(कला विहार का एक अपार्टमेंट। जाली का दरवाज़ा एक प्यारी-सी लड़की खोलती है और हाथ जोड़कर प्रणाम करती है। मां हिचकती, सहमती, डरती, घबराती अंदर आ जाती है। पूरा कमरा खाली है, कोने पर एक छोटी-सी चौकी लगी है बस, जिसपर एक हारमोनियम रखा है - झालर वाले कवर से ढंका हुआ। लड़की मां से फर्श पर बैठने का इशारा करती है। अंदर से सफेद कुर्ते और अलीगढ़ी पायजामें में एक बुज़ुर्ग शख्स निकलते हैं। अंदाज़ लगाना मुश्किल नहीं कि यही गुरुजी होंगे - लखनऊ घराने की परंपरा के वाहक, अच्छन जी महाराज और बिरजू महाराज की प्रतिभा और कला के उत्तराधिकारी। मां आमतौर पर किसी के पैर छूती नहीं, लेकिन इन्हें देखकर अपने-आप उठकर प्रणाम करती है। मां को यहां एक और शास्त्रीय संगीत के साधक ने भेजा है, जिनपर मां की असीम श्रद्धा है।)
गुरुजी: जी बताएं, शमशेर जी ने फोन किया था मुझे। मैं कैसे मदद कर सकता हूं आपकी?
मां: पंडित जी, मैं चाहती हूं कि मेरी बिटिया कथक सीखे, और आपसे सीखे।
गुरुजी: बिटिया की उम्र कितनी है?
मां: गुरुजी, पांच साल की होगी अक्टूबर में। लेकिन घंटों नाचती रहती है। हस्तक मुद्राओं में हाथ घुमाती है और कहती है, मुझे हिंदी वाला डांस ही सीखना है। अब जहां तक मेरी जानकारी है, कथक को ही तो हिंदी नृत्य कहते हैं ना?
गुरुजी (मुस्कुराते हुए): वाह! बच्ची को ले आईए। आजकल बच्चे हिप-हॉप, जैज़, फिल्मी संगीत के ठुमके सीखना चाहते हैं। शास्त्रीय नृत्य कौन सीखना चाहता है? रुझान है तो ज़रूर ले आईए।
मां: जी। (रुककर सोचते हुए) क्या मैं भी सीख सकती हूं आपसे? मैं बत्तीस की हूं, डिस्क की भी परेशानी है, लेकिन अगाध इच्छा है। बचपन में सीखा था, और आज तक लगता रहा है कि मुहाने पर खड़ी रही, समंदर में मिल जाने से बचती रही। समंदर में डूबना चाहती हूं। डूब गई तो ठीक, सांस ऊपर-नीचे हुई तो धार मोड़ लूंगी और मुहाने पर लौट आऊंगी। लेकिन कोशिश करना चाहती हूं।
गुरुजी: (कुछ सोचते हुए) कला दो तरीके से सीखी जाती है - शौक़ से औऱ ख़ौफ़ से। ख़ौफ़ से सीखो तो सीख तो लोगे, लेकिन कुछ हासिल ना होगा। तो आपकी मेहनत भी बेकार और मेरी भी। लेकिन शौक़ से सीखोगे तो अंदर से कुछ बह निकलेगा, उन्मुक्त होकर जियोगे, हवा में संगीत सुनाई देगा, पैरों की आहट में लय दिखाई देगी।
मां: (उत्साहित होकर) शौक़ है गुरुजी। बहुत शौक़ है। क्या कहूं कि कई सालों से नृत्य सीखना चाहती थी, लेकिन पैरों ने अपने-आप कई बंधनों को स्वीकार कर लिया था। कुछ मन के भी बंधन थे। मैं एक बार कोशिश करना चाहती हूं, मन के बंधन खोलने की हिम्मत बड़ी मुश्किल से जुटा पाई हूं।
गुरुजी: लेकिन नृत्य सीखने से क्या होगा? नाच ही क्यों?
मां: नाच मेरे लिए अभिव्यक्ति का एक ज़रिया है। वो कई बातें जो मैं बोल नहीं सकी, लिख नहीं सकी, नाच के माध्यम से कहना चाहती हूं।
गुरुजी: लेकिन एक छोटे बच्चे के साथ आप सिखेंगी कैसे? फिर घर-परिवार की भी तो ज़िम्मेदारियां होती हैं।
मां: एक नहीं, दो छोटे बच्चों के साथ। मेरे जुड़वां बच्चे हैं। घर-परिवार के अलावा बाहर की भी ज़िम्मेदारियां हैं। लेकिन मैं सब कर लूंगी। अभी ना किया तो ज़िन्दगी में कभी ना कर पाऊंगी और मैं किसी अफ़सोस के साथ ना जीना चाहती हूं ना मरना चाहती हूं।
गुरुजी: आपका शरीर साथ नहीं देगा। हो सकता है, आपका मन भी साथ ना दे... संगीत साधना होती है, मनन-चिंतन होता है, संगीत उम्रभर की आहुति मांगता है।
मां: जो उम्र गुज़र गई, मेरे बस में नहीं थी। जो बस में है, उससे निकालकर अपनी साधना के हवाले कर सकती हूं। शरीर और मन को भी वश में करने की कोशिश करूंगी। मुझे एक मौका तो दीजिए।
गुरुजी: लेकिन वक्त चाहिए। वो आपके बस में है? अभ्यास चाहिए। वो होगा आपसे? स्टेज पर आने के लिए बड़ी मशक्कत करनी पड़ती है।
मां: मुझे स्टेज पर आना नहीं है गुरुजी। मैं बंद कमरे में नाच लूंगी। लेकिन मुझे ताल की दुनिया से वाकिफ कराइए। मुझे साधना और अनुशासन में बंधने का एक मौका तो दीजिए, यही मेरे लिए खुद को मुक्त करने, लिबरेट करने का एक रास्ता है।
(गुरुजी सोचते हैं, कमरे में उपस्थित लड़की की ओर देखते हैं। मां को इतनी देर में पहली बार उस लड़की के होने का अहसास हुआ है, नटराज की मूर्ति के बगल में सिर झुकाए कुछ सोचती लड़की को मां ने मूर्ति ही मान लिया था क्या?)
