शनिवार, 8 अक्टूबर 2016

लिखना, और चलना तनी हुई एक रस्सी पर

मैं गहरी उदासियों के गीत सुनना चाहती हूँ। इश्क़ में सराबोर, टूटती हुई सिसकियों-हिचकियों और दरकती हुई हँसी में भींगे हुए गीत। लेकिन घर के दोनों बच्चे और उन बच्चों के दम पर हँसती-चहकती गृहस्थी उदासियों को सिरे से नकार देती है। इसलिए तमाम सारे डर और तवील उदासियों की पतवार उखाड़कर अपनी बालकनी पर के गमलों में हरियाली उगाते हैं, रंगीन मधुमालती के झाड़ रोपते हैं और काँटों के बीच से दहकते बुगनवेलिया को देखकर ख़ुश होते फिरते हैं। 

घर भरा-पूरा है। बच्चों की ख़ातिर कामवालियाँ सालों से मेरी तमाम ज़्यादतियाँ बर्दाश्त करती रहती हैं, मेरा साथ नहीं छोड़तीं। मेरे मम्मी-पापा, सास-ससुर अपनी-अपनी सहूलियतों को दरकिनार कर हमारी सहूलियत को मज़बूत बनाते रहते हैं। मैं वैसी एक ख़ुशनसीब औरत हूँ जिसके एक फ़ोन कॉल पर उसका पूरा सपोर्ट सिस्टम अपनी सारी ताक़त लगाकर उसकी ज़रूरतें पूरी करता है। और मैं दुष्ट औरत - उनके इस निस्सवार्थ मोहब्बत का ख़ूब बेजां इस्तेमाल भी करती हूँ। 

बात मई-जून की है। मैं एक नए प्रोजेक्ट के लिए स्क्रिप्ट लिखने की दुरूह कोशिश में पागल हुई जा रही थी। लॉन्ग फ़ॉर्मैट मैंने कभी किया नहीं है, इसलिए बार-बार कोशिश के बावजूद मुझसे लिखा ही न जाए। जितनी बार मैं अपने आधे-अधूरे ड्राफ्ट उन दो लोगों को भेजूँ जिनपर मुझे सबसे ज़्यादा भरोसा है, उनका फ़ीडबैक मेरा दिल तोड़ जाता था। मुझे लगता था कि या तो इन लोगों की अपेक्षाएँ ज़रूरत से ज़्यादा बड़ी हैं या मैंने इतने साल अपने स्किल को ओवरएस्टिमेट किए रखा है। मुझसे पाँच एपिसोड की एक स्क्रिप्ट नहीं लिखी जा रही थी! 

और एक बताऊँ मैं आपको? पहला एपिसोड तो मैंने पिछले साल अक्टूबर में ही लिख लिया था - संगम हाउस में अपनी रेसिडेन्सी के दौरान! अब मेरी सहूलियतों की हद ही देखिए कि मुझे परिवार और ज़िम्मेदारियों से पूरे एक महीने की छुट्टी इसलिए मिल गई थी ताकि मैं शहर और रोज़मर्रा के जंजालों से दूर, बहुत दूर, नृत्यग्राम जैसे स्वप्नरूपी किसी एक द्वीप पर लिख सकूँ, अपने साथ वक़्त बिता सकूँ। संगम हाउस में गुज़रा एक महीना मेरी ज़िन्दगी का सबसे ख़ुशनुमा तजुर्बा रहा है, लेकिन उसपर फिर कभी लिखूँगी। बहरहाल, उस स्क्रिप्ट की बात को अंतड़ियों में फँसी हुई थी कहीं। 

मैं इस बात की बदगुमानी में जीती आ रही हूँ कि मैं बहुत प्रोग्रेसिव हूँ। अपने से पंद्रह-बीस साल बच्चों से उनके ज़माने की बातें कर सकती हूँ, उनके साथ हँस-बोल सकती हूँ। गेम ऑफ़ थ्रोन्स, हाउस ऑफ़ कार्ड्स और नार्कोस देखती हूँ। इलिना फेरान्ते पर फर्राटेदार बात कर सकती हूँ। न्यूडिटी, मेडिटेशन और मेटाफ़िजिक्स - तीनों को उनके शुद्ध रूप में स्वीकार करती हूँ। अपने दस साल के बच्चे के सेक्स, पीरियड्स, क्रश, लव, पॉर्नोग्राफी, सेक्सुअल कॉन्टेंट, किस, स्मूच और सेक्सुएलिटी से जुड़े बचकाने सवालों का ठीक-ठाक कूल जवाब देती हूँ। 

और फिर भी मुझसे चार कैरेक्टर्स ठीक से क्रिएट नहीं हो पा रहे थे? जिन चार लड़कियों की कहानी मैं सुनाना चाहती थी वो उम्र में मुझसे अठारह-बीस साल छोटी थीं। और ये फ़ासला उन्हें ठीक तरह से समझने में आड़े आ रहा था। मैं अठारह साल की एक लड़की की कहानी सोच तो रही थी, उसकी तरह उसका फ़साना नहीं बुन पा रही थी। उम्र और तजुर्बा आड़े आ रहा था क्योंकि अपने सारे कूल कोशन्ट के बावजूद मेरा पूर्वाग्रह आड़े आ रहा था। 

पूजा, सैम, डेब और मेघना - इन चार लड़कियों के किरदार रच रही थी मैं। हर एक शख़्सियत दूसरे से जुदा होती है। हर नज़रिया और फिर हालात पर हर रेस्पॉन्स एक-दूसरे से भिन्न होता है। हम अपने शरीर में रहते हुए अपनी ही रूह की साँसें गिनते हुए हर हाल में एक-से नहीं होते। चेन्ज इकलौता कॉन्सटेंट है। हम हर लम्हा बदल रहे हैं। हमारी समझ हर लम्हा बदल रही है। 

लेकिन कुछ स्टीरियोटाईप्स हैं जो हमारी सोशल और इमोशनल कंडिशनिंग करते हैं। इसलिए हम ये मानकर चलते हैं कि ये शख़्सियत तो बिल्कुल ऐसी ही होगी, उसके एक्सटर्नल और इन्टरनल कॉन्फ्लिक्ट्स भी हम एक खांचे में ढालकर समझने की कोशिश करते हैं। ह्यूमन साइकॉलोजी की सभी थ्योरिज़ उन्हीं पर आधारित होती हैं। 

