इतनी सुबह मैं दुनिया के वाहियात कामों में से एक काम कर रही हूं - टैक्सी का इंतज़ार।
सुबह सुबह एयरपोर्ट पहुंचने की जंग एक टैक्सी वाला ही समझ सकता है, फिर भी हर बार कमबख़्त देर से आता है।
रात भर आदित की खांसी ने जगाए रखा। बच्चे को छोड़ कर जाने पर मन और भारी लगता है। उसको जिस दिन एलर्जी से निजात मिल जाएगा, मुझे मेरे गिल्ट से। और उस दिन सारी टैक्सियां वक़्त पर आने लगेंगी। तबतक इस बाज़ीगर के हाथ में एक और गेंद सही। तब तक एक और स्ट्रेस का सबब।
फोन करती हूं उसको। अब लौटने तक मॉर्निंग पेज पन्ने पर।
शनिवार, 28 फ़रवरी 2015
शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2015
मॉर्निंग पेज १६ और गुम होने की ख़्वाहिश
इतना आसान है डिसिप्लिन तोड़ देना! मैंने कल मॉर्निंग पेज नहीं लिखा। कम से कम यहाँ तो नहीं लिखा। बिस्तर में लेटे-लेटे काग़ज़ पर चार लाइनें लिख दीं और मान लिया कि हो गया काम। वर्क डन।
बस यही बात है - किसी तरह खानापूरी करने और अच्छी तरह एक ज़िम्मेदारी पूरी करने में यही अंतर है। इतना सा ही। हमें भार टालने की बीमारी है। हम सबको। थोड़ा कम थोड़ा ज़्यादा। बात ये है कि इंसान फ़ितरत से ही आलसी होता है, और अगर भूख (फ़िज़िकल, इमोशनल, स्पिरिचुअल) तंग न करे तो कोई हाथ-पैर भी न चलाए। बिस्तर में पड़े रहने में बहुत सुख है। कोई खाना पहुँचाता रहे, हाथ धुलाने का इंतज़ाम भी कराता रहे और इंटरनेट जैसा कोई एक साधन हो जिसमें पीछे से कला की विभिन्न विधाएं आपके मनोरंजन का इंतज़ाम करती रहें - इससे ज़्यादा किसी को और क्या चाहिए?
लेकिन शुक्र है कि मन शरीर से कम आलसी है। उसे बेचैन रहने की आदत है। शुक्र है कि दिमाग़ अपने लिए खुराक ढूंढता रहता है और कुपोषण बर्दाश्त नहीं कर पाता। शुक्र है कि रूह कचोटती है, आप सुने न सुने।
इसका मेरे मॉर्निंग पेज लिखने न लिखने से क्या वास्ता है?
है न। इसका वास्ता हर उस काम से है जो मैं करती हूं।
इन दिनों मेरा मन कहीं नहीं लगता। कुछ करने में नहीं। तबियत का ख़राब होना सबसे ख़राब बहाना है। पूरे दिन बिस्तर पर पड़ी रही, इंटरनेट के साथ। पहले बुक माई शो पर देखती रही कि कौन कौन सी फ़िल्में शहर में लगी हैं। जी ने चाहा नहीं फिर भी कि उठकर कोई फ़िल्म ही देख ली जाए। फिर मैं कई देशों के गुमनाम गांवों की तस्वीरें इंटरनेट पर देखती रही - आइसलैंड से लेकर मोरॉक्को तक, न्यूज़ीलैंड से लेकर थाईलैंड तक, कोलैरैडो से लेकर हवाई तक, कुछ भी नहीं छोड़ा। जहां तस्वीरों से मन भर जाता था, यूट्यूब पर वीडियो लगा देती थी।
अनजान लोग। मुस्कुराते चेहरे। नई जगह। गुमनाम सड़कें। हसीन कहानियां। और ख़ूब सारा रोमांच। साल में एक महीने सबको इस तरह किसी नई जगह भटकने की इजाज़त मिलनी चाहिए। इससे दुनिया में प्रेम और सौहार्द्र बना रहेगा। इससे हम अपनी-अपनी जगहों, अपने अपने स्पेस को लेकर बिल्कुल पसेसिव नहीं होंगे। जो कहीं का नहीं होता, वो ही सबका होता है। हर घर में ऐसे एक फ़कीर का जन्म हो जाए तो परिवार टूटने से बंट जाए, संपत्ति के नाम पर किसी की आंखों में खून न उतरे।
लेकिन अफ़सोस कि ऐसा होता नहीं है।
हम अपने बच्चों को सेटल होना सिखाते हैं। उन्हें ऐसे काम, ऐसी नौकरी, ऐसे स्किल सिखने को कहते हैं जो उन्हें और कुछ बनाए न बनाए, 'फ़ाइनेंशियली सेक्योर' ज़रूर बनाए। हमने सफलता के पैमाने तय कर रखे हैं। घर, गाड़ी, बच्चे, छुट्टियां, फिर बड़ा घर, बड़ी गाड़ी, और बड़ी छुट्टियां। इस दौड़ में कुछ बचता नहीं है, सिर्फ़ ढेर सारी ख़लिश बची रहती है। फिर इस ख़लिश को भरने के लिए हम एक के बाद एक कई सारे जन्म लेते रहते हैं। ये सिलसिला टूटता नहीं, और यूनिवर्स का काम निकलता रहता है।
इन सबसे निकलने का कोई रास्ता है या नहीं, मैंने नहीं जानती। लेकिन मुझे लगता है कि बहुत सारी भटकन इस चक्रव्यूह से निकाल पाएगी। हम जब सफ़र में होते हैं - अपने अपने स्पेस से बहुत बहुत दूर - तब अपने शुद्ध रूप में होते हैं। तब हम ख़ुद से सबसे ईमानदार होते हैं।
मैं यूं ही घुमन्तू नहीं कही जाती। एक दिन, वो एक दिन आएगा जब बुद्ध की तरह सब छोड़कर जाने का वक़्त आएगा - सार्वभौमिक हित में। समस्ति के हित में। व्यक्ति के हित में। उस दिन के आने तक मैं तिल-तिल जीती रहूँगी।
बुधवार, 25 फ़रवरी 2015
मॉर्निंग पेज १५ और बात मिसेज़ चंद्रा की
मैं उन्हें ठीक से नहीं जानती थी, लेकिन उनकी बेटी की तबसे फ़ैन थी जब बीस-बाईस साल की थी। बॉलीवुड ने ऐसी कोई डायरेक्टर बहुत सालों में नहीं दिया था। हालाँकि मैं ये जानती थी कि तनुजा चंद्रा की रगों में क्रिएटिविटी का खून बहता है। तनुजा की माँ कामना चंद्रा उन चंद लेखिकाओं में से हैं जिन्होंने बॉलीवुड को कम फ़िल्में दीं, लेकिन जो दिया, सार्थक दिया।
मैंने मिसेज़ चंद्रा के एक इंटरव्यू के लिए तनुजा से गुज़ारिश की। मैं ये जानना चाहती थी कि जिस माँ ने ऐसे ज़हीन और सक्सेसफ़ुल बच्चे बड़ा किया है उनकी ख़ुद की ज़िन्दगी कैसी रही होगी। बाईस साल की उम्र में तनुजा की कद्रदान थी। बत्तीस और दो बच्चों के बाद तनुजा की माँ मेरी रोल मॉडल हो गई थीं।
मैं उनके घर गई थी उनसे मिलने। फ़ोन पर तीन बार उन्होंने रास्ता बताया था। कम से कम तीन लैंडमार्क बताए। मैं फिर भी पहुंचते पहुंचते गुम हो गई।
दरवाज़े के पीछे जो महिला मुस्कुराती हुई दिखाई दीं उनको देखकर लगा कि इन्हें गले लगा लूँ। उनमें माँ-सी सौम्यता थी। ग़ज़ब की सहजता थी जो किसी भी अजनबी को अपना बना सकता था। अपने छोटे से परिचय के बाद मैं उनसे बात करने बैठी तो वे नींबू-पानी और रसोई समेटवाना जैसे कामों का अंतिम सिरा समेट रही थीं।
"मेरे बारे में क्या है बताने को?" हँसती हुई वे सामने वाली कुर्सी पर बैठ गईं। इस उम्र में भी ऐसा चेहरा! जाने अपने ज़माने में कैसी रही होंगी। बेटियों के चेहरे की कशिश कहाँ से आती है, इन्हें देखकर कोई भी समझ जाएगा।
(बड़ी बेटी अनु यानी अनुपमा चोपड़ा चाइल्ड प्रॉडिजी रही होगी। जिस उम्र में हम सब अपने अपने करियर की चिंता करते हुए रातों की नींद गंवा रहे थे उस उम्र में अनुपमा कई बड़ी पत्र-पत्रिकाओं के लिए कॉलम लिख रही थीं। अभी भी लिखती हैं। सभी बड़े टीवी चैनलों के लिए फ़िल्मों पर कई प्रोग्राम कर चुकी हैं। तनुजा के बारे में मैं क्या बताऊं?)
"सुनने को इतना कुछ है कि मैं शुरू कहाँ से करूं, ये समझ नहीं आ रहा", मैं अपनी झेंप मिटाने के लिए कहती हूं।
"मैं उत्तर प्रदेश की हूँ। तीन बहनों में सबसे छोटी। लेकिन फिर भी मेरी उम्र बहुत ज़्यादा है", उनकी हँसी की खनक उन्हीं के चारों ओर एक ऑरा बना देती है। "पिता आर्यसमाजी थे। बच्चों को पढ़ाने को लेकर बहुत संजीदा। बचपन से ही हमारे घर में किताबों का माहौल रहा। माँ पढ़ी-लिखी नहीं थी, लेकिन बहुत जीवट थी।"
एक तजुर्बेकार किस्सागो की तरह मिसेज़ चंद्रा की कहानियों का सिलसिला चल पड़ता है। परत दर परत खुलती जाती हैं कहानियां, और कहानियों में ज़िन्दगियां। बचपन, गांव, शहर, स्कूल, बोर्डिंग, पिता का गुज़रना, माँ की हिम्मत, बहन की शादी, पायलट बहनोई के द्वितीय विश्वयुद्ध में गुम हो जाने के किस्से, उनकी अपनी शादी, शादी के बाद की ज़िन्दगी, बेटे की पैदाईश, बेटियां, बच्चों को बड़ा करना, कई शहर, कई शहरों से होकर गुज़रते हुए भी कहानियां कहते रहने की ललक... और एक दिन यूं ही राज कपूर को फ़ोन मिला देना।
उस एक फोन कॉल ने मिसेज़ चंद्रा को दूसरी लीग़ में खड़ा कर दिया। राज कपूर को उन्होंने अपनी माँ की सुनाई हुई कहानी सुनाई थी। ज़मींदार की बेटी का पति शादी की रात गुज़र जाता है। वो घर लौट आती है। गांव के मंदिर के पुजारी के बेटे से उसे प्रेम हो जाता है। असली कहानी में दोनों भाग जाते हैं और अपना घर बसा लेते हैं। 'प्रेम रोग' - इस कहानी पर जो फिल्म बनी, उसमें दोनों अपने-अपने परिवारों को मनाने के लिए आख़िरी सांस तक संघर्ष करते हैं और जीत जाते हैं।
मिसेज़ चंद्रा की इस कहानी से राज कपूर इतने ही ख़ुश हुए कि उन्होंने हाथ के हाथ उन्हें साईन कर लिया। बॉलीवुड में मिसेज़ चंद्रा का ये पहला प्रवेश था, और आने वाले कई सालों तक आख़िरी ही रहा। फिर वे विदेश चली गईं। उनकी शख़्सियत को देखकर लगता नहीं कि कहीं कोई बेचैनी रही होगी, लेकिन कहानीकार चैन से रह ही नहीं सकता।
तीन साल बाद लौटीं तो इस बार फ़ोन यश चोपड़ा को किया। अपनी ही छपी एक कहानी सुनाने के लिए। वो कहानी बाद में 'चांदनी' के नाम से जानी गई और इतिहास बन गई। यश चोपड़ा के साथ एक नए रिश्ते की शुरुआत हुई, जिसकी एक कड़ी बाद में बेटी तनुजा चंद्रा ने भी जोड़ा - 'दिल तो पागल है' का स्क्रिनप्ले और डायलॉग लिखकर।
फिर लिखी गई '१९४२ अ लव स्टोरी' और फिर 'करीब'। उसके बाद विधु विनोद चोपड़ा के साथ कोई प्रोफेशनल रिश्ता नहीं रहा बल्कि निजी हो गया। (अब दामाद के साथ कोई किस तरह लव स्टोरी लिखे भला?) मिसेज़ चंद्रा ने इसके बाद दो और फ़िल्में लिखीं जो चली नहीं, लेकिन अपनी कलात्मक उत्कृष्टता के लिए, और अपनी नायाब स्टोरीटेलिंग के लिए इन फिल्मों को हमेशा याद किया जाएगा। गजगामिनी, जो एमएफ हुसैन की कहानी पर आधारित थी, और भैरवी जो लखनऊ के उस एक संगीत टीचर पर आधारित थी जिसका किस्सा मिसेज़ चंद्रा की बड़ी बहन अक्सर सुनाया करती थीं। करीब और १९४२ भी मिसेज़ चंद्रा के आस-पास की कहानियां थीं। पिता के साथ आज़ादी के पहले का वो दौर देखा था बचपन में, जो इस फ़िल्म में उतरा। करीब तो ख़ैर किसी की भी कहानी हो सकती थी - एक नालायक के प्यार में पड़ गई एक ख़ूबसूरत लड़की। लेकिन नालायक के दिल ने लड़की को भी जीत लिया, लड़की के परिवार को भी।
मिसेज़ चंद्रा के तीन किरदार मुझे अभी भी नहीं भूलते, जो उनके लिखे टीवी सीरियल से आए थे - तृष्णा से, जो साल १९८५ में दूरदर्शन पर शुरु हुआ। प्राइड एंड प्रेज्युडिस मैंने देखा बाद में, सीरियल पहले देखा। मिसेज़ चंद्रा टीवी और रेडियो के लिए भी लगातार लिखती रहीं। पत्रिकाओं में छपती रहीं।
लेकिन कभी अपने बच्चों के वक़्त की कीमत पर नहीं। मुझे बड़ा हो जाने की, मशहूर हो जाने की कोई चाहत नहीं थी। मैं तो तभी बैठकर लिखती थी जब बच्चे स्कूल चले जाते थे या फिर जब वो बड़े हो गए।
बाद में हमारे बीच आकर तनुजा भी बैठ जाती हैं। हम दोनों मिलकर मिसेज़ चंद्रा को लगातार ये कहने की कोशिश कर रहे हैं कि उन्हें फिर से लिखना चाहिए। मैं चाहती हूं कि उनकी आत्मकथा आए। जिस माँ के पास कई कहानियां होती हैं, वो माँ खुद एक कहानी होती है।
मैं मिसेज़ चंद्रा की तरह की माँ बनना चाहती हूँ। मेरा स्वार्थ है इस ख़्वाहिश में।
मैंने मिसेज़ चंद्रा के एक इंटरव्यू के लिए तनुजा से गुज़ारिश की। मैं ये जानना चाहती थी कि जिस माँ ने ऐसे ज़हीन और सक्सेसफ़ुल बच्चे बड़ा किया है उनकी ख़ुद की ज़िन्दगी कैसी रही होगी। बाईस साल की उम्र में तनुजा की कद्रदान थी। बत्तीस और दो बच्चों के बाद तनुजा की माँ मेरी रोल मॉडल हो गई थीं।
मैं उनके घर गई थी उनसे मिलने। फ़ोन पर तीन बार उन्होंने रास्ता बताया था। कम से कम तीन लैंडमार्क बताए। मैं फिर भी पहुंचते पहुंचते गुम हो गई।
दरवाज़े के पीछे जो महिला मुस्कुराती हुई दिखाई दीं उनको देखकर लगा कि इन्हें गले लगा लूँ। उनमें माँ-सी सौम्यता थी। ग़ज़ब की सहजता थी जो किसी भी अजनबी को अपना बना सकता था। अपने छोटे से परिचय के बाद मैं उनसे बात करने बैठी तो वे नींबू-पानी और रसोई समेटवाना जैसे कामों का अंतिम सिरा समेट रही थीं।
"मेरे बारे में क्या है बताने को?" हँसती हुई वे सामने वाली कुर्सी पर बैठ गईं। इस उम्र में भी ऐसा चेहरा! जाने अपने ज़माने में कैसी रही होंगी। बेटियों के चेहरे की कशिश कहाँ से आती है, इन्हें देखकर कोई भी समझ जाएगा।
(बड़ी बेटी अनु यानी अनुपमा चोपड़ा चाइल्ड प्रॉडिजी रही होगी। जिस उम्र में हम सब अपने अपने करियर की चिंता करते हुए रातों की नींद गंवा रहे थे उस उम्र में अनुपमा कई बड़ी पत्र-पत्रिकाओं के लिए कॉलम लिख रही थीं। अभी भी लिखती हैं। सभी बड़े टीवी चैनलों के लिए फ़िल्मों पर कई प्रोग्राम कर चुकी हैं। तनुजा के बारे में मैं क्या बताऊं?)
"सुनने को इतना कुछ है कि मैं शुरू कहाँ से करूं, ये समझ नहीं आ रहा", मैं अपनी झेंप मिटाने के लिए कहती हूं।
"मैं उत्तर प्रदेश की हूँ। तीन बहनों में सबसे छोटी। लेकिन फिर भी मेरी उम्र बहुत ज़्यादा है", उनकी हँसी की खनक उन्हीं के चारों ओर एक ऑरा बना देती है। "पिता आर्यसमाजी थे। बच्चों को पढ़ाने को लेकर बहुत संजीदा। बचपन से ही हमारे घर में किताबों का माहौल रहा। माँ पढ़ी-लिखी नहीं थी, लेकिन बहुत जीवट थी।"
एक तजुर्बेकार किस्सागो की तरह मिसेज़ चंद्रा की कहानियों का सिलसिला चल पड़ता है। परत दर परत खुलती जाती हैं कहानियां, और कहानियों में ज़िन्दगियां। बचपन, गांव, शहर, स्कूल, बोर्डिंग, पिता का गुज़रना, माँ की हिम्मत, बहन की शादी, पायलट बहनोई के द्वितीय विश्वयुद्ध में गुम हो जाने के किस्से, उनकी अपनी शादी, शादी के बाद की ज़िन्दगी, बेटे की पैदाईश, बेटियां, बच्चों को बड़ा करना, कई शहर, कई शहरों से होकर गुज़रते हुए भी कहानियां कहते रहने की ललक... और एक दिन यूं ही राज कपूर को फ़ोन मिला देना।
उस एक फोन कॉल ने मिसेज़ चंद्रा को दूसरी लीग़ में खड़ा कर दिया। राज कपूर को उन्होंने अपनी माँ की सुनाई हुई कहानी सुनाई थी। ज़मींदार की बेटी का पति शादी की रात गुज़र जाता है। वो घर लौट आती है। गांव के मंदिर के पुजारी के बेटे से उसे प्रेम हो जाता है। असली कहानी में दोनों भाग जाते हैं और अपना घर बसा लेते हैं। 'प्रेम रोग' - इस कहानी पर जो फिल्म बनी, उसमें दोनों अपने-अपने परिवारों को मनाने के लिए आख़िरी सांस तक संघर्ष करते हैं और जीत जाते हैं।
मिसेज़ चंद्रा की इस कहानी से राज कपूर इतने ही ख़ुश हुए कि उन्होंने हाथ के हाथ उन्हें साईन कर लिया। बॉलीवुड में मिसेज़ चंद्रा का ये पहला प्रवेश था, और आने वाले कई सालों तक आख़िरी ही रहा। फिर वे विदेश चली गईं। उनकी शख़्सियत को देखकर लगता नहीं कि कहीं कोई बेचैनी रही होगी, लेकिन कहानीकार चैन से रह ही नहीं सकता।
तीन साल बाद लौटीं तो इस बार फ़ोन यश चोपड़ा को किया। अपनी ही छपी एक कहानी सुनाने के लिए। वो कहानी बाद में 'चांदनी' के नाम से जानी गई और इतिहास बन गई। यश चोपड़ा के साथ एक नए रिश्ते की शुरुआत हुई, जिसकी एक कड़ी बाद में बेटी तनुजा चंद्रा ने भी जोड़ा - 'दिल तो पागल है' का स्क्रिनप्ले और डायलॉग लिखकर।
फिर लिखी गई '१९४२ अ लव स्टोरी' और फिर 'करीब'। उसके बाद विधु विनोद चोपड़ा के साथ कोई प्रोफेशनल रिश्ता नहीं रहा बल्कि निजी हो गया। (अब दामाद के साथ कोई किस तरह लव स्टोरी लिखे भला?) मिसेज़ चंद्रा ने इसके बाद दो और फ़िल्में लिखीं जो चली नहीं, लेकिन अपनी कलात्मक उत्कृष्टता के लिए, और अपनी नायाब स्टोरीटेलिंग के लिए इन फिल्मों को हमेशा याद किया जाएगा। गजगामिनी, जो एमएफ हुसैन की कहानी पर आधारित थी, और भैरवी जो लखनऊ के उस एक संगीत टीचर पर आधारित थी जिसका किस्सा मिसेज़ चंद्रा की बड़ी बहन अक्सर सुनाया करती थीं। करीब और १९४२ भी मिसेज़ चंद्रा के आस-पास की कहानियां थीं। पिता के साथ आज़ादी के पहले का वो दौर देखा था बचपन में, जो इस फ़िल्म में उतरा। करीब तो ख़ैर किसी की भी कहानी हो सकती थी - एक नालायक के प्यार में पड़ गई एक ख़ूबसूरत लड़की। लेकिन नालायक के दिल ने लड़की को भी जीत लिया, लड़की के परिवार को भी।
मिसेज़ चंद्रा के तीन किरदार मुझे अभी भी नहीं भूलते, जो उनके लिखे टीवी सीरियल से आए थे - तृष्णा से, जो साल १९८५ में दूरदर्शन पर शुरु हुआ। प्राइड एंड प्रेज्युडिस मैंने देखा बाद में, सीरियल पहले देखा। मिसेज़ चंद्रा टीवी और रेडियो के लिए भी लगातार लिखती रहीं। पत्रिकाओं में छपती रहीं।
लेकिन कभी अपने बच्चों के वक़्त की कीमत पर नहीं। मुझे बड़ा हो जाने की, मशहूर हो जाने की कोई चाहत नहीं थी। मैं तो तभी बैठकर लिखती थी जब बच्चे स्कूल चले जाते थे या फिर जब वो बड़े हो गए।
बाद में हमारे बीच आकर तनुजा भी बैठ जाती हैं। हम दोनों मिलकर मिसेज़ चंद्रा को लगातार ये कहने की कोशिश कर रहे हैं कि उन्हें फिर से लिखना चाहिए। मैं चाहती हूं कि उनकी आत्मकथा आए। जिस माँ के पास कई कहानियां होती हैं, वो माँ खुद एक कहानी होती है।
मैं मिसेज़ चंद्रा की तरह की माँ बनना चाहती हूँ। मेरा स्वार्थ है इस ख़्वाहिश में।
मंगलवार, 24 फ़रवरी 2015
मॉर्निंग पेज १४ और मर्ज़ ज़िन्दगी
मुझे लंबे समय तक घर में बंद रखने का एक मेडिकल बहाना मिल गया है। घर में रहने का भी, और जितना कम से कम काम करने का भी। आलसी को और क्या चाहिए? काम न करने का मेडिकल सर्टिफिकेट।
क्या सभी औरतों के साथ होता है कि उन्हें कोई न कोई शारीरिक तकलीफ़ रहती है? या क्या ये तकलीफ़ साइको-सोमैटिक होती है? मन के अवसाद से जुड़ी हुई। इसी सवाल के जवाब में मैंने एक कहानी भी लिखी थी - मर्ज़ ज़िन्दगी, इलाज ज़िन्दगी। थ्योरेटिकल लेवल पर, और समझदारी के मामले में, मुझे कोई मात नहीं दे सकता। मैं सारी चीज़ें ख़ूब अच्छी तरह समझती हूं, लेकिन ख़ुद पर नियंत्रण नहीं रख पाती। मैं लगातार इसी डायकॉटोमी के साथ जीती रहती हूं।
डॉ शेरगिल मेरे भीतर की आवाज़ हैं, वो जो मेरा पब्लिक परर्सॉना है - ज़हीन, सुलझी हुई, मसरूफ़, उम्रदराज़, क़ायदेवाली। शिवानी वो है जो मैं हूं दरअसल। उलझी हुई, बिखरी हुई, कन्फ़्यूज़्ड, परेशान। डॉ शेरगिल और शिवानी का ये वार्तालाप कभी बंद ही नहीं होता। चलता ही रहता है लगातार। इसी से कहानियां निकलती हैं, इसे से ज़िन्दगी को देखने के अलग-अलग नज़रिए की समझ पैदा होती है।
सुबह उठने के बाद अब बच्चों को तैयार करने में फ़िज़िकली कुछ नहीं करना होता। वे ख़ुद तैयार हो जाते हैं, ख़ुद अपने जूते पॉलिश कर लेते हैं, कपड़े पहन लेते हैं। मैं सिर्फ़ उनका साथ देने के लिए उनके पास होती हूं। कई बार उन्हें अकेले बस स्टॉप भी भेज दिया जाता है। आज भी अकेले भेज दिया। ऊपर तीसरी मंज़िल से, जहां हम रहते हैं, मैं देखती रही दोनों को ख़ुद से दूर जाते। उनकी चाल में आत्मविश्वास आने लगा है। उन्हें अब किसी का हाथ पकड़ने की ज़रूरत नहीं पड़ती।
आदित के जूते के फीते खुलते जा रहे थे। उसने दो बार कोशिश की, लेकिन उससे हुआ नहीं। आद्या झुककर ज़मीन पर उकड़ूं बैठी उसके फीते बांध रही थी और अचानक न जाने क्यों लगा कि फीतों के साथ-साथ मेरे भीतर भी उसने कोई गिरह बांध दी है। मैं साठ सीढ़ियां दूर, ऊपर से उन्हें देख रही थी। मेरे ये बच्चे मेरी उंगलियां थामे जाते थे बस स्टॉप। उनकी तस्वीरें खींचना और उन्हें फ़ेसबुक पर डालना मेरा प्रिय शगल था।
अब न मेरे पास कोई कैमरा है न बच्चे तस्वीरें खिंचवाते हैं उस तरह। मेरी उंगलियां पकड़ चलने की आदत भी जाती है। अगर भीड़ में न हों, तो उन्हें दूर-दूर रहना ठीक लगने लगा है। मैं अचानक बहुत उदास हो गई थी, बहुत अकेली। हम एक-दूसरे से किस तरह भागते रहते हैं। और फिर जब वाकई एक-दूसरे से अलग होने का वक़्त आता है तो दम घोंट देने की हद तक एक-दूसरे को पकड़ने के लिए लौट जाते हैं। ये हर करीबी रिश्ते की हक़ीकत है। आद्या और आदित एक दूसरे के बिना जी नहीं सकते। उन्हें पांच मिनट के लिए अकेला छोड़ दो तो एक-दूसरे को नोंच-खरोंच मारते हैं। जब वो होते हैं घर में, तो मैं अकेला कोना ढूंढती रहती हूं ताकि अपने काम निपटा सकूं। जब वे स्कूल चले जाते हैं, मुझे घर की तन्हाई से सबसे ज़्यादा नफ़रत होती है। मेरा अपने भाईयों के बिना गुज़ारा नहीं होता, लेकिन हम अधिकांश एक-दूसरे से लड़ते रहते हैं, या फिर एक-दूसरे से बहुत नम्र होने की कोशिश कर रहे होते हैं। पति से बहस से बचने में मेरे दिन की आधी एनर्जी जाती है।
मैं नहीं जानती कि ऐसा सबके साथ होता या नहीं। लेकिन मुझे वाकई रिश्ते संभालना नहीं आता, और कई बार अकेलापन रास आता है। वैसे रिश्ते अच्छे लगते हैं जिनमें प्रोटोकॉल न हो। वरना मैं तन्हा ही अच्छी। कई बार ये सोचती रहती हूं कि एक दिन मैं बौद्ध भिक्षुणी बन जाऊंगी, या फिर फक्कड़ घुमक्कड़। सब छोड़कर नगरी-नगरी द्वारे-द्वारे भटकूंगी। ज़िन्दगी का कोई और उद्देश्य नहीं होगा, सिवाय ख़ुद को समझने के। हम क्या हैं और क्यों हैं, हम जहां हैं वहां क्यों हैं, कहां से आए थे और कहां जाना है - इन सवालों से जुदा कुछ नए सवाल ढूंढूगी और उनके जवाब भी।
मौसी अक्सर कहती है फोन पर, गीता पढ़ो। मुझे लगता है कि अगर पढ़ने बैठी तो कुछ और करना मुश्किल हो जाएगा। मैं जुदा हो जाने के किनारे पर हूं बिल्कुल। एक धक्के में मैं किसी ब्लैक होल में अकेले कूद जाने से बिल्कुल नहीं कतराऊंगी। फिर मेरे बच्चों का क्या होगा? मुझे कम से कम दस साल और इंतज़ार करना होगा - उनका अठारह का हो जाना, और मेरा पैंतालीस का, वो अच्छा समय होगा।
मेरे भीतर की भौतिक ख्वाहिशें ख़त्म होने लगी हैं। मैं किताबें लिखना चाहती हूं लेकिन लगता है किसी को दिखाने के लिए क्यों लिखूं? मैं फ़िल्में लिखना चाहती हूं, लेकिन कमर्शियल हो जाने से डरती हूं। मैं अपनी घुमक्कड़ी भी बिना किसी ग्लैमर के चाहती हूं। क्या सोशल मीडिया ने ये वर्चुअल ग्लैमर दे दिया? क्या सोशल मीडिया ने हमें वो बना दिया जो हम होना नहीं चाहते थे?
मैं पॉपुलर होने और सेक्लुडेड होने की ख़्वाहिशों के बीच पिसती रहती हूं। कभी कभी सोचती हूं कि इतना सोचती भी क्यों हूं। जो है, उसे चलने क्यों नहीं देती?
