तार-तार हुई अपनी इज्ज़त और अपने वजूद को लेकर कहां जाओगी अब? तुम तो मुंह दिखाने लायक ही नहीं बची कि लोग तुम्हारी पहचान नहीं भूलेंगे, वो चेहरे ज़रूर भूल जाएंगे जो तुम्हें सरेआम नोचते-खसोटते रहे थे।
लड़की, सारा दोष तुम्हारा ही है। पार्टी में गई थी ना? वो भी गुवाहाटी जैसे शहर में? तो लो भुगतो अब। अपने दायरे में रहना सीखा नहीं था क्या? किसी ने बताया नहीं था कि पार्टियों में जाने और सड़कों पर खुलेआम बेफ़िक्री से घूमने, अपनी मर्ज़ी से रास्ते चुनने का हक़ तुम्हें नहीं; इज्ज़तदार घर के शरीफ़ लड़कों को होता है।
पहन क्या रखा था जब घर से पार्टी के लिए निकली थी? ज़रूर मिनी स्कर्ट और टैंक टॉप पहन कर निकली होगी। या फिर तंग टीशर्ट और जीन्स? घर में दुपट्टा नहीं था? हिजाब ही खरीदा होता एक? हालांकि ठीक-ठीक बता नहीं सकती कि साड़ी में लिपटी निकली होती तो बच गई होती।
और इतना भी नहीं जानती कि बिना किसी 'मेल मेंबर' के घर से बाहर स्कूल और ट्यूशन के लिए निकलना भी गुनाह होता है लड़की के लिए? और किसी को नहीं तो अपने छोटे भाई को साथ लिया होता। पड़ोस का ही कोई दसेक साल का बच्चा होता, किसी सहेली का भाई ही होता, तुम्हारा कोई क्लासमेट होता। कोई तो होता साथ। कोई पुरुषनुमा परछाई साथ चलती तो इस हादसे बच जाती तुम शायद। जानती नहीं किस समाज में रहती हो? यहां अंधेरों के तो क्या, रौशनी के भी घिनौने हाथ होते हैं जो तुम्हें अपनी गंदी उंगलियों और तीखे नाखूनों से खसोट लेने के लिए बेताब होते हैं, तुम्हें छूकर देखना चाहते हैं, तुम्हारी आंखों में उतर आए डर और तुम्हारी पीड़ा से अपने पौरुष को बल देना चाहते हैं।
लड़की, तुम्हारी अरक्षितता, तुम्हारा नाज़ुकपन तुम्हारा सबसे बड़ा गुनाह है। उससे भी बड़ा गुनाह उस बेचारगी को भूलकर रास्ते पर अकेले चलने की ज़ुर्रत करना है। उससे भी बड़ा, और बड़ा गुनाह चौबीस घंटे लड़की होने की अतिसंवेदनशीलता को याद ना रखना है।
सुना कि तुम मां-बहन की गुहार लगा रहा थी लड़कों के सामने? अरे पागल, नहीं जानती क्या कि यहां लोग बहनों को भी नहीं छोड़ते? ऊपरी आवरण से मसीहा और संरक्षक-सा दिखाई देने वाला तुम्हारा कोई 'कज़न ब्रदर' या 'गार्डियन' अकेले में तुम्हें बख़्श देगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है। मां ने सिखाया नहीं था कि किसी पर भरोसा नहीं करना? किसी पर भी नहीं। किसी ने बताया नहीं था कि हम ऐसे भीरुओं के बीच रहते हैं जो ऊंची आवाज़ में चिल्लाना जानते हैं, मौका-ए-वारदात पर कुछ क़दम उठाना नहीं जानते? मैं होती वहां तो कुछ कर पाती, कहना मुश्किल है। बचकर आंखें नीची किए किनारे से निकल गई होती शायद। हम जैसे तमाशबीन रहनुमाई के लिए थोड़े ना पैदा हुए हैं?
