मंगलवार, 29 मार्च 2011

Dus bahaane...

1. I don't revolt. My stomach does.

2. Mamma doesn't have it. Papa doesn't have it. So why should Adit?

3. Let Adya have mine as well. She wants to grow her hair really fast. I should help her.

4. I don't like the colour. No. Blue is my favourite colour you see.

5. Too hot.
6. Too cold.

7. Superman doesn't have it. Spiderman doesn't have it. Doremon doesn't have it. Tom has it. And he is naughty.

8. I like clean houses. I don't like dirty, stinking houses. If I have it, I will throw up. I don't want my house to get dirty. 

9. Baby cries. Cow's baby. Give it to her. 

10. I don't like it. Simple. Why should I drink it? I don't make excuses.

All this and more, for that one cup of milk I want him to drink!

रविवार, 13 मार्च 2011

मां की डायरी के पन्नों से...

बाबा बाबा कही के जे लाल्टू पुकारे ले,
बाबा भईनी डूमरी के फूल मोरे भाई जी।
बाबा जब जीती गईनी,
घरे आईल छोड़ी देहनी,
गंऊआ के छोड़ी दिहनी याद मोरे भाई जी।
जाहूं हम जनती जे
बाबा घरे ना आएब,
बाबा के हम कबहूं ना
जितईती मोरे भाई जी।
अपने घरे बैइठी जइती,
लोगवो के बैठाई देहती,
बाबा के हम भोटवा ना दिलईती मोरे भाई जी।


(ये कविता मेरी मां श्रीमती प्रतिभा सिंह ने 1971 में लिखी - जब उनके बाबा रामदेव सिंह महाराजगंज सीट से जीते, और सांसद बने। रामदेव बाबू ने उस साल बिहार के मुख्यमंत्री रहे महामाया बाबू को हराया था। कहते हैं कि उस साल मुकाबला बहुत ज़बर्दस्त था। उस तिकोने मुकाबले में एक और धुरंधर नेता थे - कम्युनिस्ट नेता इंद्रदीप सिंह। बाबा ने दोनों को हराया और संसद पहुंचे। लेकिन दिल्ली की गलियों में आकर बाबा गांव को भूल गए और उन्हें उसी गांव और वहां की ज़िम्मेदारियां याद दिलाने के लिए मां ने ये कविता लिखी। बाबा गांव लौटे, अगले दस सालों तक सांसद रहे और जनता के नेता कहे जाते रहे। लेकिन ये कविता आज भी उतनी ही सटीक है, उन सभी नेताओं के लिए, जो अपना गांव, अपने लोगों को भूल जाया करते हैं। लाल्टू मेरे छोटे मामाजी का नाम है। )

हादसा

शीतल आज भी कमरे से बाहर नहीं आई। खाना भी कमरे में ही पहुंचाया गया। कुछ खाया, कुछ प्लेट में ही छोड़ दिया। चिकन को तो हाथ भी नहीं लगाया।  एंजेल को कितना पसंद था चिकन! जब टेबल पर खाने बैठते, बगल वाली कुर्सी पर आकर बैठ जाती। कुछ कहती नहीं थी, बस गोल-गोल आंखों से शीतल की ओर देखा करती। जब चिकन का एक टुकड़ा मुंह की ओर बढ़ाया जाता, लपककर ऐसे पकड़ती जैसे पता नहीं कब की भूखी हो! खाने का मज़ा तो एंजेल के साथ आता था।

रवि भी दो दिन से ऑफिस नहीं गए थे। एंजेल के बगैर सबकुछ कितना खाली लग रहा था। कुछ हुआ भी तो नहीं था उसे। रात में खाना खाया और ठीक से ही सोने आई कमरे में। शीतल एसी ऑफ करने के लिए उठी तो देखा कि एंजेल ने पूरे फर्श पर उल्टी कर रखी है। शीतल ने घबराकर रवि को उठाया और रात के तीन बजे से ही एंजेल को अस्पताल ले जाने और डॉक्टर-दवाओं के चक्कर का जो सिलसिला शुरू हुआ, अगले तीन दिनों तक चलता रहा। लेकिन एंजेल को नहीं बचाया जा सका।