मेरे भीतर बैठी डॉ शेरगिल मुझे ब्लॉग के पन्ने से हटकर कुछ और कन्सट्रक्टिव करने को कह रही है। मेरे भीतर की शिवानी चाहती है कि मैं कंबल में मुंह ढंककर सो जाऊं। मैंने दोनों के बीच समझौता कराने के इरादे से बीच में एक किताब रख ली है। कल बताऊंगी कि आज का दिन किसका रहा, शिवानी का कि डॉ शेरगिल का।
क्या सभी औरतों के साथ होता है कि उन्हें कोई न कोई शारीरिक तकलीफ़ रहती है? या क्या ये तकलीफ़ साइको-सोमैटिक होती है? मन के अवसाद से जुड़ी हुई। इसी सवाल के जवाब में मैंने एक कहानी भी लिखी थी - मर्ज़ ज़िन्दगी, इलाज ज़िन्दगी। थ्योरेटिकल लेवल पर, और समझदारी के मामले में, मुझे कोई मात नहीं दे सकता। मैं सारी चीज़ें ख़ूब अच्छी तरह समझती हूं, लेकिन ख़ुद पर नियंत्रण नहीं रख पाती। मैं लगातार इसी डायकॉटोमी के साथ जीती रहती हूं।
डॉ शेरगिल मेरे भीतर की आवाज़ हैं, वो जो मेरा पब्लिक परर्सॉना है - ज़हीन, सुलझी हुई, मसरूफ़, उम्रदराज़, क़ायदेवाली। शिवानी वो है जो मैं हूं दरअसल। उलझी हुई, बिखरी हुई, कन्फ़्यूज़्ड, परेशान। डॉ शेरगिल और शिवानी का ये वार्तालाप कभी बंद ही नहीं होता। चलता ही रहता है लगातार। इसी से कहानियां निकलती हैं, इसे से ज़िन्दगी को देखने के अलग-अलग नज़रिए की समझ पैदा होती है।
सुबह उठने के बाद अब बच्चों को तैयार करने में फ़िज़िकली कुछ नहीं करना होता। वे ख़ुद तैयार हो जाते हैं, ख़ुद अपने जूते पॉलिश कर लेते हैं, कपड़े पहन लेते हैं। मैं सिर्फ़ उनका साथ देने के लिए उनके पास होती हूं। कई बार उन्हें अकेले बस स्टॉप भी भेज दिया जाता है। आज भी अकेले भेज दिया। ऊपर तीसरी मंज़िल से, जहां हम रहते हैं, मैं देखती रही दोनों को ख़ुद से दूर जाते। उनकी चाल में आत्मविश्वास आने लगा है। उन्हें अब किसी का हाथ पकड़ने की ज़रूरत नहीं पड़ती।
आदित के जूते के फीते खुलते जा रहे थे। उसने दो बार कोशिश की, लेकिन उससे हुआ नहीं। आद्या झुककर ज़मीन पर उकड़ूं बैठी उसके फीते बांध रही थी और अचानक न जाने क्यों लगा कि फीतों के साथ-साथ मेरे भीतर भी उसने कोई गिरह बांध दी है। मैं साठ सीढ़ियां दूर, ऊपर से उन्हें देख रही थी। मेरे ये बच्चे मेरी उंगलियां थामे जाते थे बस स्टॉप। उनकी तस्वीरें खींचना और उन्हें फ़ेसबुक पर डालना मेरा प्रिय शगल था।
अब न मेरे पास कोई कैमरा है न बच्चे तस्वीरें खिंचवाते हैं उस तरह। मेरी उंगलियां पकड़ चलने की आदत भी जाती है। अगर भीड़ में न हों, तो उन्हें दूर-दूर रहना ठीक लगने लगा है। मैं अचानक बहुत उदास हो गई थी, बहुत अकेली। हम एक-दूसरे से किस तरह भागते रहते हैं। और फिर जब वाकई एक-दूसरे से अलग होने का वक़्त आता है तो दम घोंट देने की हद तक एक-दूसरे को पकड़ने के लिए लौट जाते हैं। ये हर करीबी रिश्ते की हक़ीकत है। आद्या और आदित एक दूसरे के बिना जी नहीं सकते। उन्हें पांच मिनट के लिए अकेला छोड़ दो तो एक-दूसरे को नोंच-खरोंच मारते हैं। जब वो होते हैं घर में, तो मैं अकेला कोना ढूंढती रहती हूं ताकि अपने काम निपटा सकूं। जब वे स्कूल चले जाते हैं, मुझे घर की तन्हाई से सबसे ज़्यादा नफ़रत होती है। मेरा अपने भाईयों के बिना गुज़ारा नहीं होता, लेकिन हम अधिकांश एक-दूसरे से लड़ते रहते हैं, या फिर एक-दूसरे से बहुत नम्र होने की कोशिश कर रहे होते हैं। पति से बहस से बचने में मेरे दिन की आधी एनर्जी जाती है।
मैं नहीं जानती कि ऐसा सबके साथ होता या नहीं। लेकिन मुझे वाकई रिश्ते संभालना नहीं आता, और कई बार अकेलापन रास आता है। वैसे रिश्ते अच्छे लगते हैं जिनमें प्रोटोकॉल न हो। वरना मैं तन्हा ही अच्छी। कई बार ये सोचती रहती हूं कि एक दिन मैं बौद्ध भिक्षुणी बन जाऊंगी, या फिर फक्कड़ घुमक्कड़। सब छोड़कर नगरी-नगरी द्वारे-द्वारे भटकूंगी। ज़िन्दगी का कोई और उद्देश्य नहीं होगा, सिवाय ख़ुद को समझने के। हम क्या हैं और क्यों हैं, हम जहां हैं वहां क्यों हैं, कहां से आए थे और कहां जाना है - इन सवालों से जुदा कुछ नए सवाल ढूंढूगी और उनके जवाब भी।
मौसी अक्सर कहती है फोन पर, गीता पढ़ो। मुझे लगता है कि अगर पढ़ने बैठी तो कुछ और करना मुश्किल हो जाएगा। मैं जुदा हो जाने के किनारे पर हूं बिल्कुल। एक धक्के में मैं किसी ब्लैक होल में अकेले कूद जाने से बिल्कुल नहीं कतराऊंगी। फिर मेरे बच्चों का क्या होगा? मुझे कम से कम दस साल और इंतज़ार करना होगा - उनका अठारह का हो जाना, और मेरा पैंतालीस का, वो अच्छा समय होगा।
मेरे भीतर की भौतिक ख्वाहिशें ख़त्म होने लगी हैं। मैं किताबें लिखना चाहती हूं लेकिन लगता है किसी को दिखाने के लिए क्यों लिखूं? मैं फ़िल्में लिखना चाहती हूं, लेकिन कमर्शियल हो जाने से डरती हूं। मैं अपनी घुमक्कड़ी भी बिना किसी ग्लैमर के चाहती हूं। क्या सोशल मीडिया ने ये वर्चुअल ग्लैमर दे दिया? क्या सोशल मीडिया ने हमें वो बना दिया जो हम होना नहीं चाहते थे?
मैं पॉपुलर होने और सेक्लुडेड होने की ख़्वाहिशों के बीच पिसती रहती हूं। कभी कभी सोचती हूं कि इतना सोचती भी क्यों हूं। जो है, उसे चलने क्यों नहीं देती?
मेरे भीतर बैठी डॉ शेरगिल मुझे ब्लॉग के पन्ने से हटकर कुछ और कन्सट्रक्टिव करने को कह रही है। मेरे भीतर की शिवानी चाहती है कि मैं कंबल में मुंह ढंककर सो जाऊं। मैंने दोनों के बीच समझौता कराने के इरादे से बीच में एक किताब रख ली है। कल बताऊंगी कि आज का दिन किसका रहा, शिवानी का कि डॉ शेरगिल का।
सोमवार, 23 फ़रवरी 2015
मॉर्निंग पेज १३ और न लिखने के बहाने
मुझे जितना लिखना चाहिए, उतना लिखती नहीं हूं।
मैं जितना लिख सकती हूं, उतना भी नहीं लिखती।
मैं सिर्फ़ लिखने के बारे में सोचती रहती हूं। इतना सोचने लगी हूं अब तो कि रात की नींदें ऊटपटांग कहानियों में गड्डमड्ड होने लगी हैं। जी में कई किस्म के आईडिया आते रहते हैं। मन दुनिया भर की फ़िल्में बना लेना चाहता है। दुनिया भर की कविताओं में अपनी आड़ी-तिरछी क्षणिकाएं घुसेड़ देना चाहता है।
फिर कौन सी चीज़ है जो मुझे रोके रखती है? कौन सी चीज़ है जो आपको रोके रखती है?
आलस है। मेरे भीतर गंभीर अकाट्य इनकॉरिजिबल आलस है। मैं जानती हूं कि जबतक काग़ज़ तक पहुंचुंगी नहीं, तब तक लिखूंगी कैसे? लिखूंगी नहीं तो मालूम कैसे चलेगा कि जितने सारे आईडिया दिमाग़ में घूमते रहते हैं उनमें दम है या नहीं। लेकिन मुझे अपनी नींद बहुत प्यारी है। मैं हमेशा स्लीप डिप्राइव्ड होने के बहाने बनाती रहती हूं। बच्चों के सोने के साथ बिस्तर पर इसलिए लेट जाती हूं क्योंकि मन और शरीर दोनों थके होने का दावा करते रहते हैं। रातभर बेशक नींद न आती हो लेकिन उठकर न किताबों तक पहुंचती हूं न पन्नों तक। वहीं दिमाग़ के एक अंधेरे कोने दूसरे खाली कोने तक भटकते भटकते कहानियां भी दम तोड़ देती हैं, किरदार भी।
मेरे कंप्यूटर में आधे-अधूरे पड़े कई ड्राफ्ट्स इस बात के गवाह हैं। आलस वाकई इंसान का सबसे बड़ा दुश्मन है।
आलस है या एन्कज़ाइटी? नेगेटिविटी ऑक्टोपस की तरह होती है। उसके कई हाथ होते हैं, और ये हाथ आपके कमज़ोर पड़ते ही आपकी गर्दन का रास्ता ढूंढ लेते हैं। ये जो सांसें रुक जाने का भ्रम होता है, ये जो दम के घुट जाने की फीलिंग आती है वो हमारे अंदर से उपजी नेगेटिविटी से आती है।
मै तमाम कोशिशों के बावजूद अपने भीतर के इस ऑक्टोपस को सुला नहीं पाती। वो दिन के उठते ही अपना असर दिखाना शुरु कर देता है।
मेरे पास नहीं लिखने के कई बहाने हैं।
मुझसे घर में बैठकर नहीं लिखा जाता। घर में होती हूं तो दिमाग़ फ़ालतू की कई चीज़ें देखता रहता है। बच्चों की अलमारियां साफ नहीं हैं। स्टोर रूम का कचरा खाली करना है। फ्रिज की सफाई करनी है। बिस्तर पर की चादरें बदलनी हैं। बाथरूम का जाला साफ़ करना है। जाड़े के पकड़े पैक करने हैं। कंबल भीतर डालने हैं। पंखों की सफाई करनी है। कुशन कवर बदले जाने हैं। सोफा ठीक कराना है। किताबों की रैक पर धूल जमा हो गई है। लिस्ट अंतहीन है। कहां से शुरु करूं और कहां ख़त्म, इस चक्कर में काम न शुरु होता है न ख़त्म होता है। मैं दिनभर सोचती रह जाती हूं। काम कुछ होता नहीं और अगले दिन मैं उसी उलझन में घर के इस कोने से उस कोने तक भटकती रहती हूं। शाम को बच्चों के आने के बाद मैं लिख नहीं सकती। बच्चों के स्कूल जाने के बाद मेरी तन्हाई मुझे घेर लेती है। हो तो मुश्किल, न हो तो परेशानी। न लिखने का बहाना हर हाल में कायम रहता है।
मेरे पास कई फ्रीलांस असाईनमेंट हैं, जो लेखन से ही जुड़े हैं। जो थोड़ा-बहुत वक्त होता है, उसमें मैं काम पूरा करने की कोशिश करती रहती हूं ताकि कुछ पैसे मिलें और ज़िन्दगी की गाड़ी चलती रहे। न लिखने का बहाना फिलहाल ये है कि मेरे पास कोई नौकरी नहीं जिससे मुझे महीने के आख़िर में एक निश्चित तनख़्वाह मिले। नौकरी होती तो न लिखने का बहाना वो हो जाता।
मेरा अपना डर भी मुझे घेरे रहता है। लिखकर असफल होने से अच्छा है बिना लिखे अफ़सोस मनाते रहना कि लिख ही नहीं पा रहे। दुनिया में इतने सारे हैं तो - लेखक। उन्होंने क्या बदल दिया? उनकी ज़िन्दगी में कहां है सुख-शांति? बेचैनी लिखकर भी होगी। न लिखो तो भी होगी। फिर क्रिएट करने की पीड़ा से गुज़रना ही क्यों? हर बार अपने भीतर पलने देना एक ख़्याल और फिर उसने कमज़ोर पैदा होने, या अबॉर्ट हो जाने की तकलीफ़ से गुज़रना। ये कहां की समझदारी है?
मुझे जिस तरह का लिखना चाहिए, लिख ही नहीं पाती। अपनी तरह का लिखती रहती हूं बस। बेमतलब की बातें। बेमानी किस्से। मैं कमर्शियल और लिटररी के बीच झूलती रहती हूं। क्या अच्छा होता कि या तो रविंदर सिंह की तरह प्रेम की मशी मशी कहानियां लिखकर बहुत फ़ेमस, और बहुत अमीर हो जाती। या फिर अपनी पीढ़ी के आधुनिक कथाकारों की तरह शब्दों की जादूगरी के दम पर अच्छा (और साहित्यिक) लिखने का दंभ पालने का सुख मिलता। न मैं इधर की हूं न मैं उधर की। न मैं अंग्रेज़ी में लिख पाती हूं, न हिंदी में। थोड़ा-थोड़ा दोनों ओर होना मेरे न लिखने का एक और बहाना है। मुश्किल ये है कि मैं पोज़िशन बदलने को भी तैयार नहीं।
मेरी फिल्म स्क्रिप्ट आधी पड़ी है। मेरी किताब पूरी नहीं हो पा रही। मेरी कहानियों को किरदार तो मिल गए हैं, शब्द नहीं मिल रहे। मैं हूं भी, नहीं भी। ये बेचैनी मुझे तबाह कर देगी।
आप पूछेंगे कि आज किस खुशी में नहीं लिख रही? इसलिए क्योंकि मेरे पास कई काम हैं। मुझे बैंक जाना है। मुझे एक अनुवाद पूरा करना है। मुझे कई सारे ईमेल भेजने हैं। मुझे घर की सफाई करनी है। फ्रिज से बहुत सारा बासी खाना निकाल कर उसमे ताज़ी सब्ज़ियों के लिए जगह बनानी है। मेरे पास पढ़ने के लिए बहुत सारी किताबें हैं। मेरे पास वक़्त नहीं है। मेरे दिमाग़ में बासीपन भरा है। ब्ला ब्ला ब्ला ब्ला।
मैं ठहरी ठहरी थक गई हूं। भटकना चाहती हूं। मैं लिख इसलिए नहीं पा रही क्योंकि भटक नहीं पा रही। ये बात मैं किससे कहूं?
मैं जितना लिख सकती हूं, उतना भी नहीं लिखती।
मैं सिर्फ़ लिखने के बारे में सोचती रहती हूं। इतना सोचने लगी हूं अब तो कि रात की नींदें ऊटपटांग कहानियों में गड्डमड्ड होने लगी हैं। जी में कई किस्म के आईडिया आते रहते हैं। मन दुनिया भर की फ़िल्में बना लेना चाहता है। दुनिया भर की कविताओं में अपनी आड़ी-तिरछी क्षणिकाएं घुसेड़ देना चाहता है।
फिर कौन सी चीज़ है जो मुझे रोके रखती है? कौन सी चीज़ है जो आपको रोके रखती है?
आलस है। मेरे भीतर गंभीर अकाट्य इनकॉरिजिबल आलस है। मैं जानती हूं कि जबतक काग़ज़ तक पहुंचुंगी नहीं, तब तक लिखूंगी कैसे? लिखूंगी नहीं तो मालूम कैसे चलेगा कि जितने सारे आईडिया दिमाग़ में घूमते रहते हैं उनमें दम है या नहीं। लेकिन मुझे अपनी नींद बहुत प्यारी है। मैं हमेशा स्लीप डिप्राइव्ड होने के बहाने बनाती रहती हूं। बच्चों के सोने के साथ बिस्तर पर इसलिए लेट जाती हूं क्योंकि मन और शरीर दोनों थके होने का दावा करते रहते हैं। रातभर बेशक नींद न आती हो लेकिन उठकर न किताबों तक पहुंचती हूं न पन्नों तक। वहीं दिमाग़ के एक अंधेरे कोने दूसरे खाली कोने तक भटकते भटकते कहानियां भी दम तोड़ देती हैं, किरदार भी।
मेरे कंप्यूटर में आधे-अधूरे पड़े कई ड्राफ्ट्स इस बात के गवाह हैं। आलस वाकई इंसान का सबसे बड़ा दुश्मन है।
आलस है या एन्कज़ाइटी? नेगेटिविटी ऑक्टोपस की तरह होती है। उसके कई हाथ होते हैं, और ये हाथ आपके कमज़ोर पड़ते ही आपकी गर्दन का रास्ता ढूंढ लेते हैं। ये जो सांसें रुक जाने का भ्रम होता है, ये जो दम के घुट जाने की फीलिंग आती है वो हमारे अंदर से उपजी नेगेटिविटी से आती है।
मै तमाम कोशिशों के बावजूद अपने भीतर के इस ऑक्टोपस को सुला नहीं पाती। वो दिन के उठते ही अपना असर दिखाना शुरु कर देता है।
मेरे पास नहीं लिखने के कई बहाने हैं।
मुझसे घर में बैठकर नहीं लिखा जाता। घर में होती हूं तो दिमाग़ फ़ालतू की कई चीज़ें देखता रहता है। बच्चों की अलमारियां साफ नहीं हैं। स्टोर रूम का कचरा खाली करना है। फ्रिज की सफाई करनी है। बिस्तर पर की चादरें बदलनी हैं। बाथरूम का जाला साफ़ करना है। जाड़े के पकड़े पैक करने हैं। कंबल भीतर डालने हैं। पंखों की सफाई करनी है। कुशन कवर बदले जाने हैं। सोफा ठीक कराना है। किताबों की रैक पर धूल जमा हो गई है। लिस्ट अंतहीन है। कहां से शुरु करूं और कहां ख़त्म, इस चक्कर में काम न शुरु होता है न ख़त्म होता है। मैं दिनभर सोचती रह जाती हूं। काम कुछ होता नहीं और अगले दिन मैं उसी उलझन में घर के इस कोने से उस कोने तक भटकती रहती हूं। शाम को बच्चों के आने के बाद मैं लिख नहीं सकती। बच्चों के स्कूल जाने के बाद मेरी तन्हाई मुझे घेर लेती है। हो तो मुश्किल, न हो तो परेशानी। न लिखने का बहाना हर हाल में कायम रहता है।
मेरे पास कई फ्रीलांस असाईनमेंट हैं, जो लेखन से ही जुड़े हैं। जो थोड़ा-बहुत वक्त होता है, उसमें मैं काम पूरा करने की कोशिश करती रहती हूं ताकि कुछ पैसे मिलें और ज़िन्दगी की गाड़ी चलती रहे। न लिखने का बहाना फिलहाल ये है कि मेरे पास कोई नौकरी नहीं जिससे मुझे महीने के आख़िर में एक निश्चित तनख़्वाह मिले। नौकरी होती तो न लिखने का बहाना वो हो जाता।
मेरा अपना डर भी मुझे घेरे रहता है। लिखकर असफल होने से अच्छा है बिना लिखे अफ़सोस मनाते रहना कि लिख ही नहीं पा रहे। दुनिया में इतने सारे हैं तो - लेखक। उन्होंने क्या बदल दिया? उनकी ज़िन्दगी में कहां है सुख-शांति? बेचैनी लिखकर भी होगी। न लिखो तो भी होगी। फिर क्रिएट करने की पीड़ा से गुज़रना ही क्यों? हर बार अपने भीतर पलने देना एक ख़्याल और फिर उसने कमज़ोर पैदा होने, या अबॉर्ट हो जाने की तकलीफ़ से गुज़रना। ये कहां की समझदारी है?
मुझे जिस तरह का लिखना चाहिए, लिख ही नहीं पाती। अपनी तरह का लिखती रहती हूं बस। बेमतलब की बातें। बेमानी किस्से। मैं कमर्शियल और लिटररी के बीच झूलती रहती हूं। क्या अच्छा होता कि या तो रविंदर सिंह की तरह प्रेम की मशी मशी कहानियां लिखकर बहुत फ़ेमस, और बहुत अमीर हो जाती। या फिर अपनी पीढ़ी के आधुनिक कथाकारों की तरह शब्दों की जादूगरी के दम पर अच्छा (और साहित्यिक) लिखने का दंभ पालने का सुख मिलता। न मैं इधर की हूं न मैं उधर की। न मैं अंग्रेज़ी में लिख पाती हूं, न हिंदी में। थोड़ा-थोड़ा दोनों ओर होना मेरे न लिखने का एक और बहाना है। मुश्किल ये है कि मैं पोज़िशन बदलने को भी तैयार नहीं।
मेरी फिल्म स्क्रिप्ट आधी पड़ी है। मेरी किताब पूरी नहीं हो पा रही। मेरी कहानियों को किरदार तो मिल गए हैं, शब्द नहीं मिल रहे। मैं हूं भी, नहीं भी। ये बेचैनी मुझे तबाह कर देगी।
आप पूछेंगे कि आज किस खुशी में नहीं लिख रही? इसलिए क्योंकि मेरे पास कई काम हैं। मुझे बैंक जाना है। मुझे एक अनुवाद पूरा करना है। मुझे कई सारे ईमेल भेजने हैं। मुझे घर की सफाई करनी है। फ्रिज से बहुत सारा बासी खाना निकाल कर उसमे ताज़ी सब्ज़ियों के लिए जगह बनानी है। मेरे पास पढ़ने के लिए बहुत सारी किताबें हैं। मेरे पास वक़्त नहीं है। मेरे दिमाग़ में बासीपन भरा है। ब्ला ब्ला ब्ला ब्ला।
मैं ठहरी ठहरी थक गई हूं। भटकना चाहती हूं। मैं लिख इसलिए नहीं पा रही क्योंकि भटक नहीं पा रही। ये बात मैं किससे कहूं?
रविवार, 22 फ़रवरी 2015
मॉर्निंग पेज १२ और पुस्तक मेले से रिकॉर्डेड
आद्या और आदित की किताबों का बंडल किसी ने प्रगति मैदान स्टेशन की एक्स-रे मशीन से उठा लिया। ये वो सदमा है जिससे मैं अभी तक उबर नहीं पाई हूं।
मेरे बच्चे बहुत नॉन-डिमांडिंग हैं, और बहुत समझदार। इस बात का मुझे फख़्र है। उनकी ख़्वाहिशें बड़ी छोटी छोटी होती हैं। आदित अपनी साइकिल के लिए पिछले कई महीने से पैसे जमा कर रहा है। आद्या अपने पैसे सहेज कर रखती है और किताबें या स्टेशनरी खरीदती है उससे। ये पैसे नानी-दादी के हाथों से मिला आशीर्वाद होते हैं, या मामा-मामी के दिए तोहफ़े। अभी इतने छोटे हैं कि इन्हें पॉकेट मनी मिलती नहीं। तो आद्या अपनी पॉकेट मनी कमाने के लिए काम तक करने को तैयार होती है। दोनों बच्चों ने मिलकर एक सिटी क्लब बना रखा है। सिटी क्लब में सिर दर्द, कमर दर्द वगैरह के लिए मालिश या चंपी का प्रावधान है। बच्चे अपनी तरफ से सेवा करते हैं औऱ बदले में बीस रुपए अपनी पॉकेट मनी में जुड़वाते जाते हैं। जिस दिन आया नहीं आती, उस दिन मेज़ साफ़ करना, झाड़ू लगाना, डस्टिंग कर देना - इन सारे कामों में उन्हें मज़ा आता है और इसके बीस रुपए भी उनकी पॉकेट मनी में जुड़ते चले जाते हैं।
मेरे घर में टीवी नहीं है। मेरे पास स्मार्ट फोन नहीं है। हमने आईपैड नहीं रखा, और हमारे पास टैबलेट नहीं है। एक इंटरनेट है बस, जिसकी वजह से यूट्यूब है और दो गाड़ियां है जिनकी वजह से एफएम रेडियो है। बच्चों के इकलौता शौक फ़िल्में देखना हैं। आदित गूगल मांगता है, वो भी ये देखने के लिए कि संजय लीला भंसाली ने कौन सी फिल्म किस साल में बनाई थी और रोहित शेट्टी की किस फिल्म की कमाई कितनी है। दोनों ने अभी तक कपड़ों को लेकर ज़िद नहीं की। जूते जब और जैसे खरीद दिए गए हैं, दोनों पहन लेते हैं। खिलौनों के लिए छुटपन से लेकर अब तक इन्होंने कभी ज़िद की हो, ऐसा मुझे या मेरे परिवार में किसी को याद नहीं। चॉकलेट किसी ने दे दिया तो सहेज कर रखा और खा लिया। वरना दुकान में जाकर ये भी नहीं कहा कि चॉकलेट खरीद दो। आइसक्रीम की दुकान के बाहर पूछते हैं किसी बड़े से, क्या मेरा गला ठीक है? क्या मैं आइसक्रीम खा लूं? न कह दो तो बहस नहीं करेंगे। उन्हें मालूम है उन्हें कौन सी चीज़ नुकसान पहुंचाती है।
ऐसे बच्चे जब किताबें खरीदने को कहते हैं तो मैं मना नहीं कर पाती। तब भी जब इनकी किताबें कई बार हफ़्तों नहीं खुलती। तब भी जब जेरॉनिमो स्टिलटन की सीरिज़ से मुझे सख़्त नफ़रत है या फिर ऐवेन्जर सीरिज़ के होने का मतलब ही मुझे नहीं समझ आता। लेकिन चूंकि इसी एक चीज़ में indulge करते हैं, इसलिए मना करना सही नहीं होता।
तीन दिन से कह रहे थे दोनों कि बुक फ़ेयर चलना है। शनिवार दिन तय किया और आदित के आई चेकअप के बाद हम नोएडा से दरियागंज, और दरियागंज से होते हुए प्रगति मैदान पहुंच गए। बच्चों ने पता कर रखा था कि उनकी किताबें कहां मिलेंगी। सो हम सीधे पहले चिल्ड्रेन्स पैवेलियन गए, और फिर हॉल नंबर सेवेन जहां उनके मतलब की किताबें होतीं। हमने ख़ूब सारी किताबें खरीदीं - बच्चों के लिए, उनके दोस्तों के लिए जो बर्थडे में तोहफ़े में दी जातीं। बच्चे घूम घूमकर अपने पसंद की दुकानों में जाते रहे, अपने लिए किताबें उठाते रहे।
हॉल नंबर बारह की हलचल से उन्हें कोई मतलब नहीं था। वहां मम्मा के मतलब के लोग थे, उनके मतलब की किताबें थीं। पुस्तक मेला सिर्फ़ किताबें देखने या खरीदने का बहाना नहीं होता। अब तो पुस्तक मेला लोगों से मिलने की जगह बन गया है - आपके लिक्खाड़ और पढ़ाक होने का सबूत। मैं कॉलेज के ज़माने से पुस्तक मेला जाती रही हूं। हर साल पूरा एक दिन सिर्फ़ और सिर्फ़ मेले के नाम होता था। इंटरनेट का ज़माना था नहीं, और न मोबाइल फोन का। तो भूले भटके अपने किसी दोस्त से टकरा गए तो वो अलग किस्म का थ्रिल होता था। हम किताबें सूंघते, उन्हें छूकर देखते। लेकिन उठाते सिर्फ़ राजकमल और रूपा के पेपरबैक्स थे। बाकी किताबें लाइब्रेरी में मिल जाया करती थीं। साठ रुपए से ज़्यादा की किताबें खरीदने की औकात थी नहीं और कुल बजट शायद ही तीन सौ पार करता था जिसमें फूड कोर्ट का लंच और डीटीसी का टिकट - दोनों शामिल होते।
हम पुस्तक मेला या लिटरेचर फेस्टिवल में होना एक किस्म का स्टेटस सिंबल बन गया है। हम तस्वीरें खींचते हैं और उन्हें सोशल मीडिया पर डाल देते हैं, जैसे पुस्तक मेले में होने का वही एक मकसद हो। हम दोस्त-यारों से मिलने जाते हैं वहां। उन्हें हैलो बोलते हैं, नंबर एक्सचेंज करते हैं और फिर वैसे ही टउआते हुए चले आते हैं।
मैंने कल बुक फ़ेयर में होना इसलिए इतना एन्जॉय किया क्योंकि मैं बच्चों के साथ उनके तरीके से भटकती रही थी। दौड़-दौड़ के हॉल में अपने पसंद के स्टॉल्स में जाना और वहां घंटों किताबें निहारना - बच्चे इसी शौक़ के साथ गए थे। उन्हें अपना स्टेटस नहीं बढ़ाना था। उनकी मां की तरह उनकी किताबें डिस्प्ले के लिए नहीं खरीदी जातीं। उनकी किताबें वाकई इसलिए खरीदी जाती हैं क्योंकि उन्हें वाकई मज़ा आता है।
बच्चों के लिए थ्रिल बड़े छोटे छोटे होते हैं। उन्हें चेहरों से कोई वास्ता नहीं होता। वे अक्सर नाम भी भूल जाया करते हैं। उन्हें तो ये भी नहीं मालूम कि कोई राईटर मशहूर भी हो सकता है। उनके लिए एक ही फेमस आदमी है पूरी दुनिया में - सलमान ख़ान, या फिर नरेन्द्र मोदी।
उन बच्चों की किताबें कोई उठा ले जाए तो क्या सदमा नहीं होगा?
