गुरुवार, 7 फ़रवरी 2019

बोलो इतने दिन क्या किया?


मुझसे ठीक दस फ़ुट की दूसरी पर डाइनिंग टेबल है। टेबल पर बेतरतीबी से बिखरी हुई कई चीज़ों में मेरा एक वॉलेट भी शामिल है, जिसके हालात उसकी मुफ़लिसी का बयां करने के लिए बहुत है। लेकिन मेरा आज का ये दुखड़ा उस पर्स के नाम नहीं है। मेरा आज का ये दुखड़ा मेज़ के ठीक बीच-ओ-बीच बड़े प्यार से रखे गए स्टील के एक डिब्बे का है, जिसमें नारियल के कुछ लड्डू पड़े हैं। अब सवाल ये है कि नारियल के लड्डुओं का रोना कोई कैसे रो सकता है। लेकिन मैं इस पन्ने पर उन्हीं लड्डुओं का रोना रोने वाली हूँ। हमारी (वु)मैन फ्राइडे (एंड एवरीडे) अनीता ने उस एक डिब्बे में लड्डू क्या रख दिए, मेरे ख़ुद से किए हुए कई वादे उन्हीं लड्डुओं की तरह मेरे ही दाँतों तले चूर-चूर होकर मेरे ही हलक से उतरकर मेरे ही डाइजेस्टिव सिस्टम का अभिन्न हिस्सा बनते जा रहे हैं। 

ख़ुद से किए हुए असंख्य वादों में से एक चीनी न खाने का वायदा था। और एक वायदा था पर्सनल राइटिंग न करने का। 

दोनों वायदों के पीछे की कहानी मुझे ठीक-ठीक ध्यान नहीं, कि ये समझते समझते समझ में आया होगा शायद कि अत्यधिक चीनी की तरह ही अत्यधिक पर्सनल होकर यहाँ इस ब्लॉग पर सबकुछ उगल देना मेरी बढ़ती उम्र और गिरती सेहत दोनों के हित में नहीं। मुझे विरासत में डायबिटिज़ मिली, और इस ब्लॉग के माध्यम से इंटरनेट और बाद में लेखन की दुनिया में मिली शोहरत अपनी कमाई हुई थी। दोनों मेरी ज़िन्दगी में बहुत धीरे-धीरे साल २०१४ से आने लगे थे। २०१४ में मेरी पहली किताब छपी, २०१५ में दूसरी। २०१६ तक आते-आते मेरी ज़िन्दगी मेरे नियंत्रण से बाहर जा चुकी थी। ब्लड शुगर के साथ-साथ बीपी का गहरा रिश्ता है, और दोनों का उससे भी गहरा रिश्ता तनाव से है। और तनाव का सबसे गहरा रिश्ता ‘डिनायल’ से है। आप चाहें तो अपनी पिछली पीढ़ी की तरह अपनी पूरी ज़िन्दगी इस तरदीद में निकाल सकते हैं कि आपको किसी किस्म की तकलीफ़ है, और आपकी ये कमबख़्त तकलीफ़ आपकी अपनी ही बोई और उगाई हुई है। 

मैं भी इसी तरदीद में हूँ पिछले दो-चार सालों से। ये ज़िन्दगी मेरी अपनी चुनी हुई है। यहाँ के दोस्त-दुश्मन, रिश्ते-नाते, भाई-बंधु सब अपने बनाए हुए हैं। यहाँ तक कि अपनी चुनी हुई तन्हाईयाँ भी हैं। ये सच है कि जितनी ही तेज़ी से मैं लिखती जा रही थी, फैलती जा रही थी, उतनी ही तेज़ी से ख़ुद को दुनिया से काटती भी जा रही थी। ये भी मेरा अपना फ़ैसला था। 

