बुधवार, 11 जुलाई 2012

तुझे सब है पता... है ना, आद्या...

मैं बिखरी हुई थी, उलझी हुई और ऐसे परेशान कि ख़ुद को समेटना मुश्किल।

जैसे ही लगने लगता है कि ज़िन्दगी एक ढर्रै पर आने लगी है, ईश्वर इम्तिहानों के नए तरीके ऊपर से फेंक देता है हम इंसानों के लिए, ताकि हम अपनी औक़ात में रहें और ना भूलें कि ख़ुशी का हर लम्हा, सुकून का हर पल बेशक़ीमती है। वो शुक्रगुज़ारी के तरीके ईजाद करवाता रहता है हमसे।

और शुक्रगुज़ारी के कई सहज और स्वाभाविक रास्ते दिखाते हैं हमारे बच्चे।

हम हमेशा अपने बच्चों को नासमझ समझने की नासमझियां किया करते हैं। उनकी मासूमियत को बच्चों की कमअक्ली मानते हैं और अपने अनुभवी होने का वो दंभ जीते हैं जो ताउम्र बच्चों के सामने हांका जाता है।

मैं भी नासमझ हूं इस लिहाज़ से। जो बातें बच्चों को बताना नहीं चाहती, लेकिन उनके सामने बोले बिना रह नहीं सकती, वो बात अंग्रेज़ी में कहती हूं - आज से नहीं, जब से वो पैदा हुए थे, तब से।

मियां जी से बहस करनी हो तो अंग्रेज़ी में। भाई से फ़ोन पर लड़ना हो तो अंग्रेज़ी में। बैंक के कस्टमर केयर एक्ज़ेक्युटिव पर सही वक्त पर कार्ड और पिन ना भेजने की कोफ़्त निकालनी हो तो अंग्रेज़ी में। अपनी किसी दोस्त के सामने इस नामुराद ज़िन्दगी जीने का रोना रोना हो तो अंग्रेज़ी में।

ये और बात है कि उन्हें अंग्रेज़ी भी ठीक-ठाक समझ आने लगी है अब तो। सोचती हूं, अपनी भड़ास निकालने के लिए फ्रेंच सीख लूं, या फिर चाइनीज़ ही, लेकिन बड़ी आसानी से ये भूल जाती हूं कि बच्चे भाषा के मोहताज नहीं होते। उन्हें आपकी आवाज़ के उतार-चढ़ाव और चेहरे के भाव पढ़ने का पैदाइशी हुनर आता है। 


तो दरअसल हम हैं डिनायल मोड में, जो बच्चों की नादानियों में अपने एडल्टहुड की बदगुमानियां जीते हैं। परिस्थितियों को पहचाने और उनके मुताबिक पेश आने की कला सीखनी हो तो चौबीस घंटे के लिए पांच साल के बच्चों की तरह बन जाइए। ज़िन्दगी के वो क़ीमती नुस्खे मिलेंगे जिसे कोई मनोवैज्ञानिक, कोई ज्ञानी, कोई कवि-लेखक-कलाकार और दुनिया का सर्वश्रेष्ठ गुरु सीखा नहीं सकता। 

अभी सोमवार की ही बात है। बच्चे स्कूल से आकर अपने कमरे में काग़ज़ के फूलों में रंग भर रहे थे। वॉटर पेंट, क्रेयॉन्स, पेंसिल, इरेज़र और बिखरी हुई कलरिंग की किताबों के बीच इतनी भी जगह ना थी कि मैं उनके पहलू में बैठ सकूं। थोड़ी देर तक खड़े होकर उनकी खिलखिलाहटों में अपनी आहटें घोलने के बाद मैं वापस अपने कमरे में चली आई।

मैं टूट जाने के कगार पर थी और घर से भाग जाना चाहती थी। ये मुझसे नहीं होगा... किस काम के रिश्ते, और उनको ढोना जो अपनी ही कई कुर्बानियां मांगता हो... हम किस गफ़लत में जिए जाते हैं... किस उम्मीद में कि मृत्युशैया पर होंगे और ज़िन्दगी का लेखा-जोखा कर रहे होंगे तब कोई पछतावा नहीं होगा, इसलिए जिए जाएं इस तरह कि जैसे सब जीते हैं अपनी-अपनी परेशानियां और दुखों के साथ? हौसले का बिखर जाना सबसे बड़ा सदमा होता है, और जाने क्यों उस शाम ऐसा ही लग रहा था कि अब हौसला नहीं है और जूझने का।