गुरुजी: ठीक है, लेकिन आप सिखेंगी कैसे?
मां: मैं बेटी के साथ नहीं सिखूंगी गुरुजी (मां ने इन्हें गुरु तो मान लिया अब। चाहे मां की शागिर्दी इन्हें स्वीकार हो कि ना हो)।
गुरुजी: वो क्यों?
मां: मैं अपने नाच पर भी ध्यान देना चाहती हूं। बेटी साथ रही तो मैं उसे देखती रह जाऊंगी। और मेरा मकसद ये नहीं है। बेटी सिखेगी तो अपनी प्रतिभा और लगन से, मैं अपनी मेहनत से। दोनों साथ नहीं हो सकता, दोनों में तुलना भी नहीं की जा सकती।
गुरुजी: आपकी इसी बात पर मैं आपको सिखाने के लिए तैयार हूं। बेटी कोने में बैठी उस लड़की से सीख सकती है। ना, ना। उसे कम ना आंकिए। मैं किसी को बताता नहीं, लेकिन वो मेरी शिष्या ही नहीं, मेरी बहू भी है और बचपन से नृत्य-साधना में लीन है। और फिर बच्चों को सिखाने का धैर्य है इसमें। आप तैयार हैं इसके लिए?
मां (चहकते हुए): जी गुरुजी, फिर मैं कल बेटी को लेकर आऊं? रही बात मेरी तो मैं तो अभी से सिखूंगी बस...
(कक्षा प्रारंभ और वार्तालाप जारी...)
बुधवार, 27 जुलाई 2011
रविवार, 24 जुलाई 2011
घर किसको कहते हैं
घर
क्या होता है
घर
किसको कहते हैं
ईंट, गारे, पत्थर,
छत और दीवारें
या ज़मीन भरोसे की,
छत ख़्वाबों का?
घर
रिश्तों की बुनियाद
पर खड़ी एक इमारत
जिसकी दीवारों पर
बच्चों के सपने,
उनकी शरारतें,
खिलखिलाहटें चिपकाईं हैं।
बाबा की खांसी,
दादी की घंटी का स्वर,
नानी की साधना,
नाना के योग के
गूढ़ रहस्यों की
यादें सजाईं हैं।
घर
अपना हो कि ना हो
रोज़-रोज़ की उलझनें,
झगड़े,
प्यार-मोहब्बत,
भागमभाग तो अपनी हो।
घर
बड़ा हो कि ना हो
मेहमानों की कद्र,
आनेवालों का सम्मान
करनेवाला
एक दिल तो बड़ा हो।
घर,
मुझसे मेरा घर,
मेरी पहचान
मेरा वजूद
तो मत मांग लो।
दे ना सकूंगी
इतनी बड़ी कुर्बानी
घुमन्तू हूं
फिर भी घर
लौटकर आती हूं।
क्या होता है
घर
किसको कहते हैं
ईंट, गारे, पत्थर,
छत और दीवारें
या ज़मीन भरोसे की,
छत ख़्वाबों का?
घर
रिश्तों की बुनियाद
पर खड़ी एक इमारत
जिसकी दीवारों पर
बच्चों के सपने,
उनकी शरारतें,
खिलखिलाहटें चिपकाईं हैं।
बाबा की खांसी,
दादी की घंटी का स्वर,
नानी की साधना,
नाना के योग के
गूढ़ रहस्यों की
यादें सजाईं हैं।
घर
अपना हो कि ना हो
रोज़-रोज़ की उलझनें,
झगड़े,
प्यार-मोहब्बत,
भागमभाग तो अपनी हो।
घर
बड़ा हो कि ना हो
मेहमानों की कद्र,
आनेवालों का सम्मान
करनेवाला
एक दिल तो बड़ा हो।
घर,
मुझसे मेरा घर,
मेरी पहचान
मेरा वजूद
तो मत मांग लो।
दे ना सकूंगी
इतनी बड़ी कुर्बानी
घुमन्तू हूं
फिर भी घर
लौटकर आती हूं।
गुरुवार, 21 जुलाई 2011
क्या जी चाहता है
क्या कहें कि आज क्या-क्या जी चाहता है
थोड़ी-सी धूप और थोड़ी छांव भी चाहता है।
शहर का कोलाहल भी, बदहवास भीड़ भीबौराए आम के पेड़ों वाला गांव भी चाहता है।
कुछ बंधन ऐसे हों जो दिलों को बांध लें
मुक्त होकर थिरकते दो पांव भी चाहता है।
साहिल मिल जाए, ऐसी खुशनसीबी हो
लहरों से उलझती एक नाव भी चाहता है।
पूरे होते सपनों को गिनती रही उंगलियां
कभी खाली जेबों-सा अभाव भी चाहता है।
मिश्री हो गीतों में, शहद-सी हो बोलियां
कभी कान उमेठने वाला बर्ताव भी चाहता है।
खाली पन्नों-सा उलटो मुझे, कभी पढ़ा करो
कभी थोड़ी बेरूखी, थोड़ा भाव भी चाहता है।
बुधवार, 20 जुलाई 2011
"Battle Hymns" in the "ROOM"
Being a mother can be very daunting, and yet it can be an extremely humbling experience. It takes you on a roller-coaster ride. I was on one such ride yet again over the past few days, and this time it was because of the two books I read back to back. Right after I finished reading Amy Chua's "Battle Hymns of the Tiger Mother", I got onto Emma Donoghue's "Room", and the hangover still lingers.
Chua's book is about her frantic efforts of giving her two daughters a strict "Chinese" upbringing. Her disciplined and single-dimensional parenting can sometimes perturb you as a parent. Some 30 pages into the book and you find yourself asking too many questions. Can you define parenting this way or the other? Is there a guarantee that a strict child-rearing will result into superior kids? And what's superior anyway? By advocating traditional, ethnically defined approach to parenting, who is she trying to prove a point to?
