याद आता है
येज़डी पर सामने बिठाकर
"तोहफा" फिल्म देखने के लिए
पांच साल की पोती को
दूर सुजाता थिएटर ले जाना।
फिर "मौसम मौसम" की धुन
पोती के साथ आते हुए गुनगुनाना।
पंजाब स्वीट हाउस के
पन्तुए अब उतने मीठे नहीं लगते बाबा।
उनमें मिठास तो आपकी
ना खत्म होनेवाली कहानियां घोलती थीं।
हमने सीखा है बाबा
एक इतवार को दिलचस्प बनाना।
बाकी छह दिनों में
फैक्ट्री की असेम्बलिंग लाईन
और अपने काम को
शिद्दत से प्यार करना सिखाना
भी तो था आपका ही काम।
हमने देखा है बाबा,
ईंट-ईंट जोड़कर
कैसे बनता है घर,
और कैसे उस घर के दरवाज़े
खुले रहते हैं दिन-रात
अतिथियों के लिए।
कैसे गुलाबी पर्दों और दीवारों पर
टंग जाती हैं पूरे होते सपनों की निशानियां,
कैसे आसमान छूते हुए भी
पैरों तले की ठंडी ज़मीन
साथ नहीं छोड़ती।
हमने सिखा है बाबा
धर्म, जाति, उम्र से परे बनते हैं
दिल के रिश्ते,
परिवार छोटा-सा नहीं होता,
चाहो तो पूरी दुनिया समाती है उसमें।
देखा है काजू कतली के एक टुकड़े से
पूरे मोहल्ले का मुंह मीठा होते हुए।
हमने देखी है दरियादिली,
सीखा है पैसे को हाथ का मैल
क्यों कहते हैं दोस्तों।
याद है मुझको अब भी
अपनी हथेली में कैसे जकड़ा था
आपने मेरा हाथ,
जाते-जाते अपना भरोसा थमाया था मुझको
हमने सिखा है बाबा,
गुज़र जाना किसको कहते हैं,
और बार-बार हरकतों में,
सपनों, हकीकतों में से
कौन गुज़रा करता है नौ सालों से।
हमने सीखा है बाबा
आंसुओं की नहीं,
कर्म की श्रद्धांजलि अर्पित करना,
हमने सीखा है
स्टीयरिंग व्हील पर अपने हाथों में
आपके खुरदुरे हाथों की
लकीरें ढूंढना।
हमने सीखा है
सपनों में आपको बुलाकर
चौराहे में से अपनी राह पूछ लेना।
हमने सीखा है प्यार करना,
चलती सांस से,
अपने आस-पास से।
हमने सीख लिया है बाबा
खुद में आपको ढूंढ लेना
हमने सीख लिया है बाबा
आपको अपने साथ रख लेना।
(बाबा को हमने 1 मार्च 2002 से देखा नहीं, छुआ नहीं, उनकी आवाज़ नहीं सुनी। बस इतना ही मलाल है। वरना बाबा को तो हमने हर पल जिया है नौ सालों में।)