जो बात कहना नहीं चाहते, उससे बचने के लिए हम दुनिया भर के वाहियात काम करते फिरते हैं।
मैं भी कर रही हूं। सुबह से इधर-उधर, यहां-वहां। मॉर्निंग पेज से बचती हूं कि चोरी पकड़ ली जाएगी। ईमानदारी का वायदा है तो बच नहीं पाऊंगी कहने से। इसलिए चुप रहना ही बेहतर...
मैं पढ़ने में हमेशा ठीक-ठाक थी, औसत से बेहतर। लेकिन ग्यारहवीं औऱ बारहवीं में पूरी तरह चौपट निकली। पढ़ने में उन दो साल बिल्कुल मन नहीं लगा। आस-पास के सारे बच्चे इंजीनियरिंग और मेडिकल जैसे भारी-भरकम इम्तिहानों की तैयारी करते थे। मैं भी इंजिनियरिंग की तैयारी कर रही थी, कम से कम ढोंग तो कर ही रही थी। बिलिएंट ट्यूटोरियल्स के क्लास करने जाती। स्कूल से आकर कभी काँके, कभी डोरंडा ट्यूशन पढ़ने जाती। शहर को कोई कोना नहीं छोड़ा था मैंने। बस अपने भीतर का कौना देखने की हिम्मत नहीं मिली। किसी ने सिखाया ही नहीं। किसी ने बताया ही नहीं। भेड़चाल थी। सब चलते थे भीड़ में। मैं भी चलती थी। भीड़ से जुदा क्या वजूद होता है? उस उम्र में किसी का क्या वजूद होता है?
लेकिन फिर भी एक बेचैनी थी। ट्यूशनों और क्लासों में मन नहीं लगता। छूटने के लिए बेचैन रहती। दूर ट्यूशन पढ़ने इसलिए जाती थी क्योंकि रास्ते भर लोग दिखते थे, वक्त कटता था। शहर में घूमना-भटकना उसी उम्र में शुरु हुआ। मैं खूब भटकती थी। कभी अकेली, कभी किसी दोस्त के साथ। रांची का कोई कोना नहीं छोड़ा - कोई बाज़ार नहीं, कोई मोहल्ला नहीं, कोई डैम, किसी डैम का किनारा नहीं।
सिर्फ़ दो ही सब्जेक्टस में मन लगता था - हिंदी और अंग्रेज़ी, जब मैं वाकई क्लास में होना चाहती थी। अंग्रेज़ी के कई टीचर आते और जाते। लेकिन क्लास के भीतर टीचर वही रहते - केकी दारुवाला, टैगोर, ईलियट, शेक्सपियर, वर्ड्सवर्थ, एमिली ब्रॉन्ट, जेन ऑस्टिन। क्लास के बाहर ऐगथा क्रिस्टी, शिडनी शेल्डन, जेफ्री आर्चर, मिल्स एंड बून्स, आयन रैंड, टू किल अ मॉकिंग बर्ड। अंग्रेज़ी के उपन्यास मुझे उस दुनिया में ले जाते जहाँ मैं कभी हो नहीं सकती थी। कभी मैडिसन काउंटी, कभी फ्रांस का कोई गांव तो कभी बर्फ़ीली झील का कोई किनारा। कभी कॉन्सनट्रेशन कैंप तो कभी पांच सौ यूएस मिलियन डॉलर की कंपनी का कोई बोर्ड रूम! हर दुनिया अद्भुत थी - अनदेखी, अनजानी। हर किरदार मज़ेदार था - सनकी, पागल, कन्फ़्यूज़ड, बेवकूफ़, शातिर, ख़तरनाक, जटिल... हिंदी की कहानियाँ और उपन्यासों की ख़ुशबू जानी-पहचानी होती। दुनिया देखी-देखी सी लगती। एक भाषा का मोह था जो जोड़े रखता, पकड़े रखता।
मैं नहीं जानती मैं ऑर्गैनिक केमिस्ट्री पढ़ कैसे रही थी। मुझे पीरियॉडिक टेबल कभी याद नहीं हुआ। फ़िज़िक्स ठीक उसी तरह माथे के ऊपर से गुज़रता जैसे किसी वृत्त के ऊपर से टैन्जेन्ट गुज़रता है कोई। वेक्टर किस बला का नाम है, और क्यों है, मुझे आजतक समझ में नहीं आया।