You sometimes find yourself reacting like her younger daughter Lulu does. Just when you are cursing Chua for forcing her reluctant daughters into a rigorous practice of violin or piano, most of the times to the extent of being unreasonable, the anecdote ends with the daughters mastering a very difficult piece. You can almost imagine the girls’ faces all lit up, determined to work more and more, determined to push themselves some more, practice some more, master some more... That's when you understand that demanding ‘some more’ from your children is not unfair. You are only making them realise their potential, and you are only making sure they achieve what they deserve. While I don't put my style of parenting in a certain bracket, I do accept that Chua also made me question myself. If I wasn't doing enough to discipline my children, was I being plain lazy? Is it not easy to let them be, where it saves me as a parent from a lot of stress and nagging?
So what makes me talk about the two books in one breath? Both happen to be the stories of victories of two mothers, under two very different circumstances. Both celebrate the love between a mother and her child, albeit very differently. ROOM is the story of a five year old boy named Jack, who lives in a eleven by eleven foot room with his mother and has never been out of this room. The room has been Jack's only world, his only identity, till Ma tells him about the world outside. The story is in Jack’s voice and Jack’s belief, wisdom and courage leave you startled. Jack derives his strength from his mother - a victim of abduction, rape and confinement for over seven years. Room has all kinds of emotional punches. It leaves you drained and angry but it leaves you utterly optimistic.
I am going to quote an excerpt from the book. Jack has rescued his mother from the Room, and they have been put in the hospital for recovery – more psychological than physical. Jack and his mother are the talk of the town, and Jack’s Ma wants to do a TV interview, not for anything else, but for the sake of Jack. The money received from the interview could be good enough for Jack’s college fund. When asked very uncomfortable questions about her confinement by the TV anchor, Ma shows her indomitable spirit only a mother could display.
The woman looks down at her paper again. “There you and your baby where, condemned to solitary confinement…”
Ma shakes her head. “Neither of us was ever alone for a minute.”
“Well, yes. But it takes a village to raise a child, as they say in Africa…”
“If you’ve got a village. But if you don’t, then maybe it just takes two people.”
“Two? You mean you and your…”
Ma’s face goes all frozen. “I mean me and Jack.”
Ma is not ashamed of how she has brought up her child. She used the limited means available to her and has given the best to her child. She has taught everything she remembered, understood or knew – poetry, stories, cooking, drawing, hygiene, cleanliness and above all, Faith. She, like Amy, unabashedly believes in their way of bringing up children. This is their way of parenting. Period.
“You don’t think Jack’s been shaped – damaged – by his ordeal?”
“It wasn’t an ordeal to Jack, it was just how things were. And, yeah, maybe, but everybody’s damaged by something.”
Cut to husband and I discussing a script that we are working on. We are working on the protagonist’s parents’ characters.
“Father is not a fool you see. He is well-read. He is sharp. But he is a victim of the circumstances. He gives in because mother is worried about her son, and she makes him do things a certain way. The mother is not a fool either, just that she is a… how do I say it… She is a…”
लेबल:
English,
Motherhood
गुरुवार, 14 जुलाई 2011
रोज़-रोज़ जीती मुंबई
