बुधवार, 25 फ़रवरी 2015

मॉर्निंग पेज १५ और बात मिसेज़ चंद्रा की

मैं उन्हें ठीक से नहीं जानती थी, लेकिन उनकी बेटी की तबसे फ़ैन थी जब बीस-बाईस साल की थी। बॉलीवुड ने ऐसी कोई डायरेक्टर बहुत सालों में नहीं दिया था। हालाँकि मैं ये जानती थी कि तनुजा चंद्रा की रगों में क्रिएटिविटी का खून बहता है। तनुजा की माँ कामना चंद्रा उन चंद लेखिकाओं में से हैं जिन्होंने बॉलीवुड को कम फ़िल्में दीं, लेकिन जो दिया, सार्थक दिया।

मैंने मिसेज़ चंद्रा के एक इंटरव्यू के लिए तनुजा से गुज़ारिश की। मैं ये जानना चाहती थी कि जिस माँ ने ऐसे ज़हीन और सक्सेसफ़ुल बच्चे बड़ा किया है उनकी ख़ुद की ज़िन्दगी कैसी रही होगी। बाईस साल की उम्र में तनुजा की कद्रदान थी। बत्तीस और दो बच्चों के बाद तनुजा की माँ मेरी रोल मॉडल हो गई थीं।

मैं उनके घर गई थी उनसे मिलने। फ़ोन पर तीन बार उन्होंने रास्ता बताया था। कम से कम तीन लैंडमार्क बताए। मैं फिर भी पहुंचते पहुंचते गुम हो गई।

दरवाज़े के पीछे जो महिला मुस्कुराती हुई दिखाई दीं उनको देखकर लगा कि इन्हें गले लगा लूँ। उनमें माँ-सी सौम्यता थी। ग़ज़ब की सहजता थी जो किसी भी अजनबी को अपना बना सकता था। अपने छोटे से परिचय के बाद मैं उनसे बात करने बैठी तो वे नींबू-पानी और रसोई समेटवाना जैसे कामों का अंतिम सिरा समेट रही थीं।

"मेरे बारे में क्या है बताने को?" हँसती हुई वे सामने वाली कुर्सी पर बैठ गईं। इस उम्र में भी ऐसा चेहरा! जाने अपने ज़माने में कैसी रही होंगी। बेटियों के चेहरे की कशिश कहाँ से आती है, इन्हें देखकर कोई भी समझ जाएगा।

(बड़ी बेटी अनु यानी अनुपमा चोपड़ा चाइल्ड प्रॉडिजी रही होगी। जिस उम्र में हम सब अपने अपने करियर की चिंता करते हुए रातों की नींद गंवा रहे थे उस उम्र में अनुपमा कई बड़ी पत्र-पत्रिकाओं के लिए कॉलम लिख रही थीं। अभी भी लिखती हैं। सभी बड़े टीवी चैनलों के लिए फ़िल्मों पर कई प्रोग्राम कर चुकी हैं। तनुजा के बारे में मैं क्या बताऊं?)

"सुनने को इतना कुछ है कि मैं शुरू कहाँ से करूं, ये समझ नहीं आ रहा", मैं अपनी झेंप मिटाने के लिए कहती हूं।

"मैं उत्तर प्रदेश की हूँ। तीन बहनों में सबसे छोटी। लेकिन फिर भी मेरी उम्र बहुत ज़्यादा है", उनकी हँसी की खनक उन्हीं के चारों ओर एक ऑरा बना देती है। "पिता आर्यसमाजी थे। बच्चों को पढ़ाने को लेकर बहुत संजीदा। बचपन से ही हमारे घर में किताबों का माहौल रहा। माँ पढ़ी-लिखी नहीं थी, लेकिन बहुत जीवट थी।"

एक तजुर्बेकार किस्सागो की तरह मिसेज़ चंद्रा की कहानियों का सिलसिला चल पड़ता है। परत दर परत खुलती जाती हैं कहानियां, और कहानियों में ज़िन्दगियां। बचपन, गांव, शहर, स्कूल, बोर्डिंग, पिता का गुज़रना, माँ की हिम्मत, बहन की शादी, पायलट बहनोई के द्वितीय विश्वयुद्ध में गुम हो जाने के किस्से, उनकी अपनी शादी, शादी के बाद की ज़िन्दगी, बेटे की पैदाईश, बेटियां, बच्चों को बड़ा करना, कई शहर, कई शहरों से होकर गुज़रते हुए भी कहानियां कहते रहने की ललक... और एक दिन यूं ही राज कपूर को फ़ोन मिला देना।

उस एक फोन कॉल ने मिसेज़ चंद्रा को दूसरी लीग़ में खड़ा कर दिया। राज कपूर को उन्होंने अपनी माँ की सुनाई हुई कहानी सुनाई थी। ज़मींदार की बेटी का पति शादी की रात गुज़र जाता है। वो घर लौट आती है। गांव के मंदिर के पुजारी के बेटे से उसे प्रेम हो जाता है। असली कहानी में दोनों भाग जाते हैं और अपना घर बसा लेते हैं। 'प्रेम रोग' - इस कहानी पर जो फिल्म बनी, उसमें दोनों अपने-अपने परिवारों को मनाने के लिए आख़िरी सांस तक संघर्ष करते हैं और जीत जाते हैं।

