मैं लखनऊ में थी जब पल्लवी ने फोन किया। किसी की शोक सभा के लिए जाना था, और उसे कुछ दो सौ-तीन सौ लोगों से बात करनी थी वहां। मुद्दा था, व्हाट शुड आई से। इससे भी बड़ा मुद्दा था शोकसंतप्त परिवार के दुख के लम्हों के बीच आभार व्यक्त करना - इसलिए क्योंकि जानेवाले ने जाते-जाते अपना अंगदान कर किसी की ज़िन्दगी बचाई थी। मैं उस परिवार की कहानी नहीं जानती, सिर्फ़ इतना जानती हूं कि दो भाईयों ने मिलकर अपनी मां के अंगों का दान किया।
ऐसा भी होता है? मरने के बाद भी दो-चार ही सही, लोग सोचते हैं कि अंगदान किया जाए? बल्कि हमारा तो अपने कपड़ों, जूतों, घर-गृहस्थी, नाते-रिश्ते के साथ-साथ उस इंसान की अस्थियों और राख से भी मोह नहीं छूटता जो चला जाया करता है। क्या कहोगी पल्लवी? अपनी हैरानी और अविश्वास से लौटी हूं तो हमने फोन पर ही एक छोटा-सा नोट तैयार कर लिया है। (पल्लवी के वोट ऑफ थैंक्स का ये असर रहा कि शोकसभा के बाद ना सिर्फ अंगदान की प्रक्रिया के बारे में और जानकारी लेने के कई लोगों ने उससे संपर्क किया, बल्कि उनमें से कई ने अंगदान की शपथ लेने की इच्छा भी ज़ाहिर की।)
लखनऊ से नोएडा लौट आई, और उन सारी चीज़ों को टटोल-टटोलकर देखती रही जिन्होंने बांध रखा है। परदों के रंग, सोफे पर बेतरतीबी से डाले हुए कुशन, आले पर सजाकर रखी गईं यादगारियां, शीशे और क्रिस्टल के ग्लास, कुछ फिल्मों के पोस्टर्स, 469 किताबें, 128 सीडीज़, अनगिनत तस्वीरें, चौके के बर्तन, बेड कवर्स, चादरें, दरियां, रजाईयां, साड़ियां, दुपट्टे, लहंगे, जनपथ से लाई गई जंक ज्वेलरी और लिकिंग रोड की चप्पलें... ये गृहस्थी है और इनमें से किसी एक चीज़ को भी ख़ुद से जुदा कर देना लाज़िमी नहीं लगता। हम मोह के ऐसे मकड़जाल में उलझे हैं कि बाहर निकलने का कोई रास्ता ही नहीं। ये क्या है और इसके लिए है? जब इन छोटी-छोटी चीज़ों से मन नहीं भरता तो अपनी ज़िन्दगी से क्या भरेगा? मरना कौन चाहता है, और दूसरी दुनिया के रास्ते को भी दुरुस्त बनाए रखने के लिए कैसे-कैसे जुगत भिड़ाते हैं हम! जो आज किसी के उठ जाने की बारी आ गई तो? तो फिर ये सब किस काम का? इतनी उलझनें क्यों पैदा करते हैं हम अपने लिए? मरने के बाद खाक हो जाने वाले शरीर की सुविधाओं का सामान क्यों जुटाते रहते हैं फिर भी? इसलिए कि हम जोगी, साधु-संन्यासी नहीं। हमारी ज़िम्मेदारियों का निर्वहन इन क्षणभंगुर सुखों की परिणति में माना जाता है।
मुझे मालूम नहीं कि मोहभंग हो जाना किसको कहते हैं। ये भी नहीं मालूम कि मैस्लो के आवश्यकता सिद्धांत के पिरामिड पर पांचवें और अंतिम स्तर की आवश्यकता की सिद्धि कभी हो भी पाती है या नहीं। लेकिन इतना जानती हूं कि प्रेम, सुरक्षा, आत्मसम्मान और आत्मसिद्धि का मूल केन्द्र अहं होता है - ये मेरा है, मेरी दुनिया, मेरी बात, मेरी गुरूर, मेरे ख्वाब, मेरी इच्छाएं, मेरा स्वार्थ - इन सबसे जुड़ा हुआ अहं का बोध। उस अहं को तोड़ने के लिए मेरे आस-पास की चीज़ों से मोह तोड़ना होता होगा शायद। और उस मोह को तोड़ देने का सबसे सुन्दर ज़रिया होता होगा दान - कंबल दान, या 101 रुपए का चढ़ावा नहीं, बल्कि सही मायने में दान।