मैं 1999 में पहली बार मुंबई गई थी। TISS का एन्ट्रेन्स था, और मैं चाचाजी के साथ कोलकाता से गई थी। दादर प्लेटफॉर्म पर गीतांजली एक्सप्रेस रात के ग्यारह बजे पहुंची थी, लेकिन उस वक्त भी लोगों का हुजूम भागता-दौड़ता ट्रेन, टैक्सी, बस, ऑटो पकड़ने की जल्दी में था। दादर से निकलकर टिस के कैंपस तक पहुंचने में टैक्सी की खिड़की से मुंबई का जो नज़ारा देखने को मिला था, वो मेरी कल्पना और पर्दे पर नज़र आनेवाली मुंबई के आस-पास भी नहीं था। हम दादर और चेंबूर (वो भी आर के स्टूडियो के सामने से) से होते हुए सायॉन-ट्राम्बे रोड पर मौजूद टिस के हरे-भरे कैंपस में पहुंचे थे। अबतक ना लोकल ट्रेनों से वास्ता पड़ा था, ना आसमान छूती अट्टालिकाओं से। बल्कि आधी रात को जागता-जगमाता शहर मन को भा ही गया था। बाकी टिस का कैंपस कुछ ऐसा था कि वहीं बस जाते तो ज़िन्दगी बन जाती।
ख़ैर, मैं इंटरव्यू तक पहुंची और रिज़ल्ट घर भेज दिया जाना था। उस समय इंटरनेट का इतना प्रचलन नहीं था और फॉर्म, रिजल्ट और बाकी के सारे ज़रूरी काग़ज़ात डाक से ही आया करते थे। मुझे पूरा यकीन था कि मैं मुंबई लौटूंगी ज़रूर, लेकिन शायद चाचा को शक था। उन्होंने एक दिन में पूरा मुंबई दर्शन कराने की ठान ली। हम मरीन लाइन्स भी गए, जुहू भी, बैंड स्टैंड भी गए, सीएसटी स्टेशन भी देखा। हमने अमिताभ बच्चन का घर भी देखा और चांदीवल्ली स्टूडियो भी। कुल मिलाकर मुंबई मुझे जम गई थी। लेकिन किस्मत ऐसी कि टिस में दाखिला ना मिला, आईआईएमसी में मिल गया और मुझे वापस दिल्ली आना पड़ा।
अपने सपने की गठरी संभाले मैं एक बार फिर 2002 में मुंबई जा पहुंची। इस बार इरादा वहीं रह जाने का था। एम.ए. के नतीजे भी नहीं आए थे, लेकिन अरमानों को पंख लगने लगे थे। लेखक, फिल्मकार और एडिटर बनने की ख्वाहिश थी, और ऐसे किसी सपने को मुकम्मल अंजाम तक पहुंचाने के लिए मुंबई में मेरे जैसे हज़ारों लोग हज़ारों हसरतें थैलियों में बांधे शहर की दहलीज़ पर हर रोज़ कदम रखते हैं। मैं दिल्ली से गई थी, वो भी दूसरी बार, सो तकनीकी तौर पर एकदम देहाती तो नहीं कही जाऊंगी, लेकिन इस बार मुंबई मुझे ‘विशाल’ लगी थी। प्लेटफॉर्म पर अकेले उतरी थी और वो भी सुबह आठ बजे। लगा जैसे वापस ट्रेन में बैठकर दिल्ली चली जाऊं। पैरों के सुन्न पड़ जाने और पेट में मरोड़ उठने का वो अहसास मुझे आजतक नहीं भूला। दादर से चार बंगला जाना था, अंधेरी, जहां एक दोस्त के साथ पेइंग गेस्ट बनकर रहना था। ‘भीड़’ जैसा शब्द लोकल ट्रेनों और स्टेशन की भीड़ को सही तरह बयां नहीं कर पाता, ‘बदहवास भीड़’ शायद कर पाए।
किस्मत ऐसी रही कि मुझे मायानगरी में काम या घर ढूंढने के लिए बड़ी कम मेहनत करनी पड़ी। दोस्त भी बड़ी तेज़ी से बने, और मुझे वो शहर रास आ गया। ओशिवारा में स्टूडियो से निकलकर कई बार लोखंडवाला होते हुए मैं चार बंगला पैदल जाया करती थी। मेरा साथ मेरा एक सहयोगी और दोस्त (जो अब एक मशहूर टीवी कलाकार है) हुआ करता था। हमें हर रोज़ लोखंडवाला में कोई ना कोई मिल जाया करता – वहीं मैंने नवीन निश्चल से ‘हंसते ज़ख्म’ पर लंबी बात की, वहीं मोबाइल की एक दुकान में श्रीदेवी को फोन खरीदते देखा। श्रीदेवी और मैंने एक ही मॉडल पसंद किया था, मैंने अपने लिए और उन्होंने अपने ड्राईवर के लिए। लोखंडवाला में ही मैंने आदि ईरानी (अरूणा ईरानी के भाई) से उनकी बहन के फिल्मों में स्ट्रगल की कहानियां सुनीं थीं और वहीं की कॉफी शॉप में एक बार रामगोपाल वर्मा के असिस्टेंट को अपना सीवी पकड़ाया था। पृथ्वी थिएटर में एक अच्छा नाटक देखने के लिए मैं तब्बू के पीछे कतार में खड़ी हुई, बगल वाली सीट पर मेरी ही तरह आयरिश कॉफी और सैंडविच का मज़ा लेती हिबा शाह से एक स्टार पेरेन्ट-कपल की बेटी होने का अनुभव पूछा।
मुंबई के साथ ऐसी कई खुशगवार यादें जुड़ी हैं। वो शहर मैंने अकेले, अपने दम पर ढूंढा, जिया। उस शहर में मैं अकेले फिल्म देखकर रात के दो बजे निकली और सही-सलामत घर पहुंची, उस शहर में मैंने अपनी आंखों से निकले कई नमकीन कतरों को समंदर में बहाया, डुबोया। मेरी मकानमालकिन कभी नहीं पूछती थी कि मैं आखिर कौन-सा काम करती हूं कि शूट आधी रात को ही खत्म होता है? दिल्ली में पांच साल रहने के बाद मुंबई में ना के बराबर ईव-टीज़िंग के अपने अनुभव मुझे सुखद रूप से हैरान करते थे। मुंबई में रहकर जो आज़ादी मैंने महसूस की उसके लिए भी मुझे कोई सही शब्द नहीं मिलता। “Liberated” शब्द कुछ हद तक इस अहसास के करीब लगता है। आज भी कहती हूं कि मुंबई से बिंदास कोई शहर नहीं, मुंबई से सुरक्षित कोई शहर नहीं। तब भी जब बम धमाकों की ख़बर के बाद आप सबसे पहले मुंबई में रह रहे अपने भाई-भाभी के सुरक्षित होने की ख़बर पूछते हैं। तब भी जब खाऊ गली में हुए धमाके की ख़बर शालीमार रेस्टूरेंट में खाए खाने की यादों को हिला देती है। तब भी जब आप लगातार ये सोच रहे होते हैं कि दादर या ओपेरा हाउस से आपके फलां-फलां दोस्त का घर या दफ्तर कितनी दूर होगा या कहीं धमाके की चपेट में आपका कोई अपना तो नहीं आ गया।
मैंने सुबह से अख़बार नहीं देखा, धमाके की ख़बर मिलने के बाद भी समाचार चैनलों को खोलकर पल-पल की ख़बर देखने की ज़ेहमत नहीं उठाया। ख़बरों में वही cliché होगा, उसी तरह के एडिटोरियल्स होंगे जो आप साल-दर-साल पढ़ते आ रहे हैं। ख़बरों में प्रधानमंत्री से लेकर आला अफ़सरों तक के वही अफ़सोस-भरी बातें होंगी। फिर क्या फायदा?
