मेट्रो इज़ रियली द बेस्ट थिंग दैट हैपेन्ड टू डेल्ही, मैंने ये घिसा-पिटा सा जुमला मन ही मन दोहराया, और खुद को रात भर की कश्मकश के बाद मानसिक रूप से तैयार किया कि दिल्ली में टिकना है तो हर रोज़ काम पर जाने के लिए मेट्रो की आदत डाल लेनी चाहिए। नोएडा से गुड़गांव तक का सफ़र मेरे लिए एक हसीन लॉन्ग-ड्राईवनुमा होता रहा है अबतक। सफ़र कुछ इस तरह से प्लान किया कि रास्ते में किसी मनपसंद आरजे का साथ हो। साथ में वो सीडीज़ निकालीं जो मैं इत्मीनान से सुनना चाहती हूं। लेकिन आप ये काम महीने में दो-चार बार कर सकते हैं, हर रोज़ नहीं। पेट्रोल की बर्बादी और समय का विनाश क्रिमिनल है।
इसलिए मेट्रो से ही जाना तय किया। यूं भी साढ़े सात बजे निकलना है, ऑफ़ ट्रैफ़िक आवर्स में, तो बैठने की जगह तो कहीं गई नहीं। भीड़ भी हो तो लेडी़ज़ कंपार्टमेंट में खड़े होकर झेली जा सकती है भीड़। यूं भी जिसने जवानी के दिनों में डीटीसी बसों की धक्का-मुक्की और बदतमीज़ियां झेल ली, उसके लिए मेट्रो का लेडीज़ डब्बा लक्ज़री है।
साढ़े सात का टार्गेट अनरियल था। बच्चों की बस ने दस मिनट की देरी करके अपशकुन की शुरुआत कर डाली। सात चालीस। मेट्रो स्टेशन तक पहुंचते-पहुंचते कुल सात मिनट और। सेक्योरिटी चेक इन, एक्सलेटर और वेटिंग, कुल चार मिनट और। यानी मेट्रो में घुसते-घुसते तकरीबन आठ बज ही गए - पीक ट्रैफिक आवर!
जहां मैं चढ़ी वो तीसरा स्टेशन है। जगह नहीं बैठने की, लेकिन आराम से खड़े होकर कोई किताब पढ़ी जा सकती है। मेरे बगल में खड़ी लड़की के हाथ में जो किताब है वो जानी-पहचानी लग रही है। "लाइफ़: एन एनिग्मा, ए प्रेशस ज्वेल" जिसके लेखक हैं जापान के दाइसाकू इकेदा - धर्मगुरु, आध्यात्मिक नेता, विश्व शांति के प्रचारक। मुझे कॉलेज जाने वाली लड़की के हाथ में ये किताब देखकर सुखद आश्चर्य हुआ है। मैं उससे बात करना चाहती हूं, लेकिन वो कुछ इस तरह ध्यानमग्न है कि उसे टोकना साधना में विघ्न डालने जैसा कुछ होगा।
बाकी डिब्बे में रंगों का कॉलोज बिखरा पड़ा है जैसे। कोई लड़की गीले बालों को उंगलियों से सुलझा रही है, कोई आंटी वैभवलक्ष्मी कथापाठ कर रही हैं। जाने कितनों के कानों में ईयरप्लग्स हैं। दो लड़कियां एक-दूसरे से धक्कामुक्की करते हुए भी मोबाइल पर एन्ग्रीबर्ड्स खेले जा रही हैं। मोबाइल, तेरी महिमा अपरंपार है। नैस्कॉम यूं ही नहीं कहता कि अगले एक साल में मोबाइल बिज़नेस 36,000 करोड़ से भी बड़ा हो जाएगा।
मुसीबत तो दरअसल राजीव चौक स्टेशन पर भयावह भीड़ के रूप में दिखाई पड़ती है। एक-दूसरे को धकियाते-मुकियाते प्लैटफॉर्म पर जगह तो बना लिया है लड़कियों, अब हम ट्रेन में कैसे घुसेंगे? हमें किसी तरह की मेहनत नहीं करनी पड़ती। भीड़ अपने-आप धकेलती हुई मेट्रो में चढ़ा भी देती है, आपके लिए खड़े होने की जगह भी बना देती है। वर्क फ्रॉम होम कितनी बड़ी लक्ज़री है, ये एक घंटे में ही समझ में आ गया है। अगले चालीस मिनट फास्ट-फॉरवर्ड मोड में चलते तो क्या शानदार मॉन्टाज बनता। उतरती भीड़। चढ़ती भीड़। हिलती भीड़। ब्रेक लगने पर एक-दूसरे पर गिरती भीड़। पैर कुचलकर आती भीड़। सॉरी बोलकर जाती भीड़।
लेकिन कमाल है कि मैं वन-पीस गुड़गांव के आखिरी स्टेशन पर उतर गई हूं। ना जी, पिछले दो घंटे में कहीं बैठने की जगह नहीं मिली। सब एफर्टलेस है। स्टेशन से बाहर निकल आना भी, ऑटो स्टैंड तक जाना भी और खुद से मेट्रो पर ऐसी भीड़ में कभी ना चढ़ने के वायदे करना भी। मैं मीटिंग में महज़ पैंसठ मिनट की देरी से पहुंची हूं। आई टुक अ मेट्रो - ये एक कथन मेरे सारे गुनाहों की माफ़ी है। च्च-च्च। आर यू ऑलराइट? डु यू वॉन्ट सम टी-कॉफ़ी? अच्छा, इतना बड़ा किला फ़तह किया है मैंने?
