रविवार, 29 मार्च 2015

करो बस इतना कि करम धुल जाए

(मॉर्निंग पेज ३७) 

लोग शायद सुबह-सुबह उठकर अपने अपने ईश को पुकारते होंगे।

लोग शायद सुबह-सुबह उठकर योग, ध्यान, कसरत, सैर करते होंगे।

ये भी मुमकिन है कि लोग सुबह-सुबह उठकर फोन देखते हों, फेसबुक खोलते हों या फिर मेल पढ़ते हैं।

मैं सुबह उठते ही सबसे पहली बात ये सोचती हूं कि सुजाता नहीं आई अब तक, और अगर उसने आज छुट्टी ले ली तो मेरा क्या होगा!

सुजाता मेरे घर में कई सालों से काम करती है। बहुत कम बोलती है, और जितना हो सके, उतनी ख़ामोशी से काम निपटाकर चली जाती है। एक घंटे में मेरी वो दुनिया संभाल जाती है वो जिसको वापस बिखेरने में मेरे बच्चों को एक मिनट भी नहीं लगता। घर के कामों में मेरा बिल्कुल मन नहीं लगता। खाना बनाना दुनिया की सबसे बड़ी सज़ा - बल्कि सबसे अनप्रोडक्टिव काम लगता है। अगर सफाई करने की मजबूरी आ जाए तो ये सोचकर कुढ़ती रहती हूँ कि इतनी देर में कोई और काम किया होता। बच्चों के साथ वक्त बिताती। कहीं घूम आती। कोई किताब पढ़ लेती। कोई और काम ही कर लेती। और कुछ नहीं तो सो ही जाती।

घर के कामों के पीछे मेरी घोर घृणा का कारण इतिहास के पन्नों में छुपा है। मेरी मां घर में रहती थी और सुबह चार बजे से घर के काम में लग जाती थी। उन्हें तवे और कढ़ाही की किनारियों पर चिपकी कालिख से ऐसी ही नफरत थी जितनी मुझे उस कालिख को साफ करने की मजबूरी से है। मैंने मां को जितना रसोई में उलझते हुए देखा, उतनी ही रसोई से दूर होती गई। संयुक्त परिवार के इतने काम होते थे कि मां हमेशा थकी हुई रहती थी।

मैं उस थकन से बचना चाहती थी। मैं उन कामों से भी बचना चाहती थी जिनका कोई पारिश्रमिक नहीं मिलता, कोई क्रेडिट भी नहीं मिलता। ये और बात है कि बाद में ऐसे काम करती रही, करती रही, करती रही...

 इसलिए क्योंकि कर्म से बचकर कोई कहां जाएगा? जिस घर में आप रह रहे हों उसे यूं ही नहीं छोड़ा जा सकता। जिन बच्चों को आप इस दुनिया में लेकर आए, और उनकी परवरिश की ज़िम्मेदारी उठाई, उनकी खातिर घर को वक्त देना होता है। जो घर में बिखरा-बिखरा हैरान-परेशान और उलझा हुआ है, वो समाज क्या बनाएगा?

बस, अपनी तमाम नफरतों को परे रखकर घर को घर बनाने की कवायद हर रोज़ चलती रहती है।

और जब ये कवायद करनी ही है तो फिर कुढ़ना-चिढ़ना क्या?

मैं कल ईशा फाउंडेशन की वेबसाईट पर पढ़ रही थी कि जिस काम को आप सबसे ज़्यादा नापसंद करते हैं, वही काम अपना मन और ध्यान लगाकर करना चाहिए। कर्म (जिसे कर्मा कहा जाता है आजकल) के रास्ते की अड़चनों को दूर करने का ये सबसे अच्छा तरीका है। जो काम मुझे पसंद है, वो तो मैं हर हाल में करूंगी ही। मुझे पढ़ना पसंद है तो मैं रात में देर तक पढ़ने के बहाने ढूंढ ही लूंगी। मुझे लोगों से मिलना-जुलना पसंद है तो उसके लिए वक्त भी निकल आएगा और शरीर भी साथ देगा। मुझे लिखना पसंद है तो वो मैं पीठ के दर्द और टेढ़ी गर्दन के साथ भी कर लूंगी। मुझे सफर करना पसंद है तो शहर से बाहर जाने के तमाम बहानों के आगे ब्लड प्रेशर और हाइपरटेन्शन तेल लेने चला जाएगा।

लेकिन मुझे घर के कामों में उलझन होती है (और बिना सुजाता मेरा काम नहीं चलता) तो एक दिन काम करना पड़ेगा तो मैं थक जाऊंगी, बीमार पड़ जाऊंगी, नाराज़ रहूंगी।

