1
जितनी बार हम जी रहे होते हैं
दुःख
क्षोभ, व्यथा, हानि
बिछोह, संताप, प्रताड़ना, ग्लानि
पीड़ा की ये आरी
काट रही होती है
कई पूर्वजनमों के जंजाल।
जितनी बार
हम होते हैं
किसी के प्रेम में
उतनी ही बार
कस रहे होते हैं
अपनी गर्दन के चारों ओर
नारियल की रस्सियां
और तैयार कर रहे होते हैं
फिर से एक दुर्गम जाल।
प्रेम के जाल
और पीड़ा की आरी के बीच
बचा रह जाता है
पल-पल झरता शरीर
जिसके मोम के न होने का
रहता है अफ़सोस
लगातार।
जब हम काट रहे होते हैं
अपने हिस्से के करम
और बुन रहे होते हैं
कई नए कष्टसाध्य जाल
अगली ज़िन्दगी के लिए
दर्ज करा रहे होते हैं
एक ही दरख्वास्त -
प्रेम।
2
जो कहता नहीं है
अपनी जुबां से
उसकी आँखों में
सबसे गहरी होती है बेचैनी
जो नहीं जानता हाथ मिलाना
खींचकर गले लगाओ तो
सबसे ऊँची आवाज़ में
रोया भी वही करता है अक्सर
जिसके होठों पर
कम होती हैं शिकायतें
चखो तो सबसे उदास
बोसे उसी के होते हैं
जिसके कंधे लगते हैं
सबसे मज़बूत और मुकम्मल
उसके सीने से कभी नहीं उतरता
इस बेगैरत दुनिया का बोझ
दरअसल जो दिखता है
वो होता नहीं है
जो नहीं दिखता
वही हुआ करता है
सबसे ईमानदार सच।
3
ख्वाहिशों की तितलियों को
आम के मंजर,
सेमल के फूल,
अरहर के सिट्टे,
बेल की लदी डालियां,
नशे में झूमता महुआ पेड़,
जंगली गुलाब रास नहीं आते।
ख्वाहिशों की इन तितलियों को
बेसबब बेकरारियों के अंगारों पर
मंडराने का नया चस्का लगा है।
ख्वाहिशों की तितलियों के
इस सुसाईड अटेम्पट की
वे ख़ुद ज़िम्मेदार करार दी जाएँ!
4
मत पूछ कि
इस पागल शहर में
रहती कहाँ हूँ मैं
कॉफ़ी के झूठे प्यालों में हूँ
व्हाट्सएप्प पर कुछ सवालों में हूँ
तुम्हारे गुसल की बेसिन पर
उस रात छोड़ी थी जो अपनी
मैगनोलिया क्रीम, वहाँ हूँ मैं।
कंघी के टूटे बालों में हूँ
अलमारी की दराजों में हूँ
छोटी सी इक रसोई के कोने
सिल बट्टे की जगह ले गयी जो
मिक्सी, वहाँ हूँ मैं।
अस्पतालों के नंबर में हूँ
कोम्बिफ्लाम के पत्ते में हूँ
तपते हुए माथों पर जो
लगती, बदलती, गीली हुयी है
पट्टी, वहाँ हूँ मैं।
गमले में हूँ कि बाड़ों में हूँ
एसी के नकली जाड़ों में हूँ
गुल्लक में हूँ कि लॉकर में हूँ
सच में हूँ, फसानों में हूँ
एफ़म पर चलते गानों में हूँ
गाडी में भी हूँ, रिक्शे पे भी हूँ
घर को बनाए दफ्तर में भी हूँ
बिखरी हुयी हूँ, बहकी हुयी हूँ
फिर क्या बताऊँ,
रहती कहाँ हूँ मै
5
कैसे करें शुक्रगुजारी ऐ खुदा
दिया तो इतना दिया
कि बक्सों, सन्दूकों,
काग़ज़ के गत्तों के डब्बे
भी कम पड़ते हैं।
सुनो, कि कभी लेना ही वापस मुझसे
तो सबसे पहले
लम्हों, लोगों, दर-ओ-दीवारों से
डूबकर इश्क करने की
ये बेजां फितरत ले लेना।
तुम भी बख्श दिए जाओगे
और मेरी भी इस छोटी सी दुनिया को
मिल जाएगा आराम!