घड़ी देखकर ऐसे समय पर निकली हूं कि जब भीड़ ना हो सड़कों पर। घुटनों भर पानी हो तो भी कोई बात नहीं। सावन से बरस जाने के लिए अर्ज़ी तो हमीं ने डाली थी ना। मुसीबत बोलकर नहीं आती, बरसती हुई आती है।
रुका जा सकता है, बारिश के थमने तक। लेकिन फिर पीक आवर में चलने का ख़तरा कौन मोल ले? रंग-बिरंगी छतरियों के बीच जगह बनाते हुए डिब्बे में बैठने की जगह भी मिल गई है। लेकिन इस वक्त मुझे भीड़ की सख़्त ज़रूरत है। गीले होने के बाद डिब्बे के एसी में ऐसी ज़बर्दस्त कंपकपी हो रही है कि सीधे बैठना मुश्किल। डिब्बे में बिल्कुल भीड़ नहीं। कोई कमबख्त मेरे बगल में बैठने भी नहीं आता। एक यात्री पर दो सीटें! इसी को कहते होंगे मर्फीज़ लॉ।
एक महिला अपने दो बच्चों के साथ चढ़ी है दो बैग लेकर। बच्चों की पोशाक देखते ही लग जाता है कि एनआरआई हैं। मेरे बगल में आकर बड़ी भारी अमेरिकन लहज़े में अंग्रेज़ी बोलते हुए पूछती हैं - हाऊ मच टाईम बिफोर आईएनए? मैं उन्हें बगल में बैठ जाने को न्योत देती हूं। स्ट्रैटेजी काम आई है और मैं बेशर्म की तरह उन्हें कहती हूं, एक्चुअली वी कैन अकॉमोडेट द किड्स एज़ वेल। दो लोगों की सीट पर बैठे चार लोग, और दुबक कर बैठी मैं। सर्दी बर्दाश्त करने लायक हो गई है। अब मैं किताब निकाल सकती हूं।
लेकिन रंग-बिरंगे और दिलकश चेहरों के बीच किताब खोल लेने का हासिल? ज़िन्दगी क्या है, किताबों को हटाकर देखो - अपनी मां को टीनएज में पढ़ाई से बचने के लिए ऐसे शेर ख़ूब सुनाया करती थी। मां से याद आया है, किसी लड़की के बारे में पूछ रही थीं मुझसे फोन पर। देखा है उसको? शादी का मामला है। सुन्दर तो है लड़की? मैं हैरान-परेशान मां से पूछती हूं - सुन्दर कौन होता है? सौन्दर्य का पैमाना क्या है? सुन्दरता बहुत सब्जेक्टिव मसला नहीं? अरे बाबा, जो आंखों को भाए। मैंने मां का कहा हुआ यहां मेट्रो में आजमाने का फ़ैसला किया है। देखते हैं कौन सुन्दर है और कौन नहीं।
मेरे ठीक सामने मैजेंटा रंग की सलवार-कमीज़ में बैठी लड़की (या महिला?) का वज़न 100 किलो से कम क्या होगा। लेकिन सलीके से बनाए गए बाल, तरतीब से लिया गया दुपट्टा, पैरों में मैचिंग चप्पलें और नाखूनों पर मैचिंग नेलपॉलिश के साथ-साथ उसका हैंड बैग और हाथ में मौजूद एक आईफोन और एक टैबलेट उसके बारे में जो राय बना रहा है वो सुन्दर और ग्रेसफुल के बीच का कुछ है। उसके बगल में नेपाली नैन-नक्श वाली लड़की। आंखें मूंदे, सिर पीछे की तरफ टिकाए, कान में ईयर-प्लग्स लगाए वो जिन भी ख़्यालों में हो, उसके चेहरे पर उतर आई आभा से मैं हतप्रभ हूं। सुन्दर! तीसरी लड़की। चेहरे पर टीनएज की निशानियां इस उम्र में भी। कसकर पीछे की ओर बंधे बाल। पलकों पर आईलाईनर और फीकी पड़ गई लिप्स्टिक, साथ-साथ थकी हुई उंगलियां को तोड़कर थकान उतारने की कोशिश। सुन्दर ही है, ये भी। चौथी - गहरे लाल रंग का टॉप, खुले