शुक्रवार, 14 अगस्त 2015

मसान से उपजा हुआ दुख

एक भारीपन है जो गया ही नहीं कल से। एक इम्पल्स में स्क्रीन खोलकर बैठ गई हूं, एक राईटर के इन्बॉक्स तक अपना संदेश पहुंचाने के लिए। इसलिए क्योंकि संवाद के बाकी सारे पब्लिक प्लैटफॉर्म बेमानी लग रहे हैं। मुझे वाहवाहियां नहीं लिखनी। न समीक्षा लिखनी है कि किसी ब्लॉग, किसी मैगेज़ीन में डाल दूं। मुझे तो बस अपना दुख बांटना है। मसान से उपजा हुआ दुख।

ज़िन्दगी ऑटोपायलट मोड में है, जो चलती रहती है। बच्चों का होमवर्क, प्लेट में बचे सहजन के टुकड़े और दो-चार आलुओंं जूठन, दरवाज़े के बाहर जमा हो गए जूतों की भीड़, बिस्तर की सिलवटों, फर्श पर औचक चली आई फिसलन के बीच। ज़िन्दगी एक लीक पर चलती रहती है। अहसास पत्थर हो गए हैं, और ख़्याल भुरभुरी मिट्टी। लेकिन जो कल दोपहर से अटका हुआ है गले में, वो बाहर निकल आने की कोई सूरत नहीं पाता। हलक में अटके हुए उस भारीपन का रिश्ता 'मसान' से है।  

कल देखी मैंने मसान। अकेले। स्पाइस मॉल के सबसे छोटे ऑडी नंबर पांच में। सिर इतने थे कि गिने जा सकते थे, फुसफुसाहटें ऐसी कि कानों को चुभती थीं। फिल्म देखने से पहले मैंने मसान का कोई रिव्यू नहीं पढ़ा था। जानबूझकर। कुछ हैरतें अपने लिए एकदम महफ़ूज़ रखनी होती हैं - इस तरह महफूज़ कि किसी और के ख़्याल उसे करप्ट न कर सकें। मसान के लिए वो हैरत ऐसी ही थी बस। मैं फ़िल्म समीक्षक नहीं हूं। न आपके आम दर्शकों में से एक हूं। इन दोनों के बीच-बीच की हूँ। इसलिए, न समीक्षकों की ज़ुबां में बात करना आता है न किसी आम दर्शक की तरह वाहवाहियों का समां बांधने का शऊर है।

सिर्फ़ इतना बता सकती हूं कि मसान ने कुछ यादों की चीटियां हथेलियों पर छोड़ दी है। कल से बस वो यादें रेंगती जाती हैं, काटती जाती हैं। वो शहर बनारस नहीं था, इलाहाबाद नहीं था। डूबने को कोई गंगा नहीं थी, न वो घाट था जिस पर किसी को जलाते हुए ये यकीन हो कि जिस्म के साथ दुखों का बवंडर भी जल गया... कि आत्मा को मुक्ति मिली। न वो संगम था कहीं, कि उम्मीद बंधे दुबारा लौट आने की। इस बार किसी और के साथ।

मसान की कहानी किसकी रही होगी, इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। लेकिन उस कहानी में सबको अपने-अपने दुखों की परछाई ज़रूर दिखती होगी। दुख बड़ा या छोटा नहीं होता। दुख बस दुख होता है। इसलिए तो एक मृत्यु के दुख को हम चिता पर जली देह के साथ भूल जाते हैं, और लेकिन जीते-जागते इंसान के बिछोह का दुख राख की तरह सुलगता रहता है। दुख की तरह ही प्रेम भी बड़ा या छोटा नहीं होता। प्रेम बस प्रेम होता है। चेतन मन की सारी समझ को झुठलाता हुआ प्रेम। अजर, अमर प्यास वाला प्रेम। रूह को चीरकर जिस्म से होकर गुज़रता हुआ प्रेम। उस धड़धड़ाती रेल के नीचे कमज़ोर पुल-सा थरथराता प्रेम! दुख और प्रेम के इस गंगा-जमुनी संगम में जो अदृश्य सरस्वती दिखाई नहीं देती मसान में, वो उम्मीद है। धू-धू जलती चिताओं के बीच भी जिस्म और रूह, प्रेम और दुख के पुनर्जन्म की उम्मीद। एक जानलेवा-सी डुबकी में सिक्कों की बजाए एक अंगूठी निकाल लाने की उम्मीद। दो कमज़ोर चप्पुओं वाली उस डूबती-सी नाव के किनारे पर लौट आने की उम्मीद। घोर अपमान और सज़ा के साथ-साथ बची रह गई माफ़ी की उम्मीद। मसान में उम्मीद पुनर्जीवन की!  