उन दो सालों का और कुछ भी याद नहीं, सिर्फ और सिर्फ़ भटकना याद है। और पढ़ना याद है। वो अजीब किस्म का जुनून था, इश्क-सा जुनून। इश्क में मैं अगर कोई शहर हुई हूँ कभी, तो वो रांची हुई हूँ। इश्क़ में और कोई शहर बन ही नहीं पाऊँगी उस तरह। इश्क़ में कहीं सबसे ज़्यादा गई हूँ तो वो है रांची क्लब के पीछे की ब्रिटिश लाइब्रेरी जो अब इंटरनेशनल लाइब्रेरी कही जाती है। इश्क़ या तो सड़कों पर बहुत बहुत बहुत भटकाता था या किताबों की गंध में डूबकर ठहर जाता था।
दो साल की उस भटकन और बेचैनी का नतीजा था बारहवीं का रिज़ल्ट।
जिस दिन रिज़ल्ट निकला उस दिन मैं सदमे में रही। मैं हो गई थी, हिंदी और अंग्रेज़ी में आए अंकों की मेहरबानी से बाइज्ज़त पास हो गई थी। लेकिन मैं टॉपर नहीं रही। मैं वो नहीं रही जो मुझे होना चाहिए था, जो मुझे बन जाना चाहिए था। अब मैं इंजीनियर तो किसी क़ीमत पर नहीं बन सकती थी।
उस रोज़ मैंने कुछ नींद की गोलियाँ बाबा की दराज़ से निकाली और कुछ अपनी परदादी के कमरे से, जिन्हें हाई बीपी की वजह से सोने की दवाई दी जा रही थी। कुल मिलाकर पच्चीस गोलियां रही होंगी। मैंने वो सारी गोलियां फांक लीं।
बस फांक ली। बिना सोचे-समझे। किसी ने कुछ कहा नहीं था, लेकिन किसी से कुछ सुनने की हिम्मत नहीं थी मुझमें। न कोई शिकायत, न कोई ताना। ऐसा भी नहीं था कि मेरे एक्ज़ाम के रिज़ल्ट को लेकर लोग बहुत शॉक में हों। मेरे परिवार के बच्चे जैसा रिज़ल्ट लेकर आते हैं, उससे बेहतर ही था जो भी था। किसी के मन में मेरे लिए बड़ी ख़्वाहिशें रही हों, ऐसा भी नहीं था। किसी को कुछ कहने की ज़रूरत नहीं थी।
ये अंधेरे मेरे चुने हुए थे। इन अंधेरों से बाहर निकलने का रास्ता मेरा देखा हुआ था। ये फ़ितूर मेरे पाले हुए थे। इनसे निजात भी मुझे ही पाना था। सोलह साल की उम्र में वैसे भी अपनी रची दुनिया में सिर्फ़ हम होते हैं। सिर्फ़ हम। अकेले। भटके हुए। परेशान।
नींद की गोलियां खा लेने से आसान मरने का कोई और तरीका नहीं था। घर में इतने सारे लोग थे कि कोई कमरा और कोई पंखा दस मिनट के लिए भी खाली मिले, सवाल ही नहीं था। बाथरूम में घुसकर अपने दुपट्टे से अपना ही गला घोंटने की कोशिश की। दो मिनट के बाद हिम्मत जवाब दे गई। बाथरूम में इतनी जगह भी नहीं थी कि ठीक से गिर सकूं। फ़िनायल की दुर्गंध मुझसे बर्दाश्त होती नहीं थी, इसलिए कोने में रखे फ़िनायल को उठाकर पी लेने का कोई मतलब नहीं था। चूहे मारने की दवा चूहों को मुक्ति दिलाने के काम आ गई थी। तीन मंज़िला छत से कूदती भी तो चौधरी नर्सिंग होम पहुंचती। नर्सिंग होम के बगीचे से हमारी दीवार लगी थी। बस नींद की गोलियां थी, वो भी ०.२५ एमजी की। वो भी इतनी ही जितनी एक हफ्ते में किसी को ज़रूरत पड़ती हो। लेकिन घर में तीन जगह थीं।
पच्चीस गोलियां। कुल मिलाकर पच्चीस गोलियां। ०.२५ एमजी की २५ गोलियां। बस इतना ही। मेरे भीतर उतनी ही स्ट्रेंथ में हिम्मत थी, जितनी गोलियां की मेडिकली स्ट्रेंथ थी। कुछ पेट में गईं गोलियाँ और कुछ उल्टियों में निकल गई।
मर जाने के लिए इतने से क्या होता? लेकिन बेहोशी के लिए उतनी गोलियां काफी थीं। मैं अगले कई घंटे बेसुध सोती रही। पूरा दिन। पूरी शाम। पूरी रात।