6
झरती डाल
फुदकती चिड़िया
कड़वे नीम
पर आये फूल
दरकती ज़मीन
फूटा अंकुर
दहकता माथा
शबनमी बोसा
कराहती पीठ
गोद में बच्चा
जलती आँखें
बरसते बादल
सुलगता चूल्हा
ठंडी शिकंजी
छूटती सांसें
थामती उम्मीद।
7
नाज़ुक था
डाल से बिछड़ गया
कचनार था
था अलहदा
भीड़ से अलग हुआ
काला मेमना
सख्त था
चोरी के गुल्लक पर
मम्मी का थप्पड़ था
था उलझा हुआ
कुर्सी बुनता
नया-सा कारीगर कोई
गर्म था, सर्द था
खिला था, ज़र्द था
नहीं था ख्वाब वो
कई रातों का सिरदर्द था
वो क्या था, कहती
सब कह देती
मगर तुम्हारी मौजूदगी में
हमेशा
और अदना हो जाती हैं
मेरी सारी कवितायें!
8
मरती रहती हूँ
फिर भी रह जाते हैं काम
मैं कब, कहाँ
किस मौन में
पुकारूं तुम्हारा नाम।
9
अगर खींच सकती
तो ले आती तस्वीरें
कानों और इअर प्लग्स के बीच
तिरकिट मचाती हवाओं की
नाईट शिफ्ट के बाद
अपने झुरमुट में सोने चली गयी
रात की रानी की
बैसाख को ठेंगा दिखाकर
फलते फूलते लैवेंडर की
दहकते इश्क का चोगा पहनते
गुल्मोहर, अमलतास, कचनार की
ॐ, प्राणायाम में ग़म ग़लत करती
नाराज़, हैरान, दयनीय दुनिया की
लेकिन जान, मैं फोटोग्राफर नहीं
और तुम फुर्सतज़दा नहीं
इसलिए आज भी टहलकर
लौट गयी हूँ पार्क से।
रविवार, 13 जुलाई 2014
शुक्रवार, 11 जुलाई 2014
दोनों जहां से खोए, गए हम... दास्तान-ए-इंदिरा नूयी
इंदिरा नूयी का इंटरव्यू पढ़कर मैं बहुत देर तक ज़ोर-ज़ोर से हंसती रही थी। हंसी उस विडंबना पर आ रही थी जो सर्वव्यापी है, यूनिवर्सल। लेकिन है अकाट्य सत्य ही - आप चाहे दुनिया की सबसे बड़ी मल्टीनेशनल कंपनी की सीईओ हों, या फिर दिन भर पत्थर तोड़कर शाम को घर लौट जाने वाली मजदूर, दुनिया के हर कोने में आपकी ज़िन्दगी की कहानी एक-सी ही सुनाई देगी बिल्कुल।
अब मैं अपनी ही बात करते हुए इस लम्हे, बिल्कुल इस लम्हे का हाल बयां करूं तो सीन कुछ ऐसा है। मैं डायनिंग टेबल के एक कोने में बैठी ये लेख लिखने की कोशिश कर रही हूं और मेरे दोनों बच्चे मेज़ की दूसरी तरफ़ खाना खाते हुए लगातार मुझे टोकते जा रहे हैं। मम्मा, ऊंट अपनी नाक क्यों बंद कर सकता है? मम्मा, आद्या ने मेरे पैरे को छुआ। मम्मा, आदित ने अपना होमवर्क नहीं किया... मैं एक तरफ़ लिखने की नाकाम कोशिश कर रही हूं और दूसरी तरफ ध्यान झगड़ा सुलझाने में भी है। इसके अलावा फ़िक्र कल सुबह के नाश्ते की, बच्चों के यूनिफॉर्म साफ़ करवाने की, उनका होमवर्क कराने की, राशन के सामान की, घर की छत से लटकते जाले साफ़ कराने की भी है और ये सारे ख़्याल एक साथ ज़ेहन में चल रहे हैं। हफ़्ते के ख़त्म हो जाने का अफ़सोस भी है। सोमवार की सुबह तक डेडलाईन फिर से हावी होगी।
अचानक मुझे ये ख़्याल बहुत सुकून देता है कि किसी इंदरा नूयी की, किसी शेरिल सैंडबर्ग या किसी टाइगर मॉम एमी चुआ की हालत रोज़-दर-रोज़ मुझसे अलग नहीं होती है।
