आज कल मुझे 'मम्मा की डायरी' के अलावा कुछ नहीं सूझता।
'मम्मा की डायरी' क्या है - इसका सही-सही जवाब देना भी ज़रा मुश्किल है। ये संस्मरण है या आत्मकथा, कथेतर रचना है या शब्दचित्र - ठीक-ठीक किसी को बता नहीं पाती। अपने प्रकाशक को भी नहीं। इसलिए, ये किताब मम्मा की डायरी है - एक माँ की डायरी के कुछ २०० पन्ने।
अब इस रचना प्रक्रिया से गुज़रते हुए मुझे समझ में आने लगा है कि कहानियाँ लिखना ज़्यादा आसान है, अपनी ज़िन्दगी बाँटना नहीं। कितना मुश्किल है सिर झुकाकर सरेपब्लिक ये कह देना कि मुझसे ग़लतियाँ हुई, और एक माँ परफेक्शन का पुतला नहीं होती है। कितना मुश्किल है बेख़ौफ़ ये कह देना कि माँ बनने को लेकर एक परिवार या समाज में जितना हाईप पैदा किया जाता है, उतनी ही संजीदगी से एक लड़की को माँ बनने के लिए तैयार किया जाता तो वो बेचारी लड़की औरत बनते-बनते अपने वजूद को चिंदी-चिंदी बिखरने और कतरा-कतरा समेटने के अतिरिक्त बोझ से बच जाती।
डायरी में प्रेग्नेंसी से लेकर बच्चों को आठ साल का कर देने के बीच का उतार-चढ़ाव है। डायरी में कई ज़रूरी सवाल भी हैं, जिनका जवाब इतनी सारी औरतों से, माँओं से, बच्चों से बात करने के बाद भी मुझे नहीं मिला। डायरी में मेरे कन्फ़ेशन्स भी हैं और कई पन्नों पर तो मैं बुरी तरह बिखरी हुई नज़र आती हूं। मम्मा की डायरी सिर्फ़ एक माँ की डायरी नहीं है, कई परिवारों, परिवारों की संरचनाओं, हमारे ज़माने की परवरिश के तौर-तरीकों का लेखा-जोखा है।
सवाल ऐसे हैं कमबख़्त की जवाब फिर भी नहीं मिलते।
किताब के पन्ने अभी तक प्रकाशक को सौंप नहीं पाई। ये भी नहीं मालूम कि मैं कब पूरी तरह आश्वस्त हो जाऊंगी कि अब मैं क्लोज़ेट से बाहर निकलने को तैयार हूँ। शायद उस दिन, जिस दिन किसी टीनेजर की माँ से बात करते हुए 'abandoned' सुनने पर रुलाई नहीं आएगी। शायद उस दिन, जिस दिन अपने जवान बेटे की मौत का शोक़ मनाती एक बदकिस्मत माँ का स्यापा रात में पूरी कायनात को गालियाँ देने को जगाए नहीं रखेगा। शायद उस दिन, जिस दिन मुझे लगेगा कि बहुत सुन लिया, झेल भी लिया अब तो। अब जाने दो कि हर हाल में जीने की सज़ा की मियाद कम नहीं होनी है।
उस दिन किताब के पन्ने प्रकाशक को सौंप दिए जाएंगे जिस दिन मैं अपने दो कांधों पर मुँह घुसाए सो रहे बच्चों की साँसों के अलावा सब भूल जाएंगे। उस दिन किताब के पन्ने प्रकाशक को सौंप दिए जाएंगे जिस दिन सुबह उठकर मैं कहूँगी कि बस, अब बहुत हुआ - अब कुछ नया सोचते और करते हैं। एक नए तरीके से एक नई पहचान के साथ जीते हैं।
यकीन रखो कि वो दिन जल्द ही आनेवाला है।
शनिवार, 29 नवंबर 2014
शुक्रवार, 28 नवंबर 2014
Of promises kept and broken
Promises to self from 27/11/13:
- Will get those nameless faceless stories out of your system, and give them a definite identity. (Checked)
- Will take at least two vacations with A & A - one, by the sea and another on the hills. (Checked)
- Will live with each set of parents at least for one week each, at least twice a year. (Checked)
- Will spend some time with siblings and siblings-in-law, at least once a year (Checked)
- Will lose those extra 4 kgs (Checked!)
- Will be a practitioner of light (A promise to keep forever!)
- Will stay away from the screen (either mobile or laptop) post 8 pm (Checked. Almost)
- Will do something about that damned backache (Still struggling)
- Will go back to learning Kathak from the scratch (Started. Yay!)
