स्त्री बोली, "आपका स्वागत है महोदय, किन्तु मैं सही मार्ग पर हूं। मुझे रास्ता बदलने की कोई आवश्यकता नहीं।"
ज्ञानी ने कहा, "मूर्ख औरत! तू जिस रास्ते पर है वो इच्छा-विलास का रास्ता है। तुझे भोगेच्छा के सिवाय कुछ नहीं सूझता। ये ही लिप्साएं तेरे अंतःसंघर्ष का कारण हैं। मैं तुझे इन सबसे मुक्ति दिलाने आया हूं।"
स्त्री ने जिरह की, "यही शाश्वत द्वंद्व इस संसार का शाश्वत सत्य है महोदय। इन्हीं अंतःसंघर्षों के कारण ही तो सभ्यताएं बनती हैं, मिटती हैं। इन्हीं अंतःसंघर्षों से तो मनुष्य अपनी परिस्थितियों को बेहतर, और बेहतर बनाता है। यहीं अंतःसंघर्ष उसे संघर्षशील बनाते हैं।"
ज्ञानी स्त्री के दुर्भाग्य को बदल देने को आतुर था। कहा, "इन संघर्षों से परे उठ औरत। ईश्वर की शरण में जा। ये कष्ट-साधना किसके लिए है? इस तुच्छ शरीर की तुच्छतर आवश्यकताओं के लिए?"
स्त्री ने बड़ी-बड़ी हिरण-सी आंखों से अडिग हिमालय-से लगने वाले ज्ञानी की ओर देखा। अपने अंतर से उमड़ते ज्ञान से दीप्त ज्ञानी के चेहरे के तेज से घबराकर स्त्री ने नज़रें नीची कर लीं। फिर संयत होकर पलकें उठाईं कि कांपते होठों पर उतरनेवाले शब्दों ने घबराकर साथ छोड़ दिया तो पनियल विकल आंखें कह देंगी मन की बात।
ज्ञानी को आंखों की भाषा नहीं समझ में आती थी। वह तो तर्कशील था, शास्त्रार्थ में हार-जीत के बल पर निर्णय लेता था। उसका जीवन अलक्षित मार्गों से परे था, उन रास्तों पर मिलनेवाली अनायास ठोकरों से भी ऊपर था। उसकी यात्रा का लक्ष्य एक ही था - मोक्ष के फलस्वरूप ईश्वर की प्राप्ति। उसके कर्म भी नपे-तुले, सोचे-समझे होते - हर गलती के बदले एक परोपरकार; हर दुराचार के बदले एक गंगा-स्नान। ज्ञानी के बही-खाते में हर कर्म का लेखा-जोखा होता। मोक्ष के रास्ते में कहीं कोई अड़चन क्यों आती भला?
"मुझे देख। मैं संसार से परे हूं। संतुष्ट हूं, सुखी हूं। चिंताएं मेरी नींद नहीं डसतीं। मैं निर्भय, निडर हूं क्योंकि मेरे साथ ईश्वर है।"
"मुझे देखिए। मैं संसार में घुली-मिली हूं। असंतुष्ट हूं, दुखी हूं। चिंताएं सताती हैं, इसलिए समाधान ढूंढती हूं। यूं भी सोकर किसे जीवनयापन करना है। डरती हूं, आशंकित रहती हूं, इसलिए ईश्वर में यकीन करती हूं।"
"किन्तु ईश्वर तो तुम्हें भय से मुक्त करता है।"
"मेरा ईश्वर मेरी तरह ही डरपोक है। उसे मेरी बददुओं का डर है।"
"स्त्री, तुम सांसारिक ईश्वर की बात कर रही हो। मैं तो परम परमात्मा की..."
"आपने देखा है परम परमात्मा को? कोई साक्षात्कार हुआ है कभी?"
"वही तो कहना चाहता हूं कि मन में बसता है वह। मन में झांको और देखो..."