और यहीं एक कहानीकार अपना हुनर दिखाता है। उन खाँचे में होते हुए भी कैसे एक किरदार उस खाँचे को तोड़कर अपने लिए नई-नई ज़मीनें, नए आसमान ढूँढता है - सारी कहानियाँ उसी तलाश का सार होती हैं। 

मैं वहीं मात खा रही थी। कैरेक्टर स्केच के कई कई ड्राफ्ट, कई कई रेफ़रेंस ढूँढ लेने के बाद भी मुझे उन लड़कियों के किरदार नहीं मिल रही थी जिनके सहारे मुझे अपनी कहानी कहनी थी। 

शब्दों में कहानियाँ कहना और विज़ुअल स्टोरीटेलिंग में एक अहम फ़र्क़ ये होता है कि शब्द आपके लिए कहने और न कहने की गुंजाईश छोड़ते हैं। आप अपनी सहूलियत और अपने हुनर के हिसाब से जितना चाहें, जैसा चाहें, शब्दों का इस्तेमाल कर सकते हैं। विज़ुअल स्टोरीटेलिंग में 'interpretation' और 'inference', दोनों बहुत 'intelligent' होता है। तो मैं निजी तौर पर विज़ुअल स्टोरीटेलिंग को इन तीन I's का कॉम्बिनेशन मानती हूँ। विज़ुअल स्टोरीटेलिंग में शब्द जितने कम होंगे, डायलॉग जितना क्रिस्प होगा, वो स्टोरी उतनी ही पसंद की जाएगी। वहाँ इन्टरप्रेटेशन और इन्फेरेन्स दोनों विज़ुअल और एक्शन के बग़ैर हो ही नहीं सकता।            

एक और बहुत बड़ा अंतर है दोनों अलग-अलग किस्मों की स्टोरीटेलिंग में। आप कहानियाँ अपने लिए, और अधिक से अधिक अपने पाठकों के लिए लिखते हैं। लेखक और पाठक के बीच एक ही पुल होता है, बस एक ही - हवा में लटकता हुआ, अदृश्य, आज़ाद। लेकिन विज़ुअल स्टोरीटेलिंग में क्रिएटर और दर्शक के बीच का पुल कई खंभों पर टिका होता है। एक भी खंभा डगमगाया तो कहानी गई हाथ से। 

मैं शायद इसी कोलैबोरेटिव प्रोसेस से डर रही थी। मुझसे किरदार इसलिए नहीं रचे जा रहे थे क्योंकि मेरे भीतर का रेज़िसटेन्स बहुत बड़ा था। मैं जो रच रही थी, उसे बाक़ी लोग किसी और तरीके से इन्टरप्रेट कर रहे थे, उसका इन्फ़ेरेंस कुछ और निकाल रहे थे। यानी, मैं जो लिख रही थी उसमें और मेरे सामने बैठा जो उसे विज़ुअलाइज कर रहा था उसमें एक बहुत बड़ा गैप था। 

वो गैप इसलिए भी था क्योंकि एक राइटर के तौर पर मेरे दिमाग़ में क्लारिटी ही नहीं थी कि मैं क्रिएट क्या करना चाहती थी। You can't create without absolute clarity in your head. जो स्क्रीन पर दिखाई देता, जो संवादों के माध्यम से कहा जाता - उसके अलावा कई और भी तो ऐसे लम्हे थे जो वो किरदार जी रहे थे, जो उन किरदारों के एक्शन को तय करता था!

तो इस तरह कई महीनों के ऊहापोह के बाद प्रक्रिया समझ में आ रही थी थोड़ी-थोड़ी। 

अव्वल तो ये कि आप आइसोलेशन में रहकर क्रिएट कर ही नहीं सकते, कम से कम इस फॉर्मैट के लिए तो बिल्कुल नहीं। 

दूसरा, आप कितने ही कामयाब स्टोरीटेलर क्यों न हो, हर कहानी के साथ-साथ आपको ख़ुद को नए सिरे से रचना पड़ता है। स्टोरीटेलिंग के कम्फ़र्ट ज़ोन तक आप कभी पहुँच ही नहीं सकते। पूरी ज़िन्दगी लग भी जाए तब भी। आप स्क्रीनराइटिंग की स्किल हासिल कर सकते हैं, लेकिन क़िस्सागोई स्किल के साथ-साथ डिलिजेंस भी होती है जहाँ हर रचना के साथ आपको एक अँधे कुँए में उतरने का माद्दा रखना ही पड़ेगा। 

तीसरा, जब तक आप डेस्क पर बैठेंगे नहीं और लिखेंगे नहीं तबतक कहानी पैदा कहाँ से होगी? हमारे दिमाग़ में चलनेवाली कहानियाँ काग़ज़ पर उतरनेवाली कहानियों और बाद में स्क्रीन पर दिखाई देने वाली कहानियों से एकदम जुदा होती है। आप बेशक अच्छे आइडिएटर होंगे, बिना एक्ज़ीक्यूशन के किसी कहानी का कोई मतलब ही नहीं होता। 

चौथा, मदद माँगने में संकोच कैसा! मुझे अपनी कहानी के अहम मोड़, टर्निंग प्वाइंट्स तब समझ में आए जब मैंने बार-बार उस कहानी के बारे में अपने आस-पास के लोगों से बात की। उनसे उनके अपने तजुर्बे पूछे। हर रिस्पॉन्स के पीछे का तर्क समझने के लिए जब तक टीम के साथ लंबी बहस हुई नहीं, तब तक स्क्रिप्ट लिखी ही नहीं जा सकी। 

पाँचवा, फ़ियरलेसनेस और करेज - निडरता और हिम्मत वो लाइफ़ स्किल है जिसे हम सबसे ज़्यादा अंडरएस्टिमेट करते हैं। और कुछ सिखाएँ न सिखाएँ, ख़ुद को और अपने बच्चों को, अपने से छोटों को, अपने आस-पास के लोगों को हिम्मत करना ज़रूर सिखाएँ। इस दुनिया को अगर हम कुछ पॉज़िटिव दे सकते हैं, तो वो यही भरोसा है। पूरी दुनिया इसी एक लाइफ़ स्किल के दम पर चलती है। क्रिएटिव प्रोसेस भी। 