हुए बाल, गर्दन पर झूलता क्रॉस और गहरा सांवला रंग। फिर भी चेहरे में एक अजीब-सा आकर्षण है। फोन पर किसी से बात करते हुए मुस्कुराती है तो दाहिने गाल पर पड़नेवाले गड्ढे की तस्वीर खींचने का मन करता है। ज़ाहिर है, मेरी आंखों को भा ही रही है। पांचवीं, छठी, सातवीं, आठवीं... पंद्रहवीं... अठारहवीं और मेरे बगल में बैठी एनआरआई। सब सुन्दर। टेढ़े-मेढ़े दातों की भरपाई बालों ने किया, बालों की रंग ने, रंग की आंखों ने, आंखों की होठों ने, होठों की गर्दन ने, गर्दन की मुस्कुराने के तरीके ने... मां को फोन करके कह दूंगी, मुझसे ऐसे ऊटपटांग सवाल ना पूछा करें कि कौन सुन्दर है और कौन नहीं।
मुझे तो वो गुलाबी अंगूरों को पैरों पर सजाए, दरवाज़े से टिककर फ्लोटर्स वाली अपनी सहेली के साथ ज़ोर-ज़ोर से ठहाके लगाती पीले-से चेहरे, छोटे-से बालों और नारंगी रंग की शर्ट को जींस में डालकर अपने अंदाज़ पर ख़ुद ही इतराती बेहद गंवार-सी दिखनेवाली शहर की लड़की सुन्दर दिखती है मां! उसमें कुछ तो होगा जो बहुत सुन्दर होगा।
12 टिप्पणियां:
सोच रही हूँ कि जब आप बैंगलोर आएँगी तो आपसे पूछ लूंगी थोड़ा मेरी सुंदरता का भी डिस्क्रिप्शन दे दीजिए :) :)
मस्त पोस्ट...बड़े दिन बाद थोड़ी फुर्सत में पढ़ी. बहुत अच्छा लगा.
कहते है मेट्रो पर यात्रा करने वालो को फिल्म देखने जरुरत नहीं होती .इतने सारे पात्र और रंग एक ही परदे पर कहाँ दिखते हैं .
यात्रा अपने आप में पूरा आनन्द है, रोज एक कहानी लिखी जा सकती है।
mast post...enjoyed alot... but metro is far good than Noida ka auto :P
मेट्रो की भीड़ में अकेले गुम होना पता नहीं क्यों भाता है मुझे कभी कभी धूप का चश्मा भी नहीं उतारती हूँ हुडा सिटी सेण्टर से मेरी मंजिल अक्सर मयूर विहार तक कितने पात्र चढ़ते है ..उनकी भाव भंगिमाएं और फोन पर चल रही बातें सब आकर्षित करती है मुझे ,शिवानी की कोई किताब उठा कर उसकी ओट से लोगों को देखना भाता है ....मेरी कहानियों के कई किरदार वहीँ से साथ हो लेते है मेरे
मेट्रो यात्रा के आँखों देखे हाल के साथ ही सुन्दरता के कुछ पैमाने भी पकड में आ गए :-)
कैसे भी जियें जीवन ..हमेशा एक दोराहा सामने रहता है
खूबसूरत सफर जिन्दगी का.
हां, मेट्रोनामचा शीर्षक की सूझ बढि़या है.
मेट्रो नामा या कहें मेट्रो रोजनामचा एक खुबसूरत लेखा जोखा सहित विवरण
बहुत सुन्दर मेट्रोनामचा। लगता है कल मेट्रो ट्रेने भी खड़ी होकर अपनी बारे में लिखी यह पोस्ट बांचती रहीं।
अच्छ्या लिखा है...मेरे साथ भी यही होता है कि मुझे हर कोई सुन्दर ही लगता है
Samajh nahi aata kya kahu. Aisi eternal beauty ka itna sunder vivaran....... Padhkar kahi laga, khubsoorat to hum sab hain bas dekhne wale ki aankho mein sunderta honi chahiye. "Beauty sees beauty everywhere."
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