घर की दहलीज़ के भीतर एक औरत से जिस संजीदगी के साथ मां, बहू, बेटी, पत्नी और इस तरह की तमाम ज़िम्मेदारियों के निर्वहन की अपेक्षा की जाती है वो अपेक्षा एक पुरुष से नहीं रखी जाती। इंदिरा से उनकी मां ने कहा था कि वो अपने सीईओ होने का ताज या तो गैरेज में छोड़कर आए या फिर दफ़्तर में। घर में उसकी ज़िम्मेदारी दूध लाने की है, और अपना घर चलाने की। घर के पुरुष से ऐसी कोई अपेक्षा नहीं की जाती। दफ़्तर से लौटकर आने के बाद भी वो एक पुरुष ही होता है।
ऐसे में महिलाओं के लिए, ख़ासकर कामकाजी महिलाओं के लिए, दोनों जहां की ख़ुशियां मिल जाने का ख़्वाब किस कमबख़्त ने देखा था? दोनों जहां में परफेक्ट होने की कोशिश वो गफ़लत है जिससे जितनी जल्दी बाहर आया जाए, उतना अच्छा।
अगर यही सच है तो फिर क्या अपना सिर पीटा जाए या कई किस्मों के, कई वजहों के अपराध बोध से मर जाने का जुगाड़ कर लिया जाए? या फिर इस पुरुषप्रधान समाज के नाम को पचहत्तर बार कोसा जाए?
यकीन मानिए, जो औरत हर रोज़ की जंग लड़ रही होती है, हर रोज़ वक़्त का सही इस्तेमाल करते हुए हर लम्हा उपयोगी बनाने की कोशिश में जुटी होती है, उसके पास शिकायत करने का सबसे कम समय होता है। हम अपने हालातों के सबसे अच्छे पारखी और निर्णायक होते हैं। इंदिरा नूयी ने अपनी ज़िन्दगी के लिए निजी फ़ैसले लिए और ये बिल्कुल ज़रूरी नहीं कि वो मेरे हालात पर कारगर हों। हमारे फ़ैसले कई बातों पर निर्भर होते हैं - हमारे चुनाव, हमारी पृष्ठभूमि, हमारी ज़रूरतें, और सबसे अहम - हमारी फ़ितरत। अपनी फ़ितरत और अपने हालात के आधार पर दोनों जहां में कितना और कब-कब बने रहना है, इसकी समझ विकसित कर ली जाए तो किसी और को कोई फ़र्क पड़े न पड़े, आप ज़रूर सुकून में रहेंगी।
ये सुकून, ये मानसिक शांति ही दरअसल असल वर्क-लाइफ बैलेंस होती है। वर्क-लाइफ बैलेंस का कोई फॉर्मूला नहीं होता। ये फॉर्मूले अपने लिए हम ख़ुद तय करते हैं और वक़्त के साथ-साथ इनपर काम लगातार चलता रहता है। तीन साल पहले बच्चों के साथ पार्क में खेलना मेरी प्राथमिकता में सबसे ऊपर था। अब नहीं है। मैं उन्हें दिन भर में दो घंटे का वक़्त देकर भी ख़ुश रहती हूं। लेकिन ये फ़ैसले मेरे अपने हैं, और इनके लिए ज़िम्मेदार भी मैं ही हूं। ऐसे कई फ़ैसले हर रोज़, हर बात पर लेने होते हैं और इंदिया भी ठीक यही कहती हैं। मुझे नहीं लगता कि इंदिरा के लहज़े में, बड़ी बेबाकी से किए हुए उनके बयान-ए-हकीकत में इस बात से कोई शिकायत है।