मतलब ये कि हम ऐसे संवेदनहीन हो जाएं कि ऐसी ख़बरों का अपने भाई-बंधुओं की सलामती के अलावा खुद पर कोई असर नहीं पड़े? मुझे लगता है रोना रोने से कुछ होगा नहीं। जो शहर हमारे ख्वाबों को परवाज़ देता है, रोज़ी-रोटी देता है, घर-बार, दोस्त-सलाहकार देता है, उस शहर की सलामती चंद पुलिसवालों के हवाले कर हम निश्चिंत तो हो ही नहीं सकते। हमारी अपनी क्या ज़िम्मेदारी बनती है? थोड़ी-सी। वही सब घिसी-पिटी बातें जो अख़बार-टीवी-रेडियो पर आया करती हैं। अपनी आपाधापी से तो तभी कुछ निकलेगा जब हम सुरक्षित बचेंगे। अपनी आंखें और कान खुले रखना हमारा लिए पर्याप्त होगा। मुझे नहीं मालूम इसका क्या नतीजा निकलेगा, लेकिन सफ़र या काम के दौरान अपने काम के साथ-साथ कुछ भी असाधारण दिखाई दे और हम तुरंत रिएक्ट करें तो हो सकता है कि हमारे-आपके जैसे लोग ही वो काम मुमकिन कर सकें जो अबतक पुलिस या प्रशासन नहीं कर पाई है। वरना वान्टेड लिस्ट लेकर गली-गली घूमने वाली सरकार से क्या उम्मीद करें।
हम अमेरिका नहीं, वैसे प्रतिशोधी बनना भी नहीं चाहते। लेकिन स्वतंत्र देश का स्वतंत्र नागरिक होने के नाते सुरक्षित होना हमारा मौलिक अधिकार है। इस अधिकार को बचाने रखने का दायित्व हमारे माथे पर आ पड़े, ये शायद हममें से कईयों को उचित ना लगे। लेकिन फिलहाल इस दायित्व से हम मुंह नहीं मोड़ सकते। दिल्ली हो या मुंबई, अहमदाबाद या चेन्नई, कोलकाता हो या गुवाहाटी – खुद को सुरक्षित रखने की थोड़ी-सी ज़िम्मेदारी हमारी तो बनती ही है।
बाकी मुंबई तो मैं जल्द ही लौटकर जाऊंगी। सपनों ने दम तोड़ा नहीं है, धमाकों ने कानों को बहरा किया नहीं है और डर में सोचने-समझने की शक्ति छीनने की ताक़त नहीं है। मुंबई की बदहवास बदसूरती को यही भरोसा परे धकेलता रहता है, मुंबई से जुड़ी माया और माया से जुड़े ख्वाबों को यही भरोसा जिलाए रखता है।
सोमवार, 11 जुलाई 2011
यूज़ एंड थ्रो का ओसीडी
रविवार को सफाई का दिन था। सफाई से मेरा मतलब कोने-कोने में घुसकर कतरा-कतरा कचरा निकालना है। मेरी इस आदत से तंग आकर पतिदेव मुझे "मेनियाक" कहते हैं, कहते हैं कि मुझे ओसीडी है - ऑबसेसिव कमपल्सिव डिसॉर्डर। मैं इस आरोप को सिरे से खारिज करती हूं। दो बच्चों वाला घर मेरे स्टैंडर्ड के लिहाज़ से कभी साफ-सुथरा रह सकता है क्या? बहरहाल, मैं ये बताने नहीं बैठी कि मैं कितनी सफाई करने की कुव्वत रख सकती हूं, बल्कि यहां मैं एक दूसरी आत्म-स्वीकृति के लिए आई हूं।
कल मैं बालकनी की सफाई करा रही थी। कोने में पड़ा इन्वर्टर, उसके बगल में दो कार्टन में जाने कबके रखे कागज़-पत्तर, खाली बोतलें, शीशियां, दूसरे कोने में कपड़े का एक शेल्फ जिसमें पहले बच्चों के कपड़े रखे जाते थे, अब पुराने जूते रखती हूं, गैस की खाली सिलेंडरें वगैरह-वगैरह। मैं अपनी कामवाली के साथ सफाई में लगी थी, उससे कहा था कि जिन चीज़ों की मुझे ज़रूरत नहीं, वो लेते जाना। अब कबाड़ीवाले से बहस करने की मेहनत कौन करे? कामवाली चाहेगी तो सामान रखे, चाहे तो बेचे, मेरी बला से। मेरी बालकनी, या यूं कहें कि मेरे सिर का बोझ तो हल्का हो जाएगा।
सो, सफाई शुरू हो गई। कुल चौदह जोड़े चप्पल-जूते-सैंडल ऐसे थे जिनका हमने पिछले एक साल में इस्तेमाल नहीं किया था। टूटे नहीं थे, बस पुराने पड़ गए थे। तभी एक पुराने कैलेंडर को उठाकर कामवाली ने पूछा, “इसका क्या करूं भाभी?” “कचरे में डाल दो,” ये कहते-कहते मेरा मन भारी हो गया। अचानक बचपन की कई सारी बातें याद आ गईं। ऐसे ही कैलेंडर को उलटकर मम्मी हमारी किताबों में ज़िल्द लगाती थीं, ताकि सालभर तक कवर की हुई किताबें फटें नहीं। जो कैलेंडर बच जाया करते वो अलमारियों, दराज़ों में बिछते। और जूते? याद ही नहीं कि इतने जूते किसी के पास हुआ करते थे - जो कमाता था, उसके पास भी नहीं, और हम जैसे बच्चों की ख़ैर कौन पूछे। बहुत बड़े होने तक मैं स्कूल के सफेद जूते पहनकर खेलने भी जाया करती थी, और शाम को कुंए के पास बैठकर उसे धोना-सुखाना, अगले दिन के लिए तैयार करना भी एक काम हुआ करता था हमारा। अचानक याद आया कि सालों से मैं मोची के पास नहीं गई। चप्पल का एक सिरा टूटा नहीं कि वो कबाड़ी में चला जाता है और अगले दिन एक के बदले तीन चप्पलें आ जाया करतीं हैं। मॉल में सेल लगी हो तब तो ख़ैर पूछिए ही मत। नहीं, मैं compulsive shopper नहीं। लेकिन लगता है, सामान फेंक देना और उसके बदले नए ले आना एक तरह का ओसीडी ही तो है।
