- दुनिया भर में आत्महत्या का दर प्रति एक लाख की आबादी पर चालीस है। वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइज़ेशन के मुताबिक हर चालीस सेकेंड पर दुनिया में कहीं न कहीं कोई न कोई अपनी जान दे चुका होता है।
- जिस भूटान को हम उसके कुल राष्ट्रीय आनंद यानी ग्रॉस नेशनल हैपीनेस के लिए जानते हैं, वो देश डब्ल्यू हेल्थ ऑर्गनाइज़ेशन के अध्ययन के मुताबिक आत्महत्या के मामले में दुनिया में 21वें स्थान पर है।
- भारत आत्महत्या के मामले में 12वें स्थान पर है, और आधे से ज़्यादा मामलों में कारण या तो पारिवारिक और अत्यंत घरेलू होते हैं या फिर मानसिक परेशानियों से उपजा हुआ अवसाद। (ये बात ग़ौरतलब इसलिए भी है क्योंकि बाक़ी के देशों में आत्महत्या के कारणों पर नज़र डालें तो इनमें विस्थापित, बेरोज़गार, युद्ध या युद्धजैसी परिस्थितियों, जातिगत हिंसा और संघर्षों की वजह से शोषित, पीड़ित, भूख से लड़ते और अपनी ज़मीन छोड़ने के मजबूर पनाहगीरों की संख्या अधिक है।)
- और जिस सिक्किम में बैठे हुए हम दुनिया भर की आत्महत्या दर के बारे में सुन रहे थे, उस सिक्किम में ख़ुदकुशी की दर भारत के राष्ट्रीय दर से तीन गुणा ज़्यादा है। यानी कि 2015 में अगर भारत का औसत प्रति एक लाख की आबादी पर 10.6 की आत्महत्या का दर रहा तो सिक्किम में प्रति एक लाख की आबादी पर 37.5 आत्महत्या के मामले दर्ज हुए।
प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से सिक्किम दिल्ली और चंडीगढ़ के बाद भारत का तीसरा सबसे अमीर राज्य है। इसी साल स्वतंत्रता दिवस के मौक़े पर बीस से ज़्यादा सालों से सिक्किम के मुख्यमंत्री पवन चामलिंग के दावा किया कि राज्य शत-प्रतिशत साक्षरता दर हासिल करने की राह में बड़ी तेज़ी से अग्रसर है। अभी नरेन्द्र मोदी का पहला बड़ा सपना - राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान देश भर में शुरू भी नहीं हुआ था, तभी 2008 में ही सिक्किम में खुले में शौच से मुक्त राज्य घोषित कर दिया गया था। 2016 में सिक्किम को शत-प्रतिशत ऑर्गैनिक राज्य घोषित कर दिया गया। और तो और, कामकाजी महिलाओं की स्थिति के लिहाज़ से सिक्किम देश का सबसे उत्तम राज्य माना जाता है।
सिक्किम, एक घर वो भी
मैं अक्सर ये बात कहती हूँ कि सिक्किम इकलौता ऐसा राज्य है जहाँ मुझे कभी भी एक लम्हे के लिए भी किसी बात का ख़ौफ़ नहीं हुआ - क्या पहनना है, क्या खाना है, कौन-सी सड़क पर किस तरह चलना है, और रात के कितने बजे चलना है। बिहार और उत्तर भारत में अपनी पूरी ज़िन्दगी गुज़ार देने के बाद सिक्किम जैसी किसी जगह पर होना, जहाँ निगाहें आपकी पीठ (या आपके सीने) से नहीं चिपकती, किसी भी लड़की या औरत के लिए सबसे महफ़ूज़ अहसास है। महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा के मामले उस राज्य में न के बराबर सुनने को मिलते हैं। इसलिए, अपनी बेटी को सुरक्षा का यकीन और अपने बेटे को महिलाओं का सम्मान करने की सीख देने के लिए हमें सिक्किम से बेहतर कोई जगह नहीं मिली।
लेकिन जब वहाँ रहने का मौक़ा मिला, तो स्थानीय आबादी के संघर्षों की नई-नई परतों को देखने-समझने के हालात भी बने। टैक्सी ड्राईवरों से बात करते हुए, गलियों के मुहानों पर छोटी-छोटी दुकानें चलानेवाली औरतों से मिलते हुए, होटलों और रेस्टुरेन्टों में काम करनेवाले लड़कों से बोलते-बतियाते हुए दबी-छुपी ज़ुबान में ड्रग्स, ख़ासतौर पर फ़ार्मास्युटिकल ड्रगों, की लत के बारे में सुनने को मिला। टैक्सी ड्राईवर अक्सर ये बात बड़े फ़ख्र से बताया करते हैं कि वे बिना ड्रग या शराब के गाड़ी चलाते हैं, और इस बात को अपने यूनिक सेलिंग प्वाइंट की तरह इस्तेमाल करते हैं। इसी से अंदाज़ा लगा लीजिए कि ड्रग की लत कितनी बुरी तरह से सिक्किम के युवाओं को खाए जा रही है।