अपनी ज़िन्दगी की स्लेट पर बार-बार लिखी जा रही किसी भी अनर्गल चुनौती को तोड़ना है, और उसके बीच से रास्ता निकालना है, तो वो करना होगा जो मुझे सख्त नापसंद है। घर के कोने-कोने की सफाई नहीं है ये, अपने मन के कोनों में पड़ी धूल-मिट्टी को साफ करने की प्रक्रिया है। कपड़े नहीं धुल रहे, करम के मैले कपड़ों की सफाई हो रही है। रसोई और फ्रिज नहीं साफ हो रहा, बीमारियां साफ हो रही हैं ताकि अच्छी सेहत के लिए जगह बनाई जा सके। अलमारियां कहां ठीक हो रही हैं, ठीक तो अपनी हथेली पर बिखरी हुई टेढी-मेढ़ी लकीरें हो रही हैं।

जिस काम को जितने प्यार से किया जाएगा, उस काम में मन उतना ही लगेगा। मन जहां लगेगा, वहां खुश रहेगा। मन खुश रहेगा तो घर खुश रहेगा।

और अनु सिंह, तुमने ये सोच लिया कि घर के काम अनप्रो़क्टिव होते हैं? 


4 टिप्‍पणियां:

Puja Upadhyay ने कहा…

उहूं, इतना पढ़ के भी घर का कोई काम करने का मन नहीं कर रहा। एक तो ये घर का काम रोज रोज करना होता है, ये नहीं कि एक बार साफ कर दिये तो कमसे कम महीने दो महीने चल जाये.

बहुत मुश्किल है सुंदर, साफ सुथरा घर मेन्टेन करना...हमको अभी सीखने में टाइम लगेगा :)

dj ने कहा…

बिलकुल सही। सच में बड़ी कोफ़्त होती है घर के कामो में। लेकिन आप चाहे घर के कामों को ठीक से न कर पातीं हों पर ये रोज़ मॉर्निग पेजेस में साहित्य रुपी मोती तो बिखेर ही लेतीं हैं। हम तो न घर के न साहित्य घाट के। जानती हूँ आपका समय अमूल्य है पर एक बार dj के ब्लॉग्स एक लेखनी मेरी भी और नारी का नारी को नारी के लिए का अवलोकन भी करलें ब्लॉग जगत में नए नए कदम रखने वाले हम जैसे तथाकथित लेखकों भी आपके मार्गदर्शन की आवश्यकता है
http://lekhaniblog.blogspot.in/ एक लेखनी मेरी भी
http://lekhaniblogdj.blogspot.in/ नारी का नारी को नारी के लिए

बालमुकुन्द ने कहा…

हम कितना भी प्रयास करलें , फिर भी कुछ चीजें ऐसी है कुछ काम ऐसे है जिसे करने का एकदम मन नहीं करता । आज आप ने जिन मुद्दों को लेकर की-बोर्ड खटखटाया है , ये मुझे अपनी कथा लगती है ।बैचलर लाईफ मे भी तो इन्ही समस्याओ से हम जूझते हैं ।हर काम करलो पर खाना बनाने का जी नहीं करता । फोनकाल्स ,किताबें ,इन्टरनेट , गप्पेबाजी का दौर चलते रहता है और फिर जब भूख बर्दाश्त के बाहर हो जाती है तो मजबूरन पकाना हीं पड़ता है ,बर्तन माॅजने ही पड़ते है ।
किंतु कभी ये नहीं सोचा की ऐसा महिलाओं के साथ भी होता है ।मैं तो हमेशा माॅ को घर के कामों मे व्यस्त पाया हूॅ ।सवेरे से उठकर चौका बर्तन ,अनाजो मे धूप लगाना ,उन्हे धोना , फटकना आदि-आदि ...कभी ये नही सोचा की कैसे वह रोज ये सब कर लेती है ।क्या कभी उसका मन नहीं करता आराम करने को?

मगर आज अनु मैम आपने यह बेहतर बताया कि एक माॅ जो कितनी भी आलसी हो ,उसका मन कितना भी घर के कामो मे क्यू ना लगे वो कैसे अपने बच्चो की खातिर बर्तन चौका के कामो मे जुट जाती है ।मजबूरी में नही बल्कि बच्चो के प्रेम में ।सच ही लिखा है आपने जिस काम को जितना प्यार से किया जाएगा उसमे उतना हीं मन लगेगा ।

और अंत में तीन चार दिनों के बाद सुबह -सुबह आपकी डायरी पढ़कर मजा आ गया ।पता है आपकी एक किताब आ चुकी है एक आ रही है और ,और भी कितनी किताबे आप लिखेंगी ये भरोसा है पर सुबह-सुबह आपकी डायरी पढ़ने का बात हीं कुछ और है ।

हाॅ मौका है हीं तो क्यूं ना एक बात मै अपनी भी कह लूॅ ।आज आपने फेसबुक पर मेरा मित्रता स्वीकारा है मै बता नहीं सकता की मैं कितना खुश हूॅ ।इस खुशी को बयाॅ करने को शब्द नही मिल रहा ।

Mukund Mayank ने कहा…

मुझे ये नही पता चल रहा है की इस बिषय पर अनु मैंम ने अच्छा लिखा य फिर बालमुकुंद ने ;वैसे बालमुकुंद भी इसी ब्लॉग जिसे मैं school कहता हूँ के छात्र है |; खैर आज ये तो जाना की माँ होना कितना कठीन है |