मिसेज़ चंद्रा की इस कहानी से राज कपूर इतने ही ख़ुश हुए कि उन्होंने हाथ के हाथ उन्हें साईन कर लिया। बॉलीवुड में मिसेज़ चंद्रा का ये पहला प्रवेश था, और आने वाले कई सालों तक आख़िरी ही रहा। फिर वे विदेश चली गईं। उनकी शख़्सियत को देखकर लगता नहीं कि कहीं कोई बेचैनी रही होगी, लेकिन कहानीकार चैन से रह ही नहीं सकता।

तीन साल बाद लौटीं तो इस बार फ़ोन यश चोपड़ा को किया। अपनी ही छपी एक कहानी सुनाने के लिए। वो कहानी बाद में 'चांदनी' के नाम से जानी गई और इतिहास बन गई। यश चोपड़ा के साथ एक नए रिश्ते की शुरुआत हुई, जिसकी एक कड़ी बाद में बेटी तनुजा चंद्रा ने भी जोड़ा - 'दिल तो पागल है' का स्क्रिनप्ले और डायलॉग लिखकर।

फिर लिखी गई '१९४२ अ लव स्टोरी' और फिर 'करीब'। उसके बाद विधु विनोद चोपड़ा के साथ कोई प्रोफेशनल रिश्ता नहीं रहा बल्कि निजी हो गया। (अब दामाद के साथ कोई किस तरह लव स्टोरी लिखे भला?) मिसेज़ चंद्रा ने इसके बाद दो और फ़िल्में लिखीं जो चली नहीं, लेकिन अपनी कलात्मक उत्कृष्टता के लिए, और अपनी नायाब स्टोरीटेलिंग के लिए इन फिल्मों को हमेशा याद किया जाएगा। गजगामिनी, जो एमएफ हुसैन की कहानी पर आधारित थी, और भैरवी जो लखनऊ के उस एक संगीत टीचर पर आधारित थी जिसका किस्सा मिसेज़ चंद्रा की बड़ी बहन अक्सर सुनाया करती थीं। करीब और १९४२ भी मिसेज़ चंद्रा के आस-पास की कहानियां थीं। पिता के साथ आज़ादी के पहले का वो दौर देखा था बचपन में, जो इस फ़िल्म में उतरा। करीब तो ख़ैर किसी की भी कहानी हो सकती थी - एक नालायक के प्यार में पड़ गई एक ख़ूबसूरत लड़की। लेकिन नालायक के दिल ने लड़की को भी जीत लिया, लड़की के परिवार को भी।

मिसेज़ चंद्रा के तीन किरदार मुझे अभी भी नहीं भूलते, जो उनके लिखे टीवी सीरियल से आए थे - तृष्णा से, जो साल १९८५ में दूरदर्शन पर शुरु हुआ। प्राइड एंड प्रेज्युडिस मैंने देखा बाद में, सीरियल पहले देखा। मिसेज़ चंद्रा टीवी और रेडियो के लिए भी लगातार लिखती रहीं। पत्रिकाओं में छपती रहीं।

लेकिन कभी अपने बच्चों के वक़्त की कीमत पर नहीं। मुझे बड़ा हो जाने की, मशहूर हो जाने की कोई चाहत नहीं थी। मैं तो तभी बैठकर लिखती थी जब बच्चे स्कूल चले जाते थे या फिर जब वो बड़े हो गए।

बाद में हमारे बीच आकर तनुजा भी बैठ जाती हैं। हम दोनों मिलकर मिसेज़ चंद्रा को लगातार ये कहने की कोशिश कर रहे हैं कि उन्हें फिर से लिखना चाहिए। मैं चाहती हूं कि उनकी आत्मकथा आए। जिस माँ के पास कई कहानियां होती हैं, वो माँ खुद एक कहानी होती है।

मैं मिसेज़ चंद्रा की तरह की माँ बनना चाहती हूँ। मेरा स्वार्थ है इस ख़्वाहिश में।

6 टिप्‍पणियां:

prakash ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
Pooja Priyamvada ने कहा…

Women need to tell stories, especially if they are mothers because we forget what we don't tell.

Pooja Priyamvada ने कहा…

Women need to tell stories, especially if they are mothers because we forget what we don't tell.

Pooja Priyamvada ने कहा…

Women need to tell stories, especially if they are mothers because we forget what we don't tell.

Pooja Priyamvada ने कहा…

Women need to tell stories, especially if they are mothers because we forget what we don't tell.

mukti ने कहा…

अच्छा लगा मिसेज़ चंद्रा के बारे में जानकर. उनकी और उनके जैसी और भी माँओं की कहानियाँ सामने आनी चाहिए.