गर्मी की छुट्टियों में मैं ससुराल में थी, पूर्णियां में। दिनभर दो-चार ही काम होते थे, जीभकर के लीची, आम और चीकू खाना, जीभर के सोना और उमसभरी दोपहर में बच्चों को सुलाने के लिए जीभर के झूठी-सच्ची कहानियां बुनना। एक काम और भी था, मैचिंग चूड़ियों औऱ बिंदियों के साथ शिफॉन की रंग-बिरंगी साड़ियां पहनकर आस-पास के मंदिरों के दर्शन करने जाना। आरएन शाह चौक पर का महावीर मंदिर मेरा फेवरिट हुआ करता था। मंदिर से ठीक सटी किताबों की एक दुकान थी जहां आधी पत्र-पत्रिकाएं तो मैं खड़े-खड़े पढ़ जाती। किताब की दुकान वाले अंकल जी को बहूरानी का यूं चौक पर खड़ा होना नहीं भाता था। कहते, ड्राईवर को पर्ची लिखकर भेज दिया करो, किताब हम घर ही भेजवा देंगे। उनको क्या बताती कि इस इकलौती आउटिंग को खो देना किसी कीमत पर गवारा नहीं था।
उसी किताब की दुकान पर एक उपन्यास देखा - मैं बोरिशाइल्ला। महुआ माजी... नाम इतना सुना हुआ क्यों है? ये रांची वाली महुआ तो नहीं? वहीं महुआ थीं जिन्हें मैं आठवीं से जानती थी। जिन्हें आकाशवाणी पर सुना था, जिनकी कविताएं रांची एक्सप्रेस में पढ़ी थीं। झट से किताब उठा ली और चार दिनों में चार सौ पन्ने पढ़ गई, एक सुर में। महुआ की किताब पढ़कर मैं इतनी ही खुश थी कि जाने किसको किसको फोन करके उस किताब के बारे में बताया। इसमें शक नहीं कि कथानक और भाषा शैली के लिहाज़ से मैं बोरिशाइल्ला वाकई अद्भुत है। लेकिन मुझे एक गृहिणी का लेखिका में परिणत हो जाना और इस तरह की एक महाकथा लिख डालने की हिम्मत करना ही पुलकित कर रहा था।
किसी तरह महुआ का फोन नंबर ढूंढ निकाला और उन्हें फोन किया तो वो पुणे में एफटीआईआई में फिल्म अप्रीसिएशन का कोर्स कर रही थीं। पंद्रह दिन बाद हमने रांची में मिलना तय किया और पंद्रह दिन तक मैं उस महुआ के बारे में सोचती रही जिससे रांची में मिली थी पहली बार - जो अंग्रज़ी सीखने के लिए एक इंस्टीट्यूट में जाया करती थी और जिस क्लास में मैंने अपनी मां की उम्र की महिलाओं को ग्रामर पढ़ाया था एक दिन।
उस क्लास में भी महुआ अलग दिखती थीं, अब भी अलग दिखती हैं। ठीक वैसी ही, जैसी दस साल पहले थीं। मैं कितना बदल गई थी लेकिन। तब कॉलेज में थी, अब दो बच्चों की मां हूं। तब रंग-बिरंगे ख़्वाबों के पंखों पर सवार रहती थी, अब हक़ीकत की सख़्त ज़मीन थी पैरों के नीचे। फिर महुआ वैसी की वैसी कैसे थी? दरअसल, महुआ भी वैसी की वैसी नहीं थी। एक लंबा सफ़र तय किया था उन्होंने और लेखन अपनेआप में थका देनेवाली एक प्रक्रिया होती है। ख़ासकर तब जब लोग आप पर तरह-तरह के लांछन लगाने से भी बाज़ ना आएं।
सुना है कि उनकी दूसरी किताब के लिए भी कई पुरस्कारों ने नवाज़ा गया है उन्हें। अभी दूसरी किताब पढ़ना बाकी है, लेकिन मैं बोरिशाइल्ला और महुआ की लेखन-यात्रा पर उनसे हुई बातचीत के हिस्से यहां पेस्ट कर रही हूं, जो अपने लैपटॉप की सफाई के दौरान मिले मुझे। दुआ ये भी है कि वो लिखती रहें, छपती रहें और सराही जाती रहें।
(बातचीत जून २०१० में महुआ के घर रांची में हुई।)
अनु- महुआ जी, जब मैं आपसे पहली बार २००१ में रांची में मिली थी तो आपको एक घरेलू महिला के रूप में देखा था। एक ऐसी घरेलू महिला के रूप में, जिसमें कुछ करने की ललक थी, एक नया क्षितिज तलाश करने की ख्वाहिश थी। फिर नौ सालों में ये सफ़र कैसे तय किया?