ड्रग की लत आत्महत्या का एक कारण तो है ही, वहाँ बेरोज़गारी भी बहुत बड़ी समस्या है। और नज़दीक से देखें तो ड्रग की लत भी ज़िन्दगी में लक्ष्यहीनता से ही उपजती है। सिक्किम जैसा राज्य पूरी तरह पर्यटन पर निर्भर है। साक्षरता दर बहुत ऊँचा है। दूर-दराज के गाँवों में भी पढ़ाई-लिखाई को लेकर जागरुकता है। शहरों के कॉफ़ी-शॉप में अक्सर किताब पढ़ते बच्चे आपको मिल जाएंगे। सुबह-शाम बच्चों के काफ़िलों के स्कूल ड्रेसों की रंगों से पहाड़ी के ऊंचे-नीचे रास्तों को रंगते रहते हैं।
पढ़ाई तो है लेकिन नौकरियाँ नहीं हैं। रोज़गार के अवसर नहीं हैं। इसलिए एम्पलायमेंट एजेन्सियों का कारोबार उस राज्य में धड़ल्ले से चलता है। बड़े बड़े कमीशन लेकर ये एजेंसियाँ सिक्किम के पहाड़ी युवाओं को एक बेहतर भविष्य के सपने दिखाती हैं और उन्हें यूरोप के छोटे से किसी देश में मूंगफली के दानों जितनी सैलेरी पर, अमानवीय हालातों में काम करने के लिए भेज देती हैं। थोड़ी सी भूख मिटने का लालच, उसकी चाहत इतनी बड़ी होती है कि मूंगफली के दानों जैसी ये सैलेरी न छोड़ते बनती है न लेने का कुछ हासिल होता है।
अगर सिक्किम के ये हालात आपको पंजाब की याद दिला रहे हैं तो इसमें कोई हैरानी नहीं। ये सच है कि ऊँची साक्षरता दर और समृद्धि वाले देश के इन दो अलग-अलग कोनों की कहानियाँ एक-सी सुनाई देंगी आपको। बस किरदारों के नाम और उनकी शक्लें बदल जाएँगी।
ऐसे में उन दो स्कूली बच्चों की चिंता जायज़ थी। और कुछ सुझाव भी उन्हीं बच्चों की तरफ़ से आए थे।
अपने साथियों का आह्वान करते हुए उन दोनों ने मंच से कहा कि अपने माँ-बाप, अपने अभिभावकों से संवाद का ज़रिया बचाए रखें। ज़िन्दगी इन्साग्राम की सतरंगी तस्वीरें और बहुरंगी हैशटैग नहीं, बल्कि उनके पीछे की हक़ीकत है जिससे बचने की नहीं बल्कि आँखें मिलाने की ज़रूरत है। और पेरेन्ट्स से उन दो बच्चों ने गुज़ारिश की कि वे अपने बच्चों की ज़िन्दगी में दिलचस्पी लें। उन्हें यकीन दिलाएं कि सफलता से कहीं बड़ा ज़िन्दगी की इस रोज़मर्रा की लड़ाई में बने रहने का हौसला है।
दुख की तासीर एक-सी
दरअसल, निजी कुछ भी नहीं होता। ख़ुदकुशी भी निजी दुख से उपजी हुई नियति कतई नहीं होती। हर ख़ुदकुशी एक समाज के रूप में हमारी हार की ओर इशारा करती है। जब कुदरत की आपदाओं और सरकार की उदासीनता से परेशान एक किसान कीटनाशक खाकर या अपने ही खेत के किसी पेड़ से लटककर अपनी जान देता है, तो वो सरकार की और प्रशासन की हार है। जब अपने सपनों से हारा हुआ एक नौजवान अपनी जान दे देता है, तो वो भी एक समाज की हार है, कि ये सफलताओं के कैसे उपभोक्तावादी मापदण्ड तय कर दिए हैं हमने? जब स्कूल से और अपने रिज़ल्ट से हारा हुआ एक किशोर अपनी जान देता है तो ये शिक्षा-प्रणाली की हार है। जब एक औरत नदी में कूद जाती है तो ये एक परिवार की हार है।
वाकई, निजी कुछ भी नहीं होता, और एक निजी दुख भी अक्सर एक से ज़्यादा इंसानों की ज़िन्दगियाँ तबाह करने के लिए बहुत होता है।
अवसरों से कहीं बड़े तो हमने सपने पैदा कर दिए हैं। काम-धंधा है नहीं और जहाँ नज़र दौड़ाइए, वहाँ अरमानों को हवा देते निर्लज्ज इश्तहारों का जमावड़ा है। क्या सिक्किम, क्या अंधेरी - जितनी बड़ी कमाई नहीं, उसके दस गुणा कर्ज़ हैं। तो फिर हल क्या है?