शीतल और रवि की तो जैसे दुनिया ही उजड़ गई। एंजेल की उछल-कूद और आवाज़ों से गुलज़ार रहनेवाला घर अब वीरान लगता। शीतल को इस हालत में छोड़कर जाना रवि के लिए मुश्किल था। लेकिन नौकरी तो करनी थी। ऑफिस से बार-बार फोन आ रहा था। पूरी दुनिया के लिए एंजेल एक जानवर भर थी, एक कुतिया, लेकिन रवि और शीतल ने तो उसे बच्चे से बढ़कर पाला था। रवि ये बात किसे-किसे समझाता।

तैयार होकर रवि ने सुबोध को आवाज़ दी। सुबोध ड्राइंग रूम के बाहर दरवाज़े पर खड़ा था, सर झुकाए।

"गाड़ी की सर्विसिंग हो गई?"

"जी साब।"

"इंजन ऑयल बदला था?"

"जी साब।"

"मुझे ऑफिस छोड़कर घर आ जाना। मेमसाब को कही जाना हो तो ले जाना। उनकी तबियत ठीक नहीं है। उन्हें इस हालत में गाड़ी नहीं चलानी चाहिए।"

"जी साब। साब आधे दिन की छुट्टी चाहिए और पांच सौ रुपये भी।"

"क्यों? फिर छुट्टी? मैं कह रहा हूं मेमसाब की तबियत ठीक नहीं है। घर में इतना बड़ा हादसा हुआ है। और तुम कह रहो हो छुट्टी चाहिए?"

"....."

"कुछ बोलते क्यों नहीं? ज़ुबान को लकवा मार गया है?"

"साब, आज सुबह पांच साल का मेरा नाती मर गया। उसको दफनाने जाना है। कफन के लिए पैसे चाहिए थे, इसलिए..."

मंगलवार, 8 मार्च 2011

हिम्मत, जो कमज़ोर नहीं पड़ती

स्वीडन की एक महिला पत्रकार के साथ महाराष्ट्र के वाशिम ज़िले के एक गांव में हूं। हम विदर्भ में महिलाओं के स्वयं सहायता समूहों पर एक फीचर के लिए महिलाओं से बातचीत कर रहे हैं। ये वो इलाका है जहां के 95 फीसदी किसान कर्ज़ के बोझ तले दबे हैं और हर गांव में कम-से-कम एक परिवार ऐसा है जहां परिवार के मुखिया ने आत्महत्या की है। "कई समस्याएं हैं," एक महिला कहती है, "पानी नहीं है, बिजली नहीं है, खेती के लिए पैसे नहीं है, अस्पताल दूर है।" "लेकिन दीदी, हमें ये बताइए कि हम अपने पैरों पर कैसे खड़े हो सकते हैं," कमरे में पीछे से किसी महिला की धीमी-सी, लेकिन आत्मविश्वास से लबरेज आवाज़ सुनाई देती है। "हम पापड़, अचार, अगरबत्ती बनाना सीखना चाहती हैं, कुछ पैसे कमाना चाहती हैं", बातचीत का सिलसिला जारी रहता है। बेशक गांव की महिलाओं के आत्मविश्वास और स्वावलंबी होने की इस आकांक्षा को किसी स्वयं सहायता समूह से जुड़ जाने पर और ताकत मिली है। लेकिन आख़िर हर महिला में भी अपने हालात बदलने की पुरज़ोर ख़्वाहिश होती होगी जो उन्हें एक समूह से जुड़कर और मज़बूत बनने के लिए प्रेरित करती है।

 मेरे सामने महिला शक्ति की ऐसी कई मिसालें हैं - हर उदाहरण अपने आप में एक पदक पाने के काबिल। पुरुष वर्चस्व और पितृसत्ता पर लंबी बहस की यहां आवश्यकता नहीं। इस बैठक में मौजूद हर महिला अपनी हैसियत जानती है। बिना किसी चुनौतीपूर्ण व्यक्त्व्य के अपने परिवार और अपने आस-पास के लिए हालात बदलने का इनका जज़्बा महिला दिवस के नाम स्त्री-विमर्श और सशक्तिकरण पर हर साल लंबी-लंबी बहस छेड़ने वाली हम जैसी महिलाओं के लिए एक प्रेरणा है।