आख़िरी बात, हम लिखने के क्रम में कई बार फ़ेल होते हैं। कई बार अपने ही लिखे हुए पर उबकाई आती है। अपनी नालायकी पर दीवार पर सिर दे मारने का जी करता है। लेकिन असफलता के इन्हीं पत्थर-से लम्हों को तोड़कर कोई एक अंकुर फूट पड़ता है जिसकी किस्मत में पेड़ बन जाना होता है। बंजर ज़मीनों में खेत लगाने से पहले कई बार जोतना पड़ता है उनको। 

और एक आख़िरी बात - इस बार पक्का आख़िरी ही - भरे-पूरे घर में प्रेम बोया-उगाया जाता है लेकिन इस ख़ुशहाली में आपके भीतर का रचनाकार आत्मसन्तोषी हो जाता है, बिल्कुल कम्पलेसेन्ट। और कम्पलेसेंसी से रचनाएँ नहीं निकल सकतीं। 

इसलिए मैं साल में दो-चार बार अपने भरे-पूरे घर से भाग जाया करती हूँ। बच्चों से छुपकर उदास नज़्में सुनती हूँ, अपने भीतर की तन्हाई बचाए रखती हूँ और याद दिलाती रहती हूँ कि ख़ुद को कि समंदर की गहराईयों में भी बवंडर और तूफ़ान छुपा करते हैं। ख़ुशी मेरे साथ-साथ चलती है, मेरे कांधों पर उड़-उड़कर बैठी चली आती है और मैं उसे दुरदुराती रहती हूँ। उदास-सी शक्ल बनाती हूँ तो बिटिया होठों के दोनों कोरों खींचकर मेरे चेहरे पर मुस्कान चिपकाने चली आती है, किसी बात पर ख़ामोश होती हूँ तो बच्चे बार-बार मुँह चूमते हैं, गले लगाते हैं। चुप हो जाती हूँ तो घर की दीवारों को अपनी बातों, क़िस्सों और लतीफ़ों से रंगते रहते हैं। 

और इसलिए भरे-पूरे घर को दूर पहुँचाकर मैंने अपने घर में अँधेरे जलाए और फिर लिखी उन चार लड़कियों की कहानी, उनके साथ रोई और उनके साथ खुलकर हँसती रही। और फिर पति और बच्चों के पास जाकर उनकी हथेलियों पर कई दुआएँ रखीं, उनके लिए अपने भीतर कई गुना प्यार और इज्ज़त को बढ़ाती रही, ये वायदा किया ख़ुद से कि मेरा परिवार, मेरा सपोर्ट सिस्टम, मेरे यार-दोस्तों के लिए ही करूँगी जो भी करूँगी। परिवार और काम, हक़ीकत और ख़्वाब, दिल और दिमाग़, रूह और जिस्म साथ-साथ ही रहेंगे। हमेशा।  

क्रिएटिव प्रॉसेस एक टाइटरोप वॉक भी है बॉस! 

   





  




मंगलवार, 4 अक्टूबर 2016

सेरेन्डिपिटी भी कोई चीज़ होती है यार!

मैं अक्सर इस बात से हैरान होती हूँ कि कैसे दिमाग़ की कोई एक ख़लल अदना-सी ख़्वाहिश रच लेती है, मन उस ख़्वाहिश को पालता-पोसता रहता है और फिर अचानक कुछ ऐसा होता है कि सारी वाह्य ताकत मिलकर उस ख़्वाहिश को पूरा करने में लग जाती है। अगर इसे लॉ ऑफ़ अट्रैक्शन की कोई एक टूटी-फूटी थ्योरी ही मान लें तब भी मैंने अपनी ज़िन्दगी में कई बार इस थ्योरी को काम करते देखा है।

पिछले हफ़्ते मैं अपनी साइकोथेरेपिस्ट के पास बड़ी हैरान-परेशान गई थी। मेरे पास मेरी नाजायज़ दुश्चिताओं का पिटारा था। हाल ही में एक सहेली के पति का अचानक सफ़र से लौटते हुए देहांत हो गया। दोनों पति-पत्नी अपनी बच्ची को विदेश की एक यूनिवर्सिटी में छोड़कर वापस अपने शहर लौट रहे थे। हवाई जहाज़ में ही दिल का दौरा पड़ा और उतरते-उतरते तक, अस्पताल तक पहुँचते पहुँचते तक उस दिल के दौरे ने एक अच्छे-ख़ासे सेहतमंद इंसान की जान ले ली। इस हादसे के लिए कोई तैयार नहीं था। हादसे के लिए कब कहाँ कोई तैयार हो पाता है!

मैंने मौत को कई बार बहुत करीब से देखा है। आख़िरी हिचकी में साँस जाते हुए देखा है, और जानती हूँ कि जिससे आप बेइंतहा मोहब्बत करते हैं, जिसके इर्द-गिर्द आपकी दिनचर्या चलती है, जिसके होने से आपके वजूद का एक हिस्सा है उसके चले जाने का, और इस तरह अचानक बड़ी तकलीफ़ में चले जाने का अफ़सोस और उस अफ़सोस से पैदा हुई असहायता कितनी बड़ी होती है। रात को अपने बिस्तर पर लेटो तो वो अफ़सोस, वो हेल्पलेसनेस हज़ारों सूई की नोंक से पूरे बदन, पूरी सोच को छलनी किए रहता है।

और चिंता की फ़ितरत तो मालूम है न? चुंबक से भी ख़तरनाक तासीर है उसकी। एक पालो तो हज़ार लोहे के कील की तरह की शंकाएँ आकर्षित करती है अपनी ओर।

बहरहाल, मैं अपनी थेरेपिस्ट के सामने बैठी थी। एक हज़ार शिकायतों का पिटारा था। मेरी पीठ पिछले एक महीने से इस बुरी तरह तकलीफ़ में थी कि मेरा उठना-बैठना-चलना मुश्किल था। मेरे भीतर एक अजीब किस्म का डिटैचमेंट पैदा हो रहा था। दुनिया को छोड़-छाड़ कर किसी गुमनाम जगह भाग जाने की ख़्वाहिश सिर उठाने लगी थी। रात-रात भर ये ख़्याल आता था कि अगर हममें से कोई एक भी मर गया तो ज़िन्दगी में क्या थमेगा, क्या चलेगा। सवालों की शख़्सियत किसी लिहाज से ख़ुशमिजाज़ तो कतई नहीं थी। हम क्यों हैं, किसलिए हैं, ये भागदौड़ क्यों, जीवन का मकसद क्या, मरकर क्या और जीकर क्या। बेतुके। बेहद बेतुके सवाल।