अपने बारे में बात करते हुए वे खुलकर हंस सकती हैं, और ये हंसी उनकी सबसे बड़ी सफलता है मेरे हिसाब से। वैसे इंदिरा की एक बात से मैं बिल्कुल सहमत नहीं हूं। मुझे इस बात का पक्का यकीन है कि उनकी बेटियों से कोई पूछे तो वे यही कहेंगी कि उन्हें अपनी मां पर बेइंतहा फ़ख्र है और एक दिन वे भी अपनी मां की तरह ही बनना चाहेंगी। और इस बात का उनकी मां के कामकाजी होने, या बेहद सफल होने से कोई रिश्ता नहीं है। इस बात का सीधे तौर पर रिश्ता इस बात से है कि वे दोनों बड़ी होकर कैसे महिलाएं, और किस तरह की मां बनना चाहेंगी। मुझे उम्मीद है कि जल्द ही हमें बेटियों की राय भी सुनने को मिलेगी। दोनों जहां के होने न होने की बहस को अंजाम तभी दिया जा सकेगा।
वैसे घर और काम - दोनों जहां में होने न होने की ये बहस हमारे बच्चों की पीढ़ियों तक आते-आते जेंडर की बहस से बाहर निकल सके तब जाकर कह सकेंगे कि मुमकिन है दोनों जहां हासिल करना।
अब मैं अपनी ही बात करते हुए इस लम्हे, बिल्कुल इस लम्हे का हाल बयां करूं तो सीन कुछ ऐसा है। मैं डायनिंग टेबल के एक कोने में बैठी ये लेख लिखने की कोशिश कर रही हूं और मेरे दोनों बच्चे मेज़ की दूसरी तरफ़ खाना खाते हुए लगातार मुझे टोकते जा रहे हैं। मम्मा, ऊंट अपनी नाक क्यों बंद कर सकता है? मम्मा, आद्या ने मेरे पैरे को छुआ। मम्मा, आदित ने अपना होमवर्क नहीं किया... मैं एक तरफ़ लिखने की नाकाम कोशिश कर रही हूं और दूसरी तरफ ध्यान झगड़ा सुलझाने में भी है। इसके अलावा फ़िक्र कल सुबह के नाश्ते की, बच्चों के यूनिफॉर्म साफ़ करवाने की, उनका होमवर्क कराने की, राशन के सामान की, घर की छत से लटकते जाले साफ़ कराने की भी है और ये सारे ख़्याल एक साथ ज़ेहन में चल रहे हैं। हफ़्ते के ख़त्म हो जाने का अफ़सोस भी है। सोमवार की सुबह तक डेडलाईन फिर से हावी होगी।
अचानक मुझे ये ख़्याल बहुत सुकून देता है कि किसी इंदरा नूयी की, किसी शेरिल सैंडबर्ग या किसी टाइगर मॉम एमी चुआ की हालत रोज़-दर-रोज़ मुझसे अलग नहीं होती है।
घर की दहलीज़ के भीतर एक औरत से जिस संजीदगी के साथ मां, बहू, बेटी, पत्नी और इस तरह की तमाम ज़िम्मेदारियों के निर्वहन की अपेक्षा की जाती है वो अपेक्षा एक पुरुष से नहीं रखी जाती। इंदिरा से उनकी मां ने कहा था कि वो अपने सीईओ होने का ताज या तो गैरेज में छोड़कर आए या फिर दफ़्तर में। घर में उसकी ज़िम्मेदारी दूध लाने की है, और अपना घर चलाने की। घर के पुरुष से ऐसी कोई अपेक्षा नहीं की जाती। दफ़्तर से लौटकर आने के बाद भी वो एक पुरुष ही होता है।
ऐसे में महिलाओं के लिए, ख़ासकर कामकाजी महिलाओं के लिए, दोनों जहां की ख़ुशियां मिल जाने का ख़्वाब किस कमबख़्त ने देखा था? दोनों जहां में परफेक्ट होने की कोशिश वो गफ़लत है जिससे जितनी जल्दी बाहर आया जाए, उतना अच्छा।
अगर यही सच है तो फिर क्या अपना सिर पीटा जाए या कई किस्मों के, कई वजहों के अपराध बोध से मर जाने का जुगाड़ कर लिया जाए? या फिर इस पुरुषप्रधान समाज के नाम को पचहत्तर बार कोसा जाए?
