घर भरा-पूरा है। बच्चों की ख़ातिर कामवालियाँ सालों से मेरी तमाम ज़्यादतियाँ बर्दाश्त करती रहती हैं, मेरा साथ नहीं छोड़तीं। मेरे मम्मी-पापा, सास-ससुर अपनी-अपनी सहूलियतों को दरकिनार कर हमारी सहूलियत को मज़बूत बनाते रहते हैं। मैं वैसी एक ख़ुशनसीब औरत हूँ जिसके एक फ़ोन कॉल पर उसका पूरा सपोर्ट सिस्टम अपनी सारी ताक़त लगाकर उसकी ज़रूरतें पूरी करता है। और मैं दुष्ट औरत - उनके इस निस्सवार्थ मोहब्बत का ख़ूब बेजां इस्तेमाल भी करती हूँ।
बात मई-जून की है। मैं एक नए प्रोजेक्ट के लिए स्क्रिप्ट लिखने की दुरूह कोशिश में पागल हुई जा रही थी। लॉन्ग फ़ॉर्मैट मैंने कभी किया नहीं है, इसलिए बार-बार कोशिश के बावजूद मुझसे लिखा ही न जाए। जितनी बार मैं अपने आधे-अधूरे ड्राफ्ट उन दो लोगों को भेजूँ जिनपर मुझे सबसे ज़्यादा भरोसा है, उनका फ़ीडबैक मेरा दिल तोड़ जाता था। मुझे लगता था कि या तो इन लोगों की अपेक्षाएँ ज़रूरत से ज़्यादा बड़ी हैं या मैंने इतने साल अपने स्किल को ओवरएस्टिमेट किए रखा है। मुझसे पाँच एपिसोड की एक स्क्रिप्ट नहीं लिखी जा रही थी!
और एक बताऊँ मैं आपको? पहला एपिसोड तो मैंने पिछले साल अक्टूबर में ही लिख लिया था - संगम हाउस में अपनी रेसिडेन्सी के दौरान! अब मेरी सहूलियतों की हद ही देखिए कि मुझे परिवार और ज़िम्मेदारियों से पूरे एक महीने की छुट्टी इसलिए मिल गई थी ताकि मैं शहर और रोज़मर्रा के जंजालों से दूर, बहुत दूर, नृत्यग्राम जैसे स्वप्नरूपी किसी एक द्वीप पर लिख सकूँ, अपने साथ वक़्त बिता सकूँ। संगम हाउस में गुज़रा एक महीना मेरी ज़िन्दगी का सबसे ख़ुशनुमा तजुर्बा रहा है, लेकिन उसपर फिर कभी लिखूँगी। बहरहाल, उस स्क्रिप्ट की बात को अंतड़ियों में फँसी हुई थी कहीं।
मैं इस बात की बदगुमानी में जीती आ रही हूँ कि मैं बहुत प्रोग्रेसिव हूँ। अपने से पंद्रह-बीस साल बच्चों से उनके ज़माने की बातें कर सकती हूँ, उनके साथ हँस-बोल सकती हूँ। गेम ऑफ़ थ्रोन्स, हाउस ऑफ़ कार्ड्स और नार्कोस देखती हूँ। इलिना फेरान्ते पर फर्राटेदार बात कर सकती हूँ। न्यूडिटी, मेडिटेशन और मेटाफ़िजिक्स - तीनों को उनके शुद्ध रूप में स्वीकार करती हूँ। अपने दस साल के बच्चे के सेक्स, पीरियड्स, क्रश, लव, पॉर्नोग्राफी, सेक्सुअल कॉन्टेंट, किस, स्मूच और सेक्सुएलिटी से जुड़े बचकाने सवालों का ठीक-ठाक कूल जवाब देती हूँ।
और फिर भी मुझसे चार कैरेक्टर्स ठीक से क्रिएट नहीं हो पा रहे थे? जिन चार लड़कियों की कहानी मैं सुनाना चाहती थी वो उम्र में मुझसे अठारह-बीस साल छोटी थीं। और ये फ़ासला उन्हें ठीक तरह से समझने में आड़े आ रहा था। मैं अठारह साल की एक लड़की की कहानी सोच तो रही थी, उसकी तरह उसका फ़साना नहीं बुन पा रही थी। उम्र और तजुर्बा आड़े आ रहा था क्योंकि अपने सारे कूल कोशन्ट के बावजूद मेरा पूर्वाग्रह आड़े आ रहा था।