इतना लिख लेने के बाद मैं इस मुगालते में आ गई हूं कि आत्मबोधनुमा कुछ हुआ है मेरे साथ, और अपने परिवार के लिए मैं एक विश-लिस्ट छोड़ रही हूं जो मैंने पूरे होश-ओ-हवास में, बहुत सोच-समझकर तैयार की है। नॉट दैट आई एम गोईंग टू डाई एनी टाईम सून, लेकिन डोनेशन विशलिस्ट लिख लेने में क्या बुराई है? कॉरपोरेट्स भी तो भरवाते हैं बेनेफिशियरी फॉर्म। तो बस, इसे यही समझ लिया जाए।
1. आंखें, लीवर, लिगामेंट और बाकी जो भी अंग काम में आ सकते हैं, उनका दान कर दिया जाए। इसके लिए किसी भी नज़दीकी सरकारी अस्पताल से संपर्क साधा जा सकता है। बाकी, अंगदान का शपथपत्र, जितनी जल्दी हो सके, मैं भर दूंगी। मेरे शरीर को ना जलाया जाए, ना दफ़न किया जाए बल्कि शव को छात्रों के रिसर्च और एनैटॉमी की बेहतर समझ के लिए मेडिकल कॉलेज को दान कर दिया जाए। इसे वाकई मेरी हार्दिक इच्छा माना जाए।
2. अपने शरीर के बाद अपनी जमा की हुई चीज़ों में सर्वाधिक प्रिय मेरी किताबें हैं। उन्हें किसी गांव या किसी छोटे से शहर के वाचनालय को दान कर दिया जाए।
3. मेरे मरने के वक्त मेरे सेविंग अकाउंट में जितने भी पैसे हों, उसे किसी गांव के स्कूल को दे दिया जाए और मुमकिन हो तो उस फंड से उनके लिए वोकेशनल ट्रेनिंग (ख़ासकर, खेती-किसानी और बागवानी; और कार्पेन्ट्री जैसे हुनर) की व्यवस्था की जाए। मैं इसकी शुरूआत अपने जीते-जी करके जाऊंगी वैसे।
4. लॉकर में सदियों से पड़े मेरे गहनों को मेरी मां और मेरी सासू मां में बांट दिया जाए (वो ना रहे तो परिवार की सबसे बड़ी महिला को दिया जाए)। जो जहां से आया, वहीं लौट जाए क्योंकि मुझे इस बात का शत-प्रतिशत यकीन है कि सोने-चांदी-हीरों के गहनों से मेरे बच्चों या अगली पीढ़ियों को भी कोई सुख नहीं होना है।
5. कांजीवरम, बनारसी, पोचमपल्ली, जामावार, संबलपुरी, इकत, पटौला और कांथा जैसी साड़ियां और पश्मीने की दो शॉल एक-एक करके उन बहनों, बेटियों, भतीजियों और बच्चों में बांट दी जाए जिनकी अगले बीस सालों में शादी होगी। बाकी साड़ियां और कपड़े 'गूंज' को दे दिए जाएं।
6. मेरी सबसे अनमोल अमानत - मेरे कॉन्सेप्ट नोट्स, आधी-अधूरी कहानियां, स्क्रिप्ट्स और स्क्रिनप्लेज़, रिसर्च के फोल्डर और ब्लॉग मेरे भाई की संपत्ति मानी जाए। वो जैसे चाहे, इस दो कौड़ी के कॉन्टेन्ट का इस्तेमाल कर सकता है।
7. सैकड़ों तस्वीरों की थाती दोस्तों को सौंप दी जाए - यादगारियां जहां कीं, उन्हीं को मुबारक।
8. बच्चों को परवरिश और पतिदेव को भरोसा देने के अलावा मेरे पास और कुछ नहीं - ना कोई और चल संपत्ति ना अचल ही।
यदि मेरी विशलिस्ट से प्रेरित होकर आप भी दान का शपथपत्र भरना चाहते हैं तो http://donateyourorgan.com/ और https://www.facebook.com/pages/Mohan-Foundation/239983060819?ref=ts से संपर्क कर सकते हैं।
रही बात मेरी, तो मेरा कुछ भी ना होने की बात मन से मान लेते ही आस-पास सब हल्का हो गया है।
और रह गई बात एक रूह की तो चचा ग़ालिब के हवाले से, "क़यामत है कि होवे मुद्दई का हम-सफ़र ग़ालिब/ वो काफ़िर जो ख़ुदा को भी ना सौंपा जाए है मुझ से।"
12 टिप्पणियां:
मन के भावों और शब्दों के बीच का सहज होता रिश्ता.