महुआ - मैं रांची में ही पली-बढ़ी। वैसे तो हम मूलतः ढाका के हैं, लेकिन मेरे दादाजी तीस के दशक में ही रांची आकर बस गए। मेरे नानाजी बोरिशाल, बांग्लादेश के थे। उनका परिवार भी पचास के दशक में कोलकाता आ गया। मैं ज़रूर बंग-भूमि में नहीं रही, लेकिन झारखंड और कोलकाता के बंगाली परिवारों से सामिप्य की वजह से बंगाली संस्कृति से कभी दूर नहीं थी। १७ साल की थी तो मेरी शादी हो गई। १८ साल में बड़ा बेटा हुआ, २० में छोटा बेटा। हम संयुक्त परिवार में थे, इसलिए कम उम्र में ही मैंने सभी पारिवारिक ज़िम्मेदारियां उठाना सीख लिया। बच्चों को बड़ा किया। पत्नी, बहू का कर्तव्य निभाया। ये सब करते हुए भी पढ़ने-लिखने का शौक नहीं छूटा। बच्चे बड़े हुए तो मैंने बी.ए., एम.ए., पी.एच.डी. किया। खाली समय में मैं डटकर पढ़ती। लिखने की हिम्मत ज़रूर देर से आई।
अनु - गंभीर लेखन की शुरूआत कैसे हुई? आप पहले कविताएं लिखा करती थी। मुझे याद है कि आकाशवाणी, रांची से युवावाणी में और कई बार दूरदर्शन पर भी आप कविताएं पढ़ा करती थीं।
महुआ -(हंसकर) अब वे कविताएं खुद को ही बचकानी लगती हैं। पहले कविताएं ही लिखना शुरू किया जो स्थानीय अखबारों में छपी भी। लेकिन साहित्य के फलक पर मुझे पहली पहचान २००१ में मिली, जब कथादेश के नवलेखन अंक में मेरी पहली कहानी “मोइनी की मौत” छपी। वो कहानी दरअसल मैंने एक थीसिस के लिए शोध के दौरान लिखी। रांची में हमारे घर के पास एक आदिवासी बस्ती थी, जिसपर मैं कुछ रिसर्च कर रही थी। उसी क्रम में कहानी लिख डाली। पाठकों को कहानी पसंद आई, संपादकों ने प्रोत्साहित किया और फिर लिखने का सिलसिला चल पड़ा।
अनु - यानि पद्य से गद्य तक का सफर सुनियोजित नहीं था?