मेरे बच्चे बहुत नॉन-डिमांडिंग हैं, और बहुत समझदार। इस बात का मुझे फख़्र है। उनकी ख़्वाहिशें बड़ी छोटी छोटी होती हैं। आदित अपनी साइकिल के लिए पिछले कई महीने से पैसे जमा कर रहा है। आद्या अपने पैसे सहेज कर रखती है और किताबें या स्टेशनरी खरीदती है उससे। ये पैसे नानी-दादी के हाथों से मिला आशीर्वाद होते हैं, या मामा-मामी के दिए तोहफ़े। अभी इतने छोटे हैं कि इन्हें पॉकेट मनी मिलती नहीं। तो आद्या अपनी पॉकेट मनी कमाने के लिए काम तक करने को तैयार होती है। दोनों बच्चों ने मिलकर एक सिटी क्लब बना रखा है। सिटी क्लब में सिर दर्द, कमर दर्द वगैरह के लिए मालिश या चंपी का प्रावधान है। बच्चे अपनी तरफ से सेवा करते हैं औऱ बदले में बीस रुपए अपनी पॉकेट मनी में जुड़वाते जाते हैं। जिस दिन आया नहीं आती, उस दिन मेज़ साफ़ करना, झाड़ू लगाना, डस्टिंग कर देना - इन सारे कामों में उन्हें मज़ा आता है और इसके बीस रुपए भी उनकी पॉकेट मनी में जुड़ते चले जाते हैं।
मेरे घर में टीवी नहीं है। मेरे पास स्मार्ट फोन नहीं है। हमने आईपैड नहीं रखा, और हमारे पास टैबलेट नहीं है। एक इंटरनेट है बस, जिसकी वजह से यूट्यूब है और दो गाड़ियां है जिनकी वजह से एफएम रेडियो है। बच्चों के इकलौता शौक फ़िल्में देखना हैं। आदित गूगल मांगता है, वो भी ये देखने के लिए कि संजय लीला भंसाली ने कौन सी फिल्म किस साल में बनाई थी और रोहित शेट्टी की किस फिल्म की कमाई कितनी है। दोनों ने अभी तक कपड़ों को लेकर ज़िद नहीं की। जूते जब और जैसे खरीद दिए गए हैं, दोनों पहन लेते हैं। खिलौनों के लिए छुटपन से लेकर अब तक इन्होंने कभी ज़िद की हो, ऐसा मुझे या मेरे परिवार में किसी को याद नहीं। चॉकलेट किसी ने दे दिया तो सहेज कर रखा और खा लिया। वरना दुकान में जाकर ये भी नहीं कहा कि चॉकलेट खरीद दो। आइसक्रीम की दुकान के बाहर पूछते हैं किसी बड़े से, क्या मेरा गला ठीक है? क्या मैं आइसक्रीम खा लूं? न कह दो तो बहस नहीं करेंगे। उन्हें मालूम है उन्हें कौन सी चीज़ नुकसान पहुंचाती है।
ऐसे बच्चे जब किताबें खरीदने को कहते हैं तो मैं मना नहीं कर पाती। तब भी जब इनकी किताबें कई बार हफ़्तों नहीं खुलती। तब भी जब जेरॉनिमो स्टिलटन की सीरिज़ से मुझे सख़्त नफ़रत है या फिर ऐवेन्जर सीरिज़ के होने का मतलब ही मुझे नहीं समझ आता। लेकिन चूंकि इसी एक चीज़ में indulge करते हैं, इसलिए मना करना सही नहीं होता।
तीन दिन से कह रहे थे दोनों कि बुक फ़ेयर चलना है। शनिवार दिन तय किया और आदित के आई चेकअप के बाद हम नोएडा से दरियागंज, और दरियागंज से होते हुए प्रगति मैदान पहुंच गए। बच्चों ने पता कर रखा था कि उनकी किताबें कहां मिलेंगी। सो हम सीधे पहले चिल्ड्रेन्स पैवेलियन गए, और फिर हॉल नंबर सेवेन जहां उनके मतलब की किताबें होतीं। हमने ख़ूब सारी किताबें खरीदीं - बच्चों के लिए, उनके दोस्तों के लिए जो बर्थडे में तोहफ़े में दी जातीं। बच्चे घूम घूमकर अपने पसंद की दुकानों में जाते रहे, अपने लिए किताबें उठाते रहे।
हॉल नंबर बारह की हलचल से उन्हें कोई मतलब नहीं था। वहां मम्मा के मतलब के लोग थे, उनके मतलब की किताबें थीं। पुस्तक मेला सिर्फ़ किताबें देखने या खरीदने का बहाना नहीं होता। अब तो पुस्तक मेला लोगों से मिलने की जगह बन गया है - आपके लिक्खाड़ और पढ़ाक होने का सबूत। मैं कॉलेज के ज़माने से पुस्तक मेला जाती रही हूं। हर साल पूरा एक दिन सिर्फ़ और सिर्फ़ मेले के नाम होता था। इंटरनेट का ज़माना था नहीं, और न मोबाइल फोन का। तो भूले भटके अपने किसी दोस्त से टकरा गए तो वो अलग किस्म का थ्रिल होता था। हम किताबें सूंघते, उन्हें छूकर देखते। लेकिन उठाते सिर्फ़ राजकमल और रूपा के पेपरबैक्स थे। बाकी किताबें लाइब्रेरी में मिल जाया करती थीं। साठ रुपए से ज़्यादा की किताबें खरीदने की औकात थी नहीं और कुल बजट शायद ही तीन सौ पार करता था जिसमें फूड कोर्ट का लंच और डीटीसी का टिकट - दोनों शामिल होते।
हम पुस्तक मेला या लिटरेचर फेस्टिवल में होना एक किस्म का स्टेटस सिंबल बन गया है। हम तस्वीरें खींचते हैं और उन्हें सोशल मीडिया पर डाल देते हैं, जैसे पुस्तक मेले में होने का वही एक मकसद हो। हम दोस्त-यारों से मिलने जाते हैं वहां। उन्हें हैलो बोलते हैं, नंबर एक्सचेंज करते हैं और फिर वैसे ही टउआते हुए चले आते हैं।
मैंने कल बुक फ़ेयर में होना इसलिए इतना एन्जॉय किया क्योंकि मैं बच्चों के साथ उनके तरीके से भटकती रही थी। दौड़-दौड़ के हॉल में अपने पसंद के स्टॉल्स में जाना और वहां घंटों किताबें निहारना - बच्चे इसी शौक़ के साथ गए थे। उन्हें अपना स्टेटस नहीं बढ़ाना था। उनकी मां की तरह उनकी किताबें डिस्प्ले के लिए नहीं खरीदी जातीं। उनकी किताबें वाकई इसलिए खरीदी जाती हैं क्योंकि उन्हें वाकई मज़ा आता है।
बच्चों के लिए थ्रिल बड़े छोटे छोटे होते हैं। उन्हें चेहरों से कोई वास्ता नहीं होता। वे अक्सर नाम भी भूल जाया करते हैं। उन्हें तो ये भी नहीं मालूम कि कोई राईटर मशहूर भी हो सकता है। उनके लिए एक ही फेमस आदमी है पूरी दुनिया में - सलमान ख़ान, या फिर नरेन्द्र मोदी।
उन बच्चों की किताबें कोई उठा ले जाए तो क्या सदमा नहीं होगा?
शनिवार, 21 फ़रवरी 2015
मॉर्निंग पेज ११ और हर जगह बिखरे हुए शब्द
अजीब सा कमरा था। घुटन और सीलन से भरा हुआ। अंधेरे में कुछ दिखता नहीं था। बस काग़ज़ के सफ़ेद पुर्जे चारों ओर बिखरे पड़े थे। जितने पुर्जे उठाती और उन्हें खोलकर पढ़ती, हर पुर्जे पर एक नया शब्द लिखा होता। मैं पूरी रात नींद में ये ही कर रही थी - पुर्जे उठाना और उन्हें खोलकर पढ़ना। पूरी रात मुझे एक भी शब्द ऐसा नहीं मिला जिसका अर्थ मालूम हो मुझे।
पता नहीं कैसी बेचैनी के साथ उठी हूँ। बिस्तर से निकलते ही सबसे पहले लैपटॉप खोल दिया है। बाहर अभी भी अंधेरा है, सो पार्क में जाकर बैठ नहीं सकती। सपने की बेचैनी इस क़दर तारी है कि ड्राईंग रूम में भी घुटन और सीलन की गंध भरी हुई महसूस हो रही है। खिड़कियां खुली होने के बावजूद।
कल पूरे दिन मैं मम्मा की डायरी के चैप्टर्स पर काम करती रही - बिना घर से निकले, बिना नहाए धोए (लेकिन बहुत सारा खा-पीकर)। मैं कुछ लिखने में नाकाम हो रही होती हूं तो खूब सारा खाना खाती हूं। भूल जाती हूं कि लंच दो बार किया या तीन बार। फ्रिज में किसी मीठी चीज़ का बासीपन ढूंढती रहती हूं। डिब्बे तलाश करती रहती हूं हर एक घंटे पर, कि कुछ खाने को मिल जाए। नहाती नहीं। हाथ-पैरों पर क्रीम नहीं लगाती। बाल पता नहीं कितने दिनों से धोए नहीं हैं। नाखूनों की ओर देखकर ध्यान आ रहा है कि इन्हें भी काटने का काम बाकी है। पीठ कहती है कि थक रही है अब। ब्रेक ले लो। और किताब है कि भीतर से बाहर निकलने को तैयार ही नहीं। इतनी मुश्किल तो मुझे जुड़वां बच्चे पैदा करने में भी नहीं हुई थी।
वजह क्या है कि चैप्टर बार-बार लिख रही हूं, बार-बार डिलीट कर रही हूं?
मेरा अपना डर।
कहानियां लिखना आसान हैं। आप अपनी मर्ज़ी से तय करते हैं कि आपके किरदार किस तरह हालात का सामना करेंगे। या फिर आप किरदारों को पन्ने पर अपनी मर्ज़ी चलाने के लिए छोड़ देते हैं। दोनों सूरतों में आपका निजी नुकसान नहीं हो रहा होता। ज़िन्दगी किरदार की, उसका अच्छा-बुरा उसकी किस्मत। आप तो सिर्फ़ एक ज़रिया हैं।
मम्मा की डायरी में असली ज़िन्दगी के टुकड़े हैं। उन्हें बांटने से ज़्यादा डर इस बात का है कि मेरा अपना पूर्वाग्रह उसपर हावी न हो जाए। पहले ही चैप्टर को कम से कम बीस बार लिख चुकी हूं। जितनी बार लगता है कि अब काम बन गया, उतनी बार एक नई बात याद आ जाती है। दूसरा चैप्टर तो ख़ैर अटक ही गया है। अपनी प्रेगनेंसी के बारे में पब्लिक स्पेस में बात करना तो हमें सिखाया ही नहीं गया। तो आप लिखें कैसे कि आप किन सूरतों से गुज़र रहे थे? आप लिखें कैसे कि एक प्रेगनेंट औरत को अगर सबसे ज़्यादा किसी से बचाने की ज़रूरत होती है तो वो उसी का अपना परिवार होता है। ये चैप्टर तो मुझसे लिखा ही नहीं जा रहा।
कमाल की बात है कि बच्चों के बारे में कई औरतों ने मुझसे बात की, लेकिन प्रेगनेंसी के किस्से बहुत कम लोगों को याद रहे। सबने - एक स्वर में सबने ये कहा कि बच्चे की शक्ल देखते ही भूल जाते हैं कि वे नौ महीने कैसे गुज़रे। मेरे साथ भी यही हुआ था।
लेकिन फिर भी तकलीफ़ें तो थीं। मुझे एक दोपहर तो बिल्कुल नहीं भूलती जब मैं बहुत रोई थी, इसलिए क्योंकि मेरी ऐसी हालत में भी डिस्कशन का मुद्दा ये था कि बच्चों को देखने के लिए कौन रहेगा साथ, और क्या अनु को नौकरी छोड़कर घर (मायके या ससुराल) नहीं आ जाना चाहिए जिससे उसकी मदद करने वाले लोग मिलें? मैं कमज़ोर थी। मुझमें दो बच्चे अकेले पालने की हिम्मत नहीं थी, न भरोसा था कि ये काम मुझसे हो जाएगा। मेरे लिए फ़ैसले मुझे छोड़कर सब ले रहे थे। यहां तक कि मुझे क्या खाना चाहिए से लेकर मुझे किस करवट सोना चाहिए।
दूसरा चैप्टर मुझसे इसलिए नहीं लिखा जा रहा क्योंकि अपनी याद में मैंने भी उन कुछ महीनों को फास्ट-फॉरवर्ड में डाल दिया। मदरहुड का जो सबसे मुश्किल हिस्सा होता है, हम उसपर ही बात करना नहीं चाहते।
वैसे इसे सकरात्मक नज़रिए से भी देखना चाहिए। औरतों में दर्द भुला देने की ग़ज़ब की क्षमता होती है।
लेकिन अब मुझे किसी तरह किताब ख़त्म कर देने की जल्दी है। मन कहीं लग ही नहीं रहा। दिन-रात इसी के बारे में सोचती रहती हूं। फिर भी सही तरीके से स्क्रीन पर कुछ उतरता हुआ नहीं लगता।
बच्चों ने आज बुक फेयर जाने की ज़िद की है। उन्हें लेकर जाना तीन घंटे बाद है, तनाव अभी से हो रहा है। एक दिन गई थी बीच में। किताबों का मेला किताब लिख देने के बाद बिल्कुल अलग तरीके से दिखाई देने लगता है। इतने सालों तक ये ख़्वाहिश पालती रही कि इन लाखों किताबों में किसी दिन मेरी भी एक किताब होगी। अब जब वो मुकाम हासिल हो गया है तो उसकी व्यर्थता का अहसास हो रहा है। हर रोज़ लिखी जाने वाली करोड़ों कहानियों में तुम्हारी एक कहानी हुई भी तो उसका हासिल क्या? ये सोच मुझे लगातार डिप्रेस कर रही है। उस दिन पुस्तक मेले में दो ही तरह के लोग दिखे। जो किताबें छाप और बेच रहे थे, और जो किताबें लिख रहे थे। शायद मैं ग़लत दिन गई होऊं, लेकिन किताब पढ़ने या खरीदने वालों से कहीं ज़्यादा किताब लिखने और बेचने वालों की जमात थी।
जयपुर में भी मुझे इसी तरह की घबराहट और घुटन हुई थी। इतने सारे लेखक, इतने सारे बेहतरीन सुखनवर। और इतनी सारी भीड़ जो सिर्फ़ तमाशा देखने आई है। लिखते सब हैं। पढ़ता कौन होगा?
सबको लिखना चाहिए - और नहीं तो कम से कम डायरी ही सही - मैं इस बात की चैंपियन रही हूं। मुझे लगता है कि लिखते हुए हम अपने तरीके से अपने वक़्त को रिकॉर्ड कर रहे होते हैं और अपना लिखा हुआ ही बाद में हमारा मार्गदर्शन करता है। कहानियों के ज़रिए भी हम अपने ऑल्टर ईगो जीते हैं। वो बन जाते हैं जो किसी और तरीके से बन जाने की इस जनम में हिम्मत नहीं। लिखना हमें हमारे मूल्य तय करने में हमारी मदद करता है। हमारे लिए क्या ग़लत है और क्या सही, उसे तय करने में हमारी मदद करता है।
लेकिन जब हम शोहरत की चाह में लिख रहे हों तो? जब हम सिर्फ़ छपने की ख़्वाहिश में लिख रहे हों तो?
मैंने इतनी बार अपनी ही डायरी के हिस्से लिखे हैं, बच्चों को बड़ा करते हुए उनके लम्हों को रिकॉर्ड किया है कि मम्मा की डायरी मेरे लिए लिखना आसान होना चाहिए था। लेकिन है नहीं, इसलिए क्योंकि अपने लिए लिखते हुए जज किए जाने का डर नहीं था। अब मैं किसी और के लिए लिख रही हूं। छपने के लिए लिख रही हूं। इसलिए डर है। इसलिए अपने पूर्वाग्रहों से अपने ही लेखन को बचाए रखना है। सबसे ज़्यादा अपने लेखन को किसी और चीज़ से बचाना है तो वो है अपेक्षाएं - अपनी, दूसरों की, पाठकों की, प्रकाशकों की।
मुझे अपने सपने का मतलब समझ में आ गया है, और मुझे उस घुटन भरे कमरे से निकलने का रास्ता भी सूझ गया है। आज लिखते हुए ये भूलना होगा कि मैं किसी और के लिए लिख रही हूं। आज मैं मम्मा की डायरी के चैप्टर ठीक वैसे लिखूंगी जैसे अपने लिए लिखती, अपने ब्लॉग के लिए लिखती।
पता नहीं कैसी बेचैनी के साथ उठी हूँ। बिस्तर से निकलते ही सबसे पहले लैपटॉप खोल दिया है। बाहर अभी भी अंधेरा है, सो पार्क में जाकर बैठ नहीं सकती। सपने की बेचैनी इस क़दर तारी है कि ड्राईंग रूम में भी घुटन और सीलन की गंध भरी हुई महसूस हो रही है। खिड़कियां खुली होने के बावजूद।
कल पूरे दिन मैं मम्मा की डायरी के चैप्टर्स पर काम करती रही - बिना घर से निकले, बिना नहाए धोए (लेकिन बहुत सारा खा-पीकर)। मैं कुछ लिखने में नाकाम हो रही होती हूं तो खूब सारा खाना खाती हूं। भूल जाती हूं कि लंच दो बार किया या तीन बार। फ्रिज में किसी मीठी चीज़ का बासीपन ढूंढती रहती हूं। डिब्बे तलाश करती रहती हूं हर एक घंटे पर, कि कुछ खाने को मिल जाए। नहाती नहीं। हाथ-पैरों पर क्रीम नहीं लगाती। बाल पता नहीं कितने दिनों से धोए नहीं हैं। नाखूनों की ओर देखकर ध्यान आ रहा है कि इन्हें भी काटने का काम बाकी है। पीठ कहती है कि थक रही है अब। ब्रेक ले लो। और किताब है कि भीतर से बाहर निकलने को तैयार ही नहीं। इतनी मुश्किल तो मुझे जुड़वां बच्चे पैदा करने में भी नहीं हुई थी।
वजह क्या है कि चैप्टर बार-बार लिख रही हूं, बार-बार डिलीट कर रही हूं?
मेरा अपना डर।
कहानियां लिखना आसान हैं। आप अपनी मर्ज़ी से तय करते हैं कि आपके किरदार किस तरह हालात का सामना करेंगे। या फिर आप किरदारों को पन्ने पर अपनी मर्ज़ी चलाने के लिए छोड़ देते हैं। दोनों सूरतों में आपका निजी नुकसान नहीं हो रहा होता। ज़िन्दगी किरदार की, उसका अच्छा-बुरा उसकी किस्मत। आप तो सिर्फ़ एक ज़रिया हैं।
मम्मा की डायरी में असली ज़िन्दगी के टुकड़े हैं। उन्हें बांटने से ज़्यादा डर इस बात का है कि मेरा अपना पूर्वाग्रह उसपर हावी न हो जाए। पहले ही चैप्टर को कम से कम बीस बार लिख चुकी हूं। जितनी बार लगता है कि अब काम बन गया, उतनी बार एक नई बात याद आ जाती है। दूसरा चैप्टर तो ख़ैर अटक ही गया है। अपनी प्रेगनेंसी के बारे में पब्लिक स्पेस में बात करना तो हमें सिखाया ही नहीं गया। तो आप लिखें कैसे कि आप किन सूरतों से गुज़र रहे थे? आप लिखें कैसे कि एक प्रेगनेंट औरत को अगर सबसे ज़्यादा किसी से बचाने की ज़रूरत होती है तो वो उसी का अपना परिवार होता है। ये चैप्टर तो मुझसे लिखा ही नहीं जा रहा।
कमाल की बात है कि बच्चों के बारे में कई औरतों ने मुझसे बात की, लेकिन प्रेगनेंसी के किस्से बहुत कम लोगों को याद रहे। सबने - एक स्वर में सबने ये कहा कि बच्चे की शक्ल देखते ही भूल जाते हैं कि वे नौ महीने कैसे गुज़रे। मेरे साथ भी यही हुआ था।
लेकिन फिर भी तकलीफ़ें तो थीं। मुझे एक दोपहर तो बिल्कुल नहीं भूलती जब मैं बहुत रोई थी, इसलिए क्योंकि मेरी ऐसी हालत में भी डिस्कशन का मुद्दा ये था कि बच्चों को देखने के लिए कौन रहेगा साथ, और क्या अनु को नौकरी छोड़कर घर (मायके या ससुराल) नहीं आ जाना चाहिए जिससे उसकी मदद करने वाले लोग मिलें? मैं कमज़ोर थी। मुझमें दो बच्चे अकेले पालने की हिम्मत नहीं थी, न भरोसा था कि ये काम मुझसे हो जाएगा। मेरे लिए फ़ैसले मुझे छोड़कर सब ले रहे थे। यहां तक कि मुझे क्या खाना चाहिए से लेकर मुझे किस करवट सोना चाहिए।
दूसरा चैप्टर मुझसे इसलिए नहीं लिखा जा रहा क्योंकि अपनी याद में मैंने भी उन कुछ महीनों को फास्ट-फॉरवर्ड में डाल दिया। मदरहुड का जो सबसे मुश्किल हिस्सा होता है, हम उसपर ही बात करना नहीं चाहते।
वैसे इसे सकरात्मक नज़रिए से भी देखना चाहिए। औरतों में दर्द भुला देने की ग़ज़ब की क्षमता होती है।
लेकिन अब मुझे किसी तरह किताब ख़त्म कर देने की जल्दी है। मन कहीं लग ही नहीं रहा। दिन-रात इसी के बारे में सोचती रहती हूं। फिर भी सही तरीके से स्क्रीन पर कुछ उतरता हुआ नहीं लगता।
बच्चों ने आज बुक फेयर जाने की ज़िद की है। उन्हें लेकर जाना तीन घंटे बाद है, तनाव अभी से हो रहा है। एक दिन गई थी बीच में। किताबों का मेला किताब लिख देने के बाद बिल्कुल अलग तरीके से दिखाई देने लगता है। इतने सालों तक ये ख़्वाहिश पालती रही कि इन लाखों किताबों में किसी दिन मेरी भी एक किताब होगी। अब जब वो मुकाम हासिल हो गया है तो उसकी व्यर्थता का अहसास हो रहा है। हर रोज़ लिखी जाने वाली करोड़ों कहानियों में तुम्हारी एक कहानी हुई भी तो उसका हासिल क्या? ये सोच मुझे लगातार डिप्रेस कर रही है। उस दिन पुस्तक मेले में दो ही तरह के लोग दिखे। जो किताबें छाप और बेच रहे थे, और जो किताबें लिख रहे थे। शायद मैं ग़लत दिन गई होऊं, लेकिन किताब पढ़ने या खरीदने वालों से कहीं ज़्यादा किताब लिखने और बेचने वालों की जमात थी।
जयपुर में भी मुझे इसी तरह की घबराहट और घुटन हुई थी। इतने सारे लेखक, इतने सारे बेहतरीन सुखनवर। और इतनी सारी भीड़ जो सिर्फ़ तमाशा देखने आई है। लिखते सब हैं। पढ़ता कौन होगा?
सबको लिखना चाहिए - और नहीं तो कम से कम डायरी ही सही - मैं इस बात की चैंपियन रही हूं। मुझे लगता है कि लिखते हुए हम अपने तरीके से अपने वक़्त को रिकॉर्ड कर रहे होते हैं और अपना लिखा हुआ ही बाद में हमारा मार्गदर्शन करता है। कहानियों के ज़रिए भी हम अपने ऑल्टर ईगो जीते हैं। वो बन जाते हैं जो किसी और तरीके से बन जाने की इस जनम में हिम्मत नहीं। लिखना हमें हमारे मूल्य तय करने में हमारी मदद करता है। हमारे लिए क्या ग़लत है और क्या सही, उसे तय करने में हमारी मदद करता है।
लेकिन जब हम शोहरत की चाह में लिख रहे हों तो? जब हम सिर्फ़ छपने की ख़्वाहिश में लिख रहे हों तो?
मैंने इतनी बार अपनी ही डायरी के हिस्से लिखे हैं, बच्चों को बड़ा करते हुए उनके लम्हों को रिकॉर्ड किया है कि मम्मा की डायरी मेरे लिए लिखना आसान होना चाहिए था। लेकिन है नहीं, इसलिए क्योंकि अपने लिए लिखते हुए जज किए जाने का डर नहीं था। अब मैं किसी और के लिए लिख रही हूं। छपने के लिए लिख रही हूं। इसलिए डर है। इसलिए अपने पूर्वाग्रहों से अपने ही लेखन को बचाए रखना है। सबसे ज़्यादा अपने लेखन को किसी और चीज़ से बचाना है तो वो है अपेक्षाएं - अपनी, दूसरों की, पाठकों की, प्रकाशकों की।
मुझे अपने सपने का मतलब समझ में आ गया है, और मुझे उस घुटन भरे कमरे से निकलने का रास्ता भी सूझ गया है। आज लिखते हुए ये भूलना होगा कि मैं किसी और के लिए लिख रही हूं। आज मैं मम्मा की डायरी के चैप्टर ठीक वैसे लिखूंगी जैसे अपने लिए लिखती, अपने ब्लॉग के लिए लिखती।
शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2015
मॉर्निंग पेज १० है अक्षय के नाम
डिस्केलमर - मॉर्निंग पेज मेरे अपने लिए है। ये मैं किसी और के लिए नहीं लिखती। न इसलिए लिखती हूं कि लोग पढ़ें, वाहवाहियां भेजें (या फिर अपनी सहानुभूतियां)। मॉर्निंग पेज कहीं और छपने, छापने या शेयर करने के लिए भी नहीं है। ब्लॉग पर इसलिए है क्योंकि अपने लेखन, अपनी सोच (और अपनी शख़्सियत) में आ रहा बदलाव यहां रेकॉर्ड होता रहता है। मॉर्निंग पेज मेरी निजी डायरी है, और मैं ये क्लिक्स या विज़िट हासिल करने के लिए बिल्कुल नहीं लिख रही।
*******************
कल शाम अक्षय ने फोन किया, महीनों बाद। मैं कई बार सोचती हूं कि उसके बारे में लिखूं। लेकिन समझ नहीं पाती कि लिखूं क्या।
२००१-०२ में मैं मुंबई में थी। फिल्में लिखने और उनका प्रोडक्शन सीखने का फ़ितूर था। अपने बैच के और पत्रकारों की तरह किसी चैनल या अख़बार के चक्कर काटने से ज़्यादा अच्छा मुंबई जाकर किस्मत आज़माने का ख़्याल लगा। हालांकि कुछ निजी वजह भी थी। निकम्मेपन पर आमादा हों हम तो इश्क क्या, फ़ितूर भी निकम्मा बना दिया करता है।
ख़ैर, मुझे काम मिल गया था। पहली कोशिश में ही। आरे कॉलोनी के एक स्टूडियो में शूटिंग का भी पहला दिन था, और मेरे काम का भी। मैं ख़ुश थी कि पहली बार शूटिंग देख रही हूं। हालांकि मुझे क्या काम करना होगा, ये ठीक-ठीक मुझे तो क्या, मुझे काम पर रखने वाले डायरेक्टर को भी नहीं मालूम था।
मैं मुहूरत के वक़्त प्रॉड्यूसर-डायरेक्टर के साथ जाकर खड़ी हो गई थी। उन्होंने मुझपर एक सरसरी सी निगाह डाली और तभी उन्हें अपने फ़ैसले की निरर्थकता का अहसास हो गया होगा। उन्होंने एक लड़के को आवाज़ दी।
जो लड़का भीड़ से निकलकर आया, गज़ब गुड-लुकिंग था। कम से कम दिल्ली के पैमाने के हिसाब से तो था ही। (लेकिन मुझे चिकने लड़के बिल्कुल पसंद नहीं। तब भी नहीं थे, अब भी नहीं हैं।)
डीटी (प्रॉ़ड्यूसर-डायरेक्टर) ने हमारा इंट्रो कराया और लड़के से कहा कि मुझे बाहर ले जाकर काम समझा दे।
What exactly are you doing here? उसने पूछा तो मैं हड़बड़ा गई। किसी का पहला सवाल इतना रूड कैसे हो सकता है? पूछने का अंदाज़ तो और भी रूड था। उसने डिब्बे से सिगरेट निकाली और मुंह में दबा लिया। पूछा तक नहीं कि तुम्हें मेरे सिगरेट पीने से एतराज़ तो नहीं।
मैंने जवाब में क्या दोहराया, ये याद नहीं लेकिन उसके जवाब में उसने मुझे अपने काम समझा दिया। ये नहीं बताया कि फ्लोर पर रहते हुए मुझे क्या करना है।
पहले दिन मैं हैरान-परेशान घूमती रही। आशुतोष गोवारिकर को सामने से आते देखा (ये लगान से तुरंत बाद की बाद है) तो घबराकर दरवाज़े के पीछे छुप गई। राज ज़ुत्शी को देखा, आदि इरानी को देखा। उस रोज़ एक-एक करके लगान की सारी टीम प्रॉड्युसर को बधाई देने पहुंच रही थी। ये डीटी की पहली फिल्म थी, और एक्टिंग के ज़माने से उनके कई दोस्त थे। मैं total awe में थी। जो पर्दे पर दिखता है, वो वैसा होता नहीं जैसा है। लोग, सेट्स, कहानियां... पर्दा सबसे बड़ा धोखेबाज़ है। पर्दे के छोटे छोटे टुकड़े कर दो तो दुनिया के सबसे शानदार मुखौटे तैयार हो जाते हैं।
सेट्स पर ये मेरा पहला दिन था, और मुझे डर इस बात का था कि किसी ने कुछ पूछ लिया मुझसे तो कहूंगी क्या। मुझे तो कुछ भी नहीं आता। जिस लड़के से मुझे डीटी ने मिलवाया था, वो तो मसरूफ़ियत का ऐसा नाटक करते हुए घूम रहा था कि जैसे दुनिया की बड़ी ज़िम्मेदारी उसे ही सौंपी गई हो। कहां क्या हो रहा है, मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था। मैं भाग जाना चाहती थी।
लंच ब्रेक की अनाउंसमेंट हुई तो मैं एक कोने में जाकर खड़ी हो गई। मुझे ये भी नहीं मालूम था कि लंच में करना क्या होता है, कहां जाना होता है।
वो लड़का मेरे बगल में फिर से खड़ा हो गया, सिगरेट पीते हुए। Come, let me show you where they serve lunch.