pata nahi main kar paaungi yaa nahi
एक, दो, छः और सातवां पॉइंट अपनी सहमति से मैं कर चुका हूँ.
बांकी संपत्ति तो अपने पास है नहीं.
कुछ ऐसी ही एक लिस्ट मैंने भी बना रखी है अनु. बस शव को रिसर्च के लिए देने की हिमत अभी तक नहीं जुटा पाई हूँ..शायद इसलिए कि मुझे यकीन नहीं कि मेरे यह इच्छा मानी जायेगी:(.
तो अभी भी किताबे आपके पास गिनती की ही हैं :-)
दुनिया में दो ही चीजें ज्यादा मान /मायने की हैं -पहली और आख़िरी इच्छा!
जो कुछ करना ही इसी जीवन में कर लिया जाय (अंगदान सहित )
मुनि चार्वाक कह ही गए हैं -भस्माविभूतस्य शरीरस्य पुनरागमनं कुतः ?
अनगिनत बधाई आपके मंशा के लिए . शानदार अनुकरणीय कथन .इश्वर आपको चिरायु रखें .
एक रोज घुघूती जी आपकी तारीफ़ कर रही थीं ! वे ठीक कह रही थीं !
बिलकुल ऐसा होता है अनु जी. आज से पंद्रह साल पहले मैंने केवल नेत्रदान का फॉर्म भरा था, लेकिन पांच साल पहले पूरे शरीर को दान कर दिया है. शपथ-पात्र में बाकायदा लिखा है की मेरी मृत्यु के बाद मेरे शरीर के जो भी अंग किसी को दान करने योग्य हों, ले लिए जाएँ. बाकी बचे हुए खोखले शरीर का अंतिम संस्कार कर दिया जाए :) मेरे पति भी ये फॉर्म भर चुके हैं. मुझे लगता है की सबको ऐसा करना चाहिए. पता नहीं किस की ज़िन्दगी बचा लें हम... जो जीते जी तो बिलकुल नहीं कर पा रहे :(
पता नहीं क्यों ,पर इस मोह के बंधन से कभी भी बच नहीं पाते हैं .....शायद मृत्योपरांत इस इच्छा का मान न रखा जाए इस डर से ........
मैं तो अपनी आँख, नाक, कान अर्थात पूरा शरीर, जो भी बचेगा...कब के मेडिकल कॉलेज के छात्रों के नाम कर चुकी हूँ...और लगता है, मरने के तुरंत बाद ही वो ले भी जायेंगे...:)
अच्छा है क्रीमेशन का भी खर्चा बच जाएगा, कौन झंझट पाले १३वी का भी :)
जीवन की उपयोगिता और शरीर की नश्वरता, सब कुछ स्पष्ट करती पोस्ट।
जो शरीर जलकर खाक होनेवाला है
उसका यदि कुछ उपयोग हो सकता है
तो इससे अच्छी और कोई बात हो ही
नही सकती.आपने बहुत ही सुंदर तरीके
से यह सब समझाया है.धन्यवाद.
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