यकीन मानिए, जो औरत हर रोज़ की जंग लड़ रही होती है, हर रोज़ वक़्त का सही इस्तेमाल करते हुए हर लम्हा उपयोगी बनाने की कोशिश में जुटी होती है, उसके पास शिकायत करने का सबसे कम समय होता है। हम अपने हालातों के सबसे अच्छे पारखी और निर्णायक होते हैं। इंदिरा नूयी ने अपनी ज़िन्दगी के लिए निजी फ़ैसले लिए और ये बिल्कुल ज़रूरी नहीं कि वो मेरे हालात पर कारगर हों। हमारे फ़ैसले कई बातों पर निर्भर होते हैं - हमारे चुनाव, हमारी पृष्ठभूमि, हमारी ज़रूरतें, और सबसे अहम - हमारी फ़ितरत। अपनी फ़ितरत और अपने हालात के आधार पर दोनों जहां में कितना और कब-कब बने रहना है, इसकी समझ विकसित कर ली जाए तो किसी और को कोई फ़र्क पड़े न पड़े, आप ज़रूर सुकून में रहेंगी।
ये सुकून, ये मानसिक शांति ही दरअसल असल वर्क-लाइफ बैलेंस होती है। वर्क-लाइफ बैलेंस का कोई फॉर्मूला नहीं होता। ये फॉर्मूले अपने लिए हम ख़ुद तय करते हैं और वक़्त के साथ-साथ इनपर काम लगातार चलता रहता है। तीन साल पहले बच्चों के साथ पार्क में खेलना मेरी प्राथमिकता में सबसे ऊपर था। अब नहीं है। मैं उन्हें दिन भर में दो घंटे का वक़्त देकर भी ख़ुश रहती हूं। लेकिन ये फ़ैसले मेरे अपने हैं, और इनके लिए ज़िम्मेदार भी मैं ही हूं। ऐसे कई फ़ैसले हर रोज़, हर बात पर लेने होते हैं और इंदिया भी ठीक यही कहती हैं। मुझे नहीं लगता कि इंदिरा के लहज़े में, बड़ी बेबाकी से किए हुए उनके बयान-ए-हकीकत में इस बात से कोई शिकायत है।
अपने बारे में बात करते हुए वे खुलकर हंस सकती हैं, और ये हंसी उनकी सबसे बड़ी सफलता है मेरे हिसाब से। वैसे इंदिरा की एक बात से मैं बिल्कुल सहमत नहीं हूं। मुझे इस बात का पक्का यकीन है कि उनकी बेटियों से कोई पूछे तो वे यही कहेंगी कि उन्हें अपनी मां पर बेइंतहा फ़ख्र है और एक दिन वे भी अपनी मां की तरह ही बनना चाहेंगी। और इस बात का उनकी मां के कामकाजी होने, या बेहद सफल होने से कोई रिश्ता नहीं है। इस बात का सीधे तौर पर रिश्ता इस बात से है कि वे दोनों बड़ी होकर कैसे महिलाएं, और किस तरह की मां बनना चाहेंगी। मुझे उम्मीद है कि जल्द ही हमें बेटियों की राय भी सुनने को मिलेगी। दोनों जहां के होने न होने की बहस को अंजाम तभी दिया जा सकेगा।
वैसे घर और काम - दोनों जहां में होने न होने की ये बहस हमारे बच्चों की पीढ़ियों तक आते-आते जेंडर की बहस से बाहर निकल सके तब जाकर कह सकेंगे कि मुमकिन है दोनों जहां हासिल करना।
मंगलवार, 8 जुलाई 2014
कई फ़ितूर और 'नीला स्कार्फ'
मैं भुवनेश्वर से पुरी के रास्ते में थी जब नताशा का मेसेज आया था – व्हॉट्सऐप्प पर। कुछ तस्वीरें थीं – उस अनारकली की, जो मैं बनवाना चाहती थी। एक के बाद एक कई मेसेज आए – उसके आईफोन से ली हुई तस्वीरों के। एक तस्वीर मेरे ज़ेहन में अटक ही गई बस, उस तस्वीर में मैनेक्वीन की गर्दन में बेतरतीबी से पड़े दोरंगी नीले दुपट्टे की तरह।