उसने मुझे वहां लाकर खड़ा कर दिया, जहां जूनियर आर्टिस्टों को खाना दिया जा रहा था और ख़ुद किसी कमरे में घुस गया। मैं परेशान वहीं खड़ी रही। ऐसे कैसे किसी से खाना मांग लेती? एक तो न मुझे उनकी भाषा समझ आ रही थी, और न लहज़ा। मुझे रोना आ रहा था। मैं घर जाना चाहती थी। मुंबई से आधे दिन में ही जी भर गया था। इतने सारे शोर में इतना अकेला हो सकता है इंसान? सुबह बिना खाए निकली थी और अब भूख से सिर में दर्द शुरु होने लगा था।
You haven't taken your food? Come, let me introduce you to other crew members. वो लौट आया था, मुझे अपने साथ ले जाने के लिए।
अंदर गई तो आठ-दस लोग बाहर मिल रहे खाने से कहीं बेहतर खाना खा रहे थे। मुझे दूर से ही तवा रोटियां और सलाद दिख गए थे (अभी भी खाना अच्छा है या नहीं, ये मैं इन्हीं दो चीज़ों के दम पर तय करती हूं)। मैं बैठ गई थी और क्रू के एक-एक जने से परिचय होता रहा। प्रोडक्शन के हेड शाहिद भाई, प्रोडक्शन मैनेजर सतीश भाई, आर्ट डायरेक्टर कुमार भाई, कोरियोग्राफर बॉस्को-सीज़र, असिस्टेंट डायरेक्टर नीतल और अक्षय। दो-चार और लोग थे, लेकिन अब याद नहीं कि कौन थे। सिर्फ़ ये याद है कि सारे बंबईया हिंदी बोल रहे थे। सिर्फ़ एक अक्षय था जो दिल्ली वाली सही हिंदी और सही अंग्रेज़ी बोल रहा था। हालांकि मुझे उससे चिढ़ होने लगी थी, लेकिन मैं उसी दिन समझ गई थी कि एक यही शख़्स है जो मेरी भाषा में मुझसे बात करेगा, और जिसकी वजह से मैं टिकी रहूंगी।
मेरा अंदाज़ा सही निकला। धीरे-धीरे मैं काम भी सीखने लगी, और क्रू के साथ कम्फर्टेबल भी होती गई। लेकिन दोस्ती सिर्फ अक्षय से ही हुई।
अक्षय दिल्ली से आया था। ग्रैजुएशन भी नहीं किया था उसने, लेकिन फिल्म बनाने (और एक्टिंग करने) का इतना ज़बर्दस्त पागलपन था कि मुंबई चला आया था। उसके मौसा टीवी एक्टर थे, और फूफा एक बहुत बड़े पॉलिटिकल लीडर (अभी भी हैं, सेन्ट्रल कैबिनेट के सबसे बड़े मंत्रियों में एक)। ज़ाहिर है, उसकी पैराशूट लैंडिंग हुई थी। मेरी तरह उसको काम खोजना नहीं पड़ा था। इस फिल्म में वो असिस्टेंट डायरेक्टर था। लेकिन मुझे पक्का यकीन था कि उसके गुड लुक्स की वजह से अगली फिल्म में उसे ब्रेक मिल ही जाएगा।
मैं मुंबई दो-चार लोगों की वजह से ही टिकी रही। आने के तीन-चार महीने भीतर ही बहुत बड़ा हार्टब्रेक होने के बावजूद। अक्षय मुझसे तीन साल छोटा था, लेकिन मुझे उससे वो समझदारियां और हिम्मत मिलती रही जिसकी उस वक़्त मुझे सख़्त ज़रूरत थी।
मैं चार बंगला में एक पीजी में रहती थी और अक्षय वर्सोवा में अपनी मौसी के घर रहता था। शूटिंग के बाद, या ऑफिस के बाद हम अक्सर साथ घर जाते। दफ़्तर ओशिवारा में था, और अब सोचकर हैरानी होती है कि कई बार मैं और अक्षय ओशिवारा से चार बंगला तक पैदल चलते हुए जाते। उसके पास ज़िन्दगी के किस्से नहीं थे, किताबी बातें थीं। और ढेर सारे सपने थे। मेरे पास बहुत सारे किस्से थे, और वो सपने थे जिन्हें मैं किताबों और फिल्मों में डालना चाहती थी।
मैं उसे शेखर: एक जीवनी पढ़ने को कहती। वो मुझे Zen and the art of motorcycle maintenance की कॉपी थमाता। वो अंग्रेज़ी में कविताएं लिखता था - existentialist फ्लेवर वाली कविताएं। मैं उड़ने, भागने, दौड़ने, किसी और दुनिया में चले जाने के कच्चे-पक्के गीत लिखती। वो अंग्रेज़ी में मेरे लिखे हुए की बघिया उधेड़ता। मैं उसकी कविताओं का हिंदी अनुवाद करती और उनके abstractness पर सिर पीटती।
इस बीच हम फिल्म प्रोडक्शन, डायरेक्शन, साउंड डिज़ाईन, म्युज़िक कॉम्पोज़िंग, स्क्रिप्ट्स, पीआर और रिलीज़ के पहले और बाद के ताम-झाम की बारीकियां सीखते रहे। क्रू में हम दो ही थे पढ़े-लिखे, इसलिए हमारे माथे कई सारे काम आने लगे। मुझे मुंबई अच्छी लगने लगी। मैं वहां बस जाने का, कई सारी और चीज़ें सीखने का ख़्वाब देखती रही। मुझे इस बात का पक्का यकीन होने लगा कि एक दिन मैं फ़िल्में लिखूंगी भी, बनाऊंगी भी। तनुजा चंद्रा को मैंने रोल मॉडल बना लिया। अक्षय भी एक दिन स्टीफन स्पिलबर्ग हो जाने के सपने देखता रहा (बॉलीवुड के तमाम सारे डायरेक्टर उसे किसी काम के नहीं लगते थे)।
वो मुझे अपनी गर्लफ्रेंड के बारे में बताता, मैं उसे प्रोपोज़ करने के तरीके बताती। मैं उससे अपने डर बांटती, वो मेरे पढ़ने के लिए कोई नई किताब ले आता।
अक्षय और मैंने कभी साथ कोई फिल्म नहीं देखी, कभी साथ चाय-कॉफी नहीं पी। हमने साथ बहुत सारी किताबें पढ़ीं, बहुत सारी कविताएं लिखीं।
वैसे मुझे एक शाम कभी भी नहीं भूलती।
फिल्म के रिलीज़ से ठीक पहले डीटी ने हम दोनों 'kids' को हज़ार-हज़ार रुपए दिए, इसलिए क्योंकि हमलोग रोलिन्ग स्टोन्स लाइव कॉन्सर्ट देखने जाना चाहते थे, वो भी टाउन। कॉन्सर्ट रात में था, और डीटी ने हमें आधी रात को अकेले आने से मना किया था। इसलिए अक्षय कॉन्सर्ट के बाद मुझे अपनी बुआ के घर पेडर रोड ले गया था। मैं पहली बार ऐसे किसी घर में गई थी जहां के बटलर मोनोग्राम किए हुए यूनिफॉर्म पहनते हों, और जहां मेहमानों की ऐसी खातिरदारी होती हो जैसे भगवान आ गए हों कोई। अब सोचती हूं कि अक्षय की बुआ ने पता नहीं क्या सोचा होगा कि कौन सी लड़की आ गई है भतीजे के साथ। ये मेरी अपनी तंगदिली और तंगसमझ भी हो सकती है क्योंकि हमारे कल्चर में किसी लड़की को इस तरह तब तक घर नहीं लेकर आते जब तक मामला गंभीर हो। लेकिन वहां मेरा इस तरह चले जाना बिल्कुल एबनॉर्मल नहीं था। मेरी वैसी ही ख़ातिर हुई जैसे कुंभ मेले में भटक गई किसी भतीजी की होती।
बुआ ने हम दोनों को निकलते हुए पांच-पांच सौ रुपए दिए थे और हमने उन पैसों से पब जाने का फ़ैसला किया (इसलिए क्योंकि मैं कभी किसी पब में गई नहीं थी।) मुझे याद नहीं कि पब का नाम क्या था, लेकिन अक्षय के मुताबिक मुंबई का सबसे हैपनिंग बार था वो। ये और बात है कि पंद्रह मिनट में ही मेरा दम घुटने लगा था और हम बाहर मरीन ड्राईव की तरफ आ गए थे।
मुंबई में अक्षय के साथ गुज़ारी हुई वो आख़िरी शाम थी। मैं कुछ दिनों बाद दिल्ली लौट आई थी और यूके पढ़ने जाने के लिए अप्लाई करना शुरु कर दिया था। फिर वो भी नहीं हो सका तो एनडीटीवी की नौकरी कर ली थी।
अक्षय तीन फिल्मों में असिस्ट करने के बाद दिल्ली लौट आया था। उसकी गर्लफ्रेंड तब दिल्ली में ही थी। उन दोनों ने भी एनडीटीवी ज्वाइन कर लिया। साक्षी से मैं अपने जन्मदिन पर मिली थी। दोनों साथ घर आए थे। उसके बाद हम कई बार मिलते रहे। फिर मेरी शादी हो गई और जब आदित-आद्या होनेवाले थे उन दिनों अक्षय और साक्षी की शादी भी हो गई।
ज़िन्दगी कई करवटें लेती रही और हमने अपनी दोस्ती बचाए रखी। बच्चे छोटे थे, इसलिए मैं पूर्णिया में रही। अक्षय और साक्षी मुंबई शिफ्ट हो गए। तीन-चार सालों तक हमारे बीच कोई संपर्क नहीं रहा और फिर अक्षय ने मुझे ढूंढ निकाला। याद नहीं कैसे। शायद एनडीटीवी के किसी कॉमन लिंक के ज़रिए। तबतक अक्षय टीवी स्टार हो चुका था और साक्षी एक बड़ी कंपनी में वाइस-प्रेसिडेंट।
अक्षय दोस्ती में बचा हुआ मेरा यकीन है। जब भी अपने आस-पास बहुत-बहुत सारी खुदगर्ज़ियां देखती हूं और रिश्तों (या दोस्ती) को लेकर इनसेक्योर लोगों को देखती हूं तो अक्षय के बारे में सोचती हूं। हम साल में एक बार मिलते हैं शायद, और शायद साल में एक ही बार फोन पर बात भी करते हों। लेकिन हमारे लिए कभी बातों की डोर पकड़कर वहीं से शुरु हो जाना जहां पिछली बार छोड़ा था, कभी मुश्किल नहीं रहा। मैं अक्षय और साक्षी से बड़ी हूं, इसलिए उनकी ज़िन्दगी के बारे में सलाह देने का हक़ उन्होंने मेरे नाम रख छोड़ा है। वो छोटे हैं, इसलिए मेरे नाम की आवारगी की याद दिलाते रहते हैं मुझे।
अक्षय मुझे अपनी स्क्रिप्ट सुनाता है, जिसपर वो फिल्म बनाना चाहता है। मैं उसे नीला स्कार्फ़ पढ़ने की ज़िद करती हूं। हम लिखने को लेकर घंटों बातें करते रहते हैं, कभी वर्सोवा के कॉस्टा में, कभी मलाड उसके घर पर, और कभी बैंडस्टैंड के पास। उसने लिखने का ख़्वाब नहीं छोड़ा। मैंने फिल्म बनाने की ख़्वाहिश को दफ़्न होने नहीं दिया। अपने अपने संघर्षों के बीच उसने अपनी सैनिटी बचाए रखी, मैंने अपनी ग्रेस।
ये वो दोस्ती है जिसकी मिसाल मैं आद्या और आदित को दूंगी और यकीन के साथ बताऊंगी उसको कि हर रिश्ता स्वार्थ के लिए नहीं होता। कुछ रिश्ते ख़ुदा इसलिए बना देता है ताकि हमारे भीतर के दिल दरिया पर निस्वार्थ नेमतों की बारिशें गिरती रहें। यही वो एक खाता है - दोस्ती का खाता - जहां तुम्हें कितना मिला और तुमने कितना दिया - ख़ुदा उसका हिसाब नहीं रखता।
ईश्वर आद्या को भी अक्षय जैसा दोस्त बख़्शे और आदित को किसी लड़की के लिए वैसा ही एक दोस्त बना दे, यही दुआ करती हूं।
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कल शाम अक्षय ने फोन किया, महीनों बाद। मैं कई बार सोचती हूं कि उसके बारे में लिखूं। लेकिन समझ नहीं पाती कि लिखूं क्या।
२००१-०२ में मैं मुंबई में थी। फिल्में लिखने और उनका प्रोडक्शन सीखने का फ़ितूर था। अपने बैच के और पत्रकारों की तरह किसी चैनल या अख़बार के चक्कर काटने से ज़्यादा अच्छा मुंबई जाकर किस्मत आज़माने का ख़्याल लगा। हालांकि कुछ निजी वजह भी थी। निकम्मेपन पर आमादा हों हम तो इश्क क्या, फ़ितूर भी निकम्मा बना दिया करता है।
ख़ैर, मुझे काम मिल गया था। पहली कोशिश में ही। आरे कॉलोनी के एक स्टूडियो में शूटिंग का भी पहला दिन था, और मेरे काम का भी। मैं ख़ुश थी कि पहली बार शूटिंग देख रही हूं। हालांकि मुझे क्या काम करना होगा, ये ठीक-ठीक मुझे तो क्या, मुझे काम पर रखने वाले डायरेक्टर को भी नहीं मालूम था।
मैं मुहूरत के वक़्त प्रॉड्यूसर-डायरेक्टर के साथ जाकर खड़ी हो गई थी। उन्होंने मुझपर एक सरसरी सी निगाह डाली और तभी उन्हें अपने फ़ैसले की निरर्थकता का अहसास हो गया होगा। उन्होंने एक लड़के को आवाज़ दी।
जो लड़का भीड़ से निकलकर आया, गज़ब गुड-लुकिंग था। कम से कम दिल्ली के पैमाने के हिसाब से तो था ही। (लेकिन मुझे चिकने लड़के बिल्कुल पसंद नहीं। तब भी नहीं थे, अब भी नहीं हैं।)
डीटी (प्रॉ़ड्यूसर-डायरेक्टर) ने हमारा इंट्रो कराया और लड़के से कहा कि मुझे बाहर ले जाकर काम समझा दे।
What exactly are you doing here? उसने पूछा तो मैं हड़बड़ा गई। किसी का पहला सवाल इतना रूड कैसे हो सकता है? पूछने का अंदाज़ तो और भी रूड था। उसने डिब्बे से सिगरेट निकाली और मुंह में दबा लिया। पूछा तक नहीं कि तुम्हें मेरे सिगरेट पीने से एतराज़ तो नहीं।
मैंने जवाब में क्या दोहराया, ये याद नहीं लेकिन उसके जवाब में उसने मुझे अपने काम समझा दिया। ये नहीं बताया कि फ्लोर पर रहते हुए मुझे क्या करना है।
पहले दिन मैं हैरान-परेशान घूमती रही। आशुतोष गोवारिकर को सामने से आते देखा (ये लगान से तुरंत बाद की बाद है) तो घबराकर दरवाज़े के पीछे छुप गई। राज ज़ुत्शी को देखा, आदि इरानी को देखा। उस रोज़ एक-एक करके लगान की सारी टीम प्रॉड्युसर को बधाई देने पहुंच रही थी। ये डीटी की पहली फिल्म थी, और एक्टिंग के ज़माने से उनके कई दोस्त थे। मैं total awe में थी। जो पर्दे पर दिखता है, वो वैसा होता नहीं जैसा है। लोग, सेट्स, कहानियां... पर्दा सबसे बड़ा धोखेबाज़ है। पर्दे के छोटे छोटे टुकड़े कर दो तो दुनिया के सबसे शानदार मुखौटे तैयार हो जाते हैं।
सेट्स पर ये मेरा पहला दिन था, और मुझे डर इस बात का था कि किसी ने कुछ पूछ लिया मुझसे तो कहूंगी क्या। मुझे तो कुछ भी नहीं आता। जिस लड़के से मुझे डीटी ने मिलवाया था, वो तो मसरूफ़ियत का ऐसा नाटक करते हुए घूम रहा था कि जैसे दुनिया की बड़ी ज़िम्मेदारी उसे ही सौंपी गई हो। कहां क्या हो रहा है, मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था। मैं भाग जाना चाहती थी।
लंच ब्रेक की अनाउंसमेंट हुई तो मैं एक कोने में जाकर खड़ी हो गई। मुझे ये भी नहीं मालूम था कि लंच में करना क्या होता है, कहां जाना होता है।
वो लड़का मेरे बगल में फिर से खड़ा हो गया, सिगरेट पीते हुए। Come, let me show you where they serve lunch.
उसने मुझे वहां लाकर खड़ा कर दिया, जहां जूनियर आर्टिस्टों को खाना दिया जा रहा था और ख़ुद किसी कमरे में घुस गया। मैं परेशान वहीं खड़ी रही। ऐसे कैसे किसी से खाना मांग लेती? एक तो न मुझे उनकी भाषा समझ आ रही थी, और न लहज़ा। मुझे रोना आ रहा था। मैं घर जाना चाहती थी। मुंबई से आधे दिन में ही जी भर गया था। इतने सारे शोर में इतना अकेला हो सकता है इंसान? सुबह बिना खाए निकली थी और अब भूख से सिर में दर्द शुरु होने लगा था।
You haven't taken your food? Come, let me introduce you to other crew members. वो लौट आया था, मुझे अपने साथ ले जाने के लिए।
अंदर गई तो आठ-दस लोग बाहर मिल रहे खाने से कहीं बेहतर खाना खा रहे थे। मुझे दूर से ही तवा रोटियां और सलाद दिख गए थे (अभी भी खाना अच्छा है या नहीं, ये मैं इन्हीं दो चीज़ों के दम पर तय करती हूं)। मैं बैठ गई थी और क्रू के एक-एक जने से परिचय होता रहा। प्रोडक्शन के हेड शाहिद भाई, प्रोडक्शन मैनेजर सतीश भाई, आर्ट डायरेक्टर कुमार भाई, कोरियोग्राफर बॉस्को-सीज़र, असिस्टेंट डायरेक्टर नीतल और अक्षय। दो-चार और लोग थे, लेकिन अब याद नहीं कि कौन थे। सिर्फ़ ये याद है कि सारे बंबईया हिंदी बोल रहे थे। सिर्फ़ एक अक्षय था जो दिल्ली वाली सही हिंदी और सही अंग्रेज़ी बोल रहा था। हालांकि मुझे उससे चिढ़ होने लगी थी, लेकिन मैं उसी दिन समझ गई थी कि एक यही शख़्स है जो मेरी भाषा में मुझसे बात करेगा, और जिसकी वजह से मैं टिकी रहूंगी।
मेरा अंदाज़ा सही निकला। धीरे-धीरे मैं काम भी सीखने लगी, और क्रू के साथ कम्फर्टेबल भी होती गई। लेकिन दोस्ती सिर्फ अक्षय से ही हुई।
अक्षय दिल्ली से आया था। ग्रैजुएशन भी नहीं किया था उसने, लेकिन फिल्म बनाने (और एक्टिंग करने) का इतना ज़बर्दस्त पागलपन था कि मुंबई चला आया था। उसके मौसा टीवी एक्टर थे, और फूफा एक बहुत बड़े पॉलिटिकल लीडर (अभी भी हैं, सेन्ट्रल कैबिनेट के सबसे बड़े मंत्रियों में एक)। ज़ाहिर है, उसकी पैराशूट लैंडिंग हुई थी। मेरी तरह उसको काम खोजना नहीं पड़ा था। इस फिल्म में वो असिस्टेंट डायरेक्टर था। लेकिन मुझे पक्का यकीन था कि उसके गुड लुक्स की वजह से अगली फिल्म में उसे ब्रेक मिल ही जाएगा।
मैं मुंबई दो-चार लोगों की वजह से ही टिकी रही। आने के तीन-चार महीने भीतर ही बहुत बड़ा हार्टब्रेक होने के बावजूद। अक्षय मुझसे तीन साल छोटा था, लेकिन मुझे उससे वो समझदारियां और हिम्मत मिलती रही जिसकी उस वक़्त मुझे सख़्त ज़रूरत थी।
मैं चार बंगला में एक पीजी में रहती थी और अक्षय वर्सोवा में अपनी मौसी के घर रहता था। शूटिंग के बाद, या ऑफिस के बाद हम अक्सर साथ घर जाते। दफ़्तर ओशिवारा में था, और अब सोचकर हैरानी होती है कि कई बार मैं और अक्षय ओशिवारा से चार बंगला तक पैदल चलते हुए जाते। उसके पास ज़िन्दगी के किस्से नहीं थे, किताबी बातें थीं। और ढेर सारे सपने थे। मेरे पास बहुत सारे किस्से थे, और वो सपने थे जिन्हें मैं किताबों और फिल्मों में डालना चाहती थी।
मैं उसे शेखर: एक जीवनी पढ़ने को कहती। वो मुझे Zen and the art of motorcycle maintenance की कॉपी थमाता। वो अंग्रेज़ी में कविताएं लिखता था - existentialist फ्लेवर वाली कविताएं। मैं उड़ने, भागने, दौड़ने, किसी और दुनिया में चले जाने के कच्चे-पक्के गीत लिखती। वो अंग्रेज़ी में मेरे लिखे हुए की बघिया उधेड़ता। मैं उसकी कविताओं का हिंदी अनुवाद करती और उनके abstractness पर सिर पीटती।
इस बीच हम फिल्म प्रोडक्शन, डायरेक्शन, साउंड डिज़ाईन, म्युज़िक कॉम्पोज़िंग, स्क्रिप्ट्स, पीआर और रिलीज़ के पहले और बाद के ताम-झाम की बारीकियां सीखते रहे। क्रू में हम दो ही थे पढ़े-लिखे, इसलिए हमारे माथे कई सारे काम आने लगे। मुझे मुंबई अच्छी लगने लगी। मैं वहां बस जाने का, कई सारी और चीज़ें सीखने का ख़्वाब देखती रही। मुझे इस बात का पक्का यकीन होने लगा कि एक दिन मैं फ़िल्में लिखूंगी भी, बनाऊंगी भी। तनुजा चंद्रा को मैंने रोल मॉडल बना लिया। अक्षय भी एक दिन स्टीफन स्पिलबर्ग हो जाने के सपने देखता रहा (बॉलीवुड के तमाम सारे डायरेक्टर उसे किसी काम के नहीं लगते थे)।
वो मुझे अपनी गर्लफ्रेंड के बारे में बताता, मैं उसे प्रोपोज़ करने के तरीके बताती। मैं उससे अपने डर बांटती, वो मेरे पढ़ने के लिए कोई नई किताब ले आता।
अक्षय और मैंने कभी साथ कोई फिल्म नहीं देखी, कभी साथ चाय-कॉफी नहीं पी। हमने साथ बहुत सारी किताबें पढ़ीं, बहुत सारी कविताएं लिखीं।
वैसे मुझे एक शाम कभी भी नहीं भूलती।
फिल्म के रिलीज़ से ठीक पहले डीटी ने हम दोनों 'kids' को हज़ार-हज़ार रुपए दिए, इसलिए क्योंकि हमलोग रोलिन्ग स्टोन्स लाइव कॉन्सर्ट देखने जाना चाहते थे, वो भी टाउन। कॉन्सर्ट रात में था, और डीटी ने हमें आधी रात को अकेले आने से मना किया था। इसलिए अक्षय कॉन्सर्ट के बाद मुझे अपनी बुआ के घर पेडर रोड ले गया था। मैं पहली बार ऐसे किसी घर में गई थी जहां के बटलर मोनोग्राम किए हुए यूनिफॉर्म पहनते हों, और जहां मेहमानों की ऐसी खातिरदारी होती हो जैसे भगवान आ गए हों कोई। अब सोचती हूं कि अक्षय की बुआ ने पता नहीं क्या सोचा होगा कि कौन सी लड़की आ गई है भतीजे के साथ। ये मेरी अपनी तंगदिली और तंगसमझ भी हो सकती है क्योंकि हमारे कल्चर में किसी लड़की को इस तरह तब तक घर नहीं लेकर आते जब तक मामला गंभीर हो। लेकिन वहां मेरा इस तरह चले जाना बिल्कुल एबनॉर्मल नहीं था। मेरी वैसी ही ख़ातिर हुई जैसे कुंभ मेले में भटक गई किसी भतीजी की होती।
बुआ ने हम दोनों को निकलते हुए पांच-पांच सौ रुपए दिए थे और हमने उन पैसों से पब जाने का फ़ैसला किया (इसलिए क्योंकि मैं कभी किसी पब में गई नहीं थी।) मुझे याद नहीं कि पब का नाम क्या था, लेकिन अक्षय के मुताबिक मुंबई का सबसे हैपनिंग बार था वो। ये और बात है कि पंद्रह मिनट में ही मेरा दम घुटने लगा था और हम बाहर मरीन ड्राईव की तरफ आ गए थे।
मुंबई में अक्षय के साथ गुज़ारी हुई वो आख़िरी शाम थी। मैं कुछ दिनों बाद दिल्ली लौट आई थी और यूके पढ़ने जाने के लिए अप्लाई करना शुरु कर दिया था। फिर वो भी नहीं हो सका तो एनडीटीवी की नौकरी कर ली थी।
अक्षय तीन फिल्मों में असिस्ट करने के बाद दिल्ली लौट आया था। उसकी गर्लफ्रेंड तब दिल्ली में ही थी। उन दोनों ने भी एनडीटीवी ज्वाइन कर लिया। साक्षी से मैं अपने जन्मदिन पर मिली थी। दोनों साथ घर आए थे। उसके बाद हम कई बार मिलते रहे। फिर मेरी शादी हो गई और जब आदित-आद्या होनेवाले थे उन दिनों अक्षय और साक्षी की शादी भी हो गई।
ज़िन्दगी कई करवटें लेती रही और हमने अपनी दोस्ती बचाए रखी। बच्चे छोटे थे, इसलिए मैं पूर्णिया में रही। अक्षय और साक्षी मुंबई शिफ्ट हो गए। तीन-चार सालों तक हमारे बीच कोई संपर्क नहीं रहा और फिर अक्षय ने मुझे ढूंढ निकाला। याद नहीं कैसे। शायद एनडीटीवी के किसी कॉमन लिंक के ज़रिए। तबतक अक्षय टीवी स्टार हो चुका था और साक्षी एक बड़ी कंपनी में वाइस-प्रेसिडेंट।
अक्षय दोस्ती में बचा हुआ मेरा यकीन है। जब भी अपने आस-पास बहुत-बहुत सारी खुदगर्ज़ियां देखती हूं और रिश्तों (या दोस्ती) को लेकर इनसेक्योर लोगों को देखती हूं तो अक्षय के बारे में सोचती हूं। हम साल में एक बार मिलते हैं शायद, और शायद साल में एक ही बार फोन पर बात भी करते हों। लेकिन हमारे लिए कभी बातों की डोर पकड़कर वहीं से शुरु हो जाना जहां पिछली बार छोड़ा था, कभी मुश्किल नहीं रहा। मैं अक्षय और साक्षी से बड़ी हूं, इसलिए उनकी ज़िन्दगी के बारे में सलाह देने का हक़ उन्होंने मेरे नाम रख छोड़ा है। वो छोटे हैं, इसलिए मेरे नाम की आवारगी की याद दिलाते रहते हैं मुझे।
अक्षय मुझे अपनी स्क्रिप्ट सुनाता है, जिसपर वो फिल्म बनाना चाहता है। मैं उसे नीला स्कार्फ़ पढ़ने की ज़िद करती हूं। हम लिखने को लेकर घंटों बातें करते रहते हैं, कभी वर्सोवा के कॉस्टा में, कभी मलाड उसके घर पर, और कभी बैंडस्टैंड के पास। उसने लिखने का ख़्वाब नहीं छोड़ा। मैंने फिल्म बनाने की ख़्वाहिश को दफ़्न होने नहीं दिया। अपने अपने संघर्षों के बीच उसने अपनी सैनिटी बचाए रखी, मैंने अपनी ग्रेस।
ये वो दोस्ती है जिसकी मिसाल मैं आद्या और आदित को दूंगी और यकीन के साथ बताऊंगी उसको कि हर रिश्ता स्वार्थ के लिए नहीं होता। कुछ रिश्ते ख़ुदा इसलिए बना देता है ताकि हमारे भीतर के दिल दरिया पर निस्वार्थ नेमतों की बारिशें गिरती रहें। यही वो एक खाता है - दोस्ती का खाता - जहां तुम्हें कितना मिला और तुमने कितना दिया - ख़ुदा उसका हिसाब नहीं रखता।
ईश्वर आद्या को भी अक्षय जैसा दोस्त बख़्शे और आदित को किसी लड़की के लिए वैसा ही एक दोस्त बना दे, यही दुआ करती हूं।
गुरुवार, 19 फ़रवरी 2015
मॉर्निंग पेज ९ और दिल की ख़लिश
जितनी देर में मैंने आद्या के बाल बनाए, उतनी देर में उसने सामने खुले में जीमेल के इनबॉक्स के साथ कुछ छेड़-छाड़ कर दी। ये बात इसलिए लिख रही हूं क्योंकि सोच रही हूं कि मैं कितनी जल्दी चिढ़ जाती हूं। इतनी छोटी सी बात पर मैं बुरी तरह झल्ला गई थी। ज़िन्दगी के साथ तो पूरी दुनिया धड़ल्ले से छेड़छाड़ करने की हिमाकत करती रहती है। फिर भी चुप रह जाती हूं क्योंकि दुनिया से लड़ने की ताक़त नहीं है। बेटी मुझसे कमज़ोर है, इसलिए उसको डांट देना आसान है।
देख लो कि सुबह की शुरुआत किस तरह हुई है।
वैसे इस गिल्ट को मन में पालना नहीं चाहिए। वो डांट सुनकर भूल जाती है। मैं डांटकर नहीं भूल पाती। देखो न, अभी पंद्रह मिनट पहले ही मैं और आद्या छत पर खड़े होकर नीम की कमज़ोर सी टहनी पर अपनी कमज़ोर सी, लेकिन मीठी आवाज़ में गाती चिड़िया को देखते रहे थे। बसंत हवाओं में घुलने लगा है। मुझे शहीद स्मारक पार्क बुलाने लगा है।
कल शाम भी उतनी ही ख़ूबसूरत थी, और उतनी ही मज़ेदार भी।
हम सुजान सिंह पार्क के गॉल्फ अपार्टमेंट्स में एक भूतपूर्व सांसद (और 'erstwhile prince') के घर डिनर पर आमंत्रित थे। हम यानी मैं, एन १ और एन २। मुझे इस तरह के न्यौतों की आदत नहीं। इसलिए उलझन होती है। अगर एन न होतीं, तो मैं शायद किसी हाल में न जाती। एन मेरा हाथ थामें नए जहानों, नए किस्मों के लोगों के बीच लिए जाती हूं मुझे। (मुझे कल पहली बार इस बात का शिद्दत से अहसास हुआ कि अब मैं पुरुषों पर यकीन करना बिल्कुल बंद कर चुकी हूं, और ख़ुद को बचाए रखने के लिए अपनी ही जैसी औरतों की संगत का सहारा लेती हूं। लगने लगा है कि औरतें (सभी नहीं) कम से कम इमोशनली डैमेज तो नहीं करेंगी। दोस्तों की लिस्ट में से कई नाम कटने लगे हैं, लेकिन ये चर्चा और ये बात फिर कभी।)
साल में दो-चार बार निकलती हूं किसी के घर 'औपचारिक' विज़िट के लिए। वरना मेरे सारे दोस्त और जान-पहचान वाले इस दिल्ली में प्रवासी हैं, और हम सबों ने अपनी-अपनी बस्तियां, अपने-अपने घर यहां बसाए हैं। दिल्ली में पहली पीढ़ी हैं हम, इसलिए एक-दूसरे के संघर्षों के साक्षी रहे हैं। हमने डीटीसी बसों, फिर ऑटो, फिर दुपहिया, फिर छोटी गाड़ी और फिर बड़ी गाड़ी तक का सफ़र तय किया है। दो कमरे या तीन कमरे के मकान खरीद कर इस शहर में घर बना लेने का गुमान पाल लिया है।
मैं औरों का नहीं जानती, लेकिन इस शहर में प्रवासी होने का ख़्याल मेरे ज़ेहन से उतरता ही नहीं। इसलिए पुराने दिल्लीवालों के बीच बहुत उलझन होती है।
बहरहाल, कल की शाम पुराने दिल्लीवालों के बीच जो गुज़री उनसे बाद में कई कहानियां निकलेंगी। हमारे मेज़बान वी थे।
वी कपूरथला के वारिसों की आख़िरी खेप की संतान हैं, जिनकी बातों, किस्सों-कहानियों से रियासत अब भी बाकी है। रहते विदेश में हैं लेकिन दिल्ली और अपनी हवेली इसलिए लौटते रहते हैं क्योंकि उनके लैब्रेडॉर इन दोनों जगहों पर रहते हैं। खाने की मेज़ पर वे अपने कुत्तों की रईसी के किस्से सुनाते रहे। यहां स्टाफ का पूरा महकमा इसलिए रहता है ताकि कुत्तों को दिन में पांच बार घुमा सके, गाड़ी में बिठाकर लोदी गार्डन ले जा सके। वे स्काईप पर कुत्तों से हर रोज़ बात करते हैं। (मैं अगले जन्म में लैब्रेडॉर होना चाहती हूं। अगले सात जनम में वरना इस हैसियत तक पहुंचने का और कोई रास्ता नहीं।)
मैं आमतौर पर लोगों को जज नहीं करती, और सिर्फ़ श्वानप्रेम के दम पर वी को भी जज नहीं कर रही। इसके अलावा वी न सिर्फ़ एक शानदार मेज़बान हैं बल्कि एक नेकदिल इंसान भी हैं। उनकी साफ़गोई उनके किस्सों से झलकती रही। जज नहीं कर रही, लेकिन ये मेरा तजुर्बा है कि जो इंसान ख़ुद की ग़लतियों पर भरी महफ़िल में ठहाके लगाकर हंस सकता है, और जो इंसान दो घंटे की बातचीत में किसी और की एक बार भी चुगली नहीं करता, उसे मैं अच्छे इंसान का तमगा दे देती हूं। वरना महफ़िलें जमती ही इसलिए हैं ताकि महफ़िल में आए लोगों की चापलूसी की जा सके, और महफ़िल से बाहर छूट गए लोगों की चुगलखोरी में आसानी हो। महफ़िल किस टाईप की है, उसका इस मूलभूत इंसानी फ़ितरत से कोई वास्ता नहीं होता।
वी के दाईं तरफ एम थीं - बेहद ख़ूबसूरत, और बहुत ग्रेसफुल। लेखिका हैं, और एक बहुत बड़ी पब्लिशर। उनके पास तांत्रिकों के मज़ेदार किस्से थे। उन्हें सीरियसली इन किस्सों को किताब की शक्ल देनी चाहिए। मुझे तो मालूम ही नहीं था कि तांत्रिकों की एक दुनिया ऐसी भी है जो मनोहर कहानियां के पन्नों और इंडिया टीवी के स्क्रीन के अलावा वाकई कहीं और बसती है।
उनके सुर में सुर टी मिलाती रहीं। उन्होंने मद्रास पर एक शानदार किताब लिखी है। टी क्लासिकल डांसर हैं। याद आया कि इन्हें मैंने द हिंदू के पन्नों पर कई बार देखा है। मैन एशियन लिटररी प्राइज़ के लिए नॉमिनेट होने से पहले और उसके बाद। टी कम बोलती थीं और बहुत सारा मुस्कुराती थीं।
महफ़िल में रंग जमाने लाहौर से एक मेहमान आए। लाल जूतों में। मुझे एएस के लाल जूते ज़िन्दगी भर याद रहेंगे, और उनकी आवाज़ की हरकतों में उतरे शकील बदायूंनी के लफ़्ज भी। एएस फ़रीदा ख़ानम के शागिर्द रहे हैं, और कोक स्टूडियो के अगले सीज़न में नज़र आएंगे। साथ ही ब्रॉडवे पर भी। गुड लुक्स और ट्रेन्ड आवाज़ क़ातिल कॉम्बिनेशन होती है। अगर मैं 'all good-looking men are flirts, and useless' की दीवार अपने चारों ओर लेकर न घूम रही होती तो इस शख़्स पर पक्का दिल आ जाता। (अब I am not a flirt, and I am definitely useful का यकीन अब सब यकीनों पर भारी पड़ता है।)
बाकी की शाम पेंटिंग्स, कविताएं, गीत, किताबें - इन्हीं के चारों ओर घूमती रही थी। जाने कॉन्याक का असर था या महफ़िल में होते हुए भी वहां न होने की बीमारी, मैं कोलकाता के बारे में सोचती रही थी, और पूर्णिया के बारे में, और सिवान के बारे में, और मोरवन के बारे में, और रांची के बारे में।
हम सब कहां से आए हैं? हम सब जहां हैं, वहां हैं क्यों? इस स्पेस में एक साथ एक वक़्त पर होने की वजह क्या है? यहां से हम क्या लेकर जाएंगे? लोग इतनी ही देर के लिए मिलते क्यों हैं? यूनिवर्स किस मैथेमैटिकल कैलकुलेशन पर काम करता है? उस कैलकुशन में टाईम - वक़्त - की कीमत क्या है? क्या वक़्त रेलेटिव होता है, या फिर एब्सॉल्यूट? हम सब क्या चाहते हैं? जब थोड़ा सा प्यार और थोड़ी सी प्रशंसा ही ज़िन्दगी में सबसे ज़्यादा मायने रखती है तो फिर हम लालची क्यों हो जाते हैं? ख़्वाहिशें रेलेटिव होती हैं तो फिर दर्द क्यों नहीं?