अगली सुबह पापा उठाकर ले गए थे अपने कमरे में। पापा कभी प्यार जताते नहीं हैं, सिर पर हाथ रखकर या गले लगाकर तो बिल्कुल नहीं। लेकिन उस दिन पापा ने दोनों किया। कहा कि अच्छा हुआ तुम्हारे रिज़ल्ट अच्छे नहीं आए। तुम्हें अपनी ताक़त और कमज़ोरी, दोनों का अंदाज़ा लग गया।
पापा बिल्कुल नॉर्मल थे। उन्होंने मुझसे गोलियों के बारे में पूछा नहीं तो मैंने बताया नहीं। किसी ने नहीं पूछा। मैंने किसी से नहीं बताया।
ऐसा नहीं कि उस दिन के बाद ज़िन्दगी नई हो गई। लेकिन उस दिन के बाद मर जाने जैसा बेवकूफ़ी भरा ख़्याल उतनी तीव्रता से कभी नहीं आया।
मैं ज़िंदा बच गई थी और बाद में अपने हिस्से का बहुत सारा अपमान भी झेलना पड़ा। गोलियाँ खाने का कोई अफ़सोस भी नहीं रहा। सिर्फ़ साइड इफेक्ट कई महीनों तक रहे - चेहरे पर निकल आए बहुत सारे मुँहासों के रूप में। टीनेज का वो धब्बा न अब मेरे चेहरे पर है न रूह पर। टीनेज कितना ख़तरनाक और बेहूदा, सिरफ़िरा और बेतुका हो सकता है - इसकी याद ज़रूर बाकी रह गई है।
परसों सुबह हमारे एक पारिवारिक दोस्त की बेटी ने छत से कूदकर खुदकुशी कर ली। उसकी उम्र ठीक वही रही होगी जिस उम्र में मैंने नींद की गोलियाँ फाँक ली थी। उसने न इम्तिहान देने का इंतज़ार किया, न रिज़ल्ट देखने का। उसके लिए टॉपर न बने रहने का डर इतना बड़ा था कि उस बदतमीज़ लड़की ने छत से कूद जाने में चैन समझा। उसके माँ-बाप ने उससे कभी कुछ नहीं कहा था। सारे अंधेरे उसके चुने हुए थे। सारा फ़ितूर उसका पाला हुआ था। टीनेज उससे न संभला।
दो दिन से ठीक से सोई नहीं हूँ और बार-बार उसके माँ-बाप का चेहरा आँखों के आगे घूमता है। घरों की दीवार पर लगी उसकी तस्वीरें, उसकी स्टडी टेबल पर रखा एडमिट कार्ड और लंच का डिब्बा जो उसकी माँ ने सुबह तैयार किया होगा, बहुत सारे स्टिक ऑन्स पर बहुत ख़ूबसूरत हैंडराईटिंग में लिखे गए फॉर्मूले, दीवारों से ऊँचा बुक रैक, बुक रैक से भारी उम्मीदों का बोझ... सब छोड़कर कूद गई लड़की छत से। एक मिनट भी न लगाया। उसको अंदाज़ा भी था कि वो लौटकर आ नहीं पाएगी? या खेल लगा कोई? कूदे-फांदे-रोए-धोए-लौट आए?
मैं दो दिन से सोच रही हूं कि टीनेज की कौन सी तकलीफ़ इतनी बड़ी और असह्य होती है कि एक मिनट में अपनी ही जान लेने पर उतारू हो जाए इंसान। इसमें मां-बाप का कसूर कहां होता है? इसमें किसका कसूर होता है आख़िर? ये किस तरह का पागलपन है जिससे मैं-आप सब गुज़रते हैं, फिर भी एक-दूसरे को ठीक से बचा नहीं पाते। समझ नहीं पाते। कह नहीं पाते। सुन नहीं पाते।
वो लड़की और कुछ डिज़र्व नहीं करती, सिवाय इसके कि कहीं किसी आसमान पर कोई फ़रिश्ता उसे मिले और उसके चेहरे पर खींचकर दो थप्पड़ मारे। फिर वापस उसे इसी दुनिया में मरने-जीने के लिए भेज दे और तब तक उसे बार-बार इस ज़मीन पर भेजता रहे जब तक उसे ज़िन्दगी की अहमियत का अंदाज़ा न लग जाए, जब तक उसे ये समझ न आ जाए कि एक सिपाही के मैदान से भाग जाने पर न सिपाही को जंग से आज़ादी मिलती है और न जंग ख़त्म होती है।
तुम बार-बार पैदा होती रहो इसी दुनिया में लड़की, तुम्हें मैं यही बददुआ देती हूँ।