मेरे घर काम करनेवाली देवी सुबह से शाम तक जिस चक्की में पिसती है, उसकी लकीरें बाहर से नज़र नहीं आती। महिला सशक्तिकरण उसके लिए कोई मायने नहीं रखता। शारीरिक रूप से श्रमसाध्य और मानसिक रूप से निर्भीक होकर उसके लिए अपना काम करते जाना, महीने के आखिर में घर चलाने और बच्चों को स्कूल भेजने के लिए चंद रुपए कमा लेना ही ज़िन्दगी का एकमात्र मकसद है। पड़ोस में एक स्टेशनरी दुकान चलानेवाली महिला ने कभी अपना दुखड़ा किसी के सामने नहीं रोया, उनकी कहानी हमने टुकड़ों-टुकड़ों में सुनी भर है।

मुझे हर उस महिला की हिम्मत हैरान करती है जो हर रोज़ अपने घर-परिवार-बच्चों की ज़िम्मेदारी संभालते हुए अहले-सुबह काम के लिए निकल जाया करती है। हर वो लड़की ब्रेवरी अवॉर्ड की हकदार लगती है जो बसों, ट्रेनों, रिक्शों, सड़कों पर चलते हुए छेड़छाड़ और शोषण का शिकार होती है, लेकिन फिर भी घर से निकलने की हिम्मत रखती है। हर उस महिला के लिए मेरे मन में असीम श्रद्धा है जिसने अपनी महत्वकांक्षाओं और प्रतिभाओं को ताक पर रखकर परिवार के लिए खुद को समर्पित कर दिया।

बैठक से निकलने के बाद मेरी स्वीडिश महिला पत्रकार सोफी से बातचीत जारी रहती है। सोफी मुझे माया एंजलो की कविता "फिनोमिनल वूमैन" की पंक्तियां सुनाती है। इन असाधारण महिलाओं, फिनोमिनल वूमैन, की तस्वीरें किसी अखबार, किसी पत्रिका के मुखपृष्ठ पर छपें ना छपें, अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की सही तारीख की इन्हें जानकारी हो या ना हो, असाधारण तो ये तब भी रहेंगी। तमाम चु्नौतियों के बीच इनकी जीवटता हर रोज़ के संघर्ष से निखरती है।

शुक्रवार, 4 मार्च 2011

गीत टूटे-फूटे से...

तुमको बोलो क्यों जाने दूं?
क्यों खोलूं अपना दरवाज़ा,
तन्हाई अंदर आने दूं?

बात चली ही है तो हो जाए,
ज़िद पर हो तुम भी और हम भी
तुम गुस्से में, मैं भी रुस्वा,
किसको किससे टकराने दूं?

तुमपर जो हक़ है वो तो है
अब रूठो या फिर कुछ बोलो
ये झगड़े अपने हिस्से के
ऐसे कैसे सुलझाने दूं?

मुंह फेरा है फिर से तुमने
मैं भी पागल हूं, जाने दो,
आओ माथे पर दूं बोसा
इस गुस्से को घुल जाने दूं।

कुकिंग बनाम राइटिंग


बारहवीं के इम्तिहान खत्म हुए और मां ने सोचा, लड़की को खाना-वाना बनाना सीखा दिया जाए। घर में तो ये चौके में घुसने से रही सो, मुझे कुकिंग क्लास के लिए भेज दिया गया। कुकिंग क्लास का नाम आ-ला-कार्ट। तंदूरी, दक्षिण भारतीय, मुग़लई, कॉन्टिनेन्टल, इटालियन, लेबनीज़, जापानी, ग्रीक, मेक्सिन.... हर तरह के कुइज़िन में से आपके पास कोई भी, या फिर हर तरह की कुकिंग सीखने का विकल्प।

