हम इलाहाबाद में थे। हाई कोर्ट के पास, ओल्ड कैंट एरिया में। होली की हुड़दंग के बीच हमें जो इलाहाबाद दिखाई दिया उसमें एक पुराने शहर की ख़ूबसूरती और चार्म है। जब तक आप एक बार इलाहाबाद से होकर न गुज़रें, तब तक ये वाकई समझना मुश्किल है कि कैसे एक शहर किसी का म्यूज़ बन सकता है। ये इलाहाबाद चंदर और सुधा का शहर है। यही वो शहर है जहाँ प्यार दोनों की रूहों में पिघले हुए लोहे की तरह बचा रह गया था। यही वो शहर है जिसके वर्णन से खुलता है गुनाहों का देवता... इस शहर में ही हो सकती है रोम-रोम चुभती मोहब्बत। धर्मवीर भारती का म्यूज़ इलाहाबाद। महादेवी वर्मा का शहर इलाहाबाद। बच्चन का ये शहर - इलाहाबाद।
अगर पुराने जमाने की नगर-देवता की और ग्राम-देवता की कल्पनाएँ आज भी मान्य होतीं तो मैं कहता कि इलाहाबाद का नगर-देवता जरूर कोई रोमैण्टिक कलाकार है। ऐसा लगता है कि इस शहर की बनावट, गठन, जिंदगी और रहन-सहन में कोई बँधे-बँधाये नियम नहीं, कहीं कोई कसाव नहीं, हर जगह एक स्वच्छन्द खुलाव, एक बिखरी हुई-सी अनियमितता। बनारस की गलियों से भी पतली गलियाँ और लखनऊ की सडक़ों से चौड़ी सडक़ें। यार्कशायर और ब्राइटन के उपनगरों का मुकाबला करने वाले सिविल लाइन्स और दलदलों की गन्दगी को मात करने वाले मुहल्ले। मौसम में भी कहीं कोई सम नहीं, कोई सन्तुलन नहीं। सुबहें मलयजी, दोपहरें अंगारी, तो शामें रेशमी! धरती ऐसी कि सहारा के रेगिस्तान की तरह बालू भी मिले, मालवा की तरह हरे-भरे खेत भी मिलें और ऊसर और परती की भी कमी नहीं। सचमुच लगता है कि प्रयाग का नगर-देवता स्वर्ग-कुंजों से निर्वासित कोई मनमौजी कलाकार है जिसके सृजन में हर रंग के डोरे हैं।
और चाहे जो हो, मगर इधर क्वार, कार्तिक तथा उधर वसन्त के बाद और होली के बीच के मौसम से इलाहाबाद का वातावरण नैस्टर्शियम और पैंजी के फूलों से भी ज्यादा खूबसूरत और आम के बौरों की खुशबू से भी ज्यादा महकदार होता है। सिविल लाइन्स हो या अल्फ्रेड पार्क, गंगातट हो या खुसरूबाग, लगता है कि हवा एक नटखट दोशीजा की तरह कलियों के आँचल और लहरों के मिजाज से छेडख़ानी करती चलती है। और अगर आप सर्दी से बहुत नहीं डरते तो आप जरा एक ओवरकोट डालकर सुबह-सुबह घूमने निकल जाएँ तो इन खुली हुई जगहों की फिजाँ इठलाकर आपको अपने जादू में बाँध लेगी। खासतौर से पौ फटने के पहले तो आपको एक बिल्कुल नयी अनुभूति होगी। वसन्त के नये-नये मौसमी फूलों के रंग से मुकाबला करने वाली हल्की सुनहली, बाल-सूर्य की अँगुलियाँ सुबह की राजकुमारी के गुलाबी वक्ष पर बिखरे हुए भौंराले गेसुओं को धीरे-धीरे हटाती जाती हैं और क्षितिज पर सुनहली तरुणाई बिखर पड़ती है।
'गुनाहों का देवता' की शुरुआत ही इलाहाबाद के कुछ इस तरह के वर्णन से होती है। इतने सालों बाद भी इलाहाबाद कम, बहुत कम बदला है। वो तो भला हो आद्या का, कि होली पर लहंगा खरीदने की ज़िद की उसने। वरना मुझे शहर उस तरह नज़र ही न आता जैसा होली के एक दिन पहले दिखाई दे गया था। सिविल लाइन्स बाज़ार एक महानगर और किसी छोटे शहर का मिक्स्ड ब्रीड है। कटरा की गलियों में घुसकर थोक दुकानों पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराना मेरे जैसे नोस्टालजिस्ट लोगों का परम धर्म है।
लोग होली की दोपहरी रंग खेलकर आराम फ़रमा रहे थे। हम पतिदेव के भांग के नशे का इलाज कराने मिलिट्री अस्पताल की ओर दौड़ रहे थे। वक़्त ने इजाज़त दी तो उस एक दोपहर को मैं फिर से जीना चाहूँगी। इसलिए क्योंकि जितना प्यार भाँग के नशे में बड़बड़ाते पति पर आता है, उतना ही होली के नशे में डूबे इलाहाबाद पर आया।
लोग अगले दिन फिर से होली खेल रहे थे और हम शहर धाँग रहे थे। बाहर से छू-छूकर देख रहे थे वो इतिहास जो इस शहर ने जिया है। यूनिवर्सिटी, साइंस फैकल्टी, आर्ट्स फैकल्टी, हिंदू छात्रावास, हाई कोर्ट, एल्फ्रेड पार्क, इलाहाबाद फोर्ट, त्रिवेणी, स्वराज भवन, खुसरो पार्क, कैथेड्रल...
पहले यमुना और फिर गंगा और फिर त्रिवेणी पर डोलते नाव पर ही कहीं लौट आने की दुआ भूल आई हूँ।
चिड़िया को खिलाने के लिए रखी नमकीन पर्स में ही लौटा आई हूँ।
अमरनाथ झा चौराहे पर छूट गई हैं प्रेम कहानियाँ।
लौटना होगा फिर से, इलाहाबाद।
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