गुरुवार, 25 मार्च 2010

पहाड़ों पर भी लोग रहते हैं

डोरियो पहुंचना आसान नहीं। इस गांव तक पहुंचने के लिए जसीडीह आना होता है, जो यहां का सबसे करीबी रेलवे स्टेशन है। जसीडीह से गोड्डा की दूरी 80 किलोमीटरहै और डोरियो गोड्डा से भी तकरीबन 60 किलोमीटर दूर है। डोरियो झारखंड की राजमहल पहाड़ियों पर बसा हुआ एक छोटा सा गांव है, जहां से सबसे नज़दीक की पक्की सड़क भी 20 किलोमीटर दूर है।

पहाड़िया नाम की आदिम जनजाति (प्रीमिटिव ट्राइबल ग्रुप) पर एक फिलम बनाने के सिलसिले में मेरा डोरियो जाना हुआ। बिहार-झारखंड में पली-बढ़ी, लेकिन अपने ही राज्य के इस चेहरे से मैं पूरी तरह अनभिज्ञ थी। गांव तक पहुंचने के लिए हमने ९ किलोमीटर का पहाड़ी रास्ता पैदल तय किया। रास्ते में छोटे-छोटे पहाड़ी कस्बे हैं और उन कस्बों की टूटी-फूटी झोंपड़ियां वहां की हक़ीकत बयां करती है। इन गांवों और पहाड़ी बस्तियों तक आधुनिक जीवन की कोई मूलभूत सुविधा नहींपहुंची। अपनी धुन में तेज़ी से भागती हुई दुनिया ने राजमहल के पहाड़ों पर बसे इन पहाड़िया आदिवासियों को अपने विकास की राह में शामिल करना ज़रूरी नहीं समझा। इसलिए यहां ना सड़क पहुंची है ना स्कूल और अस्पताल ही।
झारखंड के संथाल परगना के ज़िलों – गोड्डा, दुमका, पाकुड़, साहिबगंज, देवघर और जामताड़ा में पहाड़िया आदिवासियों की आबादी बसती है। जैसा कि नाम से ज़ाहिरहै, पहाड़िया पहाड़ों पर बसते हैं। झारखंड में करीब दो लाख आदिम जातियों के आदिवासी हैं जिनमें असुर, बिरहोर, बिरजिया, कोरवा, पहाड़िया, साबर और पहाड़ी खड़िया प्रमुख हैं। इन आदिम जातियों में से साठ फ़ीसदी पहाड़िया हैं।

जीने के लिए ये पूरी तरह पहाड़ों और जंगलों पर निर्भर हैं। पानी का इंतज़ाम करने के लिए इन्हें मीलों पथरीले रास्ते पर चलकर झरने तक जाना होता है और तब घर मेंपानी का एक घड़ा आता है। यहां ना बिजली पहुंची है ना टेलीफोन के तार। कई परिवारों के सिर पर तो एक अदद सी छत भी नहीं। बाहर की दुनिया से संपर्क बने रहने केनाम पर कुछ टूटी-फूटी, टेढ़ी-मेढ़ी सड़कें हैं। आज जब पहाड़ छोटे होते जा रहे हैं और जंगल खाली, तो पहाड़िया आबादी और सिमटती जा रही है। सदियों का संघर्ष है किआमतौर पर अमनपसंद पहाड़िया मैदान पर रहनेवाले समुदायों पर जल्दी भरोसा नहीं करते। सालों की गरीबी, अशिक्षा, कर्ज़ और बीमारियों ने इन्हें और कमज़ोर बना दिया है।

अस्सी के दशक में हुए एक अध्ययन के मुताबिक किसी पहाड़िया गांव से पक्की सड़क की औसतन दूरी 11.7 किलोमीटर, सबसे नज़दीकी अस्पताल की दूरी 8.2 किलोमीटर, स्कूल की दूरी 6.9 किलोमीटर और किसी छोटे से बाज़ार की दूरी 2.3 किलोमीटर है। लेकिन इन पहाड़ों में बसे गांवों की एक झलक ही ये साबित करने केलिए काफी है कि तीस साल बाद भी हालात बहुत नहीं बदले। अनुमान है कि एक पहाड़िया परिवार की वार्षिक आय औसतन 5,000 से 6,000 रुपये के बीच होती हैजबकि राष्ट्रीय स्तर पर प्रति व्यक्ति वार्षिक आय 20,734 रुपये और झारखंड में प्रति व्यक्ति वार्षिक आय 14,990 रुपये है।
पहाड़ों पर आजीविका के लिए शायद ही कोई ज़रिया यहां बसनेवालों के लिए उपलब्ध है। पहाड़िया आज भी झूम खेती पर निर्भर हैं। पहाड़ों और पहाड़ों की ढ़लानों परजंगल काटकर पहाडिया लोग लोबिया, मक्का, बाजरा और सरसों जैसी कुछ फसलें उगाते हैं। जिनके पास खेत नहीं, वे पत्ते चुनकर या लकड़ियां बेचकर अपना गुज़ाराकरते हैं। आजीविका का कोई और साधन इन गांवों में मौजूद नहीं है।