हमारी पीढ़ी ने abundance जाना है, प्रचुरता देखी है। इसलिए हम बचाना, सहेजना, संभालना नहीं जानते। हमारे पहले की पीढ़ी ने जो सहेजा, हमने उसका सुख भोगा, कृतघ्नता की हद तक। हमसे पहले वाली पीढ़ी ने ज़रूरत से ज्यादा कभी नहीं खरीदा या भोगा। बेमतलब के कपड़े नहीं, सामान नहीं, दूसरों को दिखाने के लिए ताम-झाम नहीं। मुझे अचानक इस बात का अफसोस हो रहा है कि यही उपभोक्तावादी संस्कृति मैं अपने बच्चों को सौंपूंगी। जब सहेजना-समेटना-बचाना मुझे नहीं आया तो इन्हें क्या सिखाऊंगी? मेरे बाबा हमेशा हमें एक किस्सा सुनाया करते थे। जब कॉलेज में दाखिला लेने की बारी आई तो उन्होंने अपने पिता के पास जाकर फुल-पैंट के लिए कपड़े की फरमाइश की। इससे पहले वे हाफ पैंट में स्कूल जाया करते थे। बाबा के पिताजी यानि मेरे परबाबा ने उन्हें एक पुरानी ऊनी चादर पकड़ाई और कहा कि इसी को कटवाकर फुल-पैंट सिलवा लेना। ज़िन्दगी में ऊंचा उठने की प्रेरणा उसी ऊनी चादर से बनी फुल-पैंट से मिली उन्हें। पैंट का ज़िक्र चला है तो मुझे अचानक याद आ रहा है कि मम्मी पुरानी पैंटों को काट-काटकर झोले बनाया करती थीं – सब्ज़ी लाने के लिए काला झोला, राशन लाने के लिए गहरा नीला और पूजा का सामान लाने के लिए क्रीम रंग का झोला। मम्मी आज भी फोन पर पुरानी चादरें और पैंट सहेजकर रखने की हिदायत देती हैं मुझे। मैंने अपनी एक आंटी को शादी के कार्ड सहेजकर रखते देखा है। वे उन कार्ड्स के लिफाफे बनाती हैं, बुकमार्क्स बनाती हैं।
सहेजने के कई किस्से याद आ रहे हैं। ये भी याद आ रहा है कि मेरी मौसी टॉफी के रैपर सहेज-सहेजकर किताबों में रखा करतीं थीं और उन्हीं रैपर्स से उन्होंने फूलों का एक गुलदस्ता बनाया था हमारे लिए। हमारी पीढ़ी यूज़ एंड थ्रो में यकीन करती है। परिवार का एक फाउंटेन पेन शान हुआ करता था सबकी। हमें भी नए क्लास में जाने पर एक कलम मिला करती थी। बॉल पेन का ज़माना आया, और फिर पांच-पांच रुपए की दस कलम खरीदना और फेंक देना जायज़ लगने लगा। अब तो हम सबकुछ फेंक दिया करते हैं। मोबाइल फोन, पुरानी तारें, पुराने कपड़े, ‘मेड इन चाइना’ प्लास्टिक के खिलौने, हज़ारों की तादाद में निकले प्रिंटआउट्स जिनकी अब कोई ज़रूरत नहीं और ना जाने क्या-क्या। इसमें से कुछ बायोडिग्रेडेबल होगा, कुछ नॉन बायोडिग्रेडेबल, लेकिन होगा तो ‘वेस्ट (waste)’ या कबाड़ ही।
कबाड़ जमा करने और धरती पर कबाड़ी का बोझ बढ़ाने वाली हमारी यूज़ एंड थ्रो पीढ़ी की फितरत में ज़िन्दगी, रिश्तों और पैसों को लेकर भी यही फेंक देने की प्रवृत्ति शामिल हो गई है। हम कुछ सहेजकर क्यों नहीं रखते? बचाना, कम खर्च करना, ज़रूरत भर सामान खरीदना हमें क्यों नहीं आया?
कल मैं बालकनी की सफाई करा रही थी। कोने में पड़ा इन्वर्टर, उसके बगल में दो कार्टन में जाने कबके रखे कागज़-पत्तर, खाली बोतलें, शीशियां, दूसरे कोने में कपड़े का एक शेल्फ जिसमें पहले बच्चों के कपड़े रखे जाते थे, अब पुराने जूते रखती हूं, गैस की खाली सिलेंडरें वगैरह-वगैरह। मैं अपनी कामवाली के साथ सफाई में लगी थी, उससे कहा था कि जिन चीज़ों की मुझे ज़रूरत नहीं, वो लेते जाना। अब कबाड़ीवाले से बहस करने की मेहनत कौन करे? कामवाली चाहेगी तो सामान रखे, चाहे तो बेचे, मेरी बला से। मेरी बालकनी, या यूं कहें कि मेरे सिर का बोझ तो हल्का हो जाएगा।
सो, सफाई शुरू हो गई। कुल चौदह जोड़े चप्पल-जूते-सैंडल ऐसे थे जिनका हमने पिछले एक साल में इस्तेमाल नहीं किया था। टूटे नहीं थे, बस पुराने पड़ गए थे। तभी एक पुराने कैलेंडर को उठाकर कामवाली ने पूछा, “इसका क्या करूं भाभी?” “कचरे में डाल दो,” ये कहते-कहते मेरा मन भारी हो गया। अचानक बचपन की कई सारी बातें याद आ गईं। ऐसे ही कैलेंडर को उलटकर मम्मी हमारी किताबों में ज़िल्द लगाती थीं, ताकि सालभर तक कवर की हुई किताबें फटें नहीं। जो कैलेंडर बच जाया करते वो अलमारियों, दराज़ों में बिछते। और जूते? याद ही नहीं कि इतने जूते किसी के पास हुआ करते थे - जो कमाता था, उसके पास भी नहीं, और हम जैसे बच्चों की ख़ैर कौन पूछे। बहुत बड़े होने तक मैं स्कूल के सफेद जूते पहनकर खेलने भी जाया करती थी, और शाम को कुंए के पास बैठकर उसे धोना-सुखाना, अगले दिन के लिए तैयार करना भी एक काम हुआ करता था हमारा। अचानक याद आया कि सालों से मैं मोची के पास नहीं गई। चप्पल का एक सिरा टूटा नहीं कि वो कबाड़ी में चला जाता है और अगले दिन एक के बदले तीन चप्पलें आ जाया करतीं हैं। मॉल में सेल लगी हो तब तो ख़ैर पूछिए ही मत। नहीं, मैं compulsive shopper नहीं। लेकिन लगता है, सामान फेंक देना और उसके बदले नए ले आना एक तरह का ओसीडी ही तो है।