और मैं अकेली इस तरदीद में नहीं हूँ। यहाँ वहाँ लिखते-फैलते-बिखरते हुए एक मैं ही तन्हां नहीं हुई हूँ। इंटरनेट के सर्च इंजन ने हमें हर वर्चुअल स्पेस में जगह दे दी है, हमारी एक नहीं, कई-कई प्रोफ़ाइल्स हैं। एक नहीं कई ज़रिए हैं कि एक-दूसरे की ख़बर ली जा सके। और फिर भी हम तन्हां हैं। जितना ज़्यादा लिखती जा रही हूँ, उतना ही ज़्यादा बोलने-बात करने के लिए कुछ नहीं रह गया। जितने अलग-अलग माध्यमों और डेडलाइन्स और किताबों और स्क्रिप्टों और प्रोजेक्टों में ख़ुद को बाँट दिया है, उतनी ही कम कहानियाँ हैं अब मेरे पास। जितने ही ज़्यादा लोग मुझे पहचानने लगे हैं, उतने ही कम दोस्त हो गए हैं। जितना ही ज़्यादा शुगर पर कंट्रोल करने की कोशिश की है, उतना ही ज़्यादा कमज़ोर महसूस किया है ख़ुद को। 

तो इसलिए दोस्त, ये न पूछना कि इतने दिनों कहाँ रही और क्या किया। सारे नारियल के लड्डू खा जाने की ख़्वाहिश संभालने के अलावा कैरियर में आगे बढ़ने की कोशिश कर रही हूँ। बच्चों को दूर पहाड़ पर भेजकर एक नए शहर में अपना घर बनाने की कोशिश कर रही हूँ। कई कई अनदेखे मेसेज का जवाब देने के बीच आधी-अधूरी कहानियाँ पूरी करने की कोशिश कर रही हूँ। सो, बीआरबी!




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शनिवार, 2 फ़रवरी 2019

फ़ेसबुक से अफ़ेयर और ब्रेकअप की एक दास्तान


2008 में किसी एक ऊबी हुई-सी दोपहर को मैंने ‘फ़ेसबुक’ गूगल किया, उनके वेबसाईट पर गई, एक अकाउंट क्रिएट किया और वहीं एक पोस्ट छोड़ दी: "आई एम हियर टू” - मैं भी यहीं हूँ.  देखते ही देखते पहले आठ फ्रेंड रिक्वेस्ट आए, और फिर बीस-पच्चीस, अठतीस, अठहत्तर, एक सौ बारह...

ये सारे अपने लोग थे - बिछड़े हुए कुछ दोस्त, अपने ही ममेरे-फूफेरे-चचेरे भाई-बहन, पुराने दफ़्तर के कुछ सहयोगी, और कुछ अड़ोसन-पड़ोसन, जिनसे मैं पार्क में अपने बच्चों को घुमाते हुए मिला करती थी. औरों की बनिस्पत मैं फ़ेसबुक पर देर से आई थी. फ़ेसबुक तो 2004 में ही लॉन्च हो गया था, और कुछ ही हफ़्तों के भीतर भारत की वाई2के पीढ़ी के बीच ख़ूब लोकप्रिय भी हो गया था. दफ़्तर में सिस्टम के खुलते ही फ़ेसबुक खुल जाया करता, और उसके साथ ही पोकिंग और एक-दूसरे के पन्नों पर कमेन्टिंग का सिलसिला शुरू हो जाता. 
मेरे पास फ़ेसबुक पर शेयर करने के लिए कुछ नहीं था, सिवाय उन तन्हां लम्हों के, जब आप अपनी अदद-सी नौकरी को छोड़कर घर में बैठे हुए अपने बच्चों के बड़े होने के इंतज़ार में महसूस किया करते हैं. तस्वीरें भी बच्चों की ही थीं, कहानियाँ भी बच्चों की ही थी. तब वे दो साल के थे और मेरे पास उनकी शरारतों के हजार क़िस्से, और उतनी ही तस्वीरें थीं.

और मैं अकेली नहीं थी. धीरे-धीरे फ़ेसबुक के ज़रिये मैं उन माँओं के बारे में जानने और पढ़ने लगी जिन्होंने बच्चों की परवरिश के लिए अपना कैरियर छोड़ा था. कोई केक बेक कर रही थी, तो किसी ने फ़ोटोग्राफ़ी के शौक़ को संजीदगी से लेना शुरू कर दिया था. मेरे जैसे कई माँएँ ऐसी भी थीं जिनके पास शब्दों के अलावा कुछ और नहीं था, इसलिए फ़ेसबुक पर ही अपनी आड़ी-तिरछी कविताएँ, लेख, छोटी कहानियाँ और संस्मरण लिखकर अपने गुबार निकाल रही थीं. 