लेकिन गांवों में किसी भी पहाड़िया के घर पर चले जाइए, आपका हंसकर ही स्वागत होगा। पहाड़ों से बाहर की दुनिया से इन्हें कोई शिकायत नहीं। ये मलाल नहीं कि शहरों में जहां हर-रोज़ तरक्की के नए सोपान चढ़े जा रहे हैं, वहां उन्हें साथ लेना किसी ने ज़रूरी नहीं समझा। इसलिए भी, कि ये पहाड़िया वोट-बैंक नहीं हैं। इनके पास मतदाता पहचान-पत्र नहीं, अंत्योदय कार्ड, बीपीएल कार्ड आदि का नाम इन्होंने अब सुनना शुरू किया है। इसलिए नहीं कि सरकार इनतक पहुंचने की कोशिश कर रही है। इसलिए क्योंकि कुछ गुमनाम स्वयंसेवी संस्थाएं और लोग बिना शोर-शराबा किए इनके गांवों तक पहुंचकर इनकी ज़िन्दगी को बेहतर बनाने की दिशा में प्रयासरत हैं।

मैं फिल्म की शूटिंग के दौरान एक परिवार से बातचीत के लिए उनके आंगन में जाकर खड़ी हुई। घर का मुखिया गाय चराने गया था। मां तीन बच्चों के साथ आनेवाले चौथे बच्चे को कोख में लिए घर की छप्पर ठीक करने में लगी थी। घर का आंगन खुलेआम परिवार की माली हालत की सच्चाई सुना रहा था। लेकिन उस पहाड़िया महिला के चेहरे पर परेशानी का कोई भाव नहीं था। घर के भीतर जाकर वो हमारे लिए पानी और मिट्टी के एक कुल्हड़ में मक्के के उबले हुए दाने ले आई। अगले वक्त के भोजन के नाम पर उस परिवार के पास वही मुट्ठी भर दाने थे, लेकिन घर आए मेहमानों के सामने उसे भी परोसने से पहले उस महिला ने दो बार भी नहीं सोचा। इतनी दरियादिली, ऐसी मेहमाननवाज़ी मैंने अपनी पूरी ज़िन्दगी में नहीं देखी।

इस परिवार के बच्चे स्कूल नहीं जाते। मलेरिया दो बच्चों की जान ले चुका है। शहर इतनी दूर है कि किसी का मजदूरी के लिए जाना भी मुमकिन नहीं। किसी तरह लोबिया, मकई और कुछ सब्ज़ियों की खेती कर परिवार का पेट भरते हैं। पीने का पानी दो किलोमीटर दूर एक पहाड़ी झरने से आता है। कोई बीमार पड़ा तो ओझा ही इकलौता सहारा है। वरना तो सबसे नज़दीक का प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र (पीएचसी) भी आठ-दस किलोमीटर दूर है। सुंदर पहाड़ी के तीनों प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र चिकित्सा केन्द्र कम, तबेले ज्यादा लगते हैं। फिर उतनी दूर जाए कौन, और तब जब दवा या डॉक्टर की गारंटी ही ना हो? बारिश में इस इलाके का क्या हाल होता होगा, सोचकर दिल बैठ जाता है।

जिस राज्य में सरकारी खज़ाने के हज़ारों करोड़ रुपये घोटालों के नाम पर स्वाहा हो जाते हैं, वहां मुख्यधारा से अलग-थलग पड़े इन आदिवासियों को कौन पूछे? और ये हाल गोड्डा औऱ दुमका ज़िले का है, जो राज्य के मुख्यमंत्री शिबू सोरेन की कर्मभूमि रही है। 1989 से अब तक दुमका के लोगों ने शिबू सोरेन को पांच बार संसद तक पहुंचाया हैं। लेकिन ये दोनों ज़िले राज्य के सबसे पिछड़े इलाकों में से हैं।

सुंदर पहाड़ी के पहाड़िया आदिवासियों से पूछिए तो उनकी बेचारगी साफ ज़ाहिर होती है। थोड़ी-बहुत उम्मीद की जो किरणें दिखाई देती हैं, वे भी दो-चार एनजीओ के दम पर है। जो आबादी भोजन, पानी, आजीविका, चिकित्सा, शिक्षा, सड़क और स्वच्छता (सैनिटेशन) जैसी मूलभूत ज़रूरतों के लिए जूझ रही हो, उसे जनतंत्र, अधिकारों और कर्तव्यों का क्या पाठ पढ़ाया जाए? हाशिए पर जी रहे ऐसे कई समुदायों के लिए मुख्यधारा से जोड़ने के लिए सालों के अथक परिश्रम की ज़रूरत पड़ेगी। लेकिन जनतंत्र की इस दबी-कुचली आवाज़ को ऊपर तक पहुंचाएगा कौन? और अगर आवाज़ पहुंचा भी दी जाए तो क्या ऊपर बैठे लोग इतने संवेदनशील हैं कि इन आदिवासियों का दर्द समझ सकें?

(ये लेख www.janatantra.com पर भी पढ़ा जा सकता है)

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