भीतर से भरने लगो तो बाहर से कटने लगते हैं। ये मेरी रचना-प्रक्रिया का हिस्सा है।
सारा वक़्त ख़ुद में उलझी-उलझी चलती हूँ। बात किसी से कर रही होती हूँ, सोच कहीं रही होती हूँ। किसी से मिलने-जुलने या बात करने का मन नहीं करता। नींद या तो बहुत आती है या बिल्कुल नहीं आती। सोचती हूँ कि बीमार पड़ जाऊँ - टायफॉय या मलेरिया या जॉन्डिस जैसा कुछ हो जाए तो ऑफ़िस न जाने की वजह मिल जाए, डेडलाइन से पिंड छूटे। झूठ बोल नहीं सकती, क्योंकि जानती हूँ बीमार पड़ने का बहाना किया तो चार कॉलीग या दोस्त और धमक आएंगे घर पर बीमार की मिज़ाजपुर्सी करने।
लेकिन अब तैयार होने लगी हूँ लिखने के लिए। इतने दिनों से जैसे भीतर का घड़ा भर रही थी। छोटे-छोटे काम रास्ते से हटाने ज़रूरी हैं। वो कॉलम जिन्हें लिख देने का वायदा किया था, और जिसके लिए एडिटर कई मेल कर चुकी है... वो अनुवाद जो बस आज के आज ही जाना है... वो किताब जो हर हाल में अब एडिट हो ही जानी चाहिए... तीन मिनट की फ़िल्म की स्क्रिप्ट भी लिखकर आज ही देनी है... सब ख़त्म करके अब अपनी स्क्रिप्ट, अपनी कहानी की ओर मुड़ने का वक़्त हो चला है।
किसी ने बताया था कि १५ जुलाई को सितारों की गति और उनकी जगहों में बहुत बदलाव होने वाला है। आनेवाला वक़्त हम सबके लिए, यहाँ तक कि देश के लिए भी अच्छा है। आज है १५ जुलाई। पता नहीं सितारों की गति बदली या नहीं। लेकिन एक ही वक़्त पूरी दुनिया के लिए अच्छा या बुरा कैसे हो सकता है? सबकी किस्मत एक-सी होती तो ये दुनिया एकरूप न होती? कहते हैं कि किस्मतें जुड़ी होती हैं सबकी। हम जहां कहीं भी होते हैं, जिस भी लम्हे, जिन भी हालातों में... वहाँ किसी न किसी वजह से होते हैं... इसलिए होते हैं क्योंकि यूनिवर्स एक बहुत ही महीन, बहुत ही सोफिस्टिकेटेड मैथेमैटिकल कैलकुलेशन पर चलता है। उस कैलकुलेशन में हम सब एनवेरिएबल फैक्टर्स हैं, और हमारे कर्म वेरिएबल फैक्टर्स। हर माइक्रो-लम्हे का गणित इन्हीं दो फैक्टर्स पर निर्भर है। मेरा बीजगणित बचपन से बहुत कमज़ोर है, इसलिए मुझे शायद ये कैलकुलेशन समझ न आए। जिसे समझ में आता है, उसकी बात पर यकीन कर लेने में भलाई है। यूँ भी क्या बुरा है ये सोचना कि आनेवाले दिनों में सब अच्छा-अच्छा होगा?
घड़ी तीन चालीस का वक़्त दिखा रही है और आँखों से अधूरी नींद बहे जा रही है निरंतर। पता नहीं क्या सूझा है कि पहले मन की भड़ास, अलाय-बलाय बाहर निकाल देने का इरादा बना लिया है मैंने। उसके बाद शायद काम पर लौटना आसान हो जाए। पूरे दिन के चक्कर हैं। इन चक्करों में कई लोगों से मिलना भी शामिल है। मैं एक ही दिन में इतने सारे कमिटमेंट करती ही क्यों हूँ? अपने ही चैन की दुश्मन आपे-आप हूँ!
बग़ल में रश्मि बंसल की किताब औंधे मुँह पड़ी हुई कह रही है - अराइज़, अवेक। स्वामी विवेकानंद को काहिलों से जाने कैसा बैर था कि एक जुमला छोड़ गए। सदी गुज़र गई लेकिन वो जुमला हज़ारों की मेज़ों के ऊपर चिपका पूरे देश को जगाने का ढोंग भरता रहता है। पता नहीं वो गोल क्या है, और वो रास्ते क्या जिन पर चलते चलनेवाले अंतहीन सफ़र पर रहते हैं। अराइज़! अवेक! एंड स्टॉप नॉ
ट टिल द गोल इज़ रिच्ड। सोने मत दीजिए स्वामी जी। बिल्कुल सोने मत दीजिए। इसी किताब का अनुवाद करना है मुझे? हो गई छुट्टी। रात की जूठन में थोड़ा-सा चैन भी बचा होगा तो उसे डस्टबिन में फेंक देने का पूरा इंतज़ाम मैंने अपने ही हाथों कर लिया।
हआ बहुत अनु सिंह। लौटो काम पर। इंतज़ार है कि तुम्हारी एडिटर ने रात में तुम्हें इतना ही कोसा होगा कि सपने में भी जगाने आ गई वो नैन्सी!
शुक्र है कि शुक्रवार को बजरंगी भाई जान रिलीज़ होने को है। इस पागलपन में सैनिटी का थोड़ी-सी उम्मीद!
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