मैंने कल रात कन्टेजियन नाम की एक फ़िल्म देखने की भयंकर ग़लती कर दी. असल ज़िन्दगी में वायरस की भयावहता कम है क्या कि उस पर किताबें पढ़ी जाएं, फ़िल्में देखी जाएं, वो भी लॉकडाउन के दिनों में! लेकिन अमेजॉन प्राइम की ट्रेन्डिंग फ़िल्मों में से है कन्टेजियन. उसी तरह नेटफ़्लिक्स पर भी डिस्टोपिया की फ़िल्में ट्रेन्ड कर रही हैं, सुना है. यानी, हम इंसान सही मायने में मैसोकिस्ट हैं. हमें स्वपीड़न में ही सुख मिलता है.
सेल्फ़ आइसोलेशन का आलम ये है कि कचरा निकालने के अलावा पिछले चौदह दिनों में दरवाज़े से बाहर नहीं निकली. बाहर वैसे भी सन्नाटे के अलावा नज़र भी क्या आना है. सूनी सूनी आँखों से सन्नाटा तकते-सुनते लोगों को देखकर मिलेगा भी क्या. कितना लंबा वक़्त काटा होगा सोते हुए ऑटो-टैक्सीवालों ने? भूख लगी होगी तो कहां गए होंगे? फल और सब्ज़ियों के ठेलों पर तो लेटने की जगह भी नहीं होती. उनका पहाड़-सा दिन कैसे कटता होगा? २१ दिनों के पहले चरण के लॉकडाउन का आठवां दिन ही है आज. ऐसे न जाने और कितने दिन काटने होंगे.
और नफ़रतें हैं कि कम ही नहीं होती.
अपने शहर की एक प्रोबेशनरी आईएएस अफ़सर से बात हो रही थी. कह रही थी कि यहाँ (बिहार में) लोग झूठ बहुत बोलते हैं. ख़ासतौर पर अगड़े, रसूखवाले, ताक़तवर. थ्योरी में जिस तरह के वर्गभेद के बारे में पढ़ा था, ज़मीनी स्तर पर वह अपने सबसे भयानक रूप में दिखाई दे रहा है. अगर कोई ग़रीब पिछड़े वर्ग का इंसान कहीं बाहर से आया है तो उसके लिए दस फ़ोन आ जाएंगे. उसको गाँव से, मोहल्ले से निकालने की सिफ़ारिशें होंगी. लेकिन जिनके पास संसाधन हैं, वे चुपचाप अपने घरों में लुकाए बैठे हैं. मालूम भी नहीं कि वे वायरस के कैरियर हैं या नहीं. जाति और मज़हब के आधार पर वायरस को भी बांट देना कोई हमसे सीखे.
ऐसे संकट के दौर में जितनी झूठ और फ़रेब की कहानियाँ हैं, उतने ही मदद के लिए बढ़े हाथ हैं. फंडरेज़िंग, अपने अपने पास के संसाधनों को ज़रूरतमंदों में बांटने की कोशिश, अपने अपने हुनर से दूसरों की मदद करने का जुगाड़, प्रो बोनो काउंसिलिंग, ऑनलाइन स्टैंडअप कॉमेडी, आर्ट, म्युज़िक - कितना कुछ है वहाँ जो उपलब्ध है.
बचा रह गया है एक अरमान भी है. वापस घर लौट जाने का अरमान.