हम भरे-पूरे भी कमाल हैं, और तन्हा भी कमाल हैं।

थेरेपिस्ट ने कहा, "आँखें बंद करो और उन तीन लम्हों के बारे में सोचो जब यू फ़ेल्ट लकी, रियली रियली लकी।" ऐसे तीन लम्हों के बारे में सोचना दुश्वार लगा। आँखें बंद किए सोचती रही। और बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के जवाब दिमाग़ में तोप से निकले गोलों की तरह गूँजने लगे।

मुझे जन्म देने का सुख मिला है - एक बार में दो हसीन बच्चों को। और मुझे याद आए मेरे ही अपने लोग, जिन्होंने अपनी आधी ज़िन्दगी और पूरी कमाई एक बच्चे की कोशिश में निकाल दी।

मेरी टूटी हुई पीठ और शरीर में बहुत सारी तकलीफ़ के बावजूद मेरे पास एक घर है जहाँ मैं सुकून से जी सकती हैं, परिवार है जो मेरी दुखती रग पर हर वक़्त पेनकिलर लगाने के लिए तैयार रहता है, और इतने तो पैसे हैं ही कि मैं एक सेशन के लिए थेरेपिस्ट की सर्विस लेने की क्षमता रखती हूँ।

मुझे कई वो लम्हे याद आए जब मुझे प्यार मिला, बेइंतहा प्यार - एकदम अनकंडिशनल। ये लोग जो अपने पहलू में मेरे लिए जगह बनाते रहे हैं, मेरे दोस्त हैं, मेरे परिचित हैं, और कई बार तो अजनबी भी रहे हैं। ये वो लोग हैं जिनसे में काम-बेकाम, वक्त-बेवक्त, कभी ख़ुदगर्ज़ी में और कभी बेहद निस्सवार्थ भाव से मिलती रही हूँ। जिनसे अपना कुछ न कुछ बाँटती रही हूँ। ये बाँटना हमेशा इन्टैन्जिबल रहा है - अमूर्त। वक्‍त के रूप में, दर्द के रूप में, डर के रूप में, ख़्वाब के रूप में, यकीन के रूप में और शंकाओं के रूप में। इनमें से कईयों ने मेरे सामने सरेंडर किया यकीन से, कुछ के सामने मैं अपने भरोसे समेटने के लिए बिखरी हूँ। ये लोग क्यों हैं? ये लोग क्यों थे? किस्मत ही थी न! ख़ुश-किस्मत! लक!

और फिर आँखें बंद किए-किए ही मुझे याद आया एक शब्द - सेरेन्डिपिटी!

"सो, अनु! ओपन योर आईज़ एंड टेल मी… व्हाट मेड यू फ़ील रियली रियली लकी?" थेरेपिस्ट ने पूछा।

"सेरेन्डिपिटी। इन्सिडेन्ट्स ऑफ़ सेरेन्डेपिटी हैव मेड मी फ़ील रियली रियली लकी," मैंने जवाब दिया।

मैं सेरेन्डिपिटी नाम की एक गोली लिए लौट आई, इस सलाह के साथ कि मैं तबतक किसी की कोई मदद नहीं कर सकती जबतक ख़ुद ठीक न रहूँ। ये भी सच लगा कि मेरा डर किसी के काम नहीं आनेवाला था, उस सहेली के काम भी नहीं जो वैसे भी अपनी ज़िन्दगी से जूझ रही थी। शायद सेरेन्डिपिटी मेरे काम आती, शायद उसके लिए सेरेन्डिपिटी का इंतज़ार काम आता।

शब्दकोश सेरेन्डिपिटी के लिए ये तर्जुमा देता है - आकस्मिक लाभ, या अकस्मात से कुछ खोज करना। मैं सेरेन्डिपिटी को सुखद संयोग से जोड़ती हूँ। सेरेन्डिपिटी मेरे लिए वो हसीन इत्तिफ़ाक़ है जो ज़िन्दगी में मेरा यकीन बचाए रखता है।

जितनी ही बार मैं अचानक कुछ छोटा-बड़ा खोजने निकली हूँ, उतनी ही बार मेरे हाथ कुछ न कुछ लगा ज़रूर है। थेरेपिस्ट के सामने मैं एक्ज़िटेंशियल क्राइसिस के जवाब ढूँढने गई थी, जवाब में मुझे अपनी ही ज़िन्दगी का सबसे बड़ा हसीन राज़ मिल गया! सेरेन्डिपिटी ही तो है।

एक मिसाल देती हूँ। पिछले हफ़्ते मुक्तेश्वर जाने से दो दिन पहले मेरे पब्लिशर शैलेश भारतवासी मुझसे मेरे घर पर मिलने आए, इसलिए क्योंकि मैंने अपनी ही कुछ किताबें मँगाई थीं उनसे। बातों बातों में अपने नए प्रोजेक्ट के बारे में बात करते हुए मैंने शैलेश से कहा कि मैं एक मेल सिंगर की तलाश कर रही हूँ। शैलेश ने मुझे एक युवा सिंगर का नाम बताया, और हम दोनों ने मिलकर यूट्यूब पर उस सिंगर को खोजने की बहुत कोशिश की लेकिन मेरे हाथ कुछ न आया। बस सिंगर का नाम रह गया ज़ेहन में - हरप्रीत।

दो दिन बाद मैं शताब्दी में थी। कोई प्लानिंग थी नहीं लेकिन उसी ट्रेन में शैलेश दिखे - अकस्मात। और शैलेश को देखते ही मेरे दिमाग़ में फिर वो नाम आया - हरप्रीत, और ये कि मुझे वापस दिल्ली लौटकर इस सिंगर का पता करना है।
फिर मैं मुक्तेश्वर में थी, बल्कि सोनापानी के एक रिसॉर्ट में, जहाँ हम इकलौते मेहमान थे। मेज़बानों से बात करते हुए पता चला कि सोनापानी एक म्यूज़िक फ़ेस्टिवल और फ़िल्म फ़ेस्टिवल ऑर्गनाइज़ करता है। कुछ फ़ितरत मिलती थी, और कुछ बातचीत में मज़ा आ रहा था इसलिए मैंने अपने मेज़बानों से अपने नए प्रोजेक्ट की बात की और उन्हें वो गाने भी सुनाए जो हमने कम्पोज़ करवाए थे।