वैसे अब क्या करोगी तुम पागल लड़की? पूरे देश ने ये वीडियो देखा है। बल्कि यूट्यूब पर तो विदेशों में बैठे लोगों ने भी तुम्हारा हश्र देख लिया। तुम्हारे गली-मोहल्ले के लोग तुम्हारा जीना दूभर ना कर दें तो कहना। तुम्हारे स्कूल में बच्चे और टीचर्स तुम्हें अजीब-सी निगाहों से ना देखें तो कहना। और ठीक चौबीस घंटे में तुम्हारे साथ चला घिनौना तमाशा पब्लिक मेमरी से ना उतर जाए तो कहना। इस हादसे का बोझ लेकर जीना तुम्हें हैं।
नपुंसकों के बीच रहती हो लड़की। यहां किसी तरह के न्याय की उम्मीद मत करना। लेकिन जैसे सड़क पर अपने साथ हुई कई छेड़खानियां भूल गई, अपने जिस्म पर कई बार आई गंदी छुअन भूल गई, वैसे इस नोचे और खसोटे जाने को भी भूल जाने की कोशिश करना। याद सिर्फ इतना रखना कि इस दुनिया में सांस लेना मुश्किल है, तुम्हारा जीना मुश्किल है और मर जाने में भी सुकून नहीं। ऊपरवाले ने फिर किसी तरह का बदला निकालने के लिए अगले जन्म में लड़की बनाकर भेजा तो?
एक बुर्का सिलवा लो लड़की और अकेली मत निकला करो सड़कों पर। वैसे मैं अपनी बेटी को कैसे बचा कर रखूं, इस उलझन में हूं फ़िलहाल। उससे भी बड़ी उलझन है कि बेटे को उन्हीं इज्ज़तदार लोगों के घरों के शरीफ़ लड़कों में से एक होने से कैसे बचाया जाए?
तुमसे और क्या कहूं सिवाय इसके कि अपना ख़्याल रखना और अपने आंसुओं को बचाए रखना। तुम्हें पागल होने से यही आंसू बचाए रखें शायद।
अलविदा, पागल लड़की।
15 टिप्पणियां:
कैसे कहे कि हम सभ्य समाज में हैं . क्या हम इस बात को समझेंगे कि ये लोंग किसी एक धर्म , जाति , के नहीं थे !!
जितनी संवेदित और संतुलित तात्कालिक प्रतिक्रिया आपसे होनी चाहिए थी लाजिमी थी .
सुना कुछ पत्रकार भी थे वहां जो कवरेज में जुटे थे .....उनकी अपनी बाईट चल रही थी ...
मगर शायद पूरे समाज को दोषी ठहराना थोड़ी भावुकता जानी ज्यादती तो नहीं है ...
मैं तो जैव विज्ञान और मानव व्यवहार का एक अदना सेवी रहा हूँ -
जनता हूँ मनुष्य के भीतर एक झपकियाँ लेता गोरिल्ला रहता है ...
हम ऐसी स्थितियां जिन्हें आपने दर्शाया है को उद्दीपन क्यों बनने दें?
ek aur hadasa bas itna hi kehna haen mujhko
kyuki sajaa to kisi ko milnae sae rahii
संयोग से कल ये समाचार नहीं देखा था वरना रात की नींद शर्तिया गयी थी...अभी अभी रविश कुमार का वीडियो देखा...अब लगता है...लड़कियों की अगली एक पूरी पीढ़ी को लड़ाकू बनाना होगा...कोई आँख उठा कर देखे तो आँखें नोच लें...नाम पूछने की कोशिश करे...तो थप्पड़ मार दे...अब दूसरा कोई उपाय नज़र नहीं आता....लड़कों का ज्यादा प्रतिशत बदलने को तैयार ही नहीं....पर हमारा समाज भी कहीं बहुत बड़ा दोषी है...शुरू से ही उन्हें अलग रखो..अलग स्कूल में पढाओ...आपस में बातें ना करने दो...मिलने जुलने ना दो...लडकियाँ अजूबा लगती हैं,उन्हें .
हमारे लिए कुछ नहीं बदला द्रुपदी से लेकर इस बच्ची तक ...वही दुशासन है ...
एक लड़की होकर पैदा होना मुश्किल है, और बड़े होना और भी मुश्किल ....दिल्ली से गुवाहाटी तक ...क्या फर्क है
रश्मि जी से पूरी तरह सहमत!
इतनी दूर देश बैठे फूट फूट कर रो देने का मन है...इस पोस्ट से गुवाहाटी की उस फुटेज तक चली गयी.