मेरे लिए फ़ेसबुक ने ऐसे ही लोगों के जुड़ने का रास्ता खोल दिया. वो दौर ब्लॉगिंग का भी था, तो जिसके ब्लॉग पढ़ा करते थे, फ़ेसबुक पर उनसे जुड़ते भी चले गए. फ़ेसबुक एक किस्म का इक्वलाइज़र था: सबको एक-से धरातल पर ले आनेवाला. जो दफ़्तर में बॉस हुआ करते थे, सीनियर हुआ करते थे, यहाँ तक कि हमारी नज़रों में सेलीब्रिटी हुई करते थे, फ़ेसबुक ने उनकी दुनिया हमारे सामने उघेड़ कर रख थी. हम हैरान थे कि हम सबके डर और हमारी तकलीफ़ें, हमारी असुरक्षा और थोड़ी-सी वाहवाही पाने की हमारी चाहत कितनी तो एक-सी है.

फ़ेसबुक ने सोशल हायरेकी पूरी तरह से मिटा दिया. सिक्स डिग्री ऑफ़ सेपरेशन (यानी, सभी जीवित इंसानों का महज छह स्टेप की दूरी में ‘फ्रेंड’ का ‘फ्रेंड’ होना) हंगेरियन बुद्धिजीवी फ्रिग्ये कारिंटी की एक कोरी कल्पना और सैद्धांतिक थ्योरी भर नहीं रही. दुनिया वाकई में सिमटने लगी थी और इसके लिए मुझे और आपको किसी कोलंबिया यूनिवर्सिटी या किसी एमआईटी के भारी-भरकम शोध को समझने की कतई ज़रूरत नहीं थी.

इसलिए क्योंकि एक मार्क ज़करबर्ग और उनकी टीम ने ये बात क्रैक कर ली थी कि वाकई दुनिया को इस बात का न सिर्फ़ यकीन दिलाया जा सकता है कि वे एक बिल क्लिंटन या एक जॉर्ज बुश या एक बराक ओबामा से न सिर्फ़ छह स्टेप्स की दूरी पर हैं, बल्कि ये बात सफलतापूर्वक साबित भी की जा सकती है. दो-चार बड़ी सेलीब्रिटीज़ के मेरी फ्रेंड लिस्ट में आते ही मुझे भी इस थ्योरी पर पक्का यकीन हो गया. 

फ़ेसबुक न सिर्फ़ अभिव्यक्ति का, या लोगों से जुड़ने का ज़रिया था, बल्कि मेरे जैसे लोगों के लिए तो अवसरों का ख़ज़ाना भी था. और ये ख़ज़ाना फ़ेसबुक पर ही इतना बड़ा था कि मुझे तो ट्विटर तक जाने की ज़रूरत भी नहीं हुई. मेरी पोस्ट पर न सिर्फ़ लोगों के कमेंट आने लगे बल्कि यहाँ-वहाँ लिखने के अवसर भी मिलने लगे.

फ़ेसबुक और ब्लॉग पर लिखते-लिखते तो मैं कहानियाँ भी लिखने लगी, और छपने भी लगी. बाकी अवसरों का तो क्या ही कहना! मुझे ये अच्छी तरह याद है कि मैं बहुत दिनों से अनुवाद के कुछ काम के लिए एक बड़ी पब्लिशर से संपर्क साधने की कोशिश कर रही थी. कई महीनों की मशक्कत के बाद जब आख़िरकार मिलने का मौक़ा मिला तो उन्होंने मुझसे कहा, “तुम्हारे बच्चे बहुत प्यारे हैं. फ़ेसबुक पर तस्वीरें देखी हैं मैंने. उन्हें मेरी ओर से बहुत प्यार देना.”

यानी, थैंक्स टू फ़ेसबुक, पर्सनल और प्रोफ़ेशनल - सब गड्डमड्ड हो गया था. बिज़नेस नेटवर्किंग की एक मीटिंग में मैंने एक मैनेजमेंट कन्सलटेंट को यहाँ तक कहते सुना कि आप सोशल मीडिया, ख़ासकर अपने फ़ेसबुक पर, क्या पोस्ट कर रहे हैं, उसका ख़्याल रखिए क्योंकि आप लगातार अपने पोटेन्शियल रेक्रूटर्स (या इन्वेस्टर्स या क्लायंट) की निगरानी में हैं.