पूजा, सैम, डेब और मेघना - इन चार लड़कियों के किरदार रच रही थी मैं। हर एक शख़्सियत दूसरे से जुदा होती है। हर नज़रिया और फिर हालात पर हर रेस्पॉन्स एक-दूसरे से भिन्न होता है। हम अपने शरीर में रहते हुए अपनी ही रूह की साँसें गिनते हुए हर हाल में एक-से नहीं होते। चेन्ज इकलौता कॉन्सटेंट है। हम हर लम्हा बदल रहे हैं। हमारी समझ हर लम्हा बदल रही है।
लेकिन कुछ स्टीरियोटाईप्स हैं जो हमारी सोशल और इमोशनल कंडिशनिंग करते हैं। इसलिए हम ये मानकर चलते हैं कि ये शख़्सियत तो बिल्कुल ऐसी ही होगी, उसके एक्सटर्नल और इन्टरनल कॉन्फ्लिक्ट्स भी हम एक खांचे में ढालकर समझने की कोशिश करते हैं। ह्यूमन साइकॉलोजी की सभी थ्योरिज़ उन्हीं पर आधारित होती हैं।
और यहीं एक कहानीकार अपना हुनर दिखाता है। उन खाँचे में होते हुए भी कैसे एक किरदार उस खाँचे को तोड़कर अपने लिए नई-नई ज़मीनें, नए आसमान ढूँढता है - सारी कहानियाँ उसी तलाश का सार होती हैं।
मैं वहीं मात खा रही थी। कैरेक्टर स्केच के कई कई ड्राफ्ट, कई कई रेफ़रेंस ढूँढ लेने के बाद भी मुझे उन लड़कियों के किरदार नहीं मिल रही थी जिनके सहारे मुझे अपनी कहानी कहनी थी।
शब्दों में कहानियाँ कहना और विज़ुअल स्टोरीटेलिंग में एक अहम फ़र्क़ ये होता है कि शब्द आपके लिए कहने और न कहने की गुंजाईश छोड़ते हैं। आप अपनी सहूलियत और अपने हुनर के हिसाब से जितना चाहें, जैसा चाहें, शब्दों का इस्तेमाल कर सकते हैं। विज़ुअल स्टोरीटेलिंग में 'interpretation' और 'inference', दोनों बहुत 'intelligent' होता है। तो मैं निजी तौर पर विज़ुअल स्टोरीटेलिंग को इन तीन I's का कॉम्बिनेशन मानती हूँ। विज़ुअल स्टोरीटेलिंग में शब्द जितने कम होंगे, डायलॉग जितना क्रिस्प होगा, वो स्टोरी उतनी ही पसंद की जाएगी। वहाँ इन्टरप्रेटेशन और इन्फेरेन्स दोनों विज़ुअल और एक्शन के बग़ैर हो ही नहीं सकता।
एक और बहुत बड़ा अंतर है दोनों अलग-अलग किस्मों की स्टोरीटेलिंग में। आप कहानियाँ अपने लिए, और अधिक से अधिक अपने पाठकों के लिए लिखते हैं। लेखक और पाठक के बीच एक ही पुल होता है, बस एक ही - हवा में लटकता हुआ, अदृश्य, आज़ाद। लेकिन विज़ुअल स्टोरीटेलिंग में क्रिएटर और दर्शक के बीच का पुल कई खंभों पर टिका होता है। एक भी खंभा डगमगाया तो कहानी गई हाथ से।
मैं शायद इसी कोलैबोरेटिव प्रोसेस से डर रही थी। मुझसे किरदार इसलिए नहीं रचे जा रहे थे क्योंकि मेरे भीतर का रेज़िसटेन्स बहुत बड़ा था। मैं जो रच रही थी, उसे बाक़ी लोग किसी और तरीके से इन्टरप्रेट कर रहे थे, उसका इन्फ़ेरेंस कुछ और निकाल रहे थे। यानी, मैं जो लिख रही थी उसमें और मेरे सामने बैठा जो उसे विज़ुअलाइज कर रहा था उसमें एक बहुत बड़ा गैप था।
वो गैप इसलिए भी था क्योंकि एक राइटर के तौर पर मेरे दिमाग़ में क्लारिटी ही नहीं थी कि मैं क्रिएट क्या करना चाहती थी। You can't create without absolute clarity in your head. जो स्क्रीन पर दिखाई देता, जो संवादों के माध्यम से कहा जाता - उसके अलावा कई और भी तो ऐसे लम्हे थे जो वो किरदार जी रहे थे, जो उन किरदारों के एक्शन को तय करता था!