मेरी मेज़बान दीपा ने कहा, "तुमने हरप्रीत को सुना है कभी?" मैं चौंक गई। ये वही नाम तो था जिसके बारे में मैं पता करने की कोशिश कर रही थी! दीपा अपना आईपैड ले आई और मैंने हरप्रीत के कुछ गीत वहीं बैठे-बैठे ही सुन लिए। अगले दो घंटे में मेरे पास न सिर्फ़ हरप्रीत की पूरी सीडी थी (जो मुझे दीपा ने तोहफ़े में दी) बल्कि तीन दिन के भीतर दिल्ली में हरप्रीत से मिलवाने का वायदा भी था (मैं आज हरप्रीत से मिल रही हूँ!)।

सोचा कहाँ, खोजा कहाँ और खोज पूरी कहाँ जाकर हुई!

ये है सेरेन्डिपिटी। अब सोच रही हूँ तो ध्यान में आ रहा है कि जिस प्रोजेक्ट के लिए मैं हरप्रीत से एक बार मिलना चाहती थी, वो पूरा का पूरा प्रोजेक्ट ही सेरेन्डिपिटी के दम पर निकला है (उस प्रोजेक्ट - द गुड गर्ल शो के बारे में बातें फिर कभी)। इतनी ही अहमियत रखते हैं ये हसीन इत्तिफ़ाक़ और हम बेकार में अपना रोना लेकर दुनिया भर में भटकते फिरते हैं। अपने ग़म, अपने दुख, अपने डर बचाए रखते हैं ताकि लोगों के हिस्से के प्यार हमें मिलता रहे। दुनिया को एक ग़मगीन इंसान ख़ूब प्यारा होता है। दुख में डूबे गीत सबसे हसीन होते हैं। टूटे हुए एक दिल के क़िस्से बटोरने वाला कहानीकार हम सबका अजीज़ होता है।

लेकिन फिर भी, सेरेन्डिपिटी भी एक चीज़ होती है यार जो बटोरती है, समेटती है, यकीन देती है। ये सेरेन्डिपिटी अकाट्य, अटल लॉ ऑफ़ अट्रैक्शन का अकाट्य, अटल सत्य है।

शुक्रवार, 30 सितंबर 2016

नापना पहाड़, छूना गहराईयाँ!

आदित पहाड़ की एक चोटी पर खड़ा है। अभी-अभी ठीक दस मिनट पहले मैंने उस चोटी से नीचे झाँकने की ज़ुर्रत की थी। बड़े-बड़े नुकीले पत्थरों से बना हुआ पहाड़ का वो हिस्सा कई छोटी छोटी पहाड़ियों में बँटता हुआ नीचे मुक्तेश्वर की खाई में कहाँ जाकर मिलता है, चोटी से आप ये नहीं देख सकते। नीचे दूर तक पसरी मुक्तेश्वर की गहरी खाई है, गाँव हैं, घर है कहीं कहीं और हरियाली को चूमते बादल हैं। हमें यहाँ तक लेकर आए हमारे ड्राईवर खेमराज साब का दावा है कि मुक्तेश्वर वैली उत्तराखंड की सबसे बड़ी, सबसे खुली हुई वैली है। मैं एक बार फिर नीचे झाँककर देखती हूँ। वाकई, ये जगह खुलकर साँस लेती-सी लगती है! हालाँकि जिस तेज़ी से पर्यटन के व्यवसाय के लिए पहाड़ कट रहे हैं और गाँव गायब हो रहे हैं, उतनी ही तेज़ी से ये वैली सिकुड़ती जा रही है। 
"हम कितना नीचे जा सकते हैं, माँ?"


ध्यान वापस आदित की ओर है जो अभी भी पहाड़ की चोटी पर खड़ा अपने ट्रेनरों के निर्देश को ध्यान से सुन रहा है। नीचे की खाई और आदित के बीच का फ़ासला देखकर मेरा कलेजा मुँह को आ जाता है। धड़कनों की आवाज़ तेज़ होते-होते चेहरे पर पसरने लगती हैं। मेरे भीतर से कोई चीख-चीखकर कहने को बेताब है, "बेटा, उतर जाओ वहाँ से। कोई ज़रूरत नहीं है एडवेंचर करने की। रैपलिंग या रॉक क्लाइम्बिंग नहीं करोगे तो दुनिया इधर की उधर थोड़े न हो जाएगी?" 

बेवकूफ़ी है, इस तरह पहाड़ नापने की कोशिश। 

मुझे सुहैल शर्मा की याद आ जाती है जो 2015 के एवरेस्ट एवलांच में मौत को छूकर आया था, और फिर निकल गया था अगली ही टोली के साथ एवरेस्ट की चोटी छूकर आने की ख़ातिर। मैं सुहैल से काठमांडू में मिली थी, नेपाल भूकंप के दौरान। पूछा था मैंने उससे कि पहाड़ों से ख़तरे मोल लेने की ये कौन-सी आदत है? उसने मुझे एक सिर्फ़ एक जवाब दिया था, "मैं एवरेस्ट की चोटी पर खड़ा होकर एक हाथ में अपने पापा की तस्वीर और दूसरे में तिरंगा लिए एक फ़ोटो ऑप चाहता हूँ बस।" मैं जवाब की अगली कड़ियों का इंतज़ार करती रही थी। बड़ी देर से समझ आया था कि सुहैल का जवाब ख़त्म हो गया था। वो वाकई बस इसी एक लम्हे के लिए अपनी जान हथेली पर लिए एवरेस्ट को नापने निकला था। पागल कहीं का!

लेकिन आदित - दस साल का आदित - इस रॉक क्लाइम्बिंग के लिए क्यों निकला था? मैं क्यों बुत बैठे उसे वो करते हुए देख रही थी जो वो करना चाहता था? मैं चीख-चीखकर उसे मना क्यों नहीं कर रही थी? जहाँ मेरा बेटा खड़ा था वहाँ से नीचे जाने पर किसी इंसानी जिस्म का क्या हाल हो सकता था, मेरे लिए ये सोच भी वर्जित थी। लेकिन मन का क्या है?! वर्जनाएँ तोड़-तोड़कर शंकाओं के लिए नई-नई ज़मीनें तलाश करता रहता है ये मन!