महुआ -कविताएं मुझे बहुत सुकून देती हैं। कालिदास से लेकर रवीन्द्रनाथ टैगोर तक, जहां तक मुमकिन हो सका है, मैं सबकुछ पढ़ती रही हूं। लेकिन गद्य के ज़रिए अपने विचारों को ज़्यादा विस्तृत और व्यवस्थित ढंग से पाठकों तक पहुंचाया जा सकता है। फिर अपने अनुभवों में मैंने जो भी सहेजा-समेटा उसे कहानियों में ढालना शुरू कर दिया। कहानीकार के तौर पर ही राष्ट्रीय स्तर पर मेरे लेखन की संभावना को पहचाना गया। उसके बाद मैंने गुणीजनों के सान्निध्य में स्वयं को और तराशा। रचानाएं जब छपने लगीं कि तो मुझे साहित्यिक सभाओं में बुलाया जाना लगा जो मेरे लिए बहुत लाभदायक साबित हुआ। इससे मुझे हिन्दी मुख्यधारा साहित्य को समझने का मौका मिला, पाठक क्या चाहते हैं, आलोचकों की विभिन्न रचनाओं के बारे में क्या राय है, ये मैंने मंच पर और मंच के पीछे साहित्याकारों से लगातार संपर्क में रहते हुए सीखा।
अनु - लेखन के लिए इस तरह की नेटवर्किंग कितनी आवश्यक है?
महुआ -देखिए, नेटवर्किंग जैसा शब्द इसकी गंभीरता को थोड़ा कम करता है। बल्कि मैं कहूंगी कि आप लिखें और छपें, इसके लिए ज़रूरी है कि आप साहित्य के संपर्क में रहें। हिंदी की महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं को उलट-पुलटकर देखें, आलोचक क्या लिख रहें हैं ये समझने की कोशिश करें। साहित्यकार के लिए भी खुद को अपटूडेट रखना बहुत ज़रूरी है वरना आपकी कलम की धार भोथरी होने लगेगी, विचार फीके पड़ने लगेंगे। नए लोगों के साथ-साथ क्लासिक्स को, पुराने लेखकों को भी पढ़ना बेहद ज़रूरी है। मूल बात ये कि एक कुकून, एक सुरक्षा कवच में रखकर आप लेखन जैसा काम नहीं कर सकते।
अनु - कहानियां लिखते-लिखते “मैं बोरिशाइल्ला” लिखने का विचार कैसे आया?
महुआ -ये उपन्यास भी पूर्वनियोजित नहीं था। जैसा कि मैंने किताब की भूमिका में लिखा है और आपको बताया भी, हम मूलतः बांग्लादेश के हैं। मैं कभी बांग्लादेश नहीं गई, लेकिन बचपन से दादी-नानी, मां और अपने कई रिश्तेदारों से ढाका और बोरिशाल की इतनी कहानियां सुनी कि बांग्लादेश जैसे मेरी कल्पना में बस गया। बंटवारे के बाद और साठ के उत्तरार्द्ध में हमारे कई रिश्तेदार भारत आकर बस गए। लेकिन उनकी जन्मभूमि उनकी यादों में बसी रही, जिसकी तमाम सारी कहानियां हमें सुनने को मिलती रही। उपन्यास के मुख्य पात्र केष्टो भी हमारे संबंधी ही हैं। बोरिशाल मैंने दो लोगों की नज़रों से देखा – एक मेरी नानी और दूसरे केष्टो घोष। मैंने जब बोरिशाल की कहानी लिखनी शुरू की तो उन्हीं के नोस्टैलजिया को आधार बनाया। लेकिन कहानी लिखने के क्रम में बांग्लादेश अभ्युदय के कई और पहलू सामने आने लगे, कई और तथ्य जुड़ते चले गए। एक देश को और बेहतर समझने और उसके बारे में लिखने की मेरी लालसा बढ़ती गई और तब मैंने और गंभीरता से शोध शुरू कर दिया। कोलकाता में बसे उन तमाम लोगों से बातचीत की जिन्होंने इस कालखंड को बहुत करीब से देखा और झेला। लेकिन मेरे दिमाग में ये बहुत स्पष्ट था कि बांग्लादेश के अभ्युदय की गाथा लिखते हुए मैं इसे मात्र एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ के रूप में नहीं लिखना चाहती थी। ये भी सच था कि कथानक तथ्यों पर आधारित था, इसलिए इतिहास के साथ छेड़छाड़ नहीं की जा सकती थी। इसलिए मैंने देश के लोगों के ज़रिए उसकी कहानी कही, लेकिन साक्ष्यों को आधार बनाया। जहां तक संभव हो सका, लिखित सामग्री की खोज की। लोगों के अनुभव और शोध, दोनों इस उपन्यास के लेखन में भरपूर इस्तेमाल हुए।
अनु - “मैं बोरिशाइल्ला” एक बहुआयामी उपन्यास है। इसमें इतिहास है, राजनीति है, समाजशास्त्र है, यहां तक कि पत्रकारिता भी है। आपने उपन्यास में एक पत्रकार को पन्ने-दो पन्नों में ही जगह दी है, लेकिन वो एक आंकड़ा पेश करता है जो पूर्वी पाकिस्तान के साथ पश्चिमी पाकिस्तान के पक्षपाती रवैए को पुष्ट करने के लिए काफी है। इतने सारे गंभीर तथ्यों के बीच भी आपने भाव-प्रवाह और काव्यात्मकता बरकरार रखी। ये संतुलन कैसे मुमकिन हो सका?
