मुद्दा ये है कि मेरे बच्चों की शब्दावली में एक नया वाक्यांश जुड़ गया है। सुबह-सुबह उन्होंने एक-दूसरे की चुगली की।
"मम्मा, आपको पता है आद्या ने कल बस में एक बच्चे को 'उल्लू का बच्चा' कहा।"
इतना सुनना था कि मुझे लगा, मेरे इर्द-गिर्द की दुनिया ठीक मेरे आंखों के सामने धराशयी होने लगी है जैसे। ये कैसे हो गया? ये मेरी परवरिश तो हो ही नहीं सकती। लंबी गहरी सांसें लेकर दिमाग स्थिर करते हुए मैं कोई फ़ैसला सुना पाती, इससे पहले ही अपराधी ने ना सिर्फ़ गुनाह क़बूल कर लिया, बल्कि मौका-ए-वारदात का अक्षरशः विवरण भी दे दिया।
"मम्मा, अयान ने मुझे बस में धक्का दिया। अपने स्कूल बैग से मुझे पुश किया। और मैंने ये जो बोला... ये... ये मैंने आदित के फ्रेंड अयान से ही सीखा है। वही खेलता रहता है ऐसे बच्चों को साथ... आप आदित को बोलो ऐसे फ्रेन्ड्स नहीं बनाएगा। आदित ने भी रुचि मौसी को कहा था - वही - वही मम्मा - उल्लू का बच्चा... मुझे भी कहा था... उल्लू का बच्चा..."
मेरी पहल समय का तकाज़ा था।
"उल्लू देखा है आपने?"
"हां..."
"जैसा दिखता है उल्लू, मैं वैसी दिखती हूं? मेरी शक्ल... मेरी नाक... मेरी आंखें...?"
"नहीं मम्मा..."
"फिर रुचि मौसी दिखती होगी बेबी उल्लू के जैसी, नहीं?"
"नहीं मम्मा..."
"फिर हम एक-दूसरे को ऐसे नामों से क्या बुलाते हैं?"
"लेकिन आप भी तो हमको कहते हो मम्मा... सोनचिरैया, तोता, कोयल, बिलोरी..."
मम्मा की एमटीवी बोलती बंद! जल्दी से तर्क ढूंढो कोई नया। अल्लाह, मैंने वकालत ही पढ़ ली होती... या थोड़ा और होता प्रेसेंस ऑफ़ माइंड। बच्चों के साथ जिरह करना भी सीख गई हूं।
"तो आपको ये नाम बुरे लगते हैं?"
"नहीं मम्मा..."
"और उल्लू का बच्चा?"
"गुस्सा आता है सुनकर।"
"तो बस... जवाब मिल गया... हम ऐसी बात क्यों कहें जो हमें ख़ुद अच्छी नहीं लगती? जो सुनकर गुस्सा आता है?"
कितनी आसानी से कह गई हूं ये। बस स्टॉप पर हुई ये बातचीत दो घंटे बाद भी परेशान कर रही है। बच्चों को बड़ा करने के क्रम में आप कई समझौते करते हैं खुद से - पैसे के साथ, काम के साथ और सबसे बड़ी बात, वक्त के साथ। उससे भी बड़ा समझौता अपने व्यक्तित्व के साथ होता है, क्योंकि यही एक चीज़ आपके बच्चों को सबसे ज़्यादा प्रभावित करती है। जो बच्चे देख रहे होते हैं, वही सीख रहे होते हैं।
मैं फिर भी साध्वी नहीं बन सकती, ना आर्ष स्वभाव एक रात में जीना आ गया है। फिर भी, भाषा और लहज़े में कई बदलाव तो लाना ज़रूरी है। बड़ी मुश्किल से अपने शब्दकोष से 'बेवकूफ़', 'बदतमीज़', 'पाजी', 'कमीना' और ऐसे ही कई शब्द निकाले गए। 'ओह शिट' तब जाकर बोलना बंद किया जब ढाई साल का आदित मेरी ही तरह सिर पर हाथ मारकर वही शब्द दुहराने लगा।