मैंने नताशा को वापस जवाब भेजा, "ये अनारकली चाहिए और ये तस्वीर भी। अपनी पहली किताब की कवर पेज के लिए।"
बात मार्च की है, और मेरे दिमाग में कहानी-संग्रह को पूरा करने का ख़्याल खलबली मचाए थे। मैं जहाँ-जहाँ जाती थी, वो ख़्याल साथ जाया करता था। एक किस्म के फ़ितूर की तरह। बेशक काम नहीं किया करती थी इस ख़्याल पर, लेकिन फ़ितूर तो था।
उम्र के पैंतीस गर्मी-जाड़ा, सूखा-बाढ़ और सूनामी देख लेने के बाद मैं एक बात पूरे यकीन के साथ कह सकती हूँ – एक फ़ितूर न होता तो दुनिया में क्रांतियां न आया करतीं। वक़्त फ़िसलता रहता किसी चिकने से रास्ते पर घूमते पहिए की तरह, और हमारे पास जानने-सुनने को किसी किस्म का इतिहास न होता।
ये कमबख़्त फ़ितूर कई चीज़ें करा लेता है इंसानों से।
मुझसे कहानियाँ लिखवा लीं इसी फ़ितूर ने। इसी फ़ितूर ने मेरी अच्छी-खासी आर्टिस्ट-राईटर दोस्त को ऑन्ट्रप्रॉन्योर और बिज़नेसवूमैन बना दिया। इसी फ़ितूर ने व्हॉट्सऐप्प पर आई उस तस्वीर को किताब के कवर पेज तक पहुंचा दिया जो दरअसल मेरे ही एक कुर्ते, मेरे ही एक दुपट्टे की तस्वीर है। 'नीला स्कार्फ' भी तो उस तस्वीर, उन कपड़ों की तरह आख़िर मेरे ही वजूद के जिए हुए अनुभवों का कई टुकड़ा है।
'नीला स्कार्फ' कई मायने में ख़ास है। ख़ास इसलिए कि इसे बनाते हुए हमने अनजाने में कई अनकन्वेंशनल रास्ते अख़्तियार किए। 'नीला स्कार्फ' का इस मुकाम तक पहुंचना एक लिहाज़ से आउट ऑफ द बॉक्स सोचकर ख़तरे उठाने वाले चार अजूबा फ़ितूरियों की सच्ची कहानियां भी है।
मिलिए अजूबा नंबर एक से। अनु सिंह। लिखने का शऊर नहीं था, गलतफ़हमियां थी कईं। लिखना ज़रूरत से ज़्यादा मजबूरी बनता गया एक वक़्त के बाद, और फिर जेबखर्च का ज़रिया भी। लिखने के फ़ितूर ने ब्लॉग दिया, ब्लॉग ने दोस्त दिए, दोस्तों ने काम के ज़रिए दिए, काम के ज़रिए मिले तो ठीक-ठीक समझ में आया कि कैसे, कब और कहां, किन लोगों के साथ काम करना चाहती हूं। लोग मिले तो भरोसा आया। भरोसा आया तो रास्ते पता नहीं किस-किस मोड़ से होते हुए निकलते चले गए। अनु सिंह इस लिहाज़ से अनकन्वेंशनल है क्योंकि वो कहीं भी किसी एक रूप में मुकम्मल नहीं। अनु सिंह का लिखना भी मुकम्मल नहीं। टुकड़ों-टुकड़ों में कई वजूदों के बीच कई कामों के साथ बिखरी-बिखरी ज़िन्दगी समेटना, और उस बीच लिखते रहना, हर रोज़ का रोज़गार है। रोज़गार भी यही है, और ज़िन्दगी से भिड़ने का हथियार भी यही।