आदित उतनी देर में रस्सियों में बँधा हुआ पहाड़ से नीचे उतरने लगा था। पत्थर पर पाँव रखकर नब्बे डिग्री पर अपने शरीर को झुलाता हुआ, संभल संभल कर हवा में लटके अपने शरीर के लिए पैरों से अपने लिए ज़मीन तलाश करता हुआ... पहाड़ की चोटी और सत्तर फीट नीचे तक के उसके सफ़र के बीच दो इंस्ट्रक्टर उसकी हौसला अफ़्ज़ाई कर रहे थे, एक ऊपर से और एक नीचे से। मैं वहाँ से अलग होकर बैठी थी, करीब पचास फीट दूर, चुपचाप उसके एक-एक कदम के साथ अपनी साँस-साँस गिनती हुई। 


दूर कहीं से किसी के गाने की आवाज़ आ रही थी। जहाँ हम थे वहाँ सैलानी मुक्तेश्वर घाटी का 220डिग्री नज़ारा देखने के लिए आते हैं। खुले हुए दिनों में नंदादेवी भी दिखाई पड़ती हैं वहाँ से, लेकिन उस दिन घने बादलों और धूप के बीच की लुकाछिपी थी। सैलानियों का आना शुरू हो गया था। गानेवाला गाइड उनके मनोरंजन के लिए कभी मोहम्मद रफी तो कभी सुरेश वाडेकर की घटिया नकल उतार रहा था। कुमार सानू तक आते-आते उसको झेलना आसान हो गया था। जितनी बार वो होSSSओSSS का आलाप लेता, उतनी बार मुझे इस बात का डर लगने लगता कि कहीं आदित का ध्यान उसकी बेसुरी आवाज़ से तो नहीं भटक जाएगा। 

लेकिन ऊपर बढ़ती सैलानियों की भीड़ से बेपरवाह आदित जितनी सहजता से धीरे-धीरे नीचे उतरता चला गया था, उतनी ही आसानी से ऊपर चढ़ने की शुरुआत भी कर दी थी उसने। उसके इंस्ट्रक्टर और ऊँची आवाज़ में उसे निर्देश देने लगे थे, मेरे बगल में बैठी आद्या की जकड़ मेरे हाथ पर मज़बूत होती चली गई थी। आदित के बाद इस एडवेंचर के लिए आद्या को उतरना था। 

आदित के ऊपर पहुँचते ही बिना देर किए मैंने आद्या को पहाड़ की ओर धकेल दिया। अब जाओ, तुम भी कर लो अपनी ज़िद पूरी! भीड़ बढ़ती जा रही थी। पता नहीं कहाँ से गुजराती टूरिस्टों का एक पूरा जखीरा उस पहाड़ पर उतर आया था। जिन रस्सियों को दूर ले जाकर पेड़ों में बाँधा गया था, और जिनके सहारे बच्चे उतर रहे थे, उन रस्सियों को लोग आते-जाते उठा-उठाकर देखते। किनारे से चलने की ज़ेहमत किसी को गवारा नहीं थी। इंस्ट्रक्टर चिल्लाते रहे, लेकिन लोग उन्हीं रस्सियों के आर-पार आते-जाते रहे। मुझे डर था कि कहीं रस्सियाँ ढीली होकर बच्चों को नुकसान न पहुँचा दे। तबतक आद्या के कमर में रस्सियाँ बँध चुकी थी और अब पहाड़ की चोटी पर खड़ी होने की बारी उसकी थी। 

मैं जहाँ थी, वहीं बैठी रही। बस दो बार चीखकर लोगों पर रस्सियाँ छूते ही बरसी थी। उससे ज़्यादा योगदान मेरा था नहीं। बच्चे अपना डर एडवेंचर करते हुए निकाल रहे थे, मेरे लिए उनको देखकर अपना जिगर संभाले रखने का काम ही बहुत था। 

आद्या के पैर काँप रहे थे। चोटी से उतरते हुए उसके कदम डगमगाने लगे थे। उसके चेहरे पर डर साफ़ दिखाई दे रहा था। भीड़ बढ़ गई थी और आस-पास पहाड़ों से झाँकती हुई, आद्या को देखती हुई गुजराती पब्लिक की लाइव कमेन्ट्री भी चालू हो गई थी। "देख न, छोरी को देख... क्या कर रही है!" "अरे रस्सी बँधी हुई है।" "तो क्या हुआ?" "आप माँ हो उसकी?" मेरे बगल में एक अधेड़ अंकल आकर खड़े हो गए। मैंने कुछ कहा नहीं, सिर्फ़ सिर हिला दिया। "इसमें क्या मज़ा मिल रहा है आपको, हैं? बच्चों को ऐसे नीचे उतार दिया? कुछ हो-हवा गया तो?" मैं चुपचाप आद्या को देख रही थी। उसके पैर अभी भी काँप रहे थे। अपनी बहुमूल्य राय मुझसे बाँट लेने के बाद अंकल पहले आद्या का, और फिर मुक्तेश्वर घाटी का वीडियो लेने में मसरूफ़ हो गए। मेरे जी में एक बार को आया कि उनके हाथ से फ़ोन खींचकर नीचे पहाड़ों के बीच कहीं फेंक दूँ!
आद्या मुश्किल से दस फीट भी नहीं उतर पाई थी। या तो वो डर गई थी, या फिर लोगों की इतनी बड़ी भीड़ देखकर इतनी नर्वस हो गई थी कि उसे इंस्ट्रक्टरों के निर्देश ठीक से समझ नहीं आ रहा था। वजह जो भी हो, वो डर के बार-बार रस्सी छोड़ देती थी और उसका शरीर पहाड़ से टकराते हुए झूल जाता था। मैं चीख भी नहीं सकती थी। तमाशा देखनेवालों की भीड़ ने वो ज़िम्मा उठा लिया था।