सवाल कई हैं और जवाब कही नहीं। मैं जहां हूं, वहां क्यों हूं?
एन ये क्या गुनगुना रही हैं?
ऐ दिल की ख़लिश चल यूं ही सही
चलता तो हूं उनकी महफ़िल में
उस वक़्त मुझे चौंका देना
जब रंग पे महफ़िल आ जाए
पोस्टस्क्रिप्ट - कल पी से भी मिली थी बुक फ़ेयर में। काश उससे कहीं और मिलती। बुक फ़ेयर में होना अपने आप में एक डिज़ैस्टर था। मैं गई न होती तो देखा न होता कि दिखावा और झूठ, धोखे और भ्रम जितने बड़े होते जाते हैं, उतने ही बड़े कवि, लेखक, साहित्यकार बनते चले जाते हैं आप। मैं सिर्फ़ ये जानती हूं कि मैं यहां नहीं कहीं और होना चाहती हूं। वरना एक दिन दिखावा करते करते कुछ और हो जाऊंगी।
देख लो कि सुबह की शुरुआत किस तरह हुई है।
वैसे इस गिल्ट को मन में पालना नहीं चाहिए। वो डांट सुनकर भूल जाती है। मैं डांटकर नहीं भूल पाती। देखो न, अभी पंद्रह मिनट पहले ही मैं और आद्या छत पर खड़े होकर नीम की कमज़ोर सी टहनी पर अपनी कमज़ोर सी, लेकिन मीठी आवाज़ में गाती चिड़िया को देखते रहे थे। बसंत हवाओं में घुलने लगा है। मुझे शहीद स्मारक पार्क बुलाने लगा है।
कल शाम भी उतनी ही ख़ूबसूरत थी, और उतनी ही मज़ेदार भी।
हम सुजान सिंह पार्क के गॉल्फ अपार्टमेंट्स में एक भूतपूर्व सांसद (और 'erstwhile prince') के घर डिनर पर आमंत्रित थे। हम यानी मैं, एन १ और एन २। मुझे इस तरह के न्यौतों की आदत नहीं। इसलिए उलझन होती है। अगर एन न होतीं, तो मैं शायद किसी हाल में न जाती। एन मेरा हाथ थामें नए जहानों, नए किस्मों के लोगों के बीच लिए जाती हूं मुझे। (मुझे कल पहली बार इस बात का शिद्दत से अहसास हुआ कि अब मैं पुरुषों पर यकीन करना बिल्कुल बंद कर चुकी हूं, और ख़ुद को बचाए रखने के लिए अपनी ही जैसी औरतों की संगत का सहारा लेती हूं। लगने लगा है कि औरतें (सभी नहीं) कम से कम इमोशनली डैमेज तो नहीं करेंगी। दोस्तों की लिस्ट में से कई नाम कटने लगे हैं, लेकिन ये चर्चा और ये बात फिर कभी।)
साल में दो-चार बार निकलती हूं किसी के घर 'औपचारिक' विज़िट के लिए। वरना मेरे सारे दोस्त और जान-पहचान वाले इस दिल्ली में प्रवासी हैं, और हम सबों ने अपनी-अपनी बस्तियां, अपने-अपने घर यहां बसाए हैं। दिल्ली में पहली पीढ़ी हैं हम, इसलिए एक-दूसरे के संघर्षों के साक्षी रहे हैं। हमने डीटीसी बसों, फिर ऑटो, फिर दुपहिया, फिर छोटी गाड़ी और फिर बड़ी गाड़ी तक का सफ़र तय किया है। दो कमरे या तीन कमरे के मकान खरीद कर इस शहर में घर बना लेने का गुमान पाल लिया है।
मैं औरों का नहीं जानती, लेकिन इस शहर में प्रवासी होने का ख़्याल मेरे ज़ेहन से उतरता ही नहीं। इसलिए पुराने दिल्लीवालों के बीच बहुत उलझन होती है।
बहरहाल, कल की शाम पुराने दिल्लीवालों के बीच जो गुज़री उनसे बाद में कई कहानियां निकलेंगी। हमारे मेज़बान वी थे।
वी कपूरथला के वारिसों की आख़िरी खेप की संतान हैं, जिनकी बातों, किस्सों-कहानियों से रियासत अब भी बाकी है। रहते विदेश में हैं लेकिन दिल्ली और अपनी हवेली इसलिए लौटते रहते हैं क्योंकि उनके लैब्रेडॉर इन दोनों जगहों पर रहते हैं। खाने की मेज़ पर वे अपने कुत्तों की रईसी के किस्से सुनाते रहे। यहां स्टाफ का पूरा महकमा इसलिए रहता है ताकि कुत्तों को दिन में पांच बार घुमा सके, गाड़ी में बिठाकर लोदी गार्डन ले जा सके। वे स्काईप पर कुत्तों से हर रोज़ बात करते हैं। (मैं अगले जन्म में लैब्रेडॉर होना चाहती हूं। अगले सात जनम में वरना इस हैसियत तक पहुंचने का और कोई रास्ता नहीं।)
मैं आमतौर पर लोगों को जज नहीं करती, और सिर्फ़ श्वानप्रेम के दम पर वी को भी जज नहीं कर रही। इसके अलावा वी न सिर्फ़ एक शानदार मेज़बान हैं बल्कि एक नेकदिल इंसान भी हैं। उनकी साफ़गोई उनके किस्सों से झलकती रही। जज नहीं कर रही, लेकिन ये मेरा तजुर्बा है कि जो इंसान ख़ुद की ग़लतियों पर भरी महफ़िल में ठहाके लगाकर हंस सकता है, और जो इंसान दो घंटे की बातचीत में किसी और की एक बार भी चुगली नहीं करता, उसे मैं अच्छे इंसान का तमगा दे देती हूं। वरना महफ़िलें जमती ही इसलिए हैं ताकि महफ़िल में आए लोगों की चापलूसी की जा सके, और महफ़िल से बाहर छूट गए लोगों की चुगलखोरी में आसानी हो। महफ़िल किस टाईप की है, उसका इस मूलभूत इंसानी फ़ितरत से कोई वास्ता नहीं होता।
वी के दाईं तरफ एम थीं - बेहद ख़ूबसूरत, और बहुत ग्रेसफुल। लेखिका हैं, और एक बहुत बड़ी पब्लिशर। उनके पास तांत्रिकों के मज़ेदार किस्से थे। उन्हें सीरियसली इन किस्सों को किताब की शक्ल देनी चाहिए। मुझे तो मालूम ही नहीं था कि तांत्रिकों की एक दुनिया ऐसी भी है जो मनोहर कहानियां के पन्नों और इंडिया टीवी के स्क्रीन के अलावा वाकई कहीं और बसती है।
उनके सुर में सुर टी मिलाती रहीं। उन्होंने मद्रास पर एक शानदार किताब लिखी है। टी क्लासिकल डांसर हैं। याद आया कि इन्हें मैंने द हिंदू के पन्नों पर कई बार देखा है। मैन एशियन लिटररी प्राइज़ के लिए नॉमिनेट होने से पहले और उसके बाद। टी कम बोलती थीं और बहुत सारा मुस्कुराती थीं।
महफ़िल में रंग जमाने लाहौर से एक मेहमान आए। लाल जूतों में। मुझे एएस के लाल जूते ज़िन्दगी भर याद रहेंगे, और उनकी आवाज़ की हरकतों में उतरे शकील बदायूंनी के लफ़्ज भी। एएस फ़रीदा ख़ानम के शागिर्द रहे हैं, और कोक स्टूडियो के अगले सीज़न में नज़र आएंगे। साथ ही ब्रॉडवे पर भी। गुड लुक्स और ट्रेन्ड आवाज़ क़ातिल कॉम्बिनेशन होती है। अगर मैं 'all good-looking men are flirts, and useless' की दीवार अपने चारों ओर लेकर न घूम रही होती तो इस शख़्स पर पक्का दिल आ जाता। (अब I am not a flirt, and I am definitely useful का यकीन अब सब यकीनों पर भारी पड़ता है।)
बाकी की शाम पेंटिंग्स, कविताएं, गीत, किताबें - इन्हीं के चारों ओर घूमती रही थी। जाने कॉन्याक का असर था या महफ़िल में होते हुए भी वहां न होने की बीमारी, मैं कोलकाता के बारे में सोचती रही थी, और पूर्णिया के बारे में, और सिवान के बारे में, और मोरवन के बारे में, और रांची के बारे में।
हम सब कहां से आए हैं? हम सब जहां हैं, वहां हैं क्यों? इस स्पेस में एक साथ एक वक़्त पर होने की वजह क्या है? यहां से हम क्या लेकर जाएंगे? लोग इतनी ही देर के लिए मिलते क्यों हैं? यूनिवर्स किस मैथेमैटिकल कैलकुलेशन पर काम करता है? उस कैलकुशन में टाईम - वक़्त - की कीमत क्या है? क्या वक़्त रेलेटिव होता है, या फिर एब्सॉल्यूट? हम सब क्या चाहते हैं? जब थोड़ा सा प्यार और थोड़ी सी प्रशंसा ही ज़िन्दगी में सबसे ज़्यादा मायने रखती है तो फिर हम लालची क्यों हो जाते हैं? ख़्वाहिशें रेलेटिव होती हैं तो फिर दर्द क्यों नहीं?
सवाल कई हैं और जवाब कही नहीं। मैं जहां हूं, वहां क्यों हूं?
एन ये क्या गुनगुना रही हैं?
ऐ दिल की ख़लिश चल यूं ही सही
चलता तो हूं उनकी महफ़िल में
उस वक़्त मुझे चौंका देना
जब रंग पे महफ़िल आ जाए
पोस्टस्क्रिप्ट - कल पी से भी मिली थी बुक फ़ेयर में। काश उससे कहीं और मिलती। बुक फ़ेयर में होना अपने आप में एक डिज़ैस्टर था। मैं गई न होती तो देखा न होता कि दिखावा और झूठ, धोखे और भ्रम जितने बड़े होते जाते हैं, उतने ही बड़े कवि, लेखक, साहित्यकार बनते चले जाते हैं आप। मैं सिर्फ़ ये जानती हूं कि मैं यहां नहीं कहीं और होना चाहती हूं। वरना एक दिन दिखावा करते करते कुछ और हो जाऊंगी।
बुधवार, 18 फ़रवरी 2015
मॉर्निंग पेज ८ और ब्रोकेन सॉन्ग
अब उस जगह पहुंच गई हूं जहां बाहर की आवाज़ें बंद कर देने को जी चाहता है। स्मार्टफोन है नहीं, इसलिए व्हॉटसैप्प बंद है। फेसबुक को डिएक्टिवेट करने का बटन ढूंढते ढूंढते थक गई और फिर सोचा कि यहां भी अनुशासन ही चलने दें। एसएमएस का जवाब देना भारी काम लगने लगा है। फोन पर किसी से बात नहीं करना चाहती। मजबूरी न हो तो किसी से मिलने की भी क्या ज़रूरत?
क्या ये सारे डिप्रेशन के लक्षण हैं?
ये सारे क्रिएट करने से पहले की बैचैनियां और गुमख़्याली है। मैं आजकल मम्मा की डायरी को लेकर बहुत बेचैन हूं। दिमाग़ किस्सों और मुद्दों से भरा हुआ है। स्क्रीन पर सामने जो नज़र आता है, वो मुकम्मल नहीं लगता। लगता है कि कहीं मैं कुछ बेईमानी कर रही हूं। कोई बात थी जो कहनी थी, लेकिन कहने से बच रही हूं। जबतक ईमानदारी से चैप्टर लिखे नहीं जाएंगे, तब तब बेचैनी ख़त्म नहीं होगी।
लिखने के लिए वक़्त बहुत कम है। या मैं वक़्त नहीं दे रही शायद। काम तो कोई है नहीं, लेकिन वक़्त ज़ाया करने की बुरी आदत बचपन से लगी है। सुबह तभी उठती हूं जब बच्चों को उठाने का वक़्त होता है। सुबह की सैर बंद हुए पूरा जाड़ा निकल गया। बच्चों के जाने के बाद घर में इधर-उधर बेमतलब के काम करती रहती हूं। और फिर थककर बाहर निकल जाती हूं। कभी किसी सड़क पर, कभी किसी मॉल में। अगर बाहर निकल जाने से बेचैनियां कम हो जातीं तो सड़क पर इतने सारे बेचैन लोग क्यों दिखते?
दिन निकलता जा रहा है और भीतर पकती कहानियां सड़ने को हो रही हैं। उन्हें शाखों से तोड़ लेना चाहिए। उन्हें अब हर हाल में काटकर परोस दिया जाना चाहिए।
कल रात नीला स्कार्फ़ की टाइटल स्टोरी - नीला स्कार्फ - का अनुवाद एडिट कर रही थी। एडिट करते करते कई हिस्से दुबारा लिखने लगी। अपनी ही कहानी अनुवादक के नज़र से पढ़ते और देखते हुए मैं बहुत उदास हो गई थी। नीला स्कार्फ़ इतनी सारी उदास कहानियों का संग्रह क्यों है? मुझे उदासियों के अलावा कुछ बुनना नहीं आता?
रात में अजीब-अजीब से सपने आते रहे। सपने के एक टुकड़े में मैं किसी कमरे में बंद कर दी गई थी। बाथरूम की खिड़की खोलकर मैं बाहर भागने का रास्ता तलाश कर रही थी। मेरे हाथ में पांच मैग़जीन्स थे और मैं उन पांचों के बिना खिड़की से बाहर नहीं कूदना चाहती थी। मुझे डर था कि वो पत्रिकाएं हाथ से छूटीं तो मेरे हाथों से कहानियां निकल जाएंगी। सपने में मैंने राजदीप को भी देखा। पता नहीं क्यों। कुछ लोग राजदीप के कमरे का दरवाज़ा ज़ोर ज़ोर से पीट रहे थे। मुझे डर लगा कि कहीं ये लोग राजदीप को मार तो नहीं देंगे?
पता नहीं किसकी जान ख़तरे में है। पता नहीं कौन कहां बंद है? पता नहीं किसे मुक्ति दिलानी है, लिबरेट करना है।
He sets deadly traps for himself, then cuts them away:
The courtiers listen in amazement, give frequent gasps of praise.
टैगोर का 'ब्रोकेन सॉन्ग' क्यों याद आ रहा है? वो तो काशीनाथ था। ये तो राजदीप है।
राजा प्रताप राय को सिर्फ़ और सिर्फ़ बरज लाल का गीत पसंद आता था। उनके दरबार में ये काशीनाथ क्यों आ गया था? टैगोर की कविता ब्रोकेन सॉन्ग कविता नहीं है, एक लंबी कहानी है। नवीन और पुरातन के बीच के संघर्ष की कहानी। सुरों के संघर्ष की कहानी। एक दरबार की कहानी, दरबार में राजा के पक्षपात की कहानी। हुनर द्वारा अपने लिए जगह बनाने की कहानी।
मैं ब्रोकेन सॉन्ग पढ़ने लगी हूं। ज़ोर ज़ोर से। ऊंची आवाज़ में। बच्चों के स्कूल चले जाने के बाद घर के खाली हो जाने के अपने फ़ायदे हैं।
The singer along does not make a song, there has to be someone who hears:
One man opens his throat to sing, the other sings in his mind.
Only when waves fall on the shore do they make a harmonious sound;
Only when breezes shake the woods do we hear a rustling in the leaves.
Only from a marriage of two forces does music arise in the world.Where there is no love, where listeners are dumb, there never can be song.'
डियर डायरी, अाज कई काम निपटाने हैं।
न चाहते हुए भी पुस्तक मेला में अपनी शक्ल दिखानी है। मुस्कुराने का नाटक करना है। नॉर्मल दिखना है। नॉर्मल बातें करनी हैं।
नीला स्कार्फ को The Blue Scarf में तब्दील करना है पूरी तरह।
मम्मा की डायरी का एक चैप्टर फाइनल करना है।
अपने नए ओपएड के बारे में सोचना है।
स्वर्ण सुमन के लिए सवाल भेजने हैं। जिस सोशल मीडिया ने मेरी अपनी ज़िन्दगी में भूचाल ला दिया, उस सोशल मीडिया से जुड़े विहंगम सवाल पूछने हैं। परिचर्चा की तैयारी करनी है।
और देर शाम एक औपचारिक डिनर में ग्रेसफुल होने की कोशिश करनी है।
आज के लिए इतने काम बहुत हैं।
क्या ये सारे डिप्रेशन के लक्षण हैं?
ये सारे क्रिएट करने से पहले की बैचैनियां और गुमख़्याली है। मैं आजकल मम्मा की डायरी को लेकर बहुत बेचैन हूं। दिमाग़ किस्सों और मुद्दों से भरा हुआ है। स्क्रीन पर सामने जो नज़र आता है, वो मुकम्मल नहीं लगता। लगता है कि कहीं मैं कुछ बेईमानी कर रही हूं। कोई बात थी जो कहनी थी, लेकिन कहने से बच रही हूं। जबतक ईमानदारी से चैप्टर लिखे नहीं जाएंगे, तब तब बेचैनी ख़त्म नहीं होगी।
लिखने के लिए वक़्त बहुत कम है। या मैं वक़्त नहीं दे रही शायद। काम तो कोई है नहीं, लेकिन वक़्त ज़ाया करने की बुरी आदत बचपन से लगी है। सुबह तभी उठती हूं जब बच्चों को उठाने का वक़्त होता है। सुबह की सैर बंद हुए पूरा जाड़ा निकल गया। बच्चों के जाने के बाद घर में इधर-उधर बेमतलब के काम करती रहती हूं। और फिर थककर बाहर निकल जाती हूं। कभी किसी सड़क पर, कभी किसी मॉल में। अगर बाहर निकल जाने से बेचैनियां कम हो जातीं तो सड़क पर इतने सारे बेचैन लोग क्यों दिखते?
दिन निकलता जा रहा है और भीतर पकती कहानियां सड़ने को हो रही हैं। उन्हें शाखों से तोड़ लेना चाहिए। उन्हें अब हर हाल में काटकर परोस दिया जाना चाहिए।
कल रात नीला स्कार्फ़ की टाइटल स्टोरी - नीला स्कार्फ - का अनुवाद एडिट कर रही थी। एडिट करते करते कई हिस्से दुबारा लिखने लगी। अपनी ही कहानी अनुवादक के नज़र से पढ़ते और देखते हुए मैं बहुत उदास हो गई थी। नीला स्कार्फ़ इतनी सारी उदास कहानियों का संग्रह क्यों है? मुझे उदासियों के अलावा कुछ बुनना नहीं आता?
रात में अजीब-अजीब से सपने आते रहे। सपने के एक टुकड़े में मैं किसी कमरे में बंद कर दी गई थी। बाथरूम की खिड़की खोलकर मैं बाहर भागने का रास्ता तलाश कर रही थी। मेरे हाथ में पांच मैग़जीन्स थे और मैं उन पांचों के बिना खिड़की से बाहर नहीं कूदना चाहती थी। मुझे डर था कि वो पत्रिकाएं हाथ से छूटीं तो मेरे हाथों से कहानियां निकल जाएंगी। सपने में मैंने राजदीप को भी देखा। पता नहीं क्यों। कुछ लोग राजदीप के कमरे का दरवाज़ा ज़ोर ज़ोर से पीट रहे थे। मुझे डर लगा कि कहीं ये लोग राजदीप को मार तो नहीं देंगे?
पता नहीं किसकी जान ख़तरे में है। पता नहीं कौन कहां बंद है? पता नहीं किसे मुक्ति दिलानी है, लिबरेट करना है।
He sets deadly traps for himself, then cuts them away:
The courtiers listen in amazement, give frequent gasps of praise.
टैगोर का 'ब्रोकेन सॉन्ग' क्यों याद आ रहा है? वो तो काशीनाथ था। ये तो राजदीप है।
राजा प्रताप राय को सिर्फ़ और सिर्फ़ बरज लाल का गीत पसंद आता था। उनके दरबार में ये काशीनाथ क्यों आ गया था? टैगोर की कविता ब्रोकेन सॉन्ग कविता नहीं है, एक लंबी कहानी है। नवीन और पुरातन के बीच के संघर्ष की कहानी। सुरों के संघर्ष की कहानी। एक दरबार की कहानी, दरबार में राजा के पक्षपात की कहानी। हुनर द्वारा अपने लिए जगह बनाने की कहानी।
मैं ब्रोकेन सॉन्ग पढ़ने लगी हूं। ज़ोर ज़ोर से। ऊंची आवाज़ में। बच्चों के स्कूल चले जाने के बाद घर के खाली हो जाने के अपने फ़ायदे हैं।
The singer along does not make a song, there has to be someone who hears:
One man opens his throat to sing, the other sings in his mind.
Only when waves fall on the shore do they make a harmonious sound;
Only when breezes shake the woods do we hear a rustling in the leaves.
Only from a marriage of two forces does music arise in the world.Where there is no love, where listeners are dumb, there never can be song.'
डियर डायरी, अाज कई काम निपटाने हैं।
न चाहते हुए भी पुस्तक मेला में अपनी शक्ल दिखानी है। मुस्कुराने का नाटक करना है। नॉर्मल दिखना है। नॉर्मल बातें करनी हैं।
नीला स्कार्फ को The Blue Scarf में तब्दील करना है पूरी तरह।
मम्मा की डायरी का एक चैप्टर फाइनल करना है।
अपने नए ओपएड के बारे में सोचना है।
स्वर्ण सुमन के लिए सवाल भेजने हैं। जिस सोशल मीडिया ने मेरी अपनी ज़िन्दगी में भूचाल ला दिया, उस सोशल मीडिया से जुड़े विहंगम सवाल पूछने हैं। परिचर्चा की तैयारी करनी है।
और देर शाम एक औपचारिक डिनर में ग्रेसफुल होने की कोशिश करनी है।
आज के लिए इतने काम बहुत हैं।
मंगलवार, 17 फ़रवरी 2015
मॉर्निंग पेज ७ - लिखना क्या था, लिख क्या गई
हम दो ही किस्म के लोगों को जज करते रहते हैं लगातार - जिसे नहीं जानते अच्छी तरह (या जानना नहीं चाहते) या फिर जिसे हम बहुत अच्छी तरह जान जाते हैं। माइंड अजीब-सी चीज़ है। दुनिया भर के योगी-ज्ञानी माइंड पर कितने तरह का ज्ञान दे चुके। जाने कितनी किताबें इसी माइंड के बारे में है। इसी माइंड से असुरक्षा पैदा होती है। यही माइंड हमारे साथ तरह-तरह के खेल खेलता है।
कई लोग हैं जिन्हें मेरा माइंड माफ़ ही नहीं करना चाहता। दिल कहता है - जाने दो, लेट गो। माइंड पकड़े रहता है। ज़ख्म और उन ज़ख़्मों पर लगातार लगनेवाली खराशें गिनता रहता है।
मुझे लगता है दुनिया की आधी से ज़्यादा समस्याएं सिर्फ़ compassion यानी सहृदयता से सॉल्व हो सकती हैं। दूर क्यों जाएं, मेरी ज़िन्दगी से मिसाल लेते हैं। एक इंसान की ज़िन्दगी में सबसे मुश्किल रिश्ता कौन सा होता है? विवाह का। वैवाहिक रिश्ता सबसे चुनौतीपूर्ण होता है, और उस रिश्ते में प्रेम (और प्रेम के साथ अपेक्षाएं) जुड़ जाएं तब तो समझ जाईए कि आप उस रॉबिन्सन क्रूसो की तरह के जहाज़ी हो गए जिसे समंदर औऱ समुद्री यात्राओं ने तबाह कर दिया लेकिन वो बार-बार समंदर की और लौटता रहा।
देखें और कौन कौन से रिश्ते मुश्किल होते हैं? पेरेन्ट और बच्चों का, ख़ासकर टीनेज की तरफ से होकर निकलते युवा बच्चों के साथ का रिश्ता। भाई-बहन या सिबलिंग के साथ का अपना रिश्ता। एक किस्म की राइवलरी, अलग-अलग वजूदों में ढलते सहोदर भी एक दूसरे की परेशानी का सबब बन जाते हैं। हमें अपने साथ काम करने वालों से परेशानी होती है। हमें अपने एक्सटेन्डेड परिवार के लोगों से परेशानी होती है। हमें कई बार हमारा पड़ोसी परेशान करता है। उससे भी ज़्यादा अक्सर सड़क पर जानलेवा तरीके से गाड़ी चलाते लोगों से चिढ़ मचती है।
और इस बीच हम क्या करते रहते हैं? लगातार एक-दूसरे को जज कर रहे होते हैं, और फिर अपने दिमाग़ में किसी और को लेकर बना लिए गए फ़ैसले और धारणाओं के दम पर ख़ुद बिहेव करते रहते हैं। सामनेवाला अपने कर्मों से जितना पापी नहीं होता, हमारे दिमाग़ में उसके लिए बना ली गई धारणा से हो जाता है।
तो फिर कम्पैशन का क्या काम?
कम्पैशन हमें सिर्फ़ अपना नज़रिया बदलना सिखाता है। दुनिया भर को जज करने वाले (ये बीमारी पत्रकारों और बुद्धिजीवियों में सबसे ज़्यादा होती है) लोग करते क्या हैं, एक बार देख लीजिए अख़बार खोलकर। हम आलोचना कर रहे होते हैं - निरंतर। बात करते हैं तब आलोचना कर रहे होते हैं, शिकायत कर रहे होते हैं, किसी और के बारे में अपनी राय बांट रहे होते हैं, दुनिया ने हमारे साथ कितना बुरा किया, वो आपस में डिस्कस कर रहे होते हैं। हमारी नज़र में हम विक्टिम हैं और दुनिया भर की वाह्य संरचना दरअसल हमें बर्बाद करने, हमें सताने, परेशान करने के लिए ही रची गई है।
आदत ही नहीं कि अपने भीतर देखें और सोचें - हम बदलेंगे तो क्या बदलेगा?
कम्पैशन नज़रिया कैसे बदलता है? जिसकी हम आलोचना कर रहे हैं, क्या एक मिनट के लिए हम उसके जूते में अपने पांव डालकर देख सकते हैं कि उस बिचारे का जूता उसे कहां कहां और कब काटता है? क्या हम एक मिनट के लिए अपने सबसे बड़े जानी दुश्मन, अपने सबसे बड़े मुजरिम के हालात समझने की कोशिश कर रहते हैं?
क्या कम्पैशन अल्टीमेट सॉल्यूशन है? मुमकिन है नहीं हो। लेकिन कम्पैशन ज़रूर आपको कम तिक्त, कम चिढ़चिढ़ा बनाता है। किसके किसके लिए कम्पैशन होना चाहिए? जिस ट्रैफिक पुलिस वाले ने मुझसे बिना मेरी ग़लती के रुकने को कहा, मेरा चालान कर दिया और बचने के लिए मामले को रफा दफा कर देने के नाम पर खुली ऱिश्वत मांग ली, उसके लिए भी कम्पैशन रखूं? क्या उस सास के लिए कम्पैशन रखूं जिसकी ज़िन्दगी का इकलौता मकसद मेरी रांह में कांटे बोना है? और उन आतंकवादियों के लिए कैसे कम्पैशन रखूं जो बिला वजह लोगों को मारते चलते हैं?
दायरा इतना बड़ा करने की ज़रूरत है क्या? क्या हम अपने आस-पास के उलझे हुए रिश्तों को लेकर सहृदय नहीं हो सकते? वो पति जिसे हमारी तकलीफ़ दिखती ही नहीं? (मुमकिन है, वो कहीं और किसी और तकलीफ़ में डूबा हुआ हो)। वो दोस्त जो दोस्त रहा नहीं, और ठीक से बात ही नहीं करता। (मुमकिन है कि आपने उसे जिस तरह जज किया, उसने आपके बारे में कहीं ज़्यादा बुरी और ग़लत धारणा बना ली हो।) वो मेड जो महीने में दस छुट्टी करती है?
थोड़ी देर के लिए किसी और की नज़र से अपने हालात देखने की कोशिश करना कम्पैशन है। थोड़ी देर के लिए किसी और की नज़र से उसके हालात देखने की कोशिश करना भी कम्पैशन है। बात सिर्फ दिल बड़ा करने की है। बात सिर्फ़ खुद को माफ़ करने और सामने वाले को माफ़ करते जाने की है।
क्या रिश्ते इतने ही सरल होते हैं? क्या जीवन इतना ही सरल है?
