सोमवार, 1 नवंबर 2010

आऊंगी एक दिन। आज जाऊं?

मैं कहां हूं?
आज मिलूंगी मैं किधर?

अपनी ही तलाश में
निकली हूं घर से।
लौटूंगी फिर यहीं,
इसी चौखट पर।

मेरी ख़ुद से
एक जंग है आज।
निकलना है आगे,
ख़ुद से ही मुझको,
ये है ऐसा सफ़र।

जो लौटी तो ठीक,
ना लौटी तो
संभाले रखना
मुझे मेरे साथी,
यहीं, इसी जगह पर।

5 टिप्‍पणियां:

POOJA... ने कहा…

बहुत ही खूबसूरत रचना...

Manoj K ने कहा…

जो लौटी तो ठीक,
ना लौटी तो
संभाले रखना
मुझे मेरे साथी,
यहीं, इसी जगह पर

यह कैसी तमन्ना.. ना जी ना .. घर तो जाना पड़ेगा..
मूड कुछ अल्हदा मालूम पड़ता है ..?!

PN Subramanian ने कहा…

"एक जंग है आज।
निकलना है आगे,
ख़ुद से ही मुझको"
सुन्दर अभिव्यक्ति. दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं.

Deepak chaubey ने कहा…

दीपावली के इस पावन पर्व पर आप सभी को सहृदय ढेर सारी शुभकामनाएं

गंगेश राव ने कहा…

अच्छी लगी आपकी ये कविता ...........

आपके ब्लॉग पर पहली बार आया हूँ (सौजन्य "एक आलसी का चिट्ठा" )

आपकी ये रचना बहुत कुछ post-colonial literature की याद दिलाती है जहां आपको 'आत्म-युगनद्ध' बहुत कुछ दिख सकता है ....

"self is like an onion.........if you try to reach its center @end nothing will remain....'

आपके उत्तर की प्रतीक्षा में.......
सादर