इतनी देर में आद्या को देखने की ख़ातिर आदित उसी बड़े से पत्थर के कोने से झाँकने लगा जहाँ से रैपलिंग की शुरुआत होती थी। मैंने दूर से देखा कि उसका आधा शरीर पहाड़ से लटका हुआ है और वो वहीं से अपनी बहन का हौसला बढ़ाने की कोशिश कर रहा है। भीड़ की रनिंग कमेंट्री की झल्लाहट थी और आद्या की डर का डर भी था, मैं ज़ोर से आदित पर चिल्लाई। आदित ने सहमकर अपना शरीर पत्थर के पीछे खींच लिया और दूर कोने में जाकर बैठ गया। बिना आदित पर ध्यान दिए मैंने चिल्लाकर आद्या से कहा कि अगर उसका एडवेंचर करने का मन नहीं है तो वो वापस आ सकती है। "यू हैव ट्राइड वेल आदू। वापस आने का मन हो तो बोलो," मैंने कहा। 

आद्या ने मेरी नहीं सुनी और धीरे-धीरे पहाड़ उतरती रही। नाराज़ होकर बैठ उसके भाई ने नहीं देखा कि कैसे अचानक आद्या के पैर बड़े भरोसे के साथ पत्थरों के कोने तलाशते हुए अपने लिए ग्रिप ढूंढ रहे हैं और फिर कैसे उन्हीं ग्रिप को खोजते हुए वो वापस ऊपर चढ़ने लगी है। बल्कि क्लाइम्बिंग का सफर उसने बड़ी तेज़ी से तय किया। चीखने-चिल्लाने वाली भीड़ अब आद्या के लिए तालियाँ बजा रही थी। लोग साँस रोके पत्थरों के पीछे से झुक-झुककर उसके ऊपर आने का इंतज़ार कर रहे थे। कुछ लोगों ने तो ऊपर से ही उसके लिए ग्रिप ढूँढने का काम शुरू कर दिया था। "बच्ची, बाएँ देखो बाएँ..." "तुम्हारे पैर के दस इंच नीचे… हाँ हाँ बस उधर ही उधर ही…" "अपना शरीर ऊपर खिसकाओ… न न… रस्सी दाएँ से नहीं, बाएँ से पकड़ो…!" 

कुछ लोगों के शोरगुल का असर था, कुछ आद्या के भीतर लौट आया आत्मविश्वास था - आद्या बड़ी तेज़ी से ऊपर चढ़ते हुए वापस पहाड़ की चोटी पर जा खड़ी हुई। लोग उसके लिए तालियाँ बजा रहे थे, चियर कर रहे थे। कोने में आदित मुँह फुलाए आँसू बहा रहा था। मैं उसको चढ़ते देखते हुए इतनी मशगूल हो गई कि उसकी तस्वीरें लेना ही भूल गई! 

आदित पहले उतरा था, डरा भी नहीं था, बहादुरी से एडवेंचर किया था उसने। जबकि आद्या डर रही थी। उसका पूरा शरीर काँप रहा था। वो तो आद्या से ज़्यादा बहादुर था। लेकिन इतने सारे लोगों ने उसके लिए तालियाँ तो बजाईं नहीं। ऊपर से मम्मा की डाँट पड़ी सो अलग। 

मैंने दोनों बच्चों को गले लगाया। आदित को दो मिट्ठू ज़्यादा मिले - एक उसकी बहादुरी के लिए, और एक माफ़ी के तौर पर। गुजराती सैलानियों की टीम बिखरकर चौली की जाली की ओर बढ़ने लगी थी। लेकिन नाना-नानी, बाबा-दादी, काका-काकी की उम्र के लोग आते-जाते बच्चों के सिर पर हाथ फिरा रहे थे। आद्या के कंधों को ज़्यादा शाबाशियाँ मिलीं। आदित के सिर पर हाथ फिराने के लिए लोगों को मैं और बच्चों के इंस्ट्रक्टर, दोनों को याद दिलाना पड़ता था। 

और इस एडवेंचर ने मुझे - आदित और आद्या की मम्मा को ज़िन्दगी के दो-चार सबक हाथ-ओ-हाथ दे दिए। 
  • हममें से अधिकांश लोग चोटी पर बैठे हुए खाई की ओर देख रहे होते हैँ। छलाँग लगाकर गहराई को नापने की हिम्मत जो रखता है, क़ायनात उसी के हिस्से में हैरानियाँ और चमत्कार रखती है।
  • लीप एंड द नेट विल अपियर। कूदो और ये यकीन रखो आसमानों के पास तुम्हारी हिफ़ाज़त के लिए रस्सियों के जाल फेंकने का हुनर है। ऑल्वेज़ हैव फेथ।   
  • डर जीतना बड़ा होता है, उस पर जीत उतनी ही बड़ी होती है। 
  • तुम्हारी किस्मत कभी आदित की तरह होगी कि तुम्हारी बहादुरियों और जज्बे से ज़्यादा आद्या-सी कोशिशों पर तालियाँ बजेंगी, तारीफ़ें मिलेंगी। लेकिन पहाड़ नापने की हिम्मत न हम तालियों के लिए करते हैं न तारीफ़ों के लिए। वो हिम्मत हम अपने लिए करते हैं, ख़ुद गिरते संभलते हैं। तालियाँ और वाहवाहियाँ फ्रिंज बेनेफ़िट हो सकती हैं, लक्ष्य नहीं। लक्ष्य तो चिड़िया की आँख है। सॉरी, पहाड़ की वो चोटी, जिसपर सही सलामत लौट जाना है। 
  • तुम्हें गिरते-सँभलते देखकर किनारों पर से चीख-चीखकर सलाह देने वाले बहुत मिलेंगे। तुम्हारे गिरने पर वो कहेंगे, "हम न कहते थे?" तुम्हारी जीत पर कहेंगे, "हमें तो इसके दम-खम का पहले से अंदाज़ा था!" जहाँ खड़े हैं वहाँ से उनके वश में इतना ही है बस। उनकी परवाह न करना, उनसे ख़ुद को बचाए रखना इस दुनिया का सबसे दुरूह मेडिटेशन है। 
  • ज़िन्दगी की गहराईयों और ऊँचाईयों को नापने-पहचानने का काम हम अपने लिए करते हैं, किसी के सामने कुछ प्रूव करने के लिए नहीं। हम ख़तरे अपने लिए उठाते हैं। अपने डर अपने लिए बचाए रखते हैं और अपने लिए उनपर फ़तह हासिल करते हैं। (सुहैल मर के लौट आने के बाद भी एवरेस्ट पर चढ़ाई के लिए क्यों निकल पड़ा था, अचानक ये बात मुझे समझ आ गई थी!) 
  • और आख़िरी बात - मुझे अब लगातार ब्लॉग लिखना शुरू कर देना चाहिए। यूँ लग रहा है कि जैसे मैंने अपनी किसी प्यारी सहेली से दिल की बात कह दी हो! 



