बुधवार, 17 मार्च 2010

हमें आरक्षण मत दो, मर्दवादी व्यवस्था की क़ैद से मुक्त करो

पिछले दिनों महिला आरक्षण बिल के राज्यसभा में पास हो जाने की खबर ने सबसे ज़्यादा सुर्खियां बटोरीं। इन दिनों समाज में जेन्डर इक्वेलिटी पर नई बहस छिड़ी है। लेकिन इस राजनीतिक बहस के बीच मेरा ध्यान दो छोटी-छोटी खबरों ने ज्यादा आकर्षित किया। 13 मार्च (शनिवार) को पहले पन्ने की खबर बनी, थल और वायुसेना में महिलाओं को स्थायी कमीशन मिलना। दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश के मुताबिक ना सिर्फ महिलाएं पांच सालों के बाद अपने पुरुष सहयोगियों की तरह स्थायी कमीशन की हकदार होंगी, बल्कि उन्हें पेंशन जैसी सुविधाएं भी मिल सकेंगी। सेना में पेंशन और बाकी सुविधाओं के लिए 20 साल की नौकरी जरूरी होती है। मौजूदा नियमों के तहत महिलाओं को सिर्फ 14 सालों के लिए सेना में रखा जाता था।

दूसरी छोटी-सी खबर मैंने टाइम्स ऑफ इंडिया के एक सप्लीमेंट पन्ने पर आज देखी। एशिया के 77 इंजीनियरिंग कॉलेजों के छात्रों के बीच कार-रेसिंग के लिए सिंगल सीटर कार का प्रोटोटाईप तैयार करने के लिए एक प्रतियोगिता का आयोजन किया गया। आमतौर पर ऑटोमोबिल इंजीनियरिंग या इस क्षेत्र से जुड़ी तमाम तकनीकियों में लड़कों को ही माहिर समझा जाता है। लेकिन इतनी बड़ी (और दिलचस्प) प्रतियोगिता लड़कियों की एक टीम ने जीती। इस प्रतियोगिता में भारत ही नहीं, एशिया के तमाम बड़े इंजीनियरिंग कॉलेजों (आईआईटी समेत) के छात्रों ने हिस्सा लिया था। यहां तक कि कार की डिज़ाईन तैयार करने के बाद उसे टेस्ट ड्राईव पर ले जाने के लिए भी एक लड़की ही निकली थी।

आखिर इन दो खबरों की यहां चर्चा का क्या औचित्य है? ये दोनों खबरें समाज के उस तबके की है जो जेन्डर को लेकर बिना किसी बहस में पड़े चुपचाप अपना रास्ता तलाशने में यकीन करता है। 33 फीसदी आरक्षण से जिसका कोई लेना-देना नहीं।

एक और रिपोर्ट मैंने अखबारों में ही पढ़ी। अमेरिका के वर्कफोर्स का 52 फीसदी हिस्सा अगर महिलाएं हैं तो स्पेन में 48 फीसदी, कनाडा में 46 फीसदी और फिनलैंड में 44 फीसदी महिलाएं कामकाजी लोगों में शुमार हैं। भारत में सिर्फ 23 फीसदी महिलाएं ही काम पर जाती हैं। मुझे इन आंकड़ों को देखकर कोई हैरानी नहीं हुई। हम ऐसे समाज का हिस्सा हैं जहां बचपन से ही लड़कियों को मां, बहू या बेटी के तौर पर उनकी ज़िम्मेदारियों का अहसास कराया जाता है। जहां बताया जाता है कि पहले परिवार का दारोमदार तुमपर है, फिर कुछ और। चाहे करियर को लेकर आपने कितनी भी संजीदगी से मेहनत क्यों ना की हो। ये सब जानते-समझते हुए भी, ऐसे हालात से लड़ते हुए भी दो पुरुषप्रधान क्षेत्रों में महिलाओं ने अपनी छोटी-सी जीत बिना किसी आरक्षण के ही तो दर्ज की है।

मैं लालू-मुलायम जैसे नेताओं की तरह महिला आरक्षण विधेयक का विरोध नहीं कर रही। सिर्फ इतना कह रही हूं कि मुट्ठीभर ताकतवर महिलाओं के साथ-साथ बाकी की साठ करोड़ महिलाओं का भी तो सोचिए। ये भी तो सोचिए कि संगठित और असंगठित, दोनों क्षेत्रों में कैसे महिलाओं को प्रोत्साहन दिया जाए कि अपनी तमाम ज़िम्मेदारियों को निभाते हुए भी आत्मनिर्भर और सक्षम बन सकें।

यहां आरक्षण किसे चाहिए? हमें काम के लिए लचीले समय-सारणी की व्यवस्था चाहिए। कुछ ऐसी नीति चाहिए जो मां बनने के बाद काम छोड़नेवाली महिलाओं के वापस अपने काम पर लौटने को आसान बना सके। हमें संगठित ही नहीं, असंगठित क्षेत्रों में काम करनेवाली महिलाओं के बच्चों की देखभाल के लिए अच्छे क्रेश की व्यवस्था चाहिए, चाहे वो आंगनबाड़ी के स्तर पर हो या कॉरपोरेट के स्तर पर। महिला सशक्तिकरण के लिए बहस या भाषणबाज़ी से ज़्यादा कारगर ऐसे छोटे-छोटे सामाजिक बदलाव होंगे। फिर महिलाएं सेना में भी अपना परचम लहराएंगी, संसद में भी। वो भी बिना आरक्षण के।

(ये लेख http://www.jantantra.com/ पर भी पढ़ा जा सकता है।)

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