मिलिए अजूबा नंबर टू से। शैलेश भारतवासी। अव्वल दर्ज़े के फ़ितूरी। एक फ्लिपकार्ट, एक इंफीबीम के सहारे एक टाइटल की पाँच सौ प्रतियाँ छापकर हिंदी के बेस्टसेलर लेखक तैयार करने चले हैं। ढूंढ-ढूंढकर लेखक निकालते हैं। रेगिस्तान-नखलिस्तान, समंदर-मैदान, पहाड़-पठार, महागनर-देहात – कुछ भी नहीं बख़्शा इन्होंने। जहाँ किसी के लेखक होने का एक आना भरोसा भी हुआ नहीं कि जी-जान लगा बैठे। महाराज, ऐसे पब्लिशर का बेड़ा गर्क होगा, ये चित्रगुप्त महाराज ने अपनी कलम को अपने ही ख़ून में डुबो-डुबोकर बड़े-बड़े अक्षरों में लिख दिया है। सातवें आसमां पर जब इनके कर्मों का लेखा-जोखा प्रस्तुत होगा तो नर्क की सज़ा सुनाई जाएगी इनको। हिंदी पठन-पाठन की अलौकिक शांति में व्यवधान डालने का अक्षम्य अपराध जो किया है इन्होंने।
मिलिए अजूबा नंबर थ्री से। नताशा बधवार। इस औरत से बड़ा फ़ितूरी मैंने अपनी पूरी लाईफ़ में नहीं देखा, बाई गॉड। मैं टीवी चैनल में जब एक टुच्ची-सी रिपोर्टर/प्रोड्युसर थी तो मैडम कुछ तो टॉप टाईप पोस्ट पर थीं। इक्कीस साल की थी तब मैं, और नताशा बधवार के बारे में सुनते-सुनते उसके टाईप बन जाने का वो जुनून था कि जो आज तक कमबख़्त ख़त्म नहीं हुआ है। वैसे इतने सालों में ये भी नताशा से ही सीखा है कि कोई किसी की तरह होता नहीं है, और फिर भी हम सब अपने आस-पास के अजीज़ लोगों के आईने हुआ करते हैं। बहरहाल, फ़ितूरी नंबर थ्री ने ज़िन्दगी में कई फ़ितूर पाले और उन्हें अंजाम तक पहुंचाया। (हाथ कंगन को आरसी क्या, मुझपर यकीन हो न हो गूगल पर तो है)। नताशा का सबसे बड़ा और ख़तरनाक फ़ितूर आजकल 'ऑकर स्काई' नाम के ब्रांड के रूप में फेसबुक पर दिखाई दे रहा है। कसम से कह रही हूं, इस फ़ितूर की पहली ख़बर मिली थी तो मैंने अपना सिर पीट लिया था। अब मैं ही इस फ़ितूर की सबसे बड़ी कायल (और ख़रीददार) हूं। नताशा के फ़ितूर ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि हर फ़ितूर के साथ हम ख़ुद को बेहतर पहचान रहे होते हैं, और ये अपने किस्म की अलग साधना है – एक अलग किस्म का मे़डिेटेशन। ये अपने-अपने आसमान के टुकड़ों को ढूंढ लाने की कोशिश है, जो ताउम्र चलती रहे तो अच्छा।
और आख़िर में, मिलिए अजूबा नंबर फ़ोर से। रोहित भाटिया। मैं डिज़ाईनर-विज़ाईनर, आर्टी टाईप लोगों से ज़रा दूर ही रहती हूं और नताशा के घर रोहित से दो-चार बार मिली तो उसे भी दूर से सलाम किया था। मतलब वो कितना पागल शख़्स होगा जो बच्चों के साथ कमरे की दीवारें पेंट करते हुए पूरा वीकेंड गुज़ार सकता है? जिसे चांदनी चौक टाईप की जगहों पर सुकून मिलता है? जो चाय बनाकर पिलाता है तो दूसरों की जूठी चाय की प्यालियां धोने से भी नहीं हिचकता? जिसका कारोबार वेडिंग ट्रूज़ो पर चलता है? जिसका बस चले तो कुशन कवर्स और पर्दों पर भी