     

 

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2016

इश्क़, ख़ुदा और पछतावा

कहाँ से शुरु करे कोई जब छूटी हुई दास्तानों का सिरा मौसमों की आवाजाही में भटक गया हो कहीं।

ज़िन्दगी क़ायदों के राग अलापती है और बेतरतीबी से बाज़ नहीं आती। बच्चे गोद से उतरकर शहर की सड़कें नापने लगे हैं। तोतली बोलियों की ज़ुबान पुख़्ता, भरे-पूरे निर्देशों में तब्दील हो चुकी है। जब बच्चों की अभिव्यक्ति का अंदाज़ बदल गया है तो फिर ज़िन्दगी कैसे वैसी की वैसी रहे जनाब? ज़िन्दगी भी बदली है, और हमने उसके मायने भी बदल डाले हैं। उस गंभीर, दार्शनिक मुद्दे पर गहन बातचीत फिर कभी।

लेकिन वाकई वजूद से जुड़े सवाल बदल गए हैं। मैं कौन हूं और कहां हूं, क्यों हूं जैसे सवालों की जगह कहीं ज़्यादा व्यावहारिक सवालों ने ले ली है। एटमॉस्फियर में कितनी परतें होती हैं और हर लेयर का काम क्या है? फ्रिक्शन और ग्रैविटी के बीच का रिश्ता क्या है? पार्ट्स ऑफ स्पीच कितने किस्म के होते हैं? मिक्स्ड फ्रैक्शन को सिर्फ दो स्टेप में डेसिमल में कैसे बदलेंगे? फोटोसिंथेसिस की परिभाषा क्या है?

सवाल दरिया की लहरे हैं। मैं नाचीज़, नासमझ, मूढ़ उनमें कतरा-कतरा विकीपीडिया के लिंक्स डालती रहती हूं।
मेरे बालों में अब इतनी ही सफेदी उतर आई है कि मैं उन्हें मेहंदी की लाल परतों के नीचे छुपाने की नाकाम कोशिश भी नहीं करती। इतना ही सुकून आ चला है भीतर कि जिस्म का फ़िजिक्स न दिन के चैन पर हावी होता है न रातों की नींद उड़ाता है। पढ़ लिया बहुत। पढ़ लिया मर्सिया कि उम्र अब चेहरे पर अपने रंग दिखाने लगी है। आंखें कमज़ोर होती हों तो हों, नज़र तो नहीं बदली न। उंगलियों पर शिकन पड़ती हो तो पड़े, मोहब्बत पर पकड़ तो ढीली नहीं हुई। पैर कमज़ोर हुए हों तो क्या है, कोई बरसों पुराना दोस्त, कोई अज़ीज़, कोई जानशीं महबूब एक बार बुलाओ और मैं न आऊँ तो फिर कहना। दिन घट रहे हैं तो क्या हुआ? ज़िन्दगी तो बढ़ रही है हर रोज़।  

सुकून है। है सुकून कहीं भीतर। उम्मीद के आख़िरी पुल पर ही सही, लेकिन बैठा है वो कहीं - महबूब। ज़र्रा-ज़र्रा नूर बिखराता, वस्ल की डूबती-उतराती शामों को रौशन करता, हम आशिक़ों के सब्र का इम्तिहान लेता है वो। कई जिस्मों, कई ज़िन्दगियों से होकर कई सूरतों में उसको ढूंढते हुए जो हर बार ये रूह मौत और ज़िन्दगी के बीच की जो हज़ारों यात्राएं करती है, उसी के लिए करती है।

इसलिए सुनो ओ इश्क़ में डूबे हुए एक मारी हुई मति के बदकिस्मत सरताज, जिससे मिलना प्यार से मिलना। उंगलियों से यूँ छूना कि कई जन्मों की गिरहें खुलकर फ़ानी हो जाएं। साबुन के टुकड़े-सा यूँ पिघलना हथेलियों पर कि कई जन्मों के पाप धुल जाएँ। जितना बार गुज़रना अपने किसी महबूब के जिस्म से होते हुए, ऊँचे पहाड़ों और गहरी घाटियों में उलझी-हुई बेचैन हवाओं की तरह गुज़रना। उसके जिस्म को ख़ुदा का ठौर समझना और अपने इश्क़ को सज्दा।

जिस दिन इतनी निस्वार्थ मोहब्बत तुममें आ जाएगी, उस दिन तुम वस्ल और फ़िराक़ की दुश्चिंताओं से आज़ाद हो जाओगे। फिर मत पढ़ना तुम गीता और पुराण। मत रटना आयतें। मत सुनना ओल्ड टेस्टामेंट से मूसा की ज़िन्दगी और मौत की कहानियां। उस दिन - उस एक दिन - बन जाओगे तुम इंसान।

लेकिन तब तक चलो गमलों में बंद तुलसी के सेहत की फ़िक्र करें। रंग-बिरंगे गेंदे के फूलों की मालाएँ गूंधे। अगरबत्ती और धूप की ख़ुशबुओं में छुपाएँ अपने मन के कोनों में चढ़ी मैल के दुर्गंध। चढ़ते हुए सूरज के सामने हाथ बांधे रटते रहें अपने मुरादों की अंतहीन सूचियाँ और ढ़ारते रहें शिवलिंग पर गंगा के कई तीरों से जुटाया गया जल।

तब तक चलो फिर से झाड़ लें अपने जानमाज़ की धूल और सभी मेहराबों का मुँह मोड़ दें काबे की ओर।

सुनो, जमा कर लो दुनिया भर की मोमबत्तियाँ और रौशन कर डालो एक-एक गिरिजाघर को कि दिलों के अंधेरों को रौशन करने का कोई और रास्ता सूझता नहीं है।

चलो न ढूंढे अपना कोई एक महबूब दरियादिल ख़ुदा जो आसानी से हमें हमारे गुनाहों से निजात दिला सके।

...कि टूटकर मोहब्बत होती नहीं हमसे, और गुनाहों की गठरी अब ढोई नहीं जाती और।