नहीं। तमाम समझदारियों के बावजूद जटिल दिमाग़ अपनी करतूतों से सुधरता नहीं।
कल गॉन गर्ल देख आई। ज़िन्दगी और रिश्तों को लेकर दिमाग़ में बचे रहे सवाल सपनों में खुरचन की तरह निकलते रहे। मैं अजीब अजीब से सपने देखती रही कल रात।
मौसी ने कहा है कि ख़ुद को अपने वजूद से अलग कर दो और बाहर से देखो खुद को। ये मान लो कि तुम जो कर रही हो, वो दरअसल तुमसे कोई और करा रहा है।
मैं ये मॉर्निंग पेज नहीं लिख रही क्योंकि मुझे तो कुछ और लिखना था। पता नहीं किसने और किस तरह मुझसे वो लिखवा दिया जिसके बारे में मैं कुछ जानती तक नहीं। जो मैं लिखना चाहती थी, वो पता नहीं कहां गुम हो गया। पता नहीं किस तरह।
कई लोग हैं जिन्हें मेरा माइंड माफ़ ही नहीं करना चाहता। दिल कहता है - जाने दो, लेट गो। माइंड पकड़े रहता है। ज़ख्म और उन ज़ख़्मों पर लगातार लगनेवाली खराशें गिनता रहता है।
मुझे लगता है दुनिया की आधी से ज़्यादा समस्याएं सिर्फ़ compassion यानी सहृदयता से सॉल्व हो सकती हैं। दूर क्यों जाएं, मेरी ज़िन्दगी से मिसाल लेते हैं। एक इंसान की ज़िन्दगी में सबसे मुश्किल रिश्ता कौन सा होता है? विवाह का। वैवाहिक रिश्ता सबसे चुनौतीपूर्ण होता है, और उस रिश्ते में प्रेम (और प्रेम के साथ अपेक्षाएं) जुड़ जाएं तब तो समझ जाईए कि आप उस रॉबिन्सन क्रूसो की तरह के जहाज़ी हो गए जिसे समंदर औऱ समुद्री यात्राओं ने तबाह कर दिया लेकिन वो बार-बार समंदर की और लौटता रहा।
देखें और कौन कौन से रिश्ते मुश्किल होते हैं? पेरेन्ट और बच्चों का, ख़ासकर टीनेज की तरफ से होकर निकलते युवा बच्चों के साथ का रिश्ता। भाई-बहन या सिबलिंग के साथ का अपना रिश्ता। एक किस्म की राइवलरी, अलग-अलग वजूदों में ढलते सहोदर भी एक दूसरे की परेशानी का सबब बन जाते हैं। हमें अपने साथ काम करने वालों से परेशानी होती है। हमें अपने एक्सटेन्डेड परिवार के लोगों से परेशानी होती है। हमें कई बार हमारा पड़ोसी परेशान करता है। उससे भी ज़्यादा अक्सर सड़क पर जानलेवा तरीके से गाड़ी चलाते लोगों से चिढ़ मचती है।
और इस बीच हम क्या करते रहते हैं? लगातार एक-दूसरे को जज कर रहे होते हैं, और फिर अपने दिमाग़ में किसी और को लेकर बना लिए गए फ़ैसले और धारणाओं के दम पर ख़ुद बिहेव करते रहते हैं। सामनेवाला अपने कर्मों से जितना पापी नहीं होता, हमारे दिमाग़ में उसके लिए बना ली गई धारणा से हो जाता है।
तो फिर कम्पैशन का क्या काम?
कम्पैशन हमें सिर्फ़ अपना नज़रिया बदलना सिखाता है। दुनिया भर को जज करने वाले (ये बीमारी पत्रकारों और बुद्धिजीवियों में सबसे ज़्यादा होती है) लोग करते क्या हैं, एक बार देख लीजिए अख़बार खोलकर। हम आलोचना कर रहे होते हैं - निरंतर। बात करते हैं तब आलोचना कर रहे होते हैं, शिकायत कर रहे होते हैं, किसी और के बारे में अपनी राय बांट रहे होते हैं, दुनिया ने हमारे साथ कितना बुरा किया, वो आपस में डिस्कस कर रहे होते हैं। हमारी नज़र में हम विक्टिम हैं और दुनिया भर की वाह्य संरचना दरअसल हमें बर्बाद करने, हमें सताने, परेशान करने के लिए ही रची गई है।
आदत ही नहीं कि अपने भीतर देखें और सोचें - हम बदलेंगे तो क्या बदलेगा?
कम्पैशन नज़रिया कैसे बदलता है? जिसकी हम आलोचना कर रहे हैं, क्या एक मिनट के लिए हम उसके जूते में अपने पांव डालकर देख सकते हैं कि उस बिचारे का जूता उसे कहां कहां और कब काटता है? क्या हम एक मिनट के लिए अपने सबसे बड़े जानी दुश्मन, अपने सबसे बड़े मुजरिम के हालात समझने की कोशिश कर रहते हैं?
क्या कम्पैशन अल्टीमेट सॉल्यूशन है? मुमकिन है नहीं हो। लेकिन कम्पैशन ज़रूर आपको कम तिक्त, कम चिढ़चिढ़ा बनाता है। किसके किसके लिए कम्पैशन होना चाहिए? जिस ट्रैफिक पुलिस वाले ने मुझसे बिना मेरी ग़लती के रुकने को कहा, मेरा चालान कर दिया और बचने के लिए मामले को रफा दफा कर देने के नाम पर खुली ऱिश्वत मांग ली, उसके लिए भी कम्पैशन रखूं? क्या उस सास के लिए कम्पैशन रखूं जिसकी ज़िन्दगी का इकलौता मकसद मेरी रांह में कांटे बोना है? और उन आतंकवादियों के लिए कैसे कम्पैशन रखूं जो बिला वजह लोगों को मारते चलते हैं?
दायरा इतना बड़ा करने की ज़रूरत है क्या? क्या हम अपने आस-पास के उलझे हुए रिश्तों को लेकर सहृदय नहीं हो सकते? वो पति जिसे हमारी तकलीफ़ दिखती ही नहीं? (मुमकिन है, वो कहीं और किसी और तकलीफ़ में डूबा हुआ हो)। वो दोस्त जो दोस्त रहा नहीं, और ठीक से बात ही नहीं करता। (मुमकिन है कि आपने उसे जिस तरह जज किया, उसने आपके बारे में कहीं ज़्यादा बुरी और ग़लत धारणा बना ली हो।) वो मेड जो महीने में दस छुट्टी करती है?
थोड़ी देर के लिए किसी और की नज़र से अपने हालात देखने की कोशिश करना कम्पैशन है। थोड़ी देर के लिए किसी और की नज़र से उसके हालात देखने की कोशिश करना भी कम्पैशन है। बात सिर्फ दिल बड़ा करने की है। बात सिर्फ़ खुद को माफ़ करने और सामने वाले को माफ़ करते जाने की है।
क्या रिश्ते इतने ही सरल होते हैं? क्या जीवन इतना ही सरल है?
नहीं। तमाम समझदारियों के बावजूद जटिल दिमाग़ अपनी करतूतों से सुधरता नहीं।
कल गॉन गर्ल देख आई। ज़िन्दगी और रिश्तों को लेकर दिमाग़ में बचे रहे सवाल सपनों में खुरचन की तरह निकलते रहे। मैं अजीब अजीब से सपने देखती रही कल रात।
मौसी ने कहा है कि ख़ुद को अपने वजूद से अलग कर दो और बाहर से देखो खुद को। ये मान लो कि तुम जो कर रही हो, वो दरअसल तुमसे कोई और करा रहा है।
मैं ये मॉर्निंग पेज नहीं लिख रही क्योंकि मुझे तो कुछ और लिखना था। पता नहीं किसने और किस तरह मुझसे वो लिखवा दिया जिसके बारे में मैं कुछ जानती तक नहीं। जो मैं लिखना चाहती थी, वो पता नहीं कहां गुम हो गया। पता नहीं किस तरह।
सोमवार, 16 फ़रवरी 2015
मॉर्निंग पेज ६ - गॉन गर्ल देख आने और कुँए में कूद जाने से पहले
हम अपनी बिदाई के टाईम में बड़ी जोर का नौटंकी किए थे। इतना रोए थे, इतना रोए थे विदाई के टाईम कि लोग आजतक मिसाल देते हैं। रोए ही नहीं, रुलाए भी ख़ूब। मशहूर है किस्सा कि पापा के एक दोस्त जो अपने मां-बाप-बहन-बहनोई के गुज़रने पर नहीं रोया, वो मेरी विदाई पर रोए। पापा दो दिन तक रोते रहे थे। बिना खाना-पीना खाए। पापा के लिए वो रोना ज़रूर हीलिंग रहा होगा, मैं आज तक ये सोचती हूं। मैं बहाना थी। पापा के पास इस तरह रोते रहने की कई और वजहें थीं। ज़िन्दगी सबसे स्ट्रिक्ट टीचर होती है। हाथ आगे किए रहो, सटासट सोटा पड़ता रहेगा। रोओगे तो और ज़ोर से पिटाई होगी। इसलिए चुपचाप सहो। टीचर के झपकी लेते ही रो लेना चाहिए। उस दिन पापा को रोने का मौका मिला होगा क्योंकि बेटी की ब्याह की चिंता में कई रात जागी ज़िन्दगी लंबी नींद लेने चली गई थी।
रोना अपने आप में एक थेरेपी है। दहाड़ मार-मारकर रोना उससे भी बड़ी थेरेपी है। ऐसे कम ही मौके मिलते हैं रोने की।
शादी की दसवीं सालगिरह है, और मैं पता नहीं क्यों अपनी विदाई के बारे में सोच रही हं। और सोच रही हूं रोने के बारे में। दहाड़ मार-मारकर रोने के बारे में। खुलकर रोने के बारे में।
लेकिन मॉर्निंग पेज पर अनसेन्सर्ड लिखने का वायदा है, इसलिए मैं सोचूंगी नहीं कि क्या लिख रही हूं। न एडिट करने की कोशिश करूंगी। उंगलियां जितनी तेज़ी से चलती रहेंगी कीबोर्ड पर, चलने दूंगी। ये भी नहीं सोचूंगी कि लोग मुझे मेरे लिखे हुए से किस तरह जज करते हैं। ये भी नहीं सोचूंगी कि मेरा लिखा हुआ कैसे मेरे ही ख़िलाफ़ जा सकता है कभी। इस बात पर यकीन पक्का होता जा रहा है कि जिस दिन सोचे हुए, जिए हुए और लिखे हुए के बीच की दीवारें ख़त्म हो जाएंगी उस दिन ही लिखना सार्थक होगा। वरना झूठ, बेपनाह झूठ, की कहानियां तो हम लगातार बुनते ही रहते हैं।
सुबह-सुबह बच्चों ने जब एनिवर्सरी की बधाई दी तो ये सोचा कि पांच साल तो अभी गुज़रे थे। अभी कुछ दिन पहले। एक सौ चार बुखार था मुझे उस शाम। घर में लोग आए थे कुछ, जिनमें ज़्यादा भाई के दोस्त थे। मनीष का या मेरा कोई दोस्त नहीं था। ये भी सोच रही थी कि उस साल दीदी और जीजाजी हमारे पड़ोसी थी। नोएडा में ही रहते थे। मेरे मायके की ओर से मम्मी थी, भाई था और भाई के दोस्त थे। मेरी ससुराल की ओर से दीदी, जीजाजी और शरद थे। हमने गाजर का मालपुआ खाकर पांचवीं एनिवर्सरी मनाई। मुझे तोहफ़े में एक घड़ी मिली थी, और एक सूट। डिज़ाईनर था। शायद अनोखी का था। याद नहीं कि कितनी बार पहना था उसे। पता नहीं कैसे उसका रंग जल्दी उतर गया। अनोखी का ही एक और सूट है मेरे पास। उजला है बिल्कुल। सूती का। अभी तक उसका रंग नहीं उतरा।
सोच रही हूं कि उस माइलस्टोन और इन माइलस्टोन के बीच क्या-क्या बदला? वो पांच साल गुज़रे तो मालूम चला। मैंने जुड़वां बच्चे पैदा किए। उनके साथ रात-रात जागती रही, दिन-दिन काटती रही।
इधर पांच सालों में तो बच्चे भी बड़े हो गए हैं। इन्डिपिडेंट हो गए हैं। उन्हें मम्मा-पापा की एनिवर्सरी के लिए दादी-नानी से मिले पैसों में से तोहफे खरीदना आ गया है। आद्या ने उन पैसों से कल सूरजकुंड मेले से हमारे लिए एक बेडकवर लिया। आदित ने मुझसे कहा कि आपने पापा से शादी करके बहुत अच्छा किया मम्मा। हमें इतने अच्छे दादा-दादी मिले। उसने ये भी कहा कि मैं पापा से भी यही बात कहूंगा, कि मम्मा से शादी करके अच्छा किया। हमें इतने अच्छे नाना-नानी मिले।
पिछले पांच सालों का यही हासिल है। बहुत समझदार बच्चे बड़े किए हैं मैंने। ये भी मालूम है कि अगले पांच साल में ये संतोष भी dilute हो जाएगा। हर माइलस्टोन पर हमारी ज़रूरतें बदल जाती है। ज़िन्दगी को देखने का नज़रिया बदल जाता है।
मौसी ने फोन किया और कहा कि गीता पढ़ो। सरेंडर कर दो। तुम कुछ नहीं करती। तुम सिर्फ़ देख रही हो। कोई और करवाता है तुमसे। इस जन्म में तुम्हें जो हासिल करना था, कर लिया। कर ही लोगी। तुम अगले जन्म की तैयारी करो। मौसी कहती जा रही है, और मैं सुनती जा रही हूं। मुझसे छह साल ही तो बड़ी है मौसी। फिर ऐसी बात क्यों कर रही है मुझसे? कोई एनिवर्सिरी की बधाई देते हुए इस तरह की बातें करता है क्या?
नताशा फोन करती है तो मैं रो पड़ती हूं। पांच साल बनाम दस साल का लेखा-जोखा रुलाने क्यों लगा है? मैं तब कहां थी? मैं अब कहां हूं? तब मैंने ख़ुद से भी कुछ कहने से डरती थी। अब मैं कम से कम acknowledge करने लगी हूं कि कहां कहां और किस किस तरह का रिजेक्शन मुझे परेशान करता है। तुम हील हो रही हो, वो कहती है। मुझे मेरे गहरे ज़ख्म दिखते हैं, मैं कहती हूं। अपने ज़ख़्मों को देख पाना, स्वीकार कर लेना कि कहीं चोट लगी है भी हीलिंग का प्रोसेस है। पता नहीं क्या है। ज़िन्दगी भर क्या यही करते हुए निकलेगा? चोट गिनते, मरहम लगाते, कभी ख़ुद को बचाते कभी दूसरों को बचाते।
कुंए में रस्सी डाली जाएगी और तुम बाहर निकल आओगी, वो कहती है। मैं कहती हूं, मुझे कुंए की आदत है। बाहर की हवा में सांस घुटती है। बाहर निकल आती हूं तुम जैसे दोस्तों की मेहरबानी से। लेकिन फिर कुंए में कूद जाती हूं। कुंए के पानी की गहराई का अंदाज़ा है। बाहर की दुनिया कितनी बड़ी है, नहीं जानती। जिसे जानती नहीं, उसे गले कैसे लगा लूं?
हम सब कुँए से निकालने और फिर उसमें कूदते रहने का खेल खेलते रहते हैं ज़िन्दगी भर।
मैं गॉन गर्ल देखने जाना चाहती हूं। कुँए में कूदते रहने और उससे वापस निकलते रहने के कई यादगार लम्हे आते रहें, यही दुआ करने के लिए।
रोना अपने आप में एक थेरेपी है। दहाड़ मार-मारकर रोना उससे भी बड़ी थेरेपी है। ऐसे कम ही मौके मिलते हैं रोने की।
शादी की दसवीं सालगिरह है, और मैं पता नहीं क्यों अपनी विदाई के बारे में सोच रही हं। और सोच रही हूं रोने के बारे में। दहाड़ मार-मारकर रोने के बारे में। खुलकर रोने के बारे में।
लेकिन मॉर्निंग पेज पर अनसेन्सर्ड लिखने का वायदा है, इसलिए मैं सोचूंगी नहीं कि क्या लिख रही हूं। न एडिट करने की कोशिश करूंगी। उंगलियां जितनी तेज़ी से चलती रहेंगी कीबोर्ड पर, चलने दूंगी। ये भी नहीं सोचूंगी कि लोग मुझे मेरे लिखे हुए से किस तरह जज करते हैं। ये भी नहीं सोचूंगी कि मेरा लिखा हुआ कैसे मेरे ही ख़िलाफ़ जा सकता है कभी। इस बात पर यकीन पक्का होता जा रहा है कि जिस दिन सोचे हुए, जिए हुए और लिखे हुए के बीच की दीवारें ख़त्म हो जाएंगी उस दिन ही लिखना सार्थक होगा। वरना झूठ, बेपनाह झूठ, की कहानियां तो हम लगातार बुनते ही रहते हैं।
सुबह-सुबह बच्चों ने जब एनिवर्सरी की बधाई दी तो ये सोचा कि पांच साल तो अभी गुज़रे थे। अभी कुछ दिन पहले। एक सौ चार बुखार था मुझे उस शाम। घर में लोग आए थे कुछ, जिनमें ज़्यादा भाई के दोस्त थे। मनीष का या मेरा कोई दोस्त नहीं था। ये भी सोच रही थी कि उस साल दीदी और जीजाजी हमारे पड़ोसी थी। नोएडा में ही रहते थे। मेरे मायके की ओर से मम्मी थी, भाई था और भाई के दोस्त थे। मेरी ससुराल की ओर से दीदी, जीजाजी और शरद थे। हमने गाजर का मालपुआ खाकर पांचवीं एनिवर्सरी मनाई। मुझे तोहफ़े में एक घड़ी मिली थी, और एक सूट। डिज़ाईनर था। शायद अनोखी का था। याद नहीं कि कितनी बार पहना था उसे। पता नहीं कैसे उसका रंग जल्दी उतर गया। अनोखी का ही एक और सूट है मेरे पास। उजला है बिल्कुल। सूती का। अभी तक उसका रंग नहीं उतरा।
सोच रही हूं कि उस माइलस्टोन और इन माइलस्टोन के बीच क्या-क्या बदला? वो पांच साल गुज़रे तो मालूम चला। मैंने जुड़वां बच्चे पैदा किए। उनके साथ रात-रात जागती रही, दिन-दिन काटती रही।
इधर पांच सालों में तो बच्चे भी बड़े हो गए हैं। इन्डिपिडेंट हो गए हैं। उन्हें मम्मा-पापा की एनिवर्सरी के लिए दादी-नानी से मिले पैसों में से तोहफे खरीदना आ गया है। आद्या ने उन पैसों से कल सूरजकुंड मेले से हमारे लिए एक बेडकवर लिया। आदित ने मुझसे कहा कि आपने पापा से शादी करके बहुत अच्छा किया मम्मा। हमें इतने अच्छे दादा-दादी मिले। उसने ये भी कहा कि मैं पापा से भी यही बात कहूंगा, कि मम्मा से शादी करके अच्छा किया। हमें इतने अच्छे नाना-नानी मिले।
पिछले पांच सालों का यही हासिल है। बहुत समझदार बच्चे बड़े किए हैं मैंने। ये भी मालूम है कि अगले पांच साल में ये संतोष भी dilute हो जाएगा। हर माइलस्टोन पर हमारी ज़रूरतें बदल जाती है। ज़िन्दगी को देखने का नज़रिया बदल जाता है।
मौसी ने फोन किया और कहा कि गीता पढ़ो। सरेंडर कर दो। तुम कुछ नहीं करती। तुम सिर्फ़ देख रही हो। कोई और करवाता है तुमसे। इस जन्म में तुम्हें जो हासिल करना था, कर लिया। कर ही लोगी। तुम अगले जन्म की तैयारी करो। मौसी कहती जा रही है, और मैं सुनती जा रही हूं। मुझसे छह साल ही तो बड़ी है मौसी। फिर ऐसी बात क्यों कर रही है मुझसे? कोई एनिवर्सिरी की बधाई देते हुए इस तरह की बातें करता है क्या?
नताशा फोन करती है तो मैं रो पड़ती हूं। पांच साल बनाम दस साल का लेखा-जोखा रुलाने क्यों लगा है? मैं तब कहां थी? मैं अब कहां हूं? तब मैंने ख़ुद से भी कुछ कहने से डरती थी। अब मैं कम से कम acknowledge करने लगी हूं कि कहां कहां और किस किस तरह का रिजेक्शन मुझे परेशान करता है। तुम हील हो रही हो, वो कहती है। मुझे मेरे गहरे ज़ख्म दिखते हैं, मैं कहती हूं। अपने ज़ख़्मों को देख पाना, स्वीकार कर लेना कि कहीं चोट लगी है भी हीलिंग का प्रोसेस है। पता नहीं क्या है। ज़िन्दगी भर क्या यही करते हुए निकलेगा? चोट गिनते, मरहम लगाते, कभी ख़ुद को बचाते कभी दूसरों को बचाते।
कुंए में रस्सी डाली जाएगी और तुम बाहर निकल आओगी, वो कहती है। मैं कहती हूं, मुझे कुंए की आदत है। बाहर की हवा में सांस घुटती है। बाहर निकल आती हूं तुम जैसे दोस्तों की मेहरबानी से। लेकिन फिर कुंए में कूद जाती हूं। कुंए के पानी की गहराई का अंदाज़ा है। बाहर की दुनिया कितनी बड़ी है, नहीं जानती। जिसे जानती नहीं, उसे गले कैसे लगा लूं?
हम सब कुँए से निकालने और फिर उसमें कूदते रहने का खेल खेलते रहते हैं ज़िन्दगी भर।
मैं गॉन गर्ल देखने जाना चाहती हूं। कुँए में कूदते रहने और उससे वापस निकलते रहने के कई यादगार लम्हे आते रहें, यही दुआ करने के लिए।
शनिवार, 14 फ़रवरी 2015
मॉर्निंग पेज ५ - अपना पहला ऑफिशियल फोटो शूट
कल का दिन बहुते मजेदार रहा। वजह कई है लेकिन दो कारणों को मैं दिन का हाईलाईट मानते ही यहां अपनी डायरी में रिकॉर्ड करना चाहूंगी।
श्रॉफ आई सेंटर में आदित के एक्सरसाइज़ के ख़त्म होने का इंतज़ार कर रही थी कि मेरे मोबाइल पर फ़ोन आया। आधा मिनट तो समझने में लगा कि सामने वाला है कौन और चाहता क्या है। फिर समझ में आया कि सामने वाला एक फोटोग्राफर है और उसे एक मैग़जीन के लिए मेरी प्रोफ़ाइल तस्वीर खींचने का असाईनमेंट मिला है। फिर ये भी समझ में आया कि वो जानता तक नहीं कि मैं कौन हूं, और उसे तस्वीर किसके लिए और क्यों खींचनी है। बस बार-बार अपने पब्लिकेशन का नाम दुहराता रहा।
Are you sure you haven't got the wrong number, or... ummm... the wrong person? मैंने फोन रखते-रखते अपनी तसल्ली के लिए पूछ ही लिया।
No... no... no... I got this message at 2 in the night from my editor. I need to photograph Ms. Anu Singh Choudhary at 1 pm today. Will you pls text me your address?
और उसके बाद मेरे पैरों के नीचे जो क्लच-ब्रेक-एक्सीलरेटर आया, वो सीधे ग्रेटर नोएडा होते हुए मेरे घर के बाहर आकर मेरे चंगुल से छूटा। तब दिन के १२.५५ हो रहे थे।
जाज़ो (फोटोग्राफर का यही नाम था) बिल्कुल वक़्त पर आया था। माथे पर लटके एकदम स्ट्रेट बाल, वैसे जैसे आयरनिंग के बाद भी मेरे बाल नहीं होते, स्निकर्स, कंधे पर बैकपैक और हाय की मुद्रा में उठे हुए हाथ। मुस्कुराता हुआ मंगोलियन चेहरा - धूप में ऐसे टैन हुआ हो जैसे बिस्कुट बनने के क्रम में मैदा हो जाता है। ड्राईंग रूम में बैठे मम्मी-पापा को पक्का झटका लगा होगा। आख़िर हमारी बेटी कर क्या रही है? कैसे-कैसे लोग इससे मिलने आते हैं?
उसने अपना सामान रखा और कमर पर हाथ रखकर मेरे ड्राईंग रूम में खड़ा हो गया। There is too much light in here. Can I see other parts of your house?
मैंने उसे बिखरे-फैले हुए दो और बेडरूम्स दिखाए दिए। टंगे हुए आधे गीले, आधे सूखे कपड़ों के बीच से होते हुए ले जाकर छत भी दिखा दिया।
Is there any park that we can go to? Is that your neighbourhood park? Is there any other park which is less messier?
मैंने उससे कहा, भैय्या जो है तुमरे सामने है। अब फोटू खींचना हो तो खींचो वरना हमको बख़्श दो।
I could take you to a friend's house. मैंने उसका स्ट्रेस कम करने के लिए कहा।
Will it be as big as this one? उसने पूछा।
Yes. All my friends live in as small apartments as this one. मैंने उसे हंसते हुए कहा।
जाज़ो ने हथियार डाल दिए और किसी तरह फोटो खींचने के लिए जगह के जुगाड़ में लग गया। बुक शेल्फ पीछे धकेला गया (जिसके सामने जमी धूल पर पोंछा मारने का काम मैंने किया)। किताबें इधर से उठाकर उधर रखी गईं। मैंने इस पूरे प्रकरण के awkwardness से बचने के लिए रसोई का सहारा ले लिया और चाय बनाने में लग गई। पापा किसी तरह उसके जोक्स और अपने ही जोक्स पर ठहाके के बीच की अंग्रेज़ी समझने की कोशिश करते हुए उसकी मदद में लगे रहे। मम्मी ने सोफे पर बैठे-बैठे अख़बार पढ़ने का काम जारी रहा।
So, these are your favourite films? दीवार पर लगे पोस्टरों को देखकर उसने मुझसे पूछा... शायद माहौल को हल्का-फुल्का बनाने की कोशिश में।
मैं कहना चाहती थी, मेरे पति की फेवरेट फिल्में हैं। मैं अंग्रेज़ी फिल्में ज़्यादा नहीं देखती। लेकिन फिर लंबी बातचीत से बचने के लिए मैंने यस कर दिया।
जाज़ो अपने हंसोड़ स्वाभाव के अनुरूप काम करता रहा, प्रॉप्स जमा करता रहा, कैमरे के लेंस बदलता रहा और कुछ न कुछ कहकर हंसता रहा। जितनी देर में उसने बस्सी (दिल्ली पुलिस चीफ) के साथ हुए फोटो शूट का वाकया सुनाया, उतनी देर में मैं मानसिक रूप से फोटो शूट के टॉर्चर से होकर गुज़रने के लिए तैयार हो गई। (मैं बहुत ख़राब सब्जेक्ट हूं। कैमरा मुझे असहज कर देता है। मेरी अच्छी तस्वीरें खींचना किसी भी फोटोग्राफर के लिए चुनौती हो सकता है।)
फिर जाज़ो ने मुझसे पूछा, Do you have a rocking chair? Or a study table where you sit and write?
मैंने कहा, मैं डायनिंग टेबल पर बैठकर लिखती हूं, या फिर बिस्तर पर बैठकर। रॉकिंग चेयर नहीं है। बांस का मूढ़ा है। उससे काम चले तो बताओ।
मूढ़ा आ गया और बेडरूम्स से फ्लोर मैट्स भी, जो कालीन की तरह बिछ गईं। मेरी तस्वीरें खींच गईं। जाज़ो ने अपना काम बहुत उत्साह से किया। वो जिस सहजता से मुझे मुस्कुराने के लिए कहता रहा, मैं उतनी ही सहजता से असहज होती रही। पंद्रह मिनट के संघर्ष के बाद उसने अपना कैमरा बंद कर दिया। मैंने पूछा नहीं कि तस्वीरें कैसी आई हैं, उसने बताया नहीं।
मुझे मालूम होता कि राईटर बनने के बाद ऐसे दिन भी देखने होते हैं, तो किताब छपवाने से पहले सौ बार सोचती। फोटो खिंचवाने से बड़ी embarrassment अभी झेलना बाकी है। मैग़जीन में छप जाने के बाद फोन कॉल्स और मेसेज की जो भरमार होती है उसका दंश झेलना मुश्किल होता है। उसमें तंज अधिक होता है, उत्साह कम। ऐसा लगता है जैसे अख़बार में आपके बारे में छप गया तो आपने बड़ी गलती कर दी।
ख़ैर, जाज़ो मुझे हमेशा याद रहेगा। और अपना पहला ऑफिशियल फोटो शूट भी। मैंने अपने पब्लिशर से कह दिया है कि जब मैं अपनी आत्मकथा लिखूं तो इस प्रकरण की याद ज़रूर दिलाएं। तीस साल बाद ऐसे छोटे-छोटे लम्हों का सोचकर बहुत मज़ा आएगा।
कल की एक और मज़ेदार घटना रॉय फिल्म देखना था। मैं इस बारे में ज़्यादा नहीं लिखूंगी। अपना वो दुख फिर कभी बांटूंगी।
इस बीच डॉयचे वेले इंटरनेशनल पर मेरा पहला ओप-एड कल लाइव हो गया। यहां से एक नया सफ़र शुरु हो रहा है।
लिंक ये रहा - http://www.dw.de/personal-take-in-search-of-refuge/a-18256650
श्रॉफ आई सेंटर में आदित के एक्सरसाइज़ के ख़त्म होने का इंतज़ार कर रही थी कि मेरे मोबाइल पर फ़ोन आया। आधा मिनट तो समझने में लगा कि सामने वाला है कौन और चाहता क्या है। फिर समझ में आया कि सामने वाला एक फोटोग्राफर है और उसे एक मैग़जीन के लिए मेरी प्रोफ़ाइल तस्वीर खींचने का असाईनमेंट मिला है। फिर ये भी समझ में आया कि वो जानता तक नहीं कि मैं कौन हूं, और उसे तस्वीर किसके लिए और क्यों खींचनी है। बस बार-बार अपने पब्लिकेशन का नाम दुहराता रहा।
Are you sure you haven't got the wrong number, or... ummm... the wrong person? मैंने फोन रखते-रखते अपनी तसल्ली के लिए पूछ ही लिया।
No... no... no... I got this message at 2 in the night from my editor. I need to photograph Ms. Anu Singh Choudhary at 1 pm today. Will you pls text me your address?
और उसके बाद मेरे पैरों के नीचे जो क्लच-ब्रेक-एक्सीलरेटर आया, वो सीधे ग्रेटर नोएडा होते हुए मेरे घर के बाहर आकर मेरे चंगुल से छूटा। तब दिन के १२.५५ हो रहे थे।
जाज़ो (फोटोग्राफर का यही नाम था) बिल्कुल वक़्त पर आया था। माथे पर लटके एकदम स्ट्रेट बाल, वैसे जैसे आयरनिंग के बाद भी मेरे बाल नहीं होते, स्निकर्स, कंधे पर बैकपैक और हाय की मुद्रा में उठे हुए हाथ। मुस्कुराता हुआ मंगोलियन चेहरा - धूप में ऐसे टैन हुआ हो जैसे बिस्कुट बनने के क्रम में मैदा हो जाता है। ड्राईंग रूम में बैठे मम्मी-पापा को पक्का झटका लगा होगा। आख़िर हमारी बेटी कर क्या रही है? कैसे-कैसे लोग इससे मिलने आते हैं?
उसने अपना सामान रखा और कमर पर हाथ रखकर मेरे ड्राईंग रूम में खड़ा हो गया। There is too much light in here. Can I see other parts of your house?
मैंने उसे बिखरे-फैले हुए दो और बेडरूम्स दिखाए दिए। टंगे हुए आधे गीले, आधे सूखे कपड़ों के बीच से होते हुए ले जाकर छत भी दिखा दिया।
Is there any park that we can go to? Is that your neighbourhood park? Is there any other park which is less messier?
मैंने उससे कहा, भैय्या जो है तुमरे सामने है। अब फोटू खींचना हो तो खींचो वरना हमको बख़्श दो।
I could take you to a friend's house. मैंने उसका स्ट्रेस कम करने के लिए कहा।
Will it be as big as this one? उसने पूछा।
Yes. All my friends live in as small apartments as this one. मैंने उसे हंसते हुए कहा।
जाज़ो ने हथियार डाल दिए और किसी तरह फोटो खींचने के लिए जगह के जुगाड़ में लग गया। बुक शेल्फ पीछे धकेला गया (जिसके सामने जमी धूल पर पोंछा मारने का काम मैंने किया)। किताबें इधर से उठाकर उधर रखी गईं। मैंने इस पूरे प्रकरण के awkwardness से बचने के लिए रसोई का सहारा ले लिया और चाय बनाने में लग गई। पापा किसी तरह उसके जोक्स और अपने ही जोक्स पर ठहाके के बीच की अंग्रेज़ी समझने की कोशिश करते हुए उसकी मदद में लगे रहे। मम्मी ने सोफे पर बैठे-बैठे अख़बार पढ़ने का काम जारी रहा।
So, these are your favourite films? दीवार पर लगे पोस्टरों को देखकर उसने मुझसे पूछा... शायद माहौल को हल्का-फुल्का बनाने की कोशिश में।
मैं कहना चाहती थी, मेरे पति की फेवरेट फिल्में हैं। मैं अंग्रेज़ी फिल्में ज़्यादा नहीं देखती। लेकिन फिर लंबी बातचीत से बचने के लिए मैंने यस कर दिया।
जाज़ो अपने हंसोड़ स्वाभाव के अनुरूप काम करता रहा, प्रॉप्स जमा करता रहा, कैमरे के लेंस बदलता रहा और कुछ न कुछ कहकर हंसता रहा। जितनी देर में उसने बस्सी (दिल्ली पुलिस चीफ) के साथ हुए फोटो शूट का वाकया सुनाया, उतनी देर में मैं मानसिक रूप से फोटो शूट के टॉर्चर से होकर गुज़रने के लिए तैयार हो गई। (मैं बहुत ख़राब सब्जेक्ट हूं। कैमरा मुझे असहज कर देता है। मेरी अच्छी तस्वीरें खींचना किसी भी फोटोग्राफर के लिए चुनौती हो सकता है।)
फिर जाज़ो ने मुझसे पूछा, Do you have a rocking chair? Or a study table where you sit and write?