तो इस तरह कई महीनों के ऊहापोह के बाद प्रक्रिया समझ में आ रही थी थोड़ी-थोड़ी।
अव्वल तो ये कि आप आइसोलेशन में रहकर क्रिएट कर ही नहीं सकते, कम से कम इस फॉर्मैट के लिए तो बिल्कुल नहीं।
दूसरा, आप कितने ही कामयाब स्टोरीटेलर क्यों न हो, हर कहानी के साथ-साथ आपको ख़ुद को नए सिरे से रचना पड़ता है। स्टोरीटेलिंग के कम्फ़र्ट ज़ोन तक आप कभी पहुँच ही नहीं सकते। पूरी ज़िन्दगी लग भी जाए तब भी। आप स्क्रीनराइटिंग की स्किल हासिल कर सकते हैं, लेकिन क़िस्सागोई स्किल के साथ-साथ डिलिजेंस भी होती है जहाँ हर रचना के साथ आपको एक अँधे कुँए में उतरने का माद्दा रखना ही पड़ेगा।
तीसरा, जब तक आप डेस्क पर बैठेंगे नहीं और लिखेंगे नहीं तबतक कहानी पैदा कहाँ से होगी? हमारे दिमाग़ में चलनेवाली कहानियाँ काग़ज़ पर उतरनेवाली कहानियों और बाद में स्क्रीन पर दिखाई देने वाली कहानियों से एकदम जुदा होती है। आप बेशक अच्छे आइडिएटर होंगे, बिना एक्ज़ीक्यूशन के किसी कहानी का कोई मतलब ही नहीं होता।
चौथा, मदद माँगने में संकोच कैसा! मुझे अपनी कहानी के अहम मोड़, टर्निंग प्वाइंट्स तब समझ में आए जब मैंने बार-बार उस कहानी के बारे में अपने आस-पास के लोगों से बात की। उनसे उनके अपने तजुर्बे पूछे। हर रिस्पॉन्स के पीछे का तर्क समझने के लिए जब तक टीम के साथ लंबी बहस हुई नहीं, तब तक स्क्रिप्ट लिखी ही नहीं जा सकी।
पाँचवा, फ़ियरलेसनेस और करेज - निडरता और हिम्मत वो लाइफ़ स्किल है जिसे हम सबसे ज़्यादा अंडरएस्टिमेट करते हैं। और कुछ सिखाएँ न सिखाएँ, ख़ुद को और अपने बच्चों को, अपने से छोटों को, अपने आस-पास के लोगों को हिम्मत करना ज़रूर सिखाएँ। इस दुनिया को अगर हम कुछ पॉज़िटिव दे सकते हैं, तो वो यही भरोसा है। पूरी दुनिया इसी एक लाइफ़ स्किल के दम पर चलती है। क्रिएटिव प्रोसेस भी।
आख़िरी बात, हम लिखने के क्रम में कई बार फ़ेल होते हैं। कई बार अपने ही लिखे हुए पर उबकाई आती है। अपनी नालायकी पर दीवार पर सिर दे मारने का जी करता है। लेकिन असफलता के इन्हीं पत्थर-से लम्हों को तोड़कर कोई एक अंकुर फूट पड़ता है जिसकी किस्मत में पेड़ बन जाना होता है। बंजर ज़मीनों में खेत लगाने से पहले कई बार जोतना पड़ता है उनको।
और एक आख़िरी बात - इस बार पक्का आख़िरी ही - भरे-पूरे घर में प्रेम बोया-उगाया जाता है लेकिन इस ख़ुशहाली में आपके भीतर का रचनाकार आत्मसन्तोषी हो जाता है, बिल्कुल कम्पलेसेन्ट। और कम्पलेसेंसी से रचनाएँ नहीं निकल सकतीं।
इसलिए मैं साल में दो-चार बार अपने भरे-पूरे घर से भाग जाया करती हूँ। बच्चों से छुपकर उदास नज़्में सुनती हूँ, अपने भीतर की तन्हाई बचाए रखती हूँ और याद दिलाती रहती हूँ कि ख़ुद को कि समंदर की गहराईयों में भी बवंडर और तूफ़ान छुपा करते हैं। ख़ुशी मेरे साथ-साथ चलती है, मेरे कांधों पर उड़-उड़कर बैठी चली आती है और मैं उसे दुरदुराती रहती हूँ। उदास-सी शक्ल बनाती हूँ तो बिटिया होठों के दोनों कोरों खींचकर मेरे चेहरे पर मुस्कान चिपकाने चली आती है, किसी बात पर ख़ामोश होती हूँ तो बच्चे बार-बार मुँह चूमते हैं, गले लगाते हैं। चुप हो जाती हूँ तो घर की दीवारों को अपनी बातों, क़िस्सों और लतीफ़ों से रंगते रहते हैं।
और इसलिए भरे-पूरे घर को दूर पहुँचाकर मैंने अपने घर में अँधेरे जलाए और फिर लिखी उन चार लड़कियों की कहानी, उनके साथ रोई और उनके साथ खुलकर हँसती रही। और फिर पति और बच्चों के पास जाकर उनकी हथेलियों पर कई दुआएँ रखीं, उनके लिए अपने भीतर कई गुना प्यार और इज्ज़त को बढ़ाती रही, ये वायदा किया ख़ुद से कि मेरा परिवार, मेरा सपोर्ट सिस्टम, मेरे यार-दोस्तों के लिए ही करूँगी जो भी करूँगी। परिवार और काम, हक़ीकत और ख़्वाब, दिल और दिमाग़, रूह और जिस्म साथ-साथ ही रहेंगे। हमेशा।
क्रिएटिव प्रॉसेस एक टाइटरोप वॉक भी है बॉस!