ईश्वर के लिए ये सही वक्त था कि मुझे शुक्रगुज़ारी का एक और तरीका सिखाता। और वो भी उस बिटिया के ज़रिए, जो सब जानती-समझती है; जिसकी आंखें ताड़ जाती हैं हर भाव और जिसे अपने तरीके से जीना भी आता है, ज़िन्दगी के पाठ सिखाना भी आता है... बिटिया, जो मेरी सबसे बड़ी टीचर है।

एक सफ़ेद लिफ़ाफ़ा लेकर आई थी वो, जिस पर हरे रंग के स्केच पेन से मेरा नाम अंग्रेज़ी में लिखा था - कैपिटल लेटर्स में - ए, एन, यू। "पापा ने भेजा है," उसने कहा तो मुझे थोड़ी हैरानी हुई। ड्राईंग रूम में टीवी देख रहे आद्या के पापा मुझे लिफ़ाफ़ा क्यों भेजेंगे? जो कहना होगा, आवाज़ देकर बुलाएंगे जहां होंगे, और फिर कहेंगे। लेकिन आद्या किसी और वजह से क़ासिद बनी हुई थी इस लम्हे, और लिफ़ाफ़े से निकला ख़त जब खुला तब जाकर मजमून समझ में आया।

"आई लव यू अनु", ये लिखा था ख़त में, और वो भी आद्या की हैंडराइटिंग में। 


सुना था कि बच्चे मां-बाप के बीच पुल बन जाने का काम करते हैं। उस पल पहली बार महसूस भी कर लिया था।


उस काग़ज़ के टुकड़े पर उतर आई कुछ गर्म बूंदों ने बड़ी राहत पहुंचाई थी। हौसला लौट आया है, और यकीन भी।

मैं कब बिखरती हूं, क्यों बिखरती हूं, कब बनती हूं और कब बिगड़ती हूं, तुम्हें सब है पता, है ना आद्या?


21 टिप्‍पणियां:

KC ने कहा…

उसे सब है पता

आद्य के चहरे पर चश्मा भी माँ का ही...

KC ने कहा…

आद्या पढ़िए

sonal ने कहा…

रिश्तो नाज़ुक डोर को जोड़ने के लिए ही शायद ऊपर वाले ने ये नन्हे फ़रिश्ते भेजे है हर घर में ......

yashoda Agrawal ने कहा…

शनिवार 14/07/2012 को आपकी यह पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जाएगी. आपके सुझावों का स्वागत है . धन्यवाद!

shikha varshney ने कहा…

बेटियाँ सब समझती हैं :)

Arvind Mishra ने कहा…

प्यारी बिटिया न्यारी बिटिया ०बिल्कुल आप पर गयी है!

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

बहुत बार आश्चर्य होता है कि बच्चे आपको कितना अच्छे से जानते हैं।

Pallavi saxena ने कहा…

बच्चे सब समझते हैं फिर चाहे बेटा हो या बेटी... हाँ यह बात अलग है की बेटियाँ थोड़ा ज्यादा संवेदनशील होती हैं। :)

Abhishek Ojha ने कहा…

... no comments :)

अनूप शुक्ल ने कहा…

बहुत सुन्दर!

Rahul Singh ने कहा…

बच्‍चों को बच्‍चा और समझदार भी, एक साथ मानना जरूरी होता है.

Nidhi ने कहा…

बहुत अच्छा और सच्चा लिखा है,अनु.....हमेशा कि तरह दिल को छू गया

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

बच्चे कभी कभी बहुत बड़ी सीख दे जाते हैं .... आद्या को सब पता है ॥

Archana Chaoji ने कहा…

बच्चों के साथ बच्चा होकर बहुत सारी समस्याएं हल हो जाती है...उसे भी केअर करना आता है-बड़ों की....

मन के - मनके ने कहा…

बच्चे भाशःआ के मोहताज नहीं होते----मैं कब बिखरती हूं---तुम्हें सब है पता आद्या.
सुंदर,बाल-मनोवैग्यानिक चित्रण.

Saras ने कहा…

बेटियां इसीलिए तो ख़ास होती हैं ...!!!!!!

स्वाति ने कहा…

nih shabd....

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') ने कहा…

दिल से लिखी दिल तक जाती....
सुन्दर लेखन...
सादर.

अनामिका की सदायें ...... ने कहा…

n jane ham apne dimag se ye galatfahmi kab nikalenge ki hamare bacche ham se kam akalmand hain.

samvedansheel prasang.

स्वप्निल तिवारी ने कहा…

der se aaya hun.isliye kaan aage hain.. aap kheench sakti hain.. :) behad pyaari post hai.. aise qasid kahaan sabke naseeb me..

swapnil

ghughutibasuti ने कहा…

बेटियाँ आँसू पोछने का हुनर बढ़िया जानती हैं।
घुघूती बासूती