कहानियां वो नहीं होतीं जो आप लिखते हैं। किरदार वो नहीं होते जो आप रचते हैं। कहानियां, और किरदार, वो होते हैं जिन्हें जीते हुए आप नए सिरे से रचे जाते हैं। जिनसे गुज़रते हुए आप फिर एक बार बनते हैं, बिगड़ते हैं, संवरते हैं, निखरते हैं। कहानियां वो होती हैं जो आपकी पत्थर होती जा रही ज़िन्दगी का सीना चीरकर वेदनाओं के अंकुर निकाल लाने का माद्दा रखती हैं। जिनसे होकर गुज़रते हुए आपके दुखों की चींटियां चमड़ी की खोल चीरकर बाहर निकलती हैं, और फिर रेंगती हुई कहीं किसी बिल में गुम होकर आश्रय पा जाती हैं। मसान ने बनानेवालों को कितना हील किया होगा, मालूम नहीं। मसान ने देखनेवालों को ज़रूर थोड़ा-थोड़ा हील किया है। 'मसान' से उपजा हुआ दुख यूनिवर्सल है, प्रेम और मृत्यु की तरह।

11 टिप्‍पणियां:

Harihar (विकेश कुमार बडोला) ने कहा…

ये खयाल बहुत महंगे हैं, शायद कोई खरीद ही न पाए।

Tamasha-E-Zindagi ने कहा…

स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ आपको बताते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस पोस्ट को, १४ अगस्त, २०१५ की बुलेटिन - "आज़ादी और सहनशीलता" में स्थान दिया गया है। कृपया बुलेटिन पर पधार कर अपनी टिप्पणी प्रदान करें। सादर....आभार और धन्यवाद। जय हो - मंगलमय हो - हर हर महादेव।

पुष्यमित्र ने कहा…

कहानियां वो नहीं होतीं जो आप लिखते हैं। किरदार वो नहीं होते जो आप रचते हैं। कहानियां, और किरदार, वो होते हैं जिन्हें जीते हुए आप नए सिरे से रचे जाते हैं। जिनसे गुज़रते हुए आप फिर एक बार बनते हैं, बिगड़ते हैं, संवरते हैं, निखरते हैं। कहानियां वो होती हैं जो आपकी पत्थर होती जा रही ज़िन्दगी का सीना चीरकर वेदनाओं के अंकुर निकाल लाने का माद्दा रखती हैं। जिनसे होकर गुज़रते हुए आपके दुखों की चींटियां चमड़ी की खोल चीरकर बाहर निकलती हैं, और फिर रेंगती हुई कहीं किसी बिल में गुम होकर आश्रय पा जाती हैं।

- बहुत खूब. पता नहीं हिंदी के छात्रों को कहानी की यह परिभाषा कब पढ़ायी जायेगी...

Manjit Thakur ने कहा…

मसान नहीं देखी मैने। देखूंगा भी नहीं। मुझमें सहने की ताकत दिन ब दिन कम होती जा रही है।

Prashant Singh ने कहा…

बेहतरीन दृष्टि | शायद मैं भी उतना ही प्रभावित हुआ जितना की आप मसान देखकर |

जसवंत लोधी ने कहा…

वाह Seetamni. blogspot. in

जसवंत लोधी ने कहा…

वाह Seetamni. blogspot. in

कविता रावत ने कहा…

कहानियां वो होती हैं जो आपकी पत्थर होती जा रही ज़िन्दगी का सीना चीरकर वेदनाओं के अंकुर निकाल लाने का माद्दा रखती हैं। जिनसे होकर गुज़रते हुए आपके दुखों की चींटियां चमड़ी की खोल चीरकर बाहर निकलती हैं, और फिर रेंगती हुई कहीं किसी बिल में गुम होकर आश्रय पा जाती हैं...
बहुत सुन्दर..

Vivahsanyog ने कहा…

बहुत सुन्दर रचना है |-indian matrimony

Neeraj Pandey ने कहा…

मसान को लेकर कई सारे आलेख पढ़े पर आपका आलेख बाकियों से बहुत भिन्न है। बहुत प्यार लिखा है आपने। अगर इसमें अंडर लाइन करने बैठूँ तो शायद सारा ही अंडरलाइन कर दूँ। मेरी तरफ से बधाई स्वीकार करें।
-नीरज पाण्डेय

Vishnu Dwivedi ने कहा…

jabardast likha hai