मैंने कहा, मैं डायनिंग टेबल पर बैठकर लिखती हूं, या फिर बिस्तर पर बैठकर। रॉकिंग चेयर नहीं है। बांस का मूढ़ा है। उससे काम चले तो बताओ।
मूढ़ा आ गया और बेडरूम्स से फ्लोर मैट्स भी, जो कालीन की तरह बिछ गईं। मेरी तस्वीरें खींच गईं। जाज़ो ने अपना काम बहुत उत्साह से किया। वो जिस सहजता से मुझे मुस्कुराने के लिए कहता रहा, मैं उतनी ही सहजता से असहज होती रही। पंद्रह मिनट के संघर्ष के बाद उसने अपना कैमरा बंद कर दिया। मैंने पूछा नहीं कि तस्वीरें कैसी आई हैं, उसने बताया नहीं।
मुझे मालूम होता कि राईटर बनने के बाद ऐसे दिन भी देखने होते हैं, तो किताब छपवाने से पहले सौ बार सोचती। फोटो खिंचवाने से बड़ी embarrassment अभी झेलना बाकी है। मैग़जीन में छप जाने के बाद फोन कॉल्स और मेसेज की जो भरमार होती है उसका दंश झेलना मुश्किल होता है। उसमें तंज अधिक होता है, उत्साह कम। ऐसा लगता है जैसे अख़बार में आपके बारे में छप गया तो आपने बड़ी गलती कर दी।
ख़ैर, जाज़ो मुझे हमेशा याद रहेगा। और अपना पहला ऑफिशियल फोटो शूट भी। मैंने अपने पब्लिशर से कह दिया है कि जब मैं अपनी आत्मकथा लिखूं तो इस प्रकरण की याद ज़रूर दिलाएं। तीस साल बाद ऐसे छोटे-छोटे लम्हों का सोचकर बहुत मज़ा आएगा।
कल की एक और मज़ेदार घटना रॉय फिल्म देखना था। मैं इस बारे में ज़्यादा नहीं लिखूंगी। अपना वो दुख फिर कभी बांटूंगी।
इस बीच डॉयचे वेले इंटरनेशनल पर मेरा पहला ओप-एड कल लाइव हो गया। यहां से एक नया सफ़र शुरु हो रहा है।
लिंक ये रहा - http://www.dw.de/personal-take-in-search-of-refuge/a-18256650
शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2015
मॉर्निंग पेज ४ - बढ़ना कदम-कदम धीरे-धीरे
जैसे ही ब्लॉग खोलकर लिखने बैठी, बिजली चली गई । मॉर्निंग
पेज लिखने के लिए तकनीक का सहारा लो तो यही होता है। बात तो ये है कि दिल की भड़ास
निकालने के लिए किसी टूल की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए । जिस आसानी से कीपैड पर हाथ (और
उसके साथ दिमाग) चलता है, उतनी ही आसानी से कलम काग़ज़ पर शब्द उगलें तब तो कोई बात
हो ।
बहरहाल, कल का टार्गेट मैंने हासिल कर लिया। एक नई
कहानी भी लिखी (जो कल ऑक्सफोर्ड बुक स्टोर में वैलेंटाईन डे के मौके पर पढ़ी
जाएगी) और अपना पहला ओप-एड भी लिखकर भेज दिया । वो भी वक़्त पर । वो भी अंग्रेज़ी
भी । वो भी दो घंटे के भीतर ।
ओप-एड भेजते ही पहला ई-मेल उस बंदे का आया जिसने मुझसे
सीधे बात की थी । स्टिंकर था बिल्कुल । उसने आर्टिकल पढ़ा तक नहीं था और मेरे अगले ओप-एड
के आईडिया को पूरी तरह शूट डाउन कर दिया था । रात के साढ़े दस बजे ये ईमेल पढ़ते ही
मुझे लगा कि दिन का पूरा ज़ायका बिगड़ गया है । लेकिन
मैंने उसे तभी जवाब देने की ज़रूरत नहीं समझी । कभी-कभी रिएक्टिव न होना भी अच्छा होता
है । बल्कि हमेशा अच्छा होता है ।
सुबह उठी हूं तो उसकी बॉस का ईमेल देखा । उसे आईडिया
भी पसंद आए और पहला ओप-एड भी । वो आज ही उसे पब्लिश करना चाहती है । ये मेरे लिए बड़ा
सबक है । कई बार निजी और प्रोफेशनल ज़िन्दगियों में हम छोटी-छोटी बातों पर तुरंत
प्रतिक्रिया दे बैठते हैं । फिर अपने मन की कोई बात पूरी न हो तो उसके ख़िलाफ़ फिर
और रिएक्ट करते हैं । बात बनने की बजाए बिगड़ती चली जाती है, और फिर इस कदर बिगड़
जाती है कि हमें भीतर से तिक्त और नेगेटिव बनाती है ।
मुश्किल है, लेकिन अगर थोड़ी-सी कोशिश की जाए तो इन छोटी-छोटी
बातों पर ध्यान देना हमारे वजूद का हिस्सा बन जाता है । मैं अभी भी सोच रही हूं कि
कल रात एक ईमेल के जवाब में मैंने अपना सारा गुस्सा उसी तरह निकाल कर भेज दिया
होता, और लिख दिया होता कि मेरी ज़िन्दगी तुम्हारी बकवास और तुम्हारे ज्ञान, दोनों
के बग़ैर अच्छी चल रही है तो क्या होता?
ख़ैर, ये एक छोटी-सी जीत है ।
मुझे चार दिनों में ही मॉर्निंग पेज लिखने का फ़ायदा
दिखाई देने लगा है । मैं पहले घंटों स्क्रीन की ओर ताका करती थी । फिर कुछ नहीं
सूझता था तो यहां-वहां इंटरनेट पर भटकती रहती थी । दिन भर बैठे रहने के बाद भी काम
न के बराबर होता था ।
अब मैं बैठती कम हूं । जितनी देर बैठती हूं उसके हिसाब
से वैसी प्रॉडक्टिव नहीं हूं जितनी हो सकती हूं लेकिन हर रोज़ प्रॉडक्टिविटी इन्डेक्स
ऊपर जा रहा है । मुझे उम्मीद है कि मैं 'मम्मा की डायरी' इस महीने के अंत तक अपने
पब्लिशर को सौंप पाऊंगी, और फिर ख़ुद को पूरी तरह किताब से डिटैच भी कर लूंगी ।
मुझे इस बात की भी यकीन होने लगा है अब कि मेरे लैपटॉप के अलग-अलग फोल्डरों में
रखे हुए कई सारे अधूरे काम पूरे हो सकेंगे ।
फेसबुक पर लाडली अवॉर्ड्स की तस्वीरें देखकर बहुत
सारे लोग मुझे इन्बॉक्स कर रहे हैं । यहां तक कि कई सारे दोस्तों ने मुझे फोन भी
किया । मैं हंस देती हूं और कहती हूं कि फेसबुक पर जो दिखता है वो एक दहाई सच है । इन
मुस्कुराती तस्वीरों का लम्हा आधे घंटे का भी नहीं होता । उसकी पृष्ठभूमि में जो चल
रहा होता है, वो chaos और पागलपन बड़ा सच है । किसी भी किस्म की उपलब्धि की उम्र उसके पीछे (और उसके
आगे) जी जा रही ज़िन्दगी का बहुत छोटा सा हिस्सा होती है। सेलीब्रेशन अस्थायी होता
है, क्षणभंगुर । सफ़र और हर रोज़ का संघर्ष स्थायी है । हम इससे नहीं बनते कि हमारे
नाम छोटी-बड़ी उपलब्धियां कितनी हैं । हम इससे बनते हैं कि हर रोज़ हम जीते कैसे हैं ।
एक और बात नोटिस कर रही हूं मैं आजकल । मुझे शॉर्ट
फॉरमैट में लिखने की इतनी आदत हो गई है कि ठीक साढ़े छह शब्दों के बाद मेरी उंगलियां
और मेरा दिमाग, दोनों चलना बंद कर देते हैं । मैं ख़ुद से भी एक कॉन्वर्शेसन लंबे समय
तक नहीं खींच सकती ।
मेरी अगली चुनौती लंबे फॉर्मैट में लिख पाने की है ।
साढ़े सात बजने को हैं और दिन बहुत लंबा है । मुझे
आदित को लेकर पहले श्रॉफ आई सेंटर, दरियागंज जाना है और उसके बाद वापस उसे स्कूल
छोड़ना है ग्रेटर नोएडा । फिर मुझे लौटकर नोएडा आना है और एक फोटो शूट के लिए अपने ड्राइंग
रूम को तैयार करना है । मुझसे किसी ने पूछा कि क्या मैं किसी पीआर फर्म का सहारा ले
रही हूं? ऐसा क्यों है कि अचानक पब्लिक स्पेस में मैं हर जगह दिखाई दे रही हूं । मैंने
हंसकर कहा कि पीआर फर्म को देने लायक पैसे होते तो वो पैसे देकर मैंने अब तक अपनी (बहुत
खराब) कविताओं की कम-से-कम दो किताबें छपवा ली होंती । छपास की भूख भी शांत हो जाती
और कवि होने की ख़ुशफहमी मिलती, सो अलग । पब्लिक स्पेस में मैं इसलिए हूं क्योंकि
कोई भी मीडिया (या मंच) किसी एक म्यूज़ को पकड़ लेता है तो फिर जब तक उसका पूरी
तरह दोहन न कर ले, तब तक कोई भी डिस्कवरी सफल नहीं मानी जाती, न उसके रिसोर्स का सही इस्तेमाल होता है । पब्लिक मेमोरी होती
है छोटी, और मीडिया (अब सोशल मीडिया भी) यूज़ एंड थ्रो पर चलता है । स्टोरी निकालो,
छापो, दिखाओ और फिर भूल जाओ । मैं मीडिया में रही हूं, इसलिए ये बात अच्छी तरह
समझती हूं ।
आप कहां कहां और कैसे छप रहे हैं, आपके बारे में क्या
लिखा जा रहा है, वो भी अस्थायी है – मंच पर होनेवाले लम्हे की तरह। जो टिका रहेगा,
बचा रहेगा – आपके भीतर का अपना संतोष होगा । आपसे बेहतर आपकी क्षमता और आपके सफ़र
के पड़ावों को कोई नहीं जानता । अपना काम ईमानदारी से करना इकलौता संतोष है । उसके
साथ आने वाली आलोचनाएं, तीखी बातें, प्रतिक्रियाएं, वाहवाहियां, हैरानियां, सज्दे –
सब सकेंडरी, टर्शियरी बाई प्रॉडक्ट हैं । बाई प्रॉडक्ट की उम्र बहुत छोटी होती है ।
उसको लेकर भी एकभाव बने रहना चाहिए - equanimous ।
(और इस तरह मैंने साढ़े छह सौ शब्दों की सीमा पार कर
ली J)
गुरुवार, 12 फ़रवरी 2015
मॉर्निंग पेज ३ - बूंदों में नहीं, गहरे समंदर में
१४ फरवरी की दोपहर भरी भीड़ के सामने इश्क-मोहब्बत पर कुछ पढ़ना है, और मेरे हाथ-पैर अभी से ठंडे हो रहे हैं। मैं ख़ुद को लव पोएट या राईटर मानती ही नहीं। मुझसे प्यार की बातें नहीं लिखी जातीं (यूं तो आजकल कुछ भी नहीं लिखा जाता, लेकिन ख़ैर...)।
सोचा कि पुराने पन्नों से कुछ निकाल लूं और वही पढ़ डालूं। कमाल की बात है कि अपना ही लिखा हुआ एक साल बाद ही कितना पुराना, कितना बचकाना लगने लगता है। आपको अपने ही काम में कई सारी ग़लतियां दिखाई देने लगती हैं। लगता है कि इसे बेहतर, और बेहतर किया जा सकता है। हम अपने ही सबसे बड़े आलोचक बन जाया करते हैं।
अपने भीतर बैठा ये आलोचक कमाल का होता है। सबसे बड़ा मेन्टल ब्लॉक यही पैदा करता है। हम ये नहीं लिख सकते। हम अच्छा नहीं लिख सकते। इसको और बेहतर किया जा सकता था। इसमें नया क्या है? इसमें पुराना भी तो कुछ नहीं। भीतर बैठा आलोचक लगातार शोर मचाता रहता है।
यही वजह है कि हम लिखते-लिखते रह जाते हैं, और शोर के बदले ख़ामोशी चुन लेते हैं। बाहर तो इतना शोर है ही। अब अंदर के शोर को भी झेलना पड़े तो फिर हम बिना लिखा-पढ़ी किए ही ठीक हैं भैय्या। ये एक और मुसीबत कौन झेलेगा?
लेकिन लिखना एक किस्म का नशा होता है। लिखने से ज़्यादा उसपर मिलनेवाली प्रतिक्रियाओं की उम्मीद हैंगओवर बनाए रखती हैं। इसलिए लिखने के इस एडिक्शन से हम कभी निकल ही नहीं पाते। इसलिए शोर के बीच शब्द चुनने की आदत बन जाती है।
मसला ये है कि चुने गए शब्द और ख़्यालों में नयापन कैसे बचाए रखा जाए? मुझे तो लगता है कि दुनिया में कोई ऐसी बात है नहीं जो पहले कही न गई हो। कोई ऐसा आईडिया भी नहीं है जिसपर पहले काम न किया गया हो। फिर हम क्या अलग कर रहे हैं? जब हर घंटे कहानियां रची जा रही हैं, शब्द रिकॉर्ड किए जा रहे हैं, बातें हो ही रही हैं, तो फिर हमारे कहने का फ़ायदा?
जैसे हर इंसान एक-दूसरे से अलग होता है वैसे ही हर इंसान की आवाज़ और कहने का तरीका भी एक-दूसरे से अलग होता है। हम बेशक जीते वही हैं जो हमसे पहले और हमारे साथ की नस्लें जी रही हैं - लेकिन हमारे भीतर की ख़ुशी, शोक, संताप - ये सब निजी हैं। हर इंसान के लिए ख़ास। चांद-सूरज वही हैं लेकिन अलग-अलग नज़रों से देखे जा रहे हैं, इसलिए सबकीे एक्सप्रेशन का तरीका अलग-अलग होगा, ख़ास होगा। ये और बात है कि हर नज़र का सौंदर्यबोध और फिर हर नज़र से होकर उतरने वाली लम्हों की परछाईयां भी अलग होंगी, उनका असर भी अलग होगा।
मैं अक्सर सोचती हूं कि क्या सबको लिखना आ सकता है? क्या लिखना संगीत की तरह है? या फिर ललित कला के अन्य माध्यमों की तरह? क्या लिखने में रियाज़ की ज़रूरत नहीं पड़ती?
दुनिया में दो किस्मों के लोग होते हैं - पहली किस्म नैसर्गिक रूप से हुनरमंद लोगों की होती है। इनमें प्रतिभा पैदाईशी होती है, और एक न एक दिन ये पैदाईशी प्रतिभा तमाम पर्दों के पीछे से भी चमकती हुई दिखाई दे ही जाती है। दूसरे किस्म के वो लोग होते हैं जो शायद हुनरमंद नहीं होते लेकिन स्किल्ड होते हैं। वे लगातार अपनी मेहनत से, अपने जज्बे से, अपनी लगातार कोशिशों से अपने स्किल पर काम करते रहते हैं और उसे निखारते रहते हैं।
आप किस कैटगरी में आते हैं, ये ईमानदारी से समझना बहुत ज़रूरी होता है। (यूं तो आप न भी समझें, और इस बारे में कुछ न भी करें तो दुनिया को इससे कोई बहुत ज़्यादा फ़र्क़ पड़ने वाला है नहीं। इस दुनिया में बहुत अच्छे और बहुत बड़े करोड़ों सुखनवर आते हैं, और एक दिन चले जाते हैं)। लेकिन ये समझना बहुत ज़रूरी है कि आपकी ख़ुशी और आपका संतोष कहां टिकता है। वो कौन सा काम है जो आपको सही मायने में ख़ुशी देता है? वो कौन सी पहचान है जिसपर आपको वाकई फख़्र है?
मैं ये अच्छी तरह जानती हूं कि मैं लिखने की (या ख़ुद को अभिव्यक्त करने की) नैसर्गिक प्रतिभा के साथ पैदा नहीं हुई। मुझसे बेहतर कई और लोग हैं जो लिखें, इसकी वाकई दुनिया को ज़रूरत है। उनका शब्द-चयन बेहतर है। उनके पास विचारों की कमी नहीं। वे अधिकारपूर्ण तरीके से अपनी बात कह सकते हैं और निष्कर्ष देने का भी हक़ रखते हैं। लेकिन ये उनकी अभिव्यक्ति का तरीका है। मैं किस तरह और कितने लंबे समय तक अपनी बातों के सिरे ढूंढने की, उनमें नए ख़्यालों की गिरहें लगाने की कोशिश करती रहती हूं - ये मेरे लिए ज़्यादा अहम है। मुझसे हुनरमंद कई और हैं, इसलिए मुझे कोशिश ही नहीं करनी चाहिए - यही बात दुनिया के हर कलाकार ने कही होती तो हमारे पास कविताओं, कहानियों, नाटकों, फिल्मों, रंगों, शब्दों का भंडार न होता। सोशल मीडिया की ज़रूरत किसी को न पड़ती। हम एक-दूसरे से अपनी बातें कहने और उन्हें सुनने के प्यासे न होते।
ये ज़रूर लगता है अक्सर कि मैं गहरे उतरने से डरती हूं क्योंकि तैरना नहीं आता। इसलिए भी डरती हूं क्योंकि लगता है, डूबने पर मोती मिले न मिले, ज़हरीले सांप और बिच्छू ज़रूर मिलेंगे पानी के भीतर। इसलिए कई-कई महीनों तक पढ़ना छोड़ देती हूं। लिखना बंद कर देती हूं। मैदान छोड़ देना कितना आसान काम है, नहीं?
लेकिन फिर अंदर से कोई कोसता है। किस बात का डर है? अपनी मिडियॉक्रिटी का? किस बात का डर है? और सीखने से डरने का? किस बात का डर है? कि लोग हंसेंगे और कहेंगे कि इसे तो आता भी नहीं कुछ और चली है बड़ी तीसमार खां बनने। किस बात का डर है? कि भीतर और उतरूंगी कि बाहर से कटने लगूंगी?
ऐसे ही डर पाले रहते हैं हम। इन्हीं डरों के साथ जीते हैं, इसलिए सबसे पहले और सबसे आसानी से अपने सच से मुंह मोड़ लेते हैं। ये जो मॉर्निंग पेज है न, उसी डर की आंखों में आंखें डालकर देखने का ज़रिया है। मैं अगले एक महीने में कहां हूं - ये इन्हीं मॉर्निंग पन्नों से, इसी ब्लॉग से पता चल जाएगा। लेकिन फिलहाल तो अगले एक महीने ख़ुद के डर को बाहर निकालकर धीरे-धीरे पानी में घुसने की कोशिश करने जा रही हूं।
जिस दिन ज़िन्दगी के जहाज़ से छलांग लगाकर गहरे समंदर में डुबकी लेने के लिए तैयार हो जाऊंगी, यहीं इसी जगह ये बात रेकॉर्ड भी करूंगी। आज तो एक कहानी लिखनी है, और अपना पहला कॉलम - वो भी अंग्रेज़ी में। वो भी एक इंटरनेशनल वेबसाईट के लिए। देखें कहां तक और कैसे पहुंचते हैं। फिलहाल कल सुबह तक के लिए विदा।
सोचा कि पुराने पन्नों से कुछ निकाल लूं और वही पढ़ डालूं। कमाल की बात है कि अपना ही लिखा हुआ एक साल बाद ही कितना पुराना, कितना बचकाना लगने लगता है। आपको अपने ही काम में कई सारी ग़लतियां दिखाई देने लगती हैं। लगता है कि इसे बेहतर, और बेहतर किया जा सकता है। हम अपने ही सबसे बड़े आलोचक बन जाया करते हैं।
अपने भीतर बैठा ये आलोचक कमाल का होता है। सबसे बड़ा मेन्टल ब्लॉक यही पैदा करता है। हम ये नहीं लिख सकते। हम अच्छा नहीं लिख सकते। इसको और बेहतर किया जा सकता था। इसमें नया क्या है? इसमें पुराना भी तो कुछ नहीं। भीतर बैठा आलोचक लगातार शोर मचाता रहता है।
यही वजह है कि हम लिखते-लिखते रह जाते हैं, और शोर के बदले ख़ामोशी चुन लेते हैं। बाहर तो इतना शोर है ही। अब अंदर के शोर को भी झेलना पड़े तो फिर हम बिना लिखा-पढ़ी किए ही ठीक हैं भैय्या। ये एक और मुसीबत कौन झेलेगा?
लेकिन लिखना एक किस्म का नशा होता है। लिखने से ज़्यादा उसपर मिलनेवाली प्रतिक्रियाओं की उम्मीद हैंगओवर बनाए रखती हैं। इसलिए लिखने के इस एडिक्शन से हम कभी निकल ही नहीं पाते। इसलिए शोर के बीच शब्द चुनने की आदत बन जाती है।
मसला ये है कि चुने गए शब्द और ख़्यालों में नयापन कैसे बचाए रखा जाए? मुझे तो लगता है कि दुनिया में कोई ऐसी बात है नहीं जो पहले कही न गई हो। कोई ऐसा आईडिया भी नहीं है जिसपर पहले काम न किया गया हो। फिर हम क्या अलग कर रहे हैं? जब हर घंटे कहानियां रची जा रही हैं, शब्द रिकॉर्ड किए जा रहे हैं, बातें हो ही रही हैं, तो फिर हमारे कहने का फ़ायदा?
जैसे हर इंसान एक-दूसरे से अलग होता है वैसे ही हर इंसान की आवाज़ और कहने का तरीका भी एक-दूसरे से अलग होता है। हम बेशक जीते वही हैं जो हमसे पहले और हमारे साथ की नस्लें जी रही हैं - लेकिन हमारे भीतर की ख़ुशी, शोक, संताप - ये सब निजी हैं। हर इंसान के लिए ख़ास। चांद-सूरज वही हैं लेकिन अलग-अलग नज़रों से देखे जा रहे हैं, इसलिए सबकीे एक्सप्रेशन का तरीका अलग-अलग होगा, ख़ास होगा। ये और बात है कि हर नज़र का सौंदर्यबोध और फिर हर नज़र से होकर उतरने वाली लम्हों की परछाईयां भी अलग होंगी, उनका असर भी अलग होगा।
मैं अक्सर सोचती हूं कि क्या सबको लिखना आ सकता है? क्या लिखना संगीत की तरह है? या फिर ललित कला के अन्य माध्यमों की तरह? क्या लिखने में रियाज़ की ज़रूरत नहीं पड़ती?
दुनिया में दो किस्मों के लोग होते हैं - पहली किस्म नैसर्गिक रूप से हुनरमंद लोगों की होती है। इनमें प्रतिभा पैदाईशी होती है, और एक न एक दिन ये पैदाईशी प्रतिभा तमाम पर्दों के पीछे से भी चमकती हुई दिखाई दे ही जाती है। दूसरे किस्म के वो लोग होते हैं जो शायद हुनरमंद नहीं होते लेकिन स्किल्ड होते हैं। वे लगातार अपनी मेहनत से, अपने जज्बे से, अपनी लगातार कोशिशों से अपने स्किल पर काम करते रहते हैं और उसे निखारते रहते हैं।
आप किस कैटगरी में आते हैं, ये ईमानदारी से समझना बहुत ज़रूरी होता है। (यूं तो आप न भी समझें, और इस बारे में कुछ न भी करें तो दुनिया को इससे कोई बहुत ज़्यादा फ़र्क़ पड़ने वाला है नहीं। इस दुनिया में बहुत अच्छे और बहुत बड़े करोड़ों सुखनवर आते हैं, और एक दिन चले जाते हैं)। लेकिन ये समझना बहुत ज़रूरी है कि आपकी ख़ुशी और आपका संतोष कहां टिकता है। वो कौन सा काम है जो आपको सही मायने में ख़ुशी देता है? वो कौन सी पहचान है जिसपर आपको वाकई फख़्र है?
मैं ये अच्छी तरह जानती हूं कि मैं लिखने की (या ख़ुद को अभिव्यक्त करने की) नैसर्गिक प्रतिभा के साथ पैदा नहीं हुई। मुझसे बेहतर कई और लोग हैं जो लिखें, इसकी वाकई दुनिया को ज़रूरत है। उनका शब्द-चयन बेहतर है। उनके पास विचारों की कमी नहीं। वे अधिकारपूर्ण तरीके से अपनी बात कह सकते हैं और निष्कर्ष देने का भी हक़ रखते हैं। लेकिन ये उनकी अभिव्यक्ति का तरीका है। मैं किस तरह और कितने लंबे समय तक अपनी बातों के सिरे ढूंढने की, उनमें नए ख़्यालों की गिरहें लगाने की कोशिश करती रहती हूं - ये मेरे लिए ज़्यादा अहम है। मुझसे हुनरमंद कई और हैं, इसलिए मुझे कोशिश ही नहीं करनी चाहिए - यही बात दुनिया के हर कलाकार ने कही होती तो हमारे पास कविताओं, कहानियों, नाटकों, फिल्मों, रंगों, शब्दों का भंडार न होता। सोशल मीडिया की ज़रूरत किसी को न पड़ती। हम एक-दूसरे से अपनी बातें कहने और उन्हें सुनने के प्यासे न होते।
ये ज़रूर लगता है अक्सर कि मैं गहरे उतरने से डरती हूं क्योंकि तैरना नहीं आता। इसलिए भी डरती हूं क्योंकि लगता है, डूबने पर मोती मिले न मिले, ज़हरीले सांप और बिच्छू ज़रूर मिलेंगे पानी के भीतर। इसलिए कई-कई महीनों तक पढ़ना छोड़ देती हूं। लिखना बंद कर देती हूं। मैदान छोड़ देना कितना आसान काम है, नहीं?
लेकिन फिर अंदर से कोई कोसता है। किस बात का डर है? अपनी मिडियॉक्रिटी का? किस बात का डर है? और सीखने से डरने का? किस बात का डर है? कि लोग हंसेंगे और कहेंगे कि इसे तो आता भी नहीं कुछ और चली है बड़ी तीसमार खां बनने। किस बात का डर है? कि भीतर और उतरूंगी कि बाहर से कटने लगूंगी?
ऐसे ही डर पाले रहते हैं हम। इन्हीं डरों के साथ जीते हैं, इसलिए सबसे पहले और सबसे आसानी से अपने सच से मुंह मोड़ लेते हैं। ये जो मॉर्निंग पेज है न, उसी डर की आंखों में आंखें डालकर देखने का ज़रिया है। मैं अगले एक महीने में कहां हूं - ये इन्हीं मॉर्निंग पन्नों से, इसी ब्लॉग से पता चल जाएगा। लेकिन फिलहाल तो अगले एक महीने ख़ुद के डर को बाहर निकालकर धीरे-धीरे पानी में घुसने की कोशिश करने जा रही हूं।
जिस दिन ज़िन्दगी के जहाज़ से छलांग लगाकर गहरे समंदर में डुबकी लेने के लिए तैयार हो जाऊंगी, यहीं इसी जगह ये बात रेकॉर्ड भी करूंगी। आज तो एक कहानी लिखनी है, और अपना पहला कॉलम - वो भी अंग्रेज़ी में। वो भी एक इंटरनेशनल वेबसाईट के लिए। देखें कहां तक और कैसे पहुंचते हैं। फिलहाल कल सुबह तक के लिए विदा।
बुधवार, 11 फ़रवरी 2015
मॉर्निंग पेज २ - आप के आ जाने से
दिल्ली इतिहासकारों की प्रिय नगरी रही है। समाजशास्त्रियों, राजनीतिविज्ञों और चुनाव विशेषज्ञों की भी। लेकिन दिल्ली ने सात फरवरी को कुछ ऐसा किया कि दिल्लीवालों को एक बार फिर इस शहर पर प्यार आ गया होगा। आप की सरकार की सबको उम्मीद थी, इस तरह सत्ताधारी पार्टियों को, दिग्गजों को ये शहर बेआबरू करके अपने कूचे से निकालेगा, ये किसी ने न सोचा होगा। किसी एक्ज़िट पोल ने आप को पैंतालीस से ऊपर की सीटें देने की हिम्मत नहीं की थी। या तो विश्लेषण करने वाले डरते हैं या ये जम्हूरियत कमाल की है कि ख़ामोश रहती है लेकिन मन ही मन दृढ़ निश्चय कुछ और करती है।
लेकिन दिल्लीवालों ने सच में लोकतंत्र पर भरोसा कायम कर दिया है। अचानक लग रहा है कि सत्ता पलटने की ताक़त वाकई वोटरों के हाथ में होती है और इस ताक़त को रसूख और पैसे से न तौला जा सकता है न खरीदा जा सकता है।
जब शहर नया इतिहास रच रहा था तो मैं कल कहां थी? साढ़े नौ बजे की मेट्रो ली थी मैंने, करोलबाग के लिए, ताकि डॉ नीरू कुमार से ग्यारह बजे का जो अप्वाइंटमेंट था - उसको निभा सकूं। एक अजीब किस्म का उल्लास था रिक्शा लेते हुए। एक तो फरवरी मेहरबान है, इसलिए मन (और दिमाग, दोनों) खुलने लगे हैं। जाड़े को विदाई देते हुए मुझे उतनी ही खुशी मिलती है जितनी बच्चों की बीमारी में उनकी देखभाल के बाद उनकी सुधरती हुई सेहत को देखकर होती है। लगता है, दुख और संताप के दिन बीते तो हंसने-खेलने के दिन आएंगे। फरवरी मेरे साथ यही करता है, निचिरिन दाईशोनिन के लिखे गोशो पैसेज - Winter always turns into spring - पर मेरे भरोसे को और अटल, अकाट्य बनाता है।
ख़ैर, जाड़ा बसंत में तब्दील हो रहा है और यही उम्मीद दिल्ली के लिए भी हो रही थी कल। मेरे पास स्मार्टफोन नहीं है, इसलिए मैं रिज़ल्ट की पल-पल की ख़बर पर नज़र नहीं रख पा रही थी। लेकिन मेट्रो में इसकी ज़रूरत ही किसको थी? मैंने लेडीज़ कूपे की आख़िरी सीट पकड़ ली। उससे आपका एक पैर लेडिजो के बीच होने की सुरक्षा में आपको रखता है तो कान जो है, वो जनरल डिब्बे की मज़ेदार बातों और हरकतों को रिकॉर्ड करते रहते हैं।
आप की जीत ने मेट्रो में चल रहे आधे डिब्बे को आप के वॉल्न्टियर में बदल दिया था। मैंने कम से कम सात लोगों से सुना कि वे फलां-फलां जगह से आप के वॉलन्टियर हैं, और अब जब नतीजे आ गए हैं तो पटेल नगर जा रहे हैं - वहीं, जहां फ्लैश डांस करते हुए बाकी के युवा वॉलन्टियर टीवी स्क्रीनों पर छाए हुए हैं।
बड़ा बदलाव और विकास क्या होता है, कौन जानता है? ये 'विकास' असल में होगा कब, ये भी कौन जानता है? बदलाव के चेहरे पर क्या फ्लाईओवरों की झुर्रियां होती हैं? या मेट्रो लाइनों की कटी-फटी लकीरें? कौन जानता है कि कांग्रेस जो बदलाव लाती रही है इतने साल, और बीजेपी जिस विकास के होने का दावा करती रही है उससे आप का बदलाव और विकास अलग होगा?