"देखो कि क्या भला है और क्या बुरा। देखो कि मन में बैठा ईश्वर क्या कहता है, किस रास्ते ले जाता है। मेरे मन में बैठा मेरा ईश्वर मेरी तरह ही मनमौजी है। मेरे मनमोहन ईश्वर को इस संसार से प्रेम है, और पेड़-नदियां-फूल-बादल-धूप-छांव में बसता है वह। मेरा ईश्वर मुझे संसार से प्रेम करने को कहता है। कहता है कि जो इस जन्म में ना मिला, अगले में मिलेगा कि जीवन जैसी नेमत बार-बार मिलनी चाहिए। मेरा ईश्वर मुझे मोक्ष के नहीं, प्रेम के रास्ते पर ले जाता है। मेरा अहित करते हुए भी मेरे चरित्र के उस पक्ष को विकसित करता है जिससे मुझमें प्रेम और आस्था बढ़े। मेरे चरित्र का यह पक्ष ज्ञान के मौखिक उपदेशों से नहीं संवरता, जीवन के थपेड़ों से संवरता है। मेरा जो भाग्य विधाता रच रहा है उसी में मेरा मोक्ष है।"
"यह तुम्हारा एकांगी दृष्टिकोण है मूर्ख औरत। तुम्हारी यही सोच तुम्हारे दुखों का कारण है। तुम्हारे जीवन की उपयोगिता सांसारिक बंधनों से मुक्त होने में है; त्याज्य इच्छाओं और भोग-विलास की वस्तुओं से; क्षणभंगुर और मिथ्या संबंधों से अलग होने में है। जीवन को उदात्त और व्यापक बनाने में है। छोटे-छोटे क्षणों में बंधकर रह जाने में नहीं है। संसार से बंधने में नहीं है।"
"मेरे जीवन की उपयोगिता मुझे सौंपे गए काम करते रहने में है। जो मिला, उसके माध्यम से ईश्वर से प्रेम करते रहने में है। ईश्वर की बनाई हुई दुनिया जो भाषा समझती है, ईश्वर भी वही भाषा समझता होगा शायद। मेरे जीवन की व्यापकता मेरी सिमटी हुई दुनिया और सोच-समझ में ही है। मेरी अज्ञानता मेरी सबसे बड़ी ढाल है और मेरे क्षणिक सुख का इकलौता साधन है। मुझे इसी संसार के प्रेम में पड़े रहने दीजिए प्रभु!"
"प्रेम भी तो शास्त्रीय है, ज्ञान के चक्षु खोलता है।"
"मेरा प्रेम अंधा बना रहना चाहता है। वह शास्त्रीय नहीं; सहज, सुगम और सुलभ है।"
"तू बावरी है।"
"बावरी ही बनी रहना चाहती हूं। पिया बावरी।"
12 टिप्पणियां:
खूबसूरत प्रश्नोत्तरी।
जीत आखिर दीवानी की हे हुई न....
होनी ही थी.....
सुन्दर विवाद...
अनु
सुन्दर......
.........::))))))))))))
जाओ रे जोगी तुम जाओ रे
ये है प्रेमियों कि नगरी...
यहाँ प्रेम ही है पूजा....!!
बस पिया बावरी....
(गाना भी सुन्दर )
बहुत ही सुन्दर जीवन से जुडी बातें खुबसूरत ...
पिया बावरी, हुई बावरी के माद्यम से आपने एक सुन्दर आध्यात्मिक अंतरद्वन्द को सामने रखकर
बरगलाने की स्थिति का सजीव चित्रण किया है . धाराप्रवाह भाव सम्प्रेषण के लिए कोई बधाई नहीं . चिरायु हों ..
राह मेरी हो, मै राही हूँ,
राह मिले तो, खुश हो लेंगे।
शास्त्रार्थ लालित्य -और वह ज्ञानी चिर प्रवंचित सा रह गया श्वाश्वत और चिरन्तन .......तभी तो नारी को वह सहज जड़ मानता आया है :-)
माया महाठगिनी हम जानी...
बावरी रहने में ही भला है, ज्ञानी बनके तो दर-दर की ठोकरें खानी पड़ती है।
ज्ञानी से कहना आपकी बात सही हो सकती है पर
वह क्या करे जिसने सहजता से जीवन जिया है प्यार अँधा ही सही पर उसके गहनतम क्षणों में डूब कर सार्थकता पाई
है और उद्घोषित महानताओ से से अभिभूत और आतंकित नहीं होना चाहता वरन आग्रह करता है की वह i उसी सहजता की कसौटी पर समस्त को कसेगा
ये तो बांच चुके हैं। सुन्दर!
बावरी ही भली !
बावरी ही भली...तभी तो नारी को माया कहा है...ठगिनी कहा गया है...संसार कहा है....बंधन कहा है....
पिया बावरी.....बस पिया..कबिरा वाला होजाय तो सब ठीक होजाय ..सन्यासी भी खुश ..
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