सोमवार, 1 मार्च 2010

कहां गई वो होली, कहां गया वो फाग

रंगों में घुलता था प्यार,
आंगन होता था गुलज़ार,
पकवानों की खुशबू थी,
चलती थी मदमस्त बयार।
आमों के मंजर पर भौंरे
गाते थे जब मीठा राग।
कहां गई वो अपनी होली
कहां सुनें हम वैसा फाग।

गदराए महुए को देख
बौराता था पवन बहार।
मटर के मीठे फलियों में
घुलता था अमृत-सा स्वाद।
सरसों के पीले थे फूल,
हरियाले खेतों का साग।
कहां गई वो अपनी होली
कहां सुनें हम वैसा फाग।


जब झड़ते थे पीले पत्ते.
दिन बढ़ता, बढ़ती थी प्यास
सूखे मौसम में खिलता था
गुलमोहर और अमलतास।
लीची, चीकू, अमरूदों से
सजते थे फिर अपने बाग।
कहां गई वो अपनी होली
कहां सुने हम वैसा फाग।

पूरा मोहल्ला घर था अपना
सबसे रिश्तों के थे नाम।
घर से आंगन, फिर दुआर पर
इतना-सा था अपना काम।
छत पर ढूंढे ध्रुवतारा फिर
जब हम रातों को जाग।
कहां गई वो अपनी होली
कहां सुनें हम वैसा फाग।

1 टिप्पणी:

अनूप शुक्ल ने कहा…

सुन्दर कविता है। अच्छा लगा इसे बांचकर!