लेकिन ये देखिए कि अगर किसी पार्टी के कार्यकर्ता कॉलेज जाने वाले लड़के-लड़कियां हों, दफ़्तरों में अपनी पहली या दूसरी नौकरी कर रहे तीस-पैंतीस साल के युवा हों और जो जीत का जश्न मनाने मेट्रो से जा रहे हों तो कुछ तो बदला ही होगा न? वरना हम पूरी उम्र एसयूवी में घूमते पार्टी कार्यकर्ताओं को देखते रहे हैं। यही देखा है कि विधायक जी और वोटर का रिश्ता पोलिंग बूथ से निकलते ही ख़त्म हो जाता है। जो मुट्ठीभर लोग विधायक जी के आंगन और दरबार तक पहुंच पाते हैं, सिफ़ारिशी चिट्ठियों और फोन कॉल्स के ज़रिए पहुंचते हैं।
मैं उम्मीद की पैरोकार हूं। दिनभर उम्मीद के टुकड़े ढूंढती हूं। यहां-वहां भटकती रहती हूं कि रिश्तों में, परिवारों में, सड़कों पर, अख़बारों में उम्मीद ढूंढ सकूं और उसे बचाकर रख सकूं। दिल जहां डूबने की गुस्ताख़ी करने लगता है, उसे बचाने की कोशिश में किताबों में डुबकियां मारती हूं, उन लोगों से मिलती हूं जो दिल के डॉक्टर है, हैप्पीनेस के डॉक्टर हैं और ज़िन्दगी के तमाम संघर्षों के बाद भी अपने चेहरे पर मुस्कान बचाए रखते हैं।
मेरे जैसे घनघोर उम्मीदवादियों के लिए आप की सरकार लोकतंत्र की उम्मीद है। जिस तरह दिल्ली ने वोट दिया उससे साबित हो गया कि लोकतंत्र में कोई किला अभेद्य नहीं होता, और कोई इन्विन्सिबल नहीं होता। सत्ता की बदगुमानी में डूबते-डूबते सत्ताधारी भूलने लगते हैं कि पांच साल का वक़्त बहुत ज़्यादा नहीं होता। कुर्सी भले उनके नीचे हो, उस कुर्सी के पाए में बंधी रस्सी कहीं और है। अहंकार और ओवर कॉन्फिडेंस ले डूबता है।
मुझे नहीं मालूम बीजेपी के दफ़्तर में क्विंटल के भाव से मंगाई गई हरी-सफेद-केसरिया बर्फियों का क्या हुआ, लेकिन इस बार अपने-अपने चूल्हों पर गाजर का हलवा तो चढ़ाना बनता है। पांच साल में कितने झटके लगेंगे और कितनी वाहवाहियां मिलेंगी, उसके लिए ख़ुद को तैयार तो कर लिया जाए। और जब तैयारी करनी ही है तो मुंह मीठा करके, कैलोरी जमा करके की जाए। ये तो तय मानिए कि दिल्ली में अगले पांच साल बहुत ही हैपनिंग होने वाले हैं।
ऐसा नहीं कि घनघोर उम्मीदवादी कभी दिमाग से नहीं सोचता। इसलिए, मुझे साहिर लुधियानवी की एक नज़्म याद आ रही है। पूरी नज़्म याद नहीं इसलिए गूगल करके कॉपी पेस्ट कर रही हूं। लेकिन अभी के हालात के लिए इससे माकूल और कुछ न हो शायद।
ये शाख-ए-नूर जिसे ज़ुल्मतों में सींचा है
अगर फली को शरारों के फूल लाएगी
न फल सकी तो नई फ़स्ल-ए-गुल के आने तक
ज़मीर-ए-अर्ज़ में एक ज़हर छोड़ जाएगी
लेकिन दिल्लीवालों ने सच में लोकतंत्र पर भरोसा कायम कर दिया है। अचानक लग रहा है कि सत्ता पलटने की ताक़त वाकई वोटरों के हाथ में होती है और इस ताक़त को रसूख और पैसे से न तौला जा सकता है न खरीदा जा सकता है।
जब शहर नया इतिहास रच रहा था तो मैं कल कहां थी? साढ़े नौ बजे की मेट्रो ली थी मैंने, करोलबाग के लिए, ताकि डॉ नीरू कुमार से ग्यारह बजे का जो अप्वाइंटमेंट था - उसको निभा सकूं। एक अजीब किस्म का उल्लास था रिक्शा लेते हुए। एक तो फरवरी मेहरबान है, इसलिए मन (और दिमाग, दोनों) खुलने लगे हैं। जाड़े को विदाई देते हुए मुझे उतनी ही खुशी मिलती है जितनी बच्चों की बीमारी में उनकी देखभाल के बाद उनकी सुधरती हुई सेहत को देखकर होती है। लगता है, दुख और संताप के दिन बीते तो हंसने-खेलने के दिन आएंगे। फरवरी मेरे साथ यही करता है, निचिरिन दाईशोनिन के लिखे गोशो पैसेज - Winter always turns into spring - पर मेरे भरोसे को और अटल, अकाट्य बनाता है।
ख़ैर, जाड़ा बसंत में तब्दील हो रहा है और यही उम्मीद दिल्ली के लिए भी हो रही थी कल। मेरे पास स्मार्टफोन नहीं है, इसलिए मैं रिज़ल्ट की पल-पल की ख़बर पर नज़र नहीं रख पा रही थी। लेकिन मेट्रो में इसकी ज़रूरत ही किसको थी? मैंने लेडीज़ कूपे की आख़िरी सीट पकड़ ली। उससे आपका एक पैर लेडिजो के बीच होने की सुरक्षा में आपको रखता है तो कान जो है, वो जनरल डिब्बे की मज़ेदार बातों और हरकतों को रिकॉर्ड करते रहते हैं।
आप की जीत ने मेट्रो में चल रहे आधे डिब्बे को आप के वॉल्न्टियर में बदल दिया था। मैंने कम से कम सात लोगों से सुना कि वे फलां-फलां जगह से आप के वॉलन्टियर हैं, और अब जब नतीजे आ गए हैं तो पटेल नगर जा रहे हैं - वहीं, जहां फ्लैश डांस करते हुए बाकी के युवा वॉलन्टियर टीवी स्क्रीनों पर छाए हुए हैं।
बड़ा बदलाव और विकास क्या होता है, कौन जानता है? ये 'विकास' असल में होगा कब, ये भी कौन जानता है? बदलाव के चेहरे पर क्या फ्लाईओवरों की झुर्रियां होती हैं? या मेट्रो लाइनों की कटी-फटी लकीरें? कौन जानता है कि कांग्रेस जो बदलाव लाती रही है इतने साल, और बीजेपी जिस विकास के होने का दावा करती रही है उससे आप का बदलाव और विकास अलग होगा?
लेकिन ये देखिए कि अगर किसी पार्टी के कार्यकर्ता कॉलेज जाने वाले लड़के-लड़कियां हों, दफ़्तरों में अपनी पहली या दूसरी नौकरी कर रहे तीस-पैंतीस साल के युवा हों और जो जीत का जश्न मनाने मेट्रो से जा रहे हों तो कुछ तो बदला ही होगा न? वरना हम पूरी उम्र एसयूवी में घूमते पार्टी कार्यकर्ताओं को देखते रहे हैं। यही देखा है कि विधायक जी और वोटर का रिश्ता पोलिंग बूथ से निकलते ही ख़त्म हो जाता है। जो मुट्ठीभर लोग विधायक जी के आंगन और दरबार तक पहुंच पाते हैं, सिफ़ारिशी चिट्ठियों और फोन कॉल्स के ज़रिए पहुंचते हैं।
मैं उम्मीद की पैरोकार हूं। दिनभर उम्मीद के टुकड़े ढूंढती हूं। यहां-वहां भटकती रहती हूं कि रिश्तों में, परिवारों में, सड़कों पर, अख़बारों में उम्मीद ढूंढ सकूं और उसे बचाकर रख सकूं। दिल जहां डूबने की गुस्ताख़ी करने लगता है, उसे बचाने की कोशिश में किताबों में डुबकियां मारती हूं, उन लोगों से मिलती हूं जो दिल के डॉक्टर है, हैप्पीनेस के डॉक्टर हैं और ज़िन्दगी के तमाम संघर्षों के बाद भी अपने चेहरे पर मुस्कान बचाए रखते हैं।
मेरे जैसे घनघोर उम्मीदवादियों के लिए आप की सरकार लोकतंत्र की उम्मीद है। जिस तरह दिल्ली ने वोट दिया उससे साबित हो गया कि लोकतंत्र में कोई किला अभेद्य नहीं होता, और कोई इन्विन्सिबल नहीं होता। सत्ता की बदगुमानी में डूबते-डूबते सत्ताधारी भूलने लगते हैं कि पांच साल का वक़्त बहुत ज़्यादा नहीं होता। कुर्सी भले उनके नीचे हो, उस कुर्सी के पाए में बंधी रस्सी कहीं और है। अहंकार और ओवर कॉन्फिडेंस ले डूबता है।
मुझे नहीं मालूम बीजेपी के दफ़्तर में क्विंटल के भाव से मंगाई गई हरी-सफेद-केसरिया बर्फियों का क्या हुआ, लेकिन इस बार अपने-अपने चूल्हों पर गाजर का हलवा तो चढ़ाना बनता है। पांच साल में कितने झटके लगेंगे और कितनी वाहवाहियां मिलेंगी, उसके लिए ख़ुद को तैयार तो कर लिया जाए। और जब तैयारी करनी ही है तो मुंह मीठा करके, कैलोरी जमा करके की जाए। ये तो तय मानिए कि दिल्ली में अगले पांच साल बहुत ही हैपनिंग होने वाले हैं।
ऐसा नहीं कि घनघोर उम्मीदवादी कभी दिमाग से नहीं सोचता। इसलिए, मुझे साहिर लुधियानवी की एक नज़्म याद आ रही है। पूरी नज़्म याद नहीं इसलिए गूगल करके कॉपी पेस्ट कर रही हूं। लेकिन अभी के हालात के लिए इससे माकूल और कुछ न हो शायद।
ये शाख-ए-नूर जिसे ज़ुल्मतों में सींचा है
अगर फली को शरारों के फूल लाएगी
न फल सकी तो नई फ़स्ल-ए-गुल के आने तक
ज़मीर-ए-अर्ज़ में एक ज़हर छोड़ जाएगी
मंगलवार, 10 फ़रवरी 2015
मॉर्निंग पेज १ - क्योंकि बहना ज़रूरी है
जुलिया कैमरॉन की किताब 'द आर्टिस्ट्स वे' मैंने अपने मुश्किल दिनों में पढ़ी थी। वैसे मुश्किल दिनों की एक ख़ासियत होती है। चूंकि उनका वास्ता हमारे मन, हमारी सोच से होता है, इसलिए वे ताउम्र बने रहते हैं। वैसे वो वाले मुश्किल दिन कुछ और तरह से मुश्किल थे। मुझे लगने लगा था कि मुझे न कोई बात कहनी आ रही है, न लिखना आ रहा है।
चारेक साल पहले की बात होती ये। मई-जून की होंठ सुखाती, पसीना चुआती गर्मी में मैं पूर्णिया में थी, और औचक जूलिया कैमरॉन की शरण में चली गई थी। पहली बार किताब के बारे में गोवा की एक राईटर विनीता कोएल्हो ने बताया था। विनीता कई सारी फिल्में, टीवी सीरियल और बच्चों की किताबें लिख चुकने के बाद गोवा के किसी गांव में घर खरीदकर बहुत ही प्यार से अपनी बेटी, कुत्ते, बिल्ली और नया शौक - पेंटिंग - पाल रही थीं। मैं उन दिनों भटकी हुई थी - एक दम कन्फ्यूज्ड। दफ़्तर और नौकरी से बेघर। जुड़वां बच्चों को पालते हुए अपनी ज़िन्दगी का पता ढूंढती।
विनीता के घर में, विनीता की ही रसोई में, विनीता की ही ज़िन्दगी की बातें करते, विनीता के हाथों की चाय पीते हुए मैंने अपने लिए सोचा था - अनु सिंह, ये जीना भी कोई जीना है लल्लू? कुछ करो अपना नहीं तो यूं ही ज़िन्दगी ज़ाया होती रहेगी।
पता नहीं कौन सा जीना जीना होता है, लेकिन मैंने दिल्ली पहुंचते ही सबसे पहले जुलिया कैमरॉन की वो किताब खरीद ली थी, इस उम्मीद में कि किताब पढ़कर मैं विनीता की तरह गोवा में घर खरीद सकूं या नहीं, कम से कम उसकी तरह राईटर तो पक्का बन जाऊंगी। ये और बात है कि किताब दो महीने बाद पूर्णिया जाकर निकली -गर्मी छुट्टी में, क्योंकि वहां वक़्त बहुत था, काम बहुत कम थे, और पढ़ने को किताबें न के बराबर थीं।
किताब में पहले चैप्टर में ही आपसे एक वायदा लिया जाता है, कि आप हर सुबह मॉर्निंग पेज लिखेंगी। आंख खुलते ही पहली चीज़ वही करेंगी आप। और मॉर्निंग पेज एकदम अनसेन्सर्ड होगा। कुछ न लिखा जाए तो चार पन्ने यही लिखें कि कुछ नहीं लिखा जा रहा। लेकिन लिखें ज़रूर। जुलिया इसे मेडिटेटिंग ऑन पेपर कहती हैं।
बड़ी मुश्किल था इन मॉर्निंग पन्नों का लिखना। अव्वल तो सुबह उठते ही कोई काग़ज़ कलम लेकर कैसे बैठ जाए? सौ तो काम होते हैं यहां। मेरी तो आंख खुलती ही तब है जब बच्चों को जगाने का वक़्त हो रहा हो। सारे काम सुबह-सुबह याद आते हैं। दूध नहीं उबाला। यूनिफॉर्म की शर्ट आयरन नहीं हुई है। जूते पॉलिश नहीं किए गए। फोन चार्ज नहीं है। अईय्यो, मुझे तो योग और प्राणायाम भी करना था। ये लो कर लो बात, चाय के बिना दिमाग भी चलता है भला? और सुनो, उठते ही पहले बाथरूम में घुसते हैं कि पहले लैपटॉप (या डायरी-पेन) लेकर बैठ जाते हैं?
एक हफ्ते की कोशिश के बाद मैंने वक़्त से आधे घंटे पहले उठना शुरु कर दिया, ताकि मॉर्निंग पेज का वायदा पूरा कर सकूं। बच्चे बिस्तर से आवाज़ लगाते। दूध उबल कर गिर गया होता। दो-एक दिन तो बस छूटने की नौबत भी आ गई। फिर भी पन्नों पर भड़ास निकालने का सिलसिला कायम रहा। कई बार ये कोशिश जगने से लेकर बच्चों को स्कूल भेजकर आने के बाद तक चलती रहती।
इस कोशिश का नतीजा क्या निकला? मैंने कुछ कहानियां लिखीं। मैंने एक स्क्रिप्ट लिखी -पूरे सौ पन्नों की। मैंने वापस ब्लॉग लिखना शुरु किया और ख़ूब लिखा।
मॉर्निंग पेज मेरे भीतर की सफाई करने का ज़रिया बन गया। मैं जब अनसेन्सर्ड लिखती थी तो पहले ख़ूब सारी शिकायतें लिखती थी। मेरे भीतर की नाराज़गी उतरती थी पन्ने पर। मुझे ज़मीन से, आसमान से, घर से, बाहर से, ख़ुद से, इससे, उससे, सबसे एक हज़ार शिकायतें थीं। मुझे लगता था कि पूरी कायनात मेरे ख़िलाफ़ मेरी बर्बादी की साज़िश रच रही है। मौसम का कोई और मौसम हो जाना भी ख़ुद पर ढाया हुआ ख़ुदा का ज़ुल्म लगता था।
मॉर्निंग पेज लिखते-लिखते मुझे कायनात की कमियों में अपनी कमियां नज़र आने लगी। दिखने लगा कि जो दिखता है, दरअसल वो दिखता इसलिए है क्योंकि हमारी आंखें वहीं देखना चाहती हैं। समझ में आने लगा कि कोई और नहीं (मौसम भी नहीं, मौला भी नहीं) होता हमारे हालातों का ज़िम्मेदार। जो किया-धरा होता है, हमारा ही किया-धरा होता है। लोग हम चुनते हैं, फ़ैसले हम लेते हैं। करते हम वही हैं जो करना चाहते हैं। नहीं करना चाहते तो भी करते हैं, क्योंकि अपनी हरकतों के लिए पचहत्तर जस्टिफिकेशन देने वाले भी हम ही होते हैं। तो फिर किस ख़ुदा को आवाज़ लगाते हैं? किसकी मसीहाई मांगते हैं? जब अच्छे कर्मों के नतीजों का हार अपने गले में लटकाए फिरते हैं दुनिया भर को दिखाने के लिए, तो चुभनेवाले लम्हों के कांटे भी तो अपने ही बोए हुए होते होंगे न?
समझ आ गई तो ऐसा नहीं कि ग़लतियां करना बंद कर दिया मैंने। ग़लतियां रोज़ होती थीं, रोज़ सुधरने का वायदा करती थी पन्ने पर ख़ुद से।
मॉर्निंग पेज का लिखना ख़ुद को कॉफी पिलाने के लिए, अपनी ही बातें सुनने के लिए डेट पर ले जाने जैसा लगने लगा। दिमाग जो कहता, मैं उसे लिखती जाती। यूं कि जैसे अपनी ही सुन रही हूं। और फिर ख़ुद से ख़ुद की बातों का सिलसिला चल पड़ता। दिमाग़ प्रॉबलम्स गिनाता, मॉर्निंग पेज पर मैं उसे सॉल्यूशन दिखाती। दिमाग़ कहता, क्या फ़ायदा? मैं कहती - कोई कोशिश बेकार नहीं जाती। दिमाग़ कहता - किसके लिए? मैं कहती - ख़ुद को बचा लेने से बड़ा ख़ुद के लिए कोई और क्या तोहफ़ा होगा?
और फिर एक दिन जब सब ठीक लगने लगा तो मॉर्निंग पेज लिखना बंद कर दिया।
हम सारे काम ज़रूरत के हिसाब से ही तो करते हैं। रिश्ते भी अपनी ज़रूरत के हिसाब से बनाते-तोड़ते हैं। ख़ुद से रिश्ता बनाया था क्योंकि उस वक़्त ख़ुद को संभालने की ज़रूरत थी। भीतर की आवाज़ को सहेजना ज़रूरी था। ज़िन्दगी पटरी पर आई (और कुछ दोस्त मिल गए) तो वो ज़रूरत ख़त्म हो गई।
मॉर्निंग पेज की याद इसलिए आई है क्योंकि फिर ज़रूरत महसूस होने लगी है सफाई की। अपनी ही बात सुनना फिर से ज़रूरी हो गया है। दिल लगाकर काम करने को कहते हैं सब। लेकिन दिल कहता क्या है, ये सुनने की फ़ुर्सत किसे होती है?
इस बार मैं पब्लिक प्लैटफॉर्म पर अन्सेन्सर्ड लिखने की ज़ुर्रत कर रही हूं। इस बार सारे मॉर्निंग पेज ब्लॉग पर लिखे जाएंगे। दिल क्या कहता है, ये मैं भी सुनूंगी और मेरे बच्चों के लिए भी दिल की बातें रिकॉर्ड की जाएंगी, लिखी जाएंगी।
लिखना उन सारी बातों और कहानियों को शब्द देने का ज़रिया होता है जिन्हें किसी और तरह शायद कभी कहा नहीं जा सकेगा। कहानियां रचनेवाला अपने किरदारों के ज़रिए कुफ़्र की बातें लिखता है, अनकम्फर्टेबल सवाल पूछता है। अपने शब्दों में अपने सबसे बड़े डर को रचता है। इस लिहाज़ से रचने वाले के पास तो दैवीय ताक़त होती है। जो बात लिखी न जा सके, वो अपने भीतर का सबसे बड़ा झूठ होता है। उसी झूठ से निजात पाकर ही हम अपने सबसे शुद्ध रूप के करीब होते हैं। सच और क्या है सिवाय हिम्मत के? सच और क्या है सिवाय अपने ही सामने आईना रख अपनी ही आंखों में देखकर उलटे-सीधे सवाल पूछने के?
जब तक भीतर से झूठ का मैल निकलेगा नहीं, कुछ और लिखना, ईमानदारी से लिखना मुश्किल होगा। इसलिए मॉर्निंग पेज की शरण में जा रही हूं। जूलिया कैमरॉन, पता नहीं तुम दुनिया के किस कोने में रहती हो। लेकिन सच कहती हो कि क्रिएटिव रिकवरी की प्रक्रिया ताउम्र चलती रहनी चाहिए। बहना ज़रूरी है, नहीं तो ज़िन्दगी की तलछट में काई जमने का ख़तरा बना रहता है।
http://juliacameronlive.com/basic-tools/morning-pages/
चारेक साल पहले की बात होती ये। मई-जून की होंठ सुखाती, पसीना चुआती गर्मी में मैं पूर्णिया में थी, और औचक जूलिया कैमरॉन की शरण में चली गई थी। पहली बार किताब के बारे में गोवा की एक राईटर विनीता कोएल्हो ने बताया था। विनीता कई सारी फिल्में, टीवी सीरियल और बच्चों की किताबें लिख चुकने के बाद गोवा के किसी गांव में घर खरीदकर बहुत ही प्यार से अपनी बेटी, कुत्ते, बिल्ली और नया शौक - पेंटिंग - पाल रही थीं। मैं उन दिनों भटकी हुई थी - एक दम कन्फ्यूज्ड। दफ़्तर और नौकरी से बेघर। जुड़वां बच्चों को पालते हुए अपनी ज़िन्दगी का पता ढूंढती।
विनीता के घर में, विनीता की ही रसोई में, विनीता की ही ज़िन्दगी की बातें करते, विनीता के हाथों की चाय पीते हुए मैंने अपने लिए सोचा था - अनु सिंह, ये जीना भी कोई जीना है लल्लू? कुछ करो अपना नहीं तो यूं ही ज़िन्दगी ज़ाया होती रहेगी।
पता नहीं कौन सा जीना जीना होता है, लेकिन मैंने दिल्ली पहुंचते ही सबसे पहले जुलिया कैमरॉन की वो किताब खरीद ली थी, इस उम्मीद में कि किताब पढ़कर मैं विनीता की तरह गोवा में घर खरीद सकूं या नहीं, कम से कम उसकी तरह राईटर तो पक्का बन जाऊंगी। ये और बात है कि किताब दो महीने बाद पूर्णिया जाकर निकली -गर्मी छुट्टी में, क्योंकि वहां वक़्त बहुत था, काम बहुत कम थे, और पढ़ने को किताबें न के बराबर थीं।
किताब में पहले चैप्टर में ही आपसे एक वायदा लिया जाता है, कि आप हर सुबह मॉर्निंग पेज लिखेंगी। आंख खुलते ही पहली चीज़ वही करेंगी आप। और मॉर्निंग पेज एकदम अनसेन्सर्ड होगा। कुछ न लिखा जाए तो चार पन्ने यही लिखें कि कुछ नहीं लिखा जा रहा। लेकिन लिखें ज़रूर। जुलिया इसे मेडिटेटिंग ऑन पेपर कहती हैं।
बड़ी मुश्किल था इन मॉर्निंग पन्नों का लिखना। अव्वल तो सुबह उठते ही कोई काग़ज़ कलम लेकर कैसे बैठ जाए? सौ तो काम होते हैं यहां। मेरी तो आंख खुलती ही तब है जब बच्चों को जगाने का वक़्त हो रहा हो। सारे काम सुबह-सुबह याद आते हैं। दूध नहीं उबाला। यूनिफॉर्म की शर्ट आयरन नहीं हुई है। जूते पॉलिश नहीं किए गए। फोन चार्ज नहीं है। अईय्यो, मुझे तो योग और प्राणायाम भी करना था। ये लो कर लो बात, चाय के बिना दिमाग भी चलता है भला? और सुनो, उठते ही पहले बाथरूम में घुसते हैं कि पहले लैपटॉप (या डायरी-पेन) लेकर बैठ जाते हैं?
एक हफ्ते की कोशिश के बाद मैंने वक़्त से आधे घंटे पहले उठना शुरु कर दिया, ताकि मॉर्निंग पेज का वायदा पूरा कर सकूं। बच्चे बिस्तर से आवाज़ लगाते। दूध उबल कर गिर गया होता। दो-एक दिन तो बस छूटने की नौबत भी आ गई। फिर भी पन्नों पर भड़ास निकालने का सिलसिला कायम रहा। कई बार ये कोशिश जगने से लेकर बच्चों को स्कूल भेजकर आने के बाद तक चलती रहती।
इस कोशिश का नतीजा क्या निकला? मैंने कुछ कहानियां लिखीं। मैंने एक स्क्रिप्ट लिखी -पूरे सौ पन्नों की। मैंने वापस ब्लॉग लिखना शुरु किया और ख़ूब लिखा।
मॉर्निंग पेज मेरे भीतर की सफाई करने का ज़रिया बन गया। मैं जब अनसेन्सर्ड लिखती थी तो पहले ख़ूब सारी शिकायतें लिखती थी। मेरे भीतर की नाराज़गी उतरती थी पन्ने पर। मुझे ज़मीन से, आसमान से, घर से, बाहर से, ख़ुद से, इससे, उससे, सबसे एक हज़ार शिकायतें थीं। मुझे लगता था कि पूरी कायनात मेरे ख़िलाफ़ मेरी बर्बादी की साज़िश रच रही है। मौसम का कोई और मौसम हो जाना भी ख़ुद पर ढाया हुआ ख़ुदा का ज़ुल्म लगता था।
मॉर्निंग पेज लिखते-लिखते मुझे कायनात की कमियों में अपनी कमियां नज़र आने लगी। दिखने लगा कि जो दिखता है, दरअसल वो दिखता इसलिए है क्योंकि हमारी आंखें वहीं देखना चाहती हैं। समझ में आने लगा कि कोई और नहीं (मौसम भी नहीं, मौला भी नहीं) होता हमारे हालातों का ज़िम्मेदार। जो किया-धरा होता है, हमारा ही किया-धरा होता है। लोग हम चुनते हैं, फ़ैसले हम लेते हैं। करते हम वही हैं जो करना चाहते हैं। नहीं करना चाहते तो भी करते हैं, क्योंकि अपनी हरकतों के लिए पचहत्तर जस्टिफिकेशन देने वाले भी हम ही होते हैं। तो फिर किस ख़ुदा को आवाज़ लगाते हैं? किसकी मसीहाई मांगते हैं? जब अच्छे कर्मों के नतीजों का हार अपने गले में लटकाए फिरते हैं दुनिया भर को दिखाने के लिए, तो चुभनेवाले लम्हों के कांटे भी तो अपने ही बोए हुए होते होंगे न?
समझ आ गई तो ऐसा नहीं कि ग़लतियां करना बंद कर दिया मैंने। ग़लतियां रोज़ होती थीं, रोज़ सुधरने का वायदा करती थी पन्ने पर ख़ुद से।
मॉर्निंग पेज का लिखना ख़ुद को कॉफी पिलाने के लिए, अपनी ही बातें सुनने के लिए डेट पर ले जाने जैसा लगने लगा। दिमाग जो कहता, मैं उसे लिखती जाती। यूं कि जैसे अपनी ही सुन रही हूं। और फिर ख़ुद से ख़ुद की बातों का सिलसिला चल पड़ता। दिमाग़ प्रॉबलम्स गिनाता, मॉर्निंग पेज पर मैं उसे सॉल्यूशन दिखाती। दिमाग़ कहता, क्या फ़ायदा? मैं कहती - कोई कोशिश बेकार नहीं जाती। दिमाग़ कहता - किसके लिए? मैं कहती - ख़ुद को बचा लेने से बड़ा ख़ुद के लिए कोई और क्या तोहफ़ा होगा?
और फिर एक दिन जब सब ठीक लगने लगा तो मॉर्निंग पेज लिखना बंद कर दिया।
हम सारे काम ज़रूरत के हिसाब से ही तो करते हैं। रिश्ते भी अपनी ज़रूरत के हिसाब से बनाते-तोड़ते हैं। ख़ुद से रिश्ता बनाया था क्योंकि उस वक़्त ख़ुद को संभालने की ज़रूरत थी। भीतर की आवाज़ को सहेजना ज़रूरी था। ज़िन्दगी पटरी पर आई (और कुछ दोस्त मिल गए) तो वो ज़रूरत ख़त्म हो गई।
मॉर्निंग पेज की याद इसलिए आई है क्योंकि फिर ज़रूरत महसूस होने लगी है सफाई की। अपनी ही बात सुनना फिर से ज़रूरी हो गया है। दिल लगाकर काम करने को कहते हैं सब। लेकिन दिल कहता क्या है, ये सुनने की फ़ुर्सत किसे होती है?
इस बार मैं पब्लिक प्लैटफॉर्म पर अन्सेन्सर्ड लिखने की ज़ुर्रत कर रही हूं। इस बार सारे मॉर्निंग पेज ब्लॉग पर लिखे जाएंगे। दिल क्या कहता है, ये मैं भी सुनूंगी और मेरे बच्चों के लिए भी दिल की बातें रिकॉर्ड की जाएंगी, लिखी जाएंगी।
लिखना उन सारी बातों और कहानियों को शब्द देने का ज़रिया होता है जिन्हें किसी और तरह शायद कभी कहा नहीं जा सकेगा। कहानियां रचनेवाला अपने किरदारों के ज़रिए कुफ़्र की बातें लिखता है, अनकम्फर्टेबल सवाल पूछता है। अपने शब्दों में अपने सबसे बड़े डर को रचता है। इस लिहाज़ से रचने वाले के पास तो दैवीय ताक़त होती है। जो बात लिखी न जा सके, वो अपने भीतर का सबसे बड़ा झूठ होता है। उसी झूठ से निजात पाकर ही हम अपने सबसे शुद्ध रूप के करीब होते हैं। सच और क्या है सिवाय हिम्मत के? सच और क्या है सिवाय अपने ही सामने आईना रख अपनी ही आंखों में देखकर उलटे-सीधे सवाल पूछने के?
जब तक भीतर से झूठ का मैल निकलेगा नहीं, कुछ और लिखना, ईमानदारी से लिखना मुश्किल होगा। इसलिए मॉर्निंग पेज की शरण में जा रही हूं। जूलिया कैमरॉन, पता नहीं तुम दुनिया के किस कोने में रहती हो। लेकिन सच कहती हो कि क्रिएटिव रिकवरी की प्रक्रिया ताउम्र चलती रहनी चाहिए। बहना ज़रूरी है, नहीं तो ज़िन्दगी की तलछट में काई जमने का ख़तरा बना रहता है।
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