विदेश पहुँचो तो पहली चीज़ जिस पर ध्यान जाता है कि यहाँ लड़कियां कितनी निडर हैं...उन्हें भय नहीं लगता...उनके कपड़े, सर उठा के जीने का अंदाज़, हँसना, खेलना, काम करना...देश चाहे पोलैंड जैसा गरीब हो या स्विट्जरलैंड जैसा अमीर...उन्हें जीने की आजादी है. वो अपनी पसंद के कपड़े पहन सकती हैं, उनमें काम कर सकती हैं, रात को अकेले घूम फिर सकती हैं.
हमारे यहाँ बचपन से लड़की के अंदर एक ही चीज़ कूट कूट कर भरा जाता है...डर...हर हमेशा चौकन्ना रहना...नज़रें झुका कर चलना...जितना हो सके उतना कम अटेंशन आये ऐसे कपड़े पहनना...ढक छिप के रहना...खूबसूरत हो तो खराब कपड़े पहनो, हेयरस्टाइल ऐसी रखो कि खराब नज़र आओ...किसी भी हाल में कोई तुमपर ज्यादा ध्यान न दे.
सड़क पर चलो तो डर...भीड़ में हो तो डर...सुनसान जगह पर हो तो डर...ऑफिस में डर...सिनेमा में डर, ट्रेन, बस, टेम्पो, ऑटो में डर...हर जगह डर की हुकूमत कि जब तक डरी रहोगी शायद सुरक्षित रहोगी...ऐसे ही सारे इंसिडेंट देखती हूँ तो लगता है कि देश में सारी लड़कियों के नाम पिस्टल इशु कर देना चाहिए...कहीं भी कोई भी सेफ नहीं है...पिस्तौल का लाइसेंस मिलना चाहिए कि ऐसे जानवरों को लड़की खुद शूट कर सके...किसी को उसके बचाव में आने की जरूरत न पड़े.
ये कैसा समाज है...ये कैसे लोग हैं...ये कैसा अपना देश है जहाँ डर का साम्राज्य चलता है...ये कैसी आजादी है...उधार पर जीना है. कभी भी कोई भी मनचला आकर आपकी औकात बता सकता है...ओह लड़की...जाने इस जन्म में तुम्हारे ज़ख्म भरेंगे भी कि नहीं...हौसला रखना...बहुत सा हौसला रखना. मेरी दुआएँ तुम्हारे साथ हैं.
उफ्फ्फ... यह जानकार कुछ कहने की हिम्मत ही नहीं रही है... आँखों में आंसू और जुबां पर ताला सा पड़ गया है... हम मर्द जल्लाद से कम नहीं हैं...
दोष उन लड़कों का नहीं बल्कि पूरी मर्द कौम की सोच का है, हम कब तक महिलाओं को पर्सनल प्रोपर्टी समझते रहेंगे?
एक बुर्का सिलवा लो लड़की और अकेली मत निकला करो सड़कों पर। वैसे मैं अपनी बेटी को कैसे बचा कर रखूं, इस उलझन में हूं फ़िलहाल। उससे भी बड़ी उलझन है कि बेटे को उन्हीं इज्ज़तदार लोगों के घरों के शरीफ़ लड़कों में से एक होने से कैसे बचाया जाए?
very difficult question to ans.
अनु जी आप की और हमारी सोच कितनी मिलतीजुलती है एक आप और हम ही है जो लोगों को बता पा रहे है की दोष लड़की का है और लोग है की बेमतलब के इमोशन में बह कर
लड़की के प्रति सहानभूति जता रहे है |
http://mangopeople-anshu.blogspot.in/2012/07/mangopeople_13.html#comment-form
नारीत्व एक भद्दी गाली है ,जो सिर्फ़ पुरुषों के लिये रिज़र्व है !
चुभता है ये सब कुछ....मगर सिवा सहलाने के और क्या करें???
दुखद...
अनु
अफ़सोस! शर्मनाक हादसा हुआ।
क्या हो गया है यह, सब कुछ शर्मनाक..
अनु, शायद पहली बार आपके ब्लॉग पर आई हूँ और घटना भयंकर और अपने ही समाज के प्रति घृणा जगाने वाली है। आपका लेखन सोई हुई आत्माओं पर चोट करने वाला है।
घुघूती बासूती
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