- Will learn a new Indian language. First option: Urdu (Started two days ago. Better late than never!)
- Will direct a short film on the musings of a mother/several mothers (Nowhere close to achieving it :()
- Will go paragliding in Bir Billing (Pushed to next year's list)
- Will write a book or two for children (Pushed to next year's list)
- Will work on those unfinished drafts lying in my folders since eternity (Nowhere close to that!)
- Will take two months off to travel across my home-state (Deferred, yet again)
- Will not worry about sounding stupid, or pompous. Will say what is meant to be said. (Almost there. This post is a proof. :))
- Will remind myself of this poem every single day of my existence, and will remember to be grateful for every single thing (Ongoing)
“Promise Yourself
― Christian D. Larson, Your Forces and How to Use Them
- Will get those nameless faceless stories out of your system, and give them a definite identity. (Checked)
- Will take at least two vacations with A & A - one, by the sea and another on the hills. (Checked)
- Will live with each set of parents at least for one week each, at least twice a year. (Checked)
- Will spend some time with siblings and siblings-in-law, at least once a year (Checked)
- Will lose those extra 4 kgs (Checked!)
- Will be a practitioner of light (A promise to keep forever!)
- Will stay away from the screen (either mobile or laptop) post 8 pm (Checked. Almost)
- Will do something about that damned backache (Still struggling)
- Will go back to learning Kathak from the scratch (Started. Yay!)
- Will learn a new Indian language. First option: Urdu (Started two days ago. Better late than never!)
- Will direct a short film on the musings of a mother/several mothers (Nowhere close to achieving it :()
- Will go paragliding in Bir Billing (Pushed to next year's list)
- Will write a book or two for children (Pushed to next year's list)
- Will work on those unfinished drafts lying in my folders since eternity (Nowhere close to that!)
- Will take two months off to travel across my home-state (Deferred, yet again)
- Will not worry about sounding stupid, or pompous. Will say what is meant to be said. (Almost there. This post is a proof. :))
- Will remind myself of this poem every single day of my existence, and will remember to be grateful for every single thing (Ongoing)
“Promise Yourself
To be so strong that nothing
can disturb your peace of mind.
To talk health, happiness, and prosperity
to every person you meet.
To make all your friends feel
that there is something in them
To look at the sunny side of everything
and make your optimism come true.
To think only the best, to work only for the best,
and to expect only the best.
To be just as enthusiastic about the success of others
as you are about your own.
To forget the mistakes of the past
and press on to the greater achievements of the future.
To wear a cheerful countenance at all times
and give every living creature you meet a smile.
To give so much time to the improvement of yourself
that you have no time to criticize others.
To be too large for worry, too noble for anger, too strong for fear,
and too happy to permit the presence of trouble.
To think well of yourself and to proclaim this fact to the world,
not in loud words but great deeds.
To live in faith that the whole world is on your side
so long as you are true to the best that is in you.”
― Christian D. Larson, Your Forces and How to Use Them
बुधवार, 19 नवंबर 2014
चांद निगलने की ताक़त फ़िलहाल मुझमें नहीं
अक्सर (सौ में से निन्यावे बार) आपके अपने बच्चे ही आपको आईना दिखा देते हैं। आदित ने बड़ी मासूमियत से कह दिया बीती रात, "जब देखो तब आप कोई न कोई किताब लेकर ट्रान्सलेट करते रहते हो। मम्मा, आप अपना कुछ क्यों नहीं लिखते?"
मैं उसकी बात पर हँस पड़ी थी, और भाई को फ़ोन किया था कि देखो, मेरे पेट का जाया मेरा ही छोटा टास्कमास्टर हो गया है। लेकिन फिर उसकी बात पर बड़ी देर तक सोचती रही। बच्चे हमारी कमज़ोरियों, हमारे डर और हमारी फ़ितरत को हमसे बेहतर जानते हैं। आदित जानता है कि मैं इन दिनों से किस चीज़ से भाग रही हूं।
मैं इन दिनों लिखने से भाग रही हूँ (और मेरी ही डायरी - मेरे ब्लॉग से नदारद सफ़हे इस बात का सबूत हैं)। मैंने इस साल इतना ही कम लिखा है कि ब्लॉग पोस्ट्स पचास का आंकड़ा भी नहीं छू पाईं। जो टेढ़ी-मेढ़ी बेतुकी कविताएं रचकर उनकी कमज़ोर बुनावट पर भी जो थोड़ी-बहुत वाह-वाहवाहियां मिल जाया करती थीं, वो बंद हो गई हैं। सात सालों में लिखी कुल बारह कहानियों को जोड़-तोड़कर जिस एक किताब (नीला स्कार्फ़) को लिख देने की बेईमानी मैंने की, उसकी कमउम्र शोहरत के दिन भी लद गए।
अभी तो और कहानियां सुनाई जानी थीं। अभी तो कई फ़साने बाकी थे। फिर उनका क्या हुआ?