ये भी सच है कि बच्चों को कहां-कहां बचाएंगे? पार्क में साथ खेलनेवाला कबीर 'अबे ओय' कहकर आदित को बुलाता है तो मुझे अपने गुस्से पर नियंत्रण के लिए दस तक की गिनती गिननी होती है। छोटा भीम बच्चों को 'बुली बच्चों' को धराशायी कर देने के गुर सिखाता है और तरह-तरह के स्टंट्स दिखाता है तो मैं टीवी बंद कर देना चाहती हूं। स्कूल बस पर उन्हें चढ़ाते हुए बस में गूंजती जलेबी बाई की मटकती-झटकती आवाज़ सुनाई देती है तो मैं ड्राईवर से चैनल बदल देने की गुज़ारिश ही कर सकती हूं। सुबह के अख़बार को लेकर बैठने के क्रम में 'प्लेबॉय' के कवर शूट से लौटी शर्लीन चोपड़ा बत्तीसी के साथ और सबकुछ निपोड़ती दिखाई देती है तो मेरे साथ-साथ मेरे बच्चे भी देख रहे होते हैं।
हम अपने आस-पास और माहौल को कितना बदल सकते हैं, ना बच्चों को सौ पर्दों के पीछे छुपाकर रखा जा सकता है। स्कूल जाएंगे ही, बाहर निकलेंगे ही, मीडिया से बचाया नहीं जा सकता और श्लील-अश्लील सब दिखाई देगा उनको।
और ये हैं मेरे दो 'शरीफ़' बच्चे! |
मेरे दोस्त मुझे हेलीकॉपटर मदर कहते हैं तो गलत नहीं कहते। मैं वाकई उल्लू हूं।
8 टिप्पणियां:
पौधे को खाद-पानी देते रहें, बहुत जरूरी होने पर थोड़ी काट-छांट, पौधे खुद अपना आकार ले लेंगे.
कुछ तो वे खुद ही सीखते हैं , मगर नियंत्रण जब तक रखा जा सके , रख सकते हैं ...उससे पहले खुद को समझाना पड़ता है कि उलजलूल ना बोले !
रोचक !
आपको कैसे शुभकामनायें दूँ, दोनों के चेहरे से शराफत टपक जो रही है।
बच्चे हिन्दुस्तान के/में हैं तो उल्लू एक उपेक्षित और नकारात्मक भाव लिए पक्षी हुआ और बिचारे मां की झिड़की सुने -अपराधी की संज्ञा से नवाजे गए ...
अगर ये बच्चे पश्चिम की किसी दुनियाँ में होते तो उल्लू कहना काप्लिमेंट होता -वहां न्यायविद को "आवलिश अपियेरेंस " वाला कहते हैं -वो कविता भी तो आपको याद होगी -एक विज्ञ उल्लू बैठा था ओक की डाल पर ....
A wise old owl sat on an oak,
The more he heard the less he spoke,
The less he spoke the more he heard.
Why can't we all be like this bird?
प्लीज प्रिय आदित और आद्या को यह दिखा दीजियेगा .....और भारत में उल्लू क्यों "उल्लू " हो गया हम बाद में चर्चिया लेगें!
लाख जतन करें समाज के स्वरुप का प्रभाव बच्चो पर जाने अनजाने पद ही जाता है .यह नैसर्गिक है
:) इस दुनिया में शायद बच्चों की सही परवरिश से बड़ा और मुश्किल कोई काम नहीं है। जहां तक मुझे लगता है आज कल क बच्चों को इस तरह के माहौल से बचा के रखपाना नामुमकिन सी बात है सही तो यह होगा की बच्चों को सब सुनने और देखने दिया जाये मगर जब उनकी जिज्ञासा भरे प्रश्न उठें तो उस वक्त पूरे धेर्य एवं संयम के साथ उनकी बात का बड़ी सवाधानी से जवाब दें ताकि उनके मन उस बात को लेकर कोई संशय बाकी न रहे... बाकी तो मैं खुद भी अभी सीख ही रही हूँ। :))
बच्चे बड़े समझदार हैं! उल्लू का बच्चा बोलने से मना करते हैं तो पूछते हैं सोनचिरैया भी तो कहती हैं आप! वाह!
बहुत प्यारे बच्चे हैं..
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