महुआ -यहां मेरा कवि होना काम आया। दरअसल, उपन्यास लेखन के लिए शिल्प और कथानक दोनों ज़रूरी है। कथाकार तभी सफल होगा जब वो एक अच्छी कहानी कहेगा, साथ ही उसे बेहतर ढंग से पेश भी कर सकेगा। जहां तक इस उपन्यास का सवाल है, मैंने इतिहास को साहित्य में ढालने की कोशिश की और उसके लिए तथ्यों को मुकम्मल तरीके से समेटकर पेश करने का प्रयास किया। मैं जानती थी कि कहीं-कहीं तथ्य बोझिल हो रहे हैं। लेकिन पाठक बेशक पन्ने पलटे, उन तथ्यों को देना बहुत ज़रूरी था। जानकारी देने के क्रम में कथा-रस बाधित होता है, लेकिन मैं इस उपन्यास को एक ऐसा दस्तावेज़ बनाना चाहती थी जो उस देश और काल-खंड से जुडी समस्त राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जानकारियां पाठकों तक पहुंचाए। मुझसे कई लोगों ने कहा कि बांग्लादेश की कहानी लिखी और आपने शेख मुजीबुर्रहमान को हीरो नहीं बनाया? लेकिन मैं आम बांग्लादेशियों के संघर्ष की गाथा लिखना चाहती थी और ईश्वर की कृपा से मैं सफल भी रही।
अनु - केष्टो के ज़रिए बांग्लादेश की गाथा कई परतों में पाठकों के समक्ष खुलती है। पूर्व बंगाल का लोक-जीवन, स्वाधीनता के लिए संघर्ष, विभाजन की विभीषिका, युद्ध की भीषणता, शासन परिवर्तन का व्यापक प्रभाव, सांप्रदायिक दंगों की आग – इतना सबकुछ समेटना कैसे मुमकिन हो सका?