उन दो बच्चों की बात ध्यान से सुनना, जो सार्वजनिक मंच पर खड़े होकर सुने जाने की गुहार लगा रहे थे। संवाद हल है। विवेक हल है। कंजूसियाँ हल हैं। अपनी चादर में पैबंद लगाकर भी उसमें अपने पैरों को मोड़े रखना, मगर चादर से बाहर पाँव न जाने देना हल है। हौसलों के इश्तहार, उनका खुलेआम प्रदर्शन हल है। अपने-अपने भीतर की खिड़कियों को खोलकर दूसरों के भीतर झाँकने की कोशिशें हल हैं। हम अगर अपने कंधों से अपने ही अरमानों का बोझ उतारकर उन्हें हौसलों की ज़मीन में जब तक दफ़न नहीं कर देंगे, तब तक मैं, आप, सिक्किम, पंजाब, अंधेरी और अहमदाबाद आत्महत्याओं के आंकड़े गिनते जाने से ज़्यादा कुछ कर भी नहीं पाएंगे।
बारहवीं के नतीजे निकले थे, और मैं अपनी ही अपेक्षाओं के ख़िलाफ़ औंधे मुँह गिरी थी। सपना पढ़ने के लिए दिल्ली जाने का था। मुझे राँची की उस तंग सोच वाली ज़िन्दगी से निजात चाहिए था। लेकिन मेरे रास्ते अब बंद हो गए थे। रिज़ल्ट देखकर आने के बाद मैंने अपने आप को एक कमरे में बंद कर लिया। दुपट्टा गले में डालकर पंखे से लटकने की कोशिश की, लेकिन घुटती हुई साँसों ने इतनी तकलीफ़ दी कि उतरने पर मजबूर होना पड़ा। फिर शेविंग किट से ब्लेड निकालकर बहुत देर तक बैठी रही। लेकिन नस काटने का दर्द सोच से ही परे था। घर दो मंज़िला था, तो छत से कूदने का कोई फ़ायदा नहीं था। कांके डैम घर से दो-ढाई किलोमीटर दूर था। मरने के लिए कोई इतनी दूर क्यों जाता? इसलिए दादी को दी जानेवाली बीपी और नींद की सारी गोलियाँ एक बार में खा लीं।
ऐसा नहीं था कि उस घर में मैं अकेली थी। मेरे मम्मी-पापा, चाचा-चाची, भाई-बहन और दादा-दादी समेत भरा-पूरा परिवार वहीं, उसी कमरे से बाहर था। लेकिन किसी ने ये नहीं सोचा होगा कि कमरा बंद किए मैं अपनी कहानी ख़त्म करने चली थी। घंटों कमरे से नहीं निकली तो पापा ने दरवाज़े को धक्का देकर कुंडी तोड़ी और मेरे पास आए। मैं बिस्तर पर औंधी पड़ी हुई थी शायद। लेकिन बस गहरी नींद में थी, क्योंकि पापा मुझे नींद से उठाने में कामयाब रहे थे। उस रोज़ पापा ने कुछ कहा नहीं था, बस ज़ोर से गले लगा लिया था। जिस पिता की गोद से उतरने के बाद उस रोज़ तक कभी छूने की या नज़दीक जाने की हिम्मत भी नहीं थी, उस पिता की ओर से आया हुआ इतना अनकहा हौसला ही बहुत था।
काश इतना ही अनकहा हौसला हर उस डूबती हुई रूह को मिल जाए जिसके सामने सिर्फ़ निराशा के अंधेरे होते हैं। अपनी जान लेने का फ़ैसला, या अपनी ज़िन्दगी बर्बाद कर देने का फ़ैसला, ज़रूर निजी होता है। लेकिन किसी को बचा लेने की कोशिश हमेशा साझा होती है। उन दो बच्चों की साझा कोशिश ने सिक्किम की ऊँची आत्महत्या दर के बावजूद सिक्किम के समाज पर मेरा यक़ीन और पुख़्ता कर दिया था।