आप निगरानी में हैं. यू आर अंडर सर्वेलेंस. जॉर्ज ऑरवेल ने अपनी किताब ‘1984’ जिस ‘बिग ब्रदर’ की परिकल्पना की थी उसकी आँखें और हम सबमें उग आयी थीं और उसके दिमाग़ का ख़ुराफ़ात हमारी ज़रूरत बन गया था. फ़ेसबुक, और फ़ेसबुक ही क्यों, सोशल मीडिया पर रहते-रहते हम सब स्टॉकर्स की एक ऐसी पीढ़ी में तब्दील होते जा रहे थे जिसके पास दूसरों के पेज पर जाकर पोक करने, एक-दूसरे के इन्बॉक्स में उलटे-सीधे मेसेज छोड़ने, अपनी-अपनी ढफली लिए अपने-अपने राग अलापने, और दुनिया की तमाम सारी चीज़ों की ओर उंगली उठाते हुए सारे ठीकरे दूसरों के माथे फोड़ने की दुर्व्यसन के हद तक की आदत बन चुकी थी. और इसका न सिर्फ़ फ़ेसबुक ने, बल्कि हम जैसे लोगों की तरह नकली कहानियाँ बेचनेवालों से लेकर असली सत्ताओं की कुर्सियाँ बेचने और खरीदनेवालों तक ने ख़ूब फ़ायदा उठाया. 

फ़ेसबुक की सीनियर मैनेजमेंट और फ़ाउंडिंग टीम के एक एक्स-एक्ज़ीक्यूटिव शॉन बेकर ने पिछले साल एक सार्वजनिक मंच से कहा, “सोशल वैलिडेशन का ये एक फ़ीडबैक लूप है... ठीक उसी तरह का लूप जो मेरे जैसा एक हैकर इसलिए बनाता है ताकि इंसानी मनोविज्ञान की कमज़ोरियों का ज़्यादा से ज़्यादा शोषण कर सके.” ये वही शॉन बेकर थे जिन्होंने 2004 में फ़ेसबुक शुरू होने के पाँच महीने बाद ही टीम ज्वाइन की और ज़करबर्ग ने जिनके लिए कहा कि “फ़ेसबुक को एक कॉलेज प्रोजेक्ट से एक रियल कंपनी बनाने में बेकर ने अहम भूमिका निभाई है”। ये वही बेकर थे जो फ़ेसबुक की बदौलत अरबपति बने थे, और इतने ही सफल हो गए ‘ग्लोबल पब्लिक हेल्थ’ के क्षेत्र में काम करने लगे (और इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि करोड़ों इंसानों के दिमाग़ पर काबिज़ होने के बाद अब दुनिया की सेहत बनाने में योगदान दे रहे हैं!) 

बहरहाल, फ़ेसबुक कंपनी के भीतर से निकली असहमतियों और विरोध, नाराज़गी और नाइत्तिफ़ाकी की ये इकलौती आवाज़ नहीं है. फ़ेसबुक के यूज़र ग्रोथ के पूर्व वाइस प्रेसिडेंट रहे चमथ पालिहापितिया ने कहा कि उन्हें इस बात का गहरा पछतावा (‘गिल्ट’) है कि उन्होंने ऐसे “औज़ारों पर काम किया जो समाज की सामाजिक संरचना को ही तहस-नहस कर रही है. और इसका रिश्ता सिर्फ़ उन रूसी विज्ञापनों से नहीं है. ये एक ग्लोबल समस्या है. यहाँ तो वही समाज की वही नींव खोखली हो रही है जहाँ लोग एक-दूसरे से पेश आते हैं”. एक नहीं बल्कि फ़ेसबुक में काम करनेवाले ऐसे कई टॉप एक्ज़ीक्यूटिवों के बयान सामने आए जिसमें उन्होंने कहा था कि उनके अपने घरों में फ़ेसबुक का इस्तेमाल करने पर पाबंदी है.