महुआ -सच कहूं तो इस उपन्यास में आईं नब्बे प्रतिशत घटनाएं सच्ची कहानियां हैं जो मैंने उपन्यास के लिए शोध के दौरान सुनीं। मैं तो बस एक माला की तरह इन्हीं सच्ची कहानियों को पिरोती चली गई। लेकिन ये इतना आसान भी नहीं था। महीनों तो मुझे शोध करने में लगे। चूंकि पूरे उपन्यास में ऐतिहासिक तथ्यों को आधार बनाया गया है, इसलिए पात्रों को प्रामाणिक बनाना आवश्यक था। मेरी कल्पना-शक्ति कहानियों को एक सूत्र में पिरोने के काम आई, लेकिन घटनाक्रमों को इकट्ठा करने के लिए मैंने सालों मेहनत की। कई मुक्तियोद्धाओं से मिली, उनके परिवारों से मिली। पत्र, लेख, डायरी के पन्नों को कथा का आधार बनाया। ऐतिहासिक साक्ष्यों के लिए कोलकाता में बांग्लादेश हाई कमीशन की लाइब्रेरी में घंटों गुज़ारे। जहां तक हो सका, अख़बार, पत्र-पत्रिकाएं खंगाल डाली। यहां तक कि केष्टो का भी ५० पन्नों का इंटरव्यू लिया। दरअसल, कई मुक्तियोद्धाओं की कहानी केष्टो के संघर्ष के ज़रिए दिखाई गईं हैं। एक केष्टो बांग्लादेश की आम जनता की तकलीफों का प्रतीक है। केष्टो के ज़रिए ही मैंने विभिन्न लोगों की कहानियों को एक सूत्र में पिरोया। मसलन, केष्टो के ननिहाल की कहानी मेरी मां के ननिहाल की कहानी है। “वो देखो खुड़शोशुर” पाठ में जिस शौंकोरी की चर्चा है वो किस्सा मेरी दादी सुनाया करती थीं। बल्कि मुझे तो लगता है, कई बार ईश्वर ने भी पाठ को पूरा करने में मेरी मदद की। एक उदाहरण देती हूं। बोरिशाल में स्वाधीनता संग्राम के दौरान चल रही सरगर्मियों का प्रसंग लिख रही थी। तभी एक सुबह एक स्थानीय अखबार में संपादकीय पृष्ठ पर एक लेख पढ़ा – बोरिशाल पर। लेख था कि कैसे बांग्लादेश के बोरिशाल से पहली बार “वंदे मातरम्” स्वाधीनता का मंत्र बनकर निकला। रांची में बैठकर बोरिशाल पर अनायास ही लेख पढ़ना, इसे ईश्वरीय पहल ही तो मानेंगे। लिखने के क्रम में ऐसी कई घटनाओं से मेरी हिम्मत बढ़ती गई। एक के बाद एक स्त्रोत मिलते चले गए और मेरी लेखनी चलती रही। मेरी कल्पना ने इतिहास के तथ्यों को गल्प से जोड़ने का काम किया।
अनु - आप बांग्लादेश कभी नहीं गई, फिर वहां के लोक-जीवन को कैसे साकार कर पाईं? जिस अंचल को देखा तक नहीं उसका इतना मार्मिक चित्रण?
महुआ -एक बंगाली के लिए पानी में डूबे अंचल की कल्पना मुश्किल नहीं। भैला बनाने और उसपर चढ़कर आस-पास के गांव घूम आने की कहानियां भी मैंने खूब सुनी हैं। पश्चिम बंगाल की बाढ़ के दृश्यों से मैंने पूर्वी बंगाल के गांवों के चित्रण की प्रेरणा ली। जहां तक भौगोलिक विवरण का सवाल है, मैंने बांग्लादेश के मानचित्र की मदद ली। आपको एक प्रसंग याद होगा जहां क्रैकडाउन के दौरान केष्टो आलम के साथ ढाका से भाग निकलता है। बोरिशाल के लिए जो तय रास्ता है, वो खतरे से खाली नहीं। इसलिए दोनों जंगल, गांव, बस्ती, नदी, तालाब, सड़क के रास्ते कभी नाव, कभी बैगलगाड़ी पर और कभी पैदल बोरिशाल तक पहुंचने की कोशिश करते हैं। इस प्रसंग के लिए भी मैंने बांग्लादेश के मानचित्र की मदद ली और तब जाकर इस यात्रा का सही-सही विवरण मुमकिन हो सका कि यात्रा किस रास्ते होगी, कितने दिन लगेंगे, कौन से गांव रास्ते में पड़ेंगे वगैरह। जहां तक लोकगीतों का सवाल है, मुझे शुरू से अपनी पसंद के गीत और कविताओं को एक जगह लिखने की आदत रही है। उपन्यास लिखने के दौरान ये संग्रह काम आया। और ये कहूं कि प्रकृति चित्रण की प्रेरणा कालिदास से मिली तो अतिशयोक्ति ना होगी।
अनु -आप पर ये भी आरोप लगे कि ये रचना आपकी मौलिक नहीं है। ये भी कहा गया कि उपन्यास का पूर्वार्द्ध तो किसी की डायरी का हिस्सा है।
महुआ -(हंसकर) और आपने ये भी सुना होगा कि मैंने चंद लाख रुपए देकर ये उपन्यास लिखवाया। इसकी सफाई में कुछ कहना बोलनेवालों को और मौके देने जैसा होगा। पहले ऐसी बातें चोट पहुंचाती थीं, लेकिन पाठकों की चिट्ठियां पढ़ती हूं तो सभी मलाल धुल जाते हैं। मैं अपनी ऊर्जा किसी तरह की सफाई देने में लगाने की बजाए अपने अगले उपन्यास को लिखने पर केन्द्रित करना चाहूंगी। मझे पूरी उम्मीद है कि मेरा अगला उपन्यास मेरे लेखन को लेकर जो शंकाएं हैं उनका समाधान कर देगा।
अनु - रांची जैसी जगह में बैठकर लिखना कितना मुश्किल है? क्या पारिवारिक और सामाजिक ज़िम्मेदारियां आड़े नहीं आतीं?