ब्रॉकेड की पट्टियां और सलमा-सितारा लगा दे। आई मीन, वियर्ड, रियली। और इसी रियली वियर्ड टाईप के डिज़ाईनर के भीतर के कई रंगों से वाकिफ़ हुई तो चार बार कान खींचे ख़ुद के। हम कितनी आसानी से लोगों को जज कर लेते हैं। स्टीरोटाईपिंग दुनिया का सबसे आसान और ख़तरनाक काम है। इस फ़ितूरी के डिजाईन किए हुए कपड़े मेरा नया फ़ितूर है आजकल - एक किस्म के ऑबसेसिव कम्पलसिव डिसॉर्डर की तरह। जिस डिज़ाईनर की बनाई सलमा-सितारा, कढ़ाई वाली साड़ियों को देखकर दिल घबराता था, उसी का तैयार किया हुआ डिज़ाईन मेरी सबसे अहम कहानी की सबसे अहम किरदार का आईना बन गया! उसकी पहचान बन गया! अपनी पहली किताब के कवर पर उसे जगह देकर ज़िन्दगी भर के लिए उस डिज़ाईन को न भूलने लायक बना दूंगी, ये मैंने अपने वियर्डेस्ट ख़्याल में भी नहीं सोचा था।
चार फ़ितूरियों के इस साझा नतीजे – 'नीला स्कार्फ' ने कई चीज़ें साबित की हैं। पहला, दिल अपनी शक्ल के दिल खोज लेता है।
दूसरा, दिल अपने फ़ितूर को पूरा करने के रास्ते भी खोज लेता है।
तीसरा, ज़िन्दगी में कभी भी ‘I will never do it (or I will never be able to do it)’ नहीं बोलना चाहिए। कुछ भी हो सकता है। कुछ भी!!!
और चौथा, एक फ़ितूर ही है जो आपको भी आपके अंजाम तक पहुंचाएगा। इसलिए अपने भीतर के फ़ितूर शिद्दत से पालिए दोस्तों।
(पोस्टस्क्रिप्ट - मेरे बाबा चीन से मेरे लिए सिल्क का स्कार्फ लेकर आए थे - नीले रंग का स्कार्फ, मेरी सोलहवीं सालगिरह पर। वो स्कार्फ इतना ख़ूबसूरत था कि उसे गले में लटकना दुश्वार हो जाया करता। एकदम अजनबी लोग मुझे रोक कर उस स्कार्फ के बारे में पूछा करते। वो स्कार्फ गुम हो गया कहीं। मैं इस सदमे से कई महीनों तक उबर नहीं पाई। आज भी उस स्कार्फ की बड़ी शिद्दत से याद आती है। गुम हो गए उस नीले स्कार्फ का ग़म मेरे लिए किसी बेहद अजीज़ दोस्त के गुम हो जाने जैसा है। वैसे सच तो ये है कि हम नीले स्कार्फ की तरह कई रिश्ते भी अपनी गर्दन में टांगे फिरते हैं, जिनकी कोई अहमियत नहीं होती - जो एक महंगी एक्सेसरी से ज़्यादा कुछ भी नहीं। जो न शरीर ढंकने का काम करता है, न गर्मी-सर्दी से बचाने का। लेकिन फिर भी गर्दन में शो-पीस की तरह लटकता रहता है, सिर्फ एक मकसद से - हमारे सौंदर्य और दिखावे में इज़ाफ़े के लिए। नीला स्कार्फ कहानी ऐसे ही एक रिश्ते की पड़ताल करती है।
एक और बात - ऑकर मटमैला भूरा रंग होता है। नीले आसमान पर चढ़े गहरे मटमैले बादलों के नीचे गर्दन में नीला स्कार्फ लटकाए बेवजह भटकती किसी लड़की को देखिएगा तो हम फ़ितूरियों के बारे में सोचिएगा ज़रूर।)
http://bit.ly/nsflipkart
http://bit.ly/nshomeshop18
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