बाहर मौसम अच्छा है और समंदर से होकर नारियल के पेड़ों से उलझती हुई हमारी खिड़कियों तक पहुंच रही है। मैं बाहर जाने के लिए बेचैन हूं, बच्चों को घुमाने के लिए ले जाना तो एक बहाना है।
"हम कहां जाएंगे?" आद्या कहीं जाने के लिए जल्दी तैयार नहीं होती। उसे भीड़ से उलझन होती है। मुझे भी होती है। आप सबको होती होगी।
"हम जॉगर्स पार्क नहीं जाएंगे", उसने मोर्चा खोल दिया है। मैं उसे नए प्ले एरिया में ले जाने का लालच देती हूं। आदित तब तक अपने कुछ ब्लॉक्स और खिलौने लेकर तैयार हो गया है।
"हम ये कहां ले जा रहे हैं?"
"कुछ नहीं मिला तो वहीं खेल लेंगे अपने खिलौनों से मम्मा।"
आई वुड वॉन्ट टू कॉल हिम ए प्रॉब्लम सॉल्वर, मैं मन ही मन सोचती हूं।
बाहर मेरे पहले आदित ऑटो रोकता है। कार्टर रोड, भैया। फिर मेरी ओर देखता है, "मैंने सही कहा ना मम्मा?"
हम घर से थोड़ी दूर निकल आए हैं। इस शहर में हर जगह बेतरह भीड़ होती है, प्ले एरिया में नहीं होगी, इसकी मुझे उम्मीद भी नहीं। बमुश्किल पचास फीट बाई पंद्रह फीट की जगह में बच्चे औऱ बड़े ओवरस्पिल हो रहे हैं। मेरे बच्चे हैरत से उस भीड़ को देखते हैं। आद्या आगे भी नहीं जाना चाहती। आदित ने खिलौनों का बैग मुझे पकड़ाया है और स्लाईड के लिए कतार में खड़ा हो गया है। एक के बाद एक मंकी लैडर है, सी-सॉ है, स्विंग्स हैं। आदित की देखा-देखी आद्या भी लाईन में लगकर एक-एक झूले झूलने लगी है। मैं आद्या-आदित के उस घर के बारे में सोच रही हूं जहां के लॉन में तीन सौ बच्चे खेलते हुए समा जाया करते हैं, जहां शाम को झूलों पर आद्या-आदित का एकछत्र आधिपत्य होता है। हम ज़िन्दगी में कैसे-कैसे विकल्प चुन लिया करते हैं, नहीं?
भीड़ में बने रहने के लिए मैं फिर भी इन्हें प्रोत्साहित करती हूं। इन बच्चों के लिए चांदी की थाल पर सजकर कोई सुख नहीं आएगा। इनके लिए कोई रास्ता नहीं छोड़ेगा। यहीं, इसी दुनिया में, इन्हीं लोगों के बीच बने रहना है, खुद को बचाए रखना है। मेरा दम घुट रहा है, लेकिन फिर भी....
थोड़ी देर में दोनों भाई बहन प्ले एरिया के एक कोने में खड़े हो गए हैं।
"हम नीचे बैठ जाएं? मिट्टी में? हां, यहीं खेल लेंगे। आप हमें घर जाकर नहला देना।"
मैं घूमकर झूलों की ओर देखती हूं। ना, सब्र चूक चुका है। हम फिर से कतार में नहीं लग सकते, स्लाईड पर होने के लिए एक-दूसरे को धक्का देते हुए नहीं चढ़ सकते, मैं फिर इन्हें 'इंतज़ार कर लो' की नसीहत नहीं दे सकती।
मेरी हामी भरते ही दोनों धप्प से काली रेत पर बैठ गए हैं। क्रेन निकल आए हैं, ब्लॉक्स भी। आदित ऋषि बनकर इंद्रदेवता का आह्वान कर रहा है। आद्या मिट्टी का माधव बना रही है। मैंने थोड़ी देर के लिए इस ख़्याल को ज़ेहन से बाहर धकेल दिया है कि जाने कहां-कहां की चप्पलें इस रेत से गुज़री होंगी, जहां बड़े मज़े में बच्चे खेल रहे हैं। आख़िर डिटॉल किस मर्ज़ की दवा है? मैं ध्यान भटकाने के लिए चित्रा बनर्जी की 'वन अमेज़िंग थिंग' में आंखें घुसा देती हूं।
थोड़ी देर में दो बच्चे और आ गए हैं साथ में, "मम्मा देखो हमारे फ्रेन्ड्स"।
बच्चे भीड़ से अलग लैंप की रौशनी में अपने किले बना-बिगाड़ रहे हैं। मैं सोच रही हूं कि जब इन्होंने इन नए अनजाने क्षेत्र में अपनी जगह तय कर ली, तो मुझे किस चीज़ का डर सताता है हमेशा?
12 टिप्पणियां:
i too write diary......
its fun to write as well as to read someone else's....
:-)
anu
अये शाम के फरिश्तों जरा देख कर चलो
बच्चों ने साहिलों पर घरौंदे बनाए हैं.
पर किसे है फुरसत, देखने की ...बच्चों को अपने घरौंदे खुद ही बचाना सीखना होगा..और वे बड़ी जल्दी सीख भी जाते हैं...ये तो हम बड़े हैं...जो समय लगाते हैं...
हर प्रकार के वातावरण में रहने की आदत डालनी होगी।
always be practical it helps to survive.nice post.
बच्चे ही नहीं बड़े भी हर परिवेश के अनुरूप ढल जाते हैं -यह मनुष्य प्रजाति ऐसे ही नहीं सौर परिवार जेता बन गयी है .. फिकर नाट :)
कल 30/04/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
सुन्दर प्रस्तुति
Bachche man ke sachche :)
बेहतरीन प्रस्तुति।
बस यही तो फर्क है बड़ो और बच्चों में .....हम नाहक ही अपने बनाये मापदंडों में उन्हें खरा उतरते देखना चाहते हैं ....भूल जाते हैं की पानी ढलान की तरफ ही बहता है
आज कि सामाजिक स्थिति को देखते हुए बच्चों को हर तरह के परेवेश में रहने कि आदात डालनी ही पड़ती है। सार्थक रचना
Zikr-e- Fikr se door....bebaak...bekhauf...befikr rahiye di... hausla badi cheez hai !
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