सोमवार, 1 सितंबर 2014

तन्हा न बीत जाए दिन बहार का!

आई डोन्ट नो, मैंने एक सवाल के जवाब में कहा था।

मुझे नहीं मालूम मुझे कब, क्या, कैसे, क्यों चाहिए। मुझे ये भी नहीं मालूम कि जो है, जैसा है, वैसा क्यों है आख़िर। मुझे ये भी नहीं मालूम कि जो ठीक है नहीं, उसे ठीक किया कैसे जाए।

आई डोन्ट नो - मुझे नहीं मालूम - दुनिया के सबसे बड़े झूठ में से एक है।

वी ऑल नो। हम सबको मालूम होता है कि मुश्किल कहां है। हमें कौन-सी चीज़ आगे बढ़ने से रोक रही है। हम क्यों उलझे हुए हैं। हमारी तकलीफ़ों का सबब क्या है।

वी ऑल नो। रियली। हम सिर्फ़ सच से नज़र चुराने के लिए ख़ुद से झूठ बोलते रहते हैं।

मैंने अपने आस-पास कई जंजाल बुन लिए हैं। इन जंजालों की मुकम्मल शक्ल-सूरत होती तो इनसे निकलने के मुकम्मल रास्ते ढूंढे जा सकते थे। लेकिन ये जंजाल अमूर्त हैं। ग़ज़ब रूपों में अचानक कौंधी हुए बिजली की तरह दिखाई दे जाते हैं ये जंजाल -

अपने ही किसी अधूरे ख़्वाब के रूप में...

दूसरों के की जानेवाली अपेक्षाओं के रूप में...

किसी अज़ीज़ को औचक मिल गई सफलता से होने वाले तीखे रश्क के रूप में...

ख़ुद के कांधे चढ़ाई जा रही अपेक्षाओं के बोझ के रूप में...

सबके जंजाल एक-से। मेरे-आपके-इसके-उसके। सब बातों की जड़ कुल मिलाकर नौ रस, वो नौ भावनाएं जो हमारे जीवन को नियंत्रित करती हैं। सब बातों की जड़ें मन में कहीं समाई हुई हैं।

मैं नहीं जानती कि इन जंजालों से निकलने का रास्ता क्या है। लेकिन ये जानती हूं कि ये ताज़िन्दगी चलने वाली कोशिश है। ये भी जानती हूं कि फ़ैसला हमें करना होता है - कि हम इन जंजालों से हर रोज़ बाहर निकलने के रास्ते ढूंढेंगे या नहीं, अपने मन को दुरुस्त करने के तरीके अपनाएंगे या नहीं, उदासियों का लिबास ओढ़े दुनिया भर की सहानुभूतियां हासिल करने के लिए अपना दिल हथेली पर लिए सबकी ख़िड़कियों पर झांकते फिरेंगे - कि लो सुन लो मेरी बात, कोई तो इस टूटे हुए दिल की मरम्मत करने का ज़िम्मा उठा लो...

दिल बदनीयत है दोस्त। दिल किसी की मरम्मत किए नहीं जुड़ता। दिल किसी की सुनता भी नहीं। वो सिर्फ़ तुम्हारी सुनता है - उसकी, जिसके सीने में धड़कता है, हंसता-रोता है ज़ार-ज़ार।

इसलिए ख़ुद को कतरा-कतरा संभालने का ज़िम्मा अपने हाथों में लो। ख़्वाबों से पूछो कि चाहते क्या हैं। ख़ुद से प्यार करो। इतनी भी मत दो अपने कांधे कि टूट जाओ, बिखर जाओ। किसी और के रास्ते अपनी अपेक्षाओं की गेंदें मत उछालो। उस बिचारे को मैदान में अपनी जंग लड़ने से फ़ुर्सत नहीं।

मैं भी नहीं समझ पाती औऱ तुम भी नहीं समझ पाते कि सुकून 'तराना' फ़िल्म के गाने - 'गुंचे लगे हैं कहने' में मिथुन चक्रवर्ती के पीछे-पीछे चलती रंजीता है, जो ठीक साथ है लेकिन हम