लेकिन ये भी सच था कि फ़ेसबुक की ही बदौलत मेरी पहली किताब ‘नीला स्कार्फ़’ की छपने से पहले ही तकरीबन दो हजार कॉपियाँ प्रीबुक हो गईं (और ये हिन्दी प्रकाशन की दुनिया में एक किस्म की अद्भुत घटना थी). ये फ़ेसबुक की ही बदौलत था कि मेरे पास लगातार अवसरों का ताँता लग रहा था - मैं अपने कैरियर के शिखर पर थी. फ़ेसबुक से मिली एक पहचान की बदौलत एक अख़बार से जुड़ने का मौक़ा मिला जिसके लिए रिपोर्टिंग करते हुए मुझे गोएनका और लाडली जैसे सम्मानित अवॉर्ड तक मिल गए. फ़ेसबुक की वजह से ही मेरे पास एक बड़ा पाठक वर्ग था, चाहनेवाले लोग थे, मेरी पहचान थी, मेरी वाहवाहियाँ थीं. फ़ेसबुक की वजह से ही मेरे पास मीडिया का एक बड़ा नेटवर्क भी था. दोस्त तो ख़ैर थे ही. फ़ेसबुक मेरे डेटाबैंक भी था. पिछले दस सालों की ज़िन्दगी का लेखा-जोखा था वहाँ. ब़कायदा तस्वीरों के साथ. 

तो फिर ऐसा क्या हुआ कि दिसंबर की एक सुबह मुझपर जैसे कोई फ़ितूर सवार हुआ और मैंने अपना फ़ेसबुक अकाउंट डिएक्टिवेट कर दिया? 

उसके पीछे दो मूल और दो गौण कारण थे: मैं रात-रात जगकर नोटिफ़िकेशन के इंतज़ार की बुरी आदत की वजह से ज़ाया होने लगी थी. कई सालों तक रात में अधपकी नींद में उठकर अपने पेज का ट्रैफ़िक देखना, अपने पोस्ट पर का ट्रैक्शन देखना, और उससे ख़ुद को लगातार ‘जज’ करने से मैं आजिज़ हो चुकी थी.

और दूसरा कारण ये था कि आस-पास का वर्चुअल शोर मेरे आत्मविश्वास की धज्जियाँ उड़ा रहा था. मैं तनाव में थी, डिप्रेस्ड थी, अकेली थी, परेशान थी, हारी हुई थी. लेकिन फ़ेसबुक पर मैं रोल मॉडल थी (अब तो और भी ज़्यादा क्योंकि मेरे मम्मी-पापा समेत मेरे मायके-ससुराल के रिश्तेदारों की पूरी फौज मुझे मैग्निफाइंग लेंस लगाकर फ़ेसबुक पर देख रही थी). मैं दो ज़िन्दगियाँ जीते-जीते थक गई थी. और दो गौण कारण ज़ाहिर है, वैसी न्यूज़ रिपोर्ट्स थीं जिनका मैंने ऊपर ज़िक्र किया है. फ़ेसबुक पर डेटा प्राइवेसी का उल्लंघन करने से लेकर रंगभेद और फ़ेक न्यूज़ और राजनीतिक प्रोपोगैंडा (ख़ासकर दक्षिणपंथी) को शह देने का आरोप लगता रहा है। 

इस जनवरी उस फ़ेसबुक के बिना मेरे एक साल और एक महीने पूरे हो जाएँगे, जिसकी लत में मैंने चूल्हे पर का खाना जलाया है, अपने बच्चों की पूरी बात नहीं सुनी, अपनी रातों की नींद ख़राब की है. और तो और, लाल बत्ती पर नोटिफ़िकेशन देखने के चक्कर में अपनी गाड़ी का करीब-करीब एक्सिडेंट भी करवा डाला है.

और इस साल में मेरे ज़िन्दगी क्या बदला है? मैंने इस बात का भी लेखा-जोखा किया और पता चला कि इस साल मैंने उतनी किताबें पढ़ीं जितनी पिछली दस सालों में मिलाकर नहीं पढ़ पाई. तकरीबन उतनी ही फ़िल्में देखने का मौक़ा (और वक्‍त) भी मिला. इस साल भी नए दोस्त बने, नए शहर मिले, नया देश मिला, नए तजुर्बों ने दिल और दिमाग में नई खिड़कियाँ खोलीं.

और कम से कम ये एक बात मैं दावे के साथ कह सकती हूँ: फ़ेसबुक के बिना की इस एक साल ज़िन्दगी ने मुझे ये हौसला दिया है कि मैं बिना इस डर के लिख (या जी) सकती हूँ कि मेरे लिखे या कहे या सोचे हुए पर दुनिया की प्रतिक्रिया क्या होगी (या इस post को कितने लाइक्स, शेयर या कमेंट मिलेंगे)!