महुआ -मैंने अपनी प्राथमिकताएं हमेशा स्पष्ट रखी हैं। मैंने लिखना तभी शुरू किया जब मेरे बच्चों का करियर एक दिशा पकड़ चुका था। मैं बेशक एक लेखिका हूं, लेकिन फेमिनिज़्म का झंडा मैंने अपने घर के अंदर नहीं उठाया। घरवालों को कभी शिकायत का मौका नहीं दिया। यही वजह रही कि मुझे अपने पति और बच्चों का पूरा समर्थन मिला। लिखने के दौरान भी मैं कई बातें अपने बच्चों से बांटती हूं और अटकने पर वे मेरी मदद भी करते हैं। तकनीक की समझ मुझमें नहीं, तब मेरे बेटे ही मेरा काम आसान करते हैं। मैं राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मसलों पर पढ़ते-लिखते हुए भी अपने परिवार के प्रति ज़िम्मेदारियों को नहीं भूलती। जहां तक रांची में बैठकर लिखने का सवाल है, ऐसा नहीं कि मैं इस दायरे से बाहर नहीं निकलती। मैं शहर, राज्य, देश के बाहर भी जाती हूं, विभिन्न परिचर्चाओं में शामिल होती हूं। प्रतिभा किसी भौगोलिक चौहद्दी की मोहताज नहीं होती।
अनु - अब महुआ माजी से पाठकगण क्या उम्मीद रखें? अगला क्या लिख रही हैं आप?
महुआ -अगला उपन्यास झारखंड पर ही है। यहां के आदिवासियों को केन्द्र में रखकर कुछ लिख रही हूं। इसके अलावा फिल्म जैसे माध्यम को भी बेहतर समझना चाहती हूं। अभी एफटीआईआई, पुणे से एक महीने का कोर्स करके लौटी हूं। मुंबई में कुछ फिल्मकारों से बातचीत भी हुई। बस ये समझ लीजिए कि लिखती रहूंगी और जहां तक हो सकेगा, पाठकों तक सार्थक, प्रासंगिक कहानियां पहुंचाती रहूंगी।
2 टिप्पणियां:
लेखिका से परिचय का आभार। कभी उपन्यास मिला तो पढ़ेंगे।
बहुचर्चित उपन्यास की अजीम लेखिका महुआ माजी से आपका यह साक्षात्कार सचमुच एक साहित्यिक धरोहर है ...राहत है लैपटाप से यह गायब नहीं हुआ और आज इतिहासद्ध हो गया....एक बात बड़ी महत्वपूर्ण कहा है उन्होंने -साहित्यकार को भी अपडेट रहना होता है -अद्यतन! मगर ध्यान रखियेगा साहित्य का कालजयी होना ही उसका लिटमस टेस्ट है !
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