हमारी पीढ़ी ने abundance जाना है, प्रचुरता देखी है। इसलिए हम बचाना, सहेजना, संभालना नहीं जानते। हमारे पहले की पीढ़ी ने जो सहेजा, हमने उसका सुख भोगा, कृतघ्नता की हद तक। हमसे पहले वाली पीढ़ी ने ज़रूरत से ज्यादा कभी नहीं खरीदा या भोगा। बेमतलब के कपड़े नहीं, सामान नहीं, दूसरों को दिखाने के लिए ताम-झाम नहीं। मुझे अचानक इस बात का अफसोस हो रहा है कि यही उपभोक्तावादी संस्कृति मैं अपने बच्चों को सौंपूंगी। जब सहेजना-समेटना-बचाना मुझे नहीं आया तो इन्हें क्या सिखाऊंगी? मेरे बाबा हमेशा हमें एक किस्सा सुनाया करते थे। जब कॉलेज में दाखिला लेने की बारी आई तो उन्होंने अपने पिता के पास जाकर फुल-पैंट के लिए कपड़े की फरमाइश की। इससे पहले वे हाफ पैंट में स्कूल जाया करते थे। बाबा के पिताजी यानि मेरे परबाबा ने उन्हें एक पुरानी ऊनी चादर पकड़ाई और कहा कि इसी को कटवाकर फुल-पैंट सिलवा लेना। ज़िन्दगी में ऊंचा उठने की प्रेरणा उसी ऊनी चादर से बनी फुल-पैंट से मिली उन्हें। पैंट का ज़िक्र चला है तो मुझे अचानक याद आ रहा है कि मम्मी पुरानी पैंटों को काट-काटकर झोले बनाया करती थीं – सब्ज़ी लाने के लिए काला झोला, राशन लाने के लिए गहरा नीला और पूजा का सामान लाने के लिए क्रीम रंग का झोला। मम्मी आज भी फोन पर पुरानी चादरें और पैंट सहेजकर रखने की हिदायत देती हैं मुझे। मैंने अपनी एक आंटी को शादी के कार्ड सहेजकर रखते देखा है। वे उन कार्ड्स के लिफाफे बनाती हैं, बुकमार्क्स बनाती हैं।
सहेजने के कई किस्से याद आ रहे हैं। ये भी याद आ रहा है कि मेरी मौसी टॉफी के रैपर सहेज-सहेजकर किताबों में रखा करतीं थीं और उन्हीं रैपर्स से उन्होंने फूलों का एक गुलदस्ता बनाया था हमारे लिए। हमारी पीढ़ी यूज़ एंड थ्रो में यकीन करती है। परिवार का एक फाउंटेन पेन शान हुआ करता था सबकी। हमें भी नए क्लास में जाने पर एक कलम मिला करती थी। बॉल पेन का ज़माना आया, और फिर पांच-पांच रुपए की दस कलम खरीदना और फेंक देना जायज़ लगने लगा। अब तो हम सबकुछ फेंक दिया करते हैं। मोबाइल फोन, पुरानी तारें, पुराने कपड़े, ‘मेड इन चाइना’ प्लास्टिक के खिलौने, हज़ारों की तादाद में निकले प्रिंटआउट्स जिनकी अब कोई ज़रूरत नहीं और ना जाने क्या-क्या। इसमें से कुछ बायोडिग्रेडेबल होगा, कुछ नॉन बायोडिग्रेडेबल, लेकिन होगा तो ‘वेस्ट (waste)’ या कबाड़ ही।
कबाड़ जमा करने और धरती पर कबाड़ी का बोझ बढ़ाने वाली हमारी यूज़ एंड थ्रो पीढ़ी की फितरत में ज़िन्दगी, रिश्तों और पैसों को लेकर भी यही फेंक देने की प्रवृत्ति शामिल हो गई है। हम कुछ सहेजकर क्यों नहीं रखते? बचाना, कम खर्च करना, ज़रूरत भर सामान खरीदना हमें क्यों नहीं आया?
रविवार, 3 जुलाई 2011
कुछ यूं गुज़रे लम्हे
इस आभासी दुनिया में अपने पेज, अपने ब्लॉग, अपनी पहचान के एक हिस्से पर लौटना एक किस्म की घरवापसी जैसा है। मुझे ठीक इस वक्त, लिखते हुए, अपने ब्लॉग पर अपना लिखा हुआ देखते हुए कुछ वैसा ही महसूस हो रहा है जैसा रांची के घर की ठंडी फर्श को अपने पैरों के नीचे महसूस कर होता है। मेरे पास फिलहाल लिखने को कुछ नहीं। जहां थी, वहां ना कंप्यूटर था ना इंटरनेट कनेक्शन। अख़बारों, समाचार चैनलों से पिछले दो महीने से मैंने जान बूझकर को कोई वास्ता नहीं रखा। ये एक किस्म का 'सेल्फ-इम्पोज़्ड एक्ज़ाइल' था। एक किस्म का ग्रीष्मस्वापन, एक किस्म का ठहराव, जिसकी मेरे मन, मेरे शरीर को सख्त ज़रूरत थी। इस मौन ने मुखर होने के कई तरीके खोले हैं। इस चुप्पी के बाद मुझमें अपने मन की बात ज़्यादा हिम्मत और विश्वास के साथ कहना आया है। अगले कुछ दिनों में इस बात का यहां पुख्ता सबूत देने की कोशिश करूंगी।