पापा को मेरा कुकिंग क्लास जाना बिल्कुल नहीं सुहाता था। "खाना बनाना भी कोई सीखने वाली चीज़ है? अच्छा खाना खाने का शौक हो तो आप कुछ अच्छा बना ही लेंगी। पढ़ना-लिखना सीखिए, वो काम देगा आगे।" पापा ने फ़रमान जारी कर दिया। इतना ही नहीं, हर रोज़ एक पन्ना लिखने की आदत भी डाल लो, कह दिया उन्होंने। सो वो गई बोर्ड के बाद की छुट्टियां और मस्ती करने की शाही योजनाएं पानी में। मैं कुकिंग और राइटिंग के बीच का कोई संतुलन ढूंढने में ही रह गई।

कुकिंग और राइटिंग की तुलना क्यों? क्योंकि दस साल पहले तक ये दोनों करियर ऑप्शन के तौर पर नहीं देखे जाते थे, हॉबी के तौर पर देखे जाते थे। लेकिन अब तो "मास्टरशेफ" आपको मशहूर बना देता है, पच्चीस साल की उम्र में मीनाक्षी माधवन और अद्वैता काला बेस्टसेलिंग राइटर बन जाते हैं। वैसे राइटिंग या कुकिंग एक-दूसरे से बहुत अलग तो हैं नहीं। खाना बनाना शुरू करते हुए किचन में आप पहले अपने लिए एक्सपेरिमेंट करते हैं, फिर आत्मविश्वास बढ़ते ही दूसरों को अपना कुक किया हुआ खाना सर्व करते हैं। ठीक वैसे ही जैसे लिखना शुरू तो हम स्वान्तः सुखाय करते हैं, लेकिन धीरे-धीरे अपना लिखा हुआ दूसरों को भी पढ़ाना चाहते हैं। जैसे हर पैलेट को अलग-अलग स्वाद भाता है, वैसे ही हर पाठक की भी पसंद अलग-अलग होती है। कुकिंग का स्टाईल एक जैसा नहीं हो सकता, राइटिंग का भी नहीं। बेशक हम राइटिंग और कुकिंग, दोनों को एक रेसिपी फॉर्मैट में डाल दें। कुकिंग बुफे और आ-ला-कार्ट, दोनों तरीके से सर्व किया जाता है। राइटिंग भी। कुकिंग और राइटिंग, दोनों लिहाज़ से फीडबैक चाहते हैं हम। एक और बात। जैसे कुकिंग को धीमी आंच और धैर्य बेहतर बनाते है वैसे ही राइटिंग के लिए भी खुद को तपाना होता है - धीमी आंच पर। 

जहां तक मेरा सवाल है, कुकिंग और राइटिंग के लिहाज़ से मेरा ध्येय तय था। राइटिंग करूंगी एक हिंदुस्तानी थाली की माफ़िक, जिसमें सूखे पुलाव या चावल को गीला करने के लिए दाल हो, तरी भी। कभी मुंह का स्वाद सूखी भुजिया बदले, कभी अचार-चटनी चटपटापन लाए। कभी पापड़ जैसा करारा लेखन हो, कभी सलाद जैसा हेल्दी और ज़रूरी। कुकिंग तो सेवन कोर्स मील ही करना चाहती थी – एकदम सेफ कुकिंग। खानेवाले को अपेटाइज़र पसंद ना आया, तो शायद सूप अच्छा लग जाए। सलाद के मामले में तो सुरक्षित बच ही जाऊंगी। कोई एक डिश तो ऐसा होगा जो मेरी नाक कटने से बचा लेगा। नहीं तो सोरबे टाईप का पैलेट रिफ्रेशर मुंह में जाते ही पिछले स्वाद की नाकामियां घुल जाएंगी। डेज़र्ट तक आते-आते पब्लिक वाह-वाह कर रही होगी। लेकिन दुर्भाग्य ऐसा कि दोनों फाइनल लक्ष्य गड्ड-मड्ड हो गए। अब होता यूं है कि हिंदुस्तानी थाली बोतलबंद अचार, धनिया-पुदीने की चटनी, अरहर की दाल और आलू की भुजिया के साथ तो मैं बना ही लेती हूं, लेखन ऐसा खांटी नहीं हो पाता। बल्कि सब उलटा हो गया। लगता है, राइटिंग ही सेवन कोर्स मील टाईप करती हूं। ये नहीं तो वो अच्छा लिख ही डालूंगी!