बारह कहानियां लिखकर यूं तो कोई रचनाकार बन नहीं जाता, लेकिन अगर ख़ुद को सिर्फ़ कम्युनिकेटर - कहानियां सुना देने का एक ज़रिया भी मान लिया जाए - जो उसके लिए छह महीने तो क्या, छह साल की पहचान भी बहुत कम होती है।
शायर सोते-जागते, उठते-बैठते, चलते-फिरते काफ़िया मिला रहा होता है। नसर में अपनी बात कहने का अदब रखनेवालों के लिए भी तो जुनून इसी टक्कर का होना चाहिए।
कैसे कहूं आदित को कि जुनून तो है, हिम्मत नहीं। हर कहानी के साथ लगता है कि आंख पर पड़ा पर्दा हट गया। कोई झिल्ली थी जो फट गई। मन की आंखों के मोतियाबिंद का हर रोज़ इलाज चलता रहता है, और मन की आंखों की हर जिराही के बाद हर बार जो दुनिया नज़र आती है वो तकलीफ़ ही देती है। जी कहता है कि हम अंधे ही अच्छे थे।
जो दिखने लगता है, उन कहानियों पर कहानियां चढ़ती जाती हैं। किरदारों के दर्द इस तरह काटते हैं कि अपने पैर की बिवाई हों। दुनिया बेमानी और बेमुरव्वत लगती है। हर इंसान बेचैन, हर रूह बेकल। सबकी इतनी इनसेक्योरिटी, इतने डर कि लगता है, जान बदन छोड़ती होगी तभी निडर होती होगी। वरना हम सबके कांधों पर तो सिर्फ़ खो देने का डर है - अपनी ताक़त, अपनी शोहरत, अपना परिवार, अपने ख़्वाब, अपना प्यार, अपनी चाहत, अपनी जान खो देने का डर। हम हैं क्यो सिवाय डर के पुलिंदों के? और तो और, ख़ुदा न ख़ास्ता, किसी कहानी का सिरा उसके मुक़म्मल अंजाम तक न पहुंचा पाए, उसे उसके डर से आज़ाद न कर पाए तो उसकी बेचैनी अलग। नहले पर दहला तो ये ग़म होता है कि किरदार अपना होता भी नहीं, लेकिन फिर भी अपना ही कुछ घुटता रहता है हर कहानी में।
आदित की मां हुनरमंद है या नहीं, इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है? साबित किसे करना है और किसकी ख़ातिर? आदित की मां लिखे-पढ़े के दम पर जिस रोज़गार की तलाश में भटकती फिरती है उसका हासिल क्या है, ये भी आनेवाली नस्लें ही तय करेंगी। लेकिन आदित की मां में इंसानी जज़्बातों (इंसानी ही क्यों, पाशविक और हैवानी भी क्यों नहीं?) से आंख मिलाने की कितनी ताक़त थी, ये बात आदित तय करेगा। आदित की मां हर कहानी के साथ इंसानी रिश्तों की परतें खोलने की हिम्मत रखती थी या नहीं, ये भी आदित तय करेगा।
जो कहानियों में आएगा, वो जख़्म की तरह भर दिया जाएगा। जो इन किरदारों की ज़िन्दगी में नहीं समा पाएगा, मन के किसी अंधेरे आवर्ती खाते में जमा किया जाता रहेगा।
कहानियां लिखने वाले दौर और बेहोशी और बेख़ुदी के उन दौरों का इंतज़ार है। तब तक किसी और के लिखे का तर्जुमा ही कर लेने दो। चांद निगलने की ताक़त फ़िलहाल मुझमें नहीं, इसलिए 'आई स्वालोड द मून' का अनुवाद करने दो। अभी हिम्मत जुटा रही हूं। डर और डर से क्षणभंगुर आज़ादी की कहानियां लिखने में अभी थोड़ा और वक़्त है।
और सुनो आदित कि वो चांद निगलने वाला शायर क्या कहता है -
"... मगर एक बात को है, नज़्म हो या अफ़साना, उन से इजाज़ नहीं होता। वह आह भी है, चीख भी, दुहाई भी। मगर इंसानी दर्दों का इलाज नहीं है। वह सिर्फ़ इंसानी दर्दों को ममिया के रख देते हैं, ताकि आने वाली सदियों के लिए सनद रहे।"
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