फिलहाल दो महीने क्या किया, चलते-चलते ये बता दूं। दशहरी, आम्रपाली और मालदह आम खाने के अलावा पेड़ से लाल लीचियां तोड़कर खाईं। कुछ चीकू, कुछ जामुन का स्वाद लिया। दालचीनी, आंवला और नीम के पेड़ देखकर तरोताज़ा हुई। गुलमोहर की डालियों पर फूलों के गुच्छों की गिनती की। इससे वक्त मिला तो बच्चों के साथ मिट्टी के खिलौने बनाए और उनमें रंग भरे। उससे फुर्सत मिली तो छत पर लेटकर हम तीनों ने तारों की बारात निकाली और चांद की सोनपरी से शादी रचाई। जब ये करते-करते भी थक गए तो बारिश की बूंदें ओक में भरकर अपनी छोटी-छोटी बाल्टियां भरीं। दादी से गांव की कई कहानियां सुनीं - उस ज़माने के बारे में सुना जब लोग अपने घोड़ों पर बैठकर पूर्णियां जाया करते थे, जब कोसी का पानी गांव के गांव लील जाता था, जब दादी की ननद के ससुराल में पूरा का पूरा गांव नदी के धारा के बदलने से लापता हो गया था, जब सोना किलो के भाव से मिलता था, जब कहानियां चादर पर रेशम की कढ़ाई में उतरती थी, जब लकड़ी और उपलों पर बने खाने में कढ़छुल से शुद्ध घी उंडेला जाता था, जब अनाज की बोरियां बाईस-पच्चीस बैलगाड़ियों पर लादकर शहर जाती थीं, जब पानी खूब पड़ता था - इतना कि कुंए में ठहरता था, आंखों में रुकता था।
उससे मन भर गया तो हम तीनों (मैं और आद्या-आदित) ने कई सवालों के जवाब ढूंढने की कोशिश की। कुछ के जवाब मिले, कुछ के नहीं। इनमें से किसी सवाल का जवाब आपको मिले तो हमें ज़रूर बताएं। हम तीनों आपके आभारी होंगे।
1. लीची के पेड़ आम के पेड़ से, आम के पेड़ जामुन से, जामुन के नीम से और नीम के आंवले से अलग क्यों होते हैं?
2. सूरज थककर कहां बिस्तर लगाता है? चांद रात में ही क्यों आता है?
3. बड़े बाबा, बड़े नाना, बड़ी दादी, सब कहां चले जाते हैं? भगवान उनको क्यों बुलाते हैं?
4. किसी का रंग गोरा, किसी का काला क्यों?
5. मछली पानी में ही क्यों रहती है? चिड़िया आसमान में ही क्यों उड़ती है?
6. जिराफ की गर्दन इतनी लंबी? हाथी की सूंड लटकती हुई? ऐसा क्यों?
7. टॉम और जेरी दोस्त क्यों नहीं बनते? इतनी लड़ाई अच्छी बात है क्या?
8. भगवान कहां रहते हैं? 'हमारे मन में' नहीं बोलना मम्मा। मन भी तो दिखाई नहीं देता।
(ऊपरवाली तस्वीर परोरा की है, आदित और आद्या के पुश्तैनी घर की)
फिलहाल दो महीने क्या किया, चलते-चलते ये बता दूं। दशहरी, आम्रपाली और मालदह आम खाने के अलावा पेड़ से लाल लीचियां तोड़कर खाईं। कुछ चीकू, कुछ जामुन का स्वाद लिया। दालचीनी, आंवला और नीम के पेड़ देखकर तरोताज़ा हुई। गुलमोहर की डालियों पर फूलों के गुच्छों की गिनती की। इससे वक्त मिला तो बच्चों के साथ मिट्टी के खिलौने बनाए और उनमें रंग भरे। उससे फुर्सत मिली तो छत पर लेटकर हम तीनों ने तारों की बारात निकाली और चांद की सोनपरी से शादी रचाई। जब ये करते-करते भी थक गए तो बारिश की बूंदें ओक में भरकर अपनी छोटी-छोटी बाल्टियां भरीं। दादी से गांव की कई कहानियां सुनीं - उस ज़माने के बारे में सुना जब लोग अपने घोड़ों पर बैठकर पूर्णियां जाया करते थे, जब कोसी का पानी गांव के गांव लील जाता था, जब दादी की ननद के ससुराल में पूरा का पूरा गांव नदी के धारा के बदलने से लापता हो गया था, जब सोना किलो के भाव से मिलता था, जब कहानियां चादर पर रेशम की कढ़ाई में उतरती थी, जब लकड़ी और उपलों पर बने खाने में कढ़छुल से शुद्ध घी उंडेला जाता था, जब अनाज की बोरियां बाईस-पच्चीस बैलगाड़ियों पर लादकर शहर जाती थीं, जब पानी खूब पड़ता था - इतना कि कुंए में ठहरता था, आंखों में रुकता था।
उससे मन भर गया तो हम तीनों (मैं और आद्या-आदित) ने कई सवालों के जवाब ढूंढने की कोशिश की। कुछ के जवाब मिले, कुछ के नहीं। इनमें से किसी सवाल का जवाब आपको मिले तो हमें ज़रूर बताएं। हम तीनों आपके आभारी होंगे।
1. लीची के पेड़ आम के पेड़ से, आम के पेड़ जामुन से, जामुन के नीम से और नीम के आंवले से अलग क्यों होते हैं?
2. सूरज थककर कहां बिस्तर लगाता है? चांद रात में ही क्यों आता है?
3. बड़े बाबा, बड़े नाना, बड़ी दादी, सब कहां चले जाते हैं? भगवान उनको क्यों बुलाते हैं?
4. किसी का रंग गोरा, किसी का काला क्यों?
5. मछली पानी में ही क्यों रहती है? चिड़िया आसमान में ही क्यों उड़ती है?
6. जिराफ की गर्दन इतनी लंबी? हाथी की सूंड लटकती हुई? ऐसा क्यों?
7. टॉम और जेरी दोस्त क्यों नहीं बनते? इतनी लड़ाई अच्छी बात है क्या?
8. भगवान कहां रहते हैं? 'हमारे मन में' नहीं बोलना मम्मा। मन भी तो दिखाई नहीं देता।
(ऊपरवाली तस्वीर परोरा की है, आदित और आद्या के पुश्तैनी घर की)
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