वैसे एक और राज़ की बात साझा करती हूं यहां। मेरी हिंदुस्तानी कुकिंग से मेरे घरवाले इतना ही कतराते हैं कि कहते हैं, "अपनी एक कविता ही सुना दो। खाना हम बना लेंगे।" लेकिन आपके लिए दुआ करती हूं कि काग़ज़ पर आपकी कलम और कढ़ाही में आपका पलटा अनवरत चलते रहें। आख़िर राइटिंग और कुकिंग, दोनों में महारत हासिल करने में क्या बुराई है?

बुधवार, 2 मार्च 2011

बाबा, आपके लिए...

याद आता है
येज़डी पर सामने बिठाकर
"तोहफा" फिल्म देखने के लिए
पांच साल की पोती को
दूर सुजाता थिएटर ले जाना।
फिर "मौसम मौसम" की धुन
पोती के साथ आते हुए गुनगुनाना।
पंजाब स्वीट हाउस के
पन्तुए अब उतने मीठे नहीं लगते बाबा।
उनमें मिठास तो आपकी
ना खत्म होनेवाली कहानियां घोलती थीं।

हमने सीखा है बाबा
एक इतवार को दिलचस्प बनाना।
बाकी छह दिनों में
फैक्ट्री की असेम्बलिंग लाईन
और अपने काम को
शिद्दत से प्यार करना सिखाना
भी तो था आपका ही काम।

हमने देखा है बाबा,
ईंट-ईंट जोड़कर
कैसे बनता है घर,
और कैसे उस घर के दरवाज़े
खुले रहते हैं दिन-रात
अतिथियों के लिए।
कैसे गुलाबी पर्दों और दीवारों  पर
टंग जाती हैं पूरे होते सपनों की निशानियां,
कैसे आसमान छूते हुए भी
पैरों तले की ठंडी ज़मीन
साथ नहीं छोड़ती।

हमने सिखा है बाबा
धर्म, जाति, उम्र से परे बनते हैं
दिल के रिश्ते,
परिवार छोटा-सा नहीं होता,
चाहो तो पूरी दुनिया समाती है उसमें।
देखा है काजू कतली के एक टुकड़े से
पूरे मोहल्ले का मुंह मीठा होते हुए।
हमने देखी है दरियादिली,
सीखा है पैसे को हाथ का मैल
क्यों कहते हैं दोस्तों।

याद है मुझको अब भी
अपनी हथेली में कैसे जकड़ा था
आपने मेरा हाथ,
जाते-जाते अपना भरोसा थमाया था मुझको
हमने सिखा है बाबा,
गुज़र जाना किसको कहते हैं,
और बार-बार हरकतों में,
सपनों, हकीकतों में से
कौन गुज़रा करता है नौ सालों से।

हमने सीखा है बाबा
आंसुओं की नहीं,
कर्म की श्रद्धांजलि अर्पित करना,
हमने सीखा है
स्टीयरिंग व्हील पर अपने हाथों में
आपके खुरदुरे हाथों की
लकीरें ढूंढना।
हमने सीखा है
सपनों में आपको बुलाकर
चौराहे में से अपनी राह पूछ लेना।
हमने सीखा है प्यार करना,
चलती सांस से,
अपने आस-पास से।
हमने सीख लिया है बाबा
खुद में आपको ढूंढ लेना
हमने सीख लिया है बाबा
आपको अपने साथ रख लेना। 

(बाबा को हमने 1 मार्च 2002 से देखा नहीं, छुआ नहीं, उनकी आवाज़ नहीं सुनी। बस इतना ही मलाल है। वरना बाबा को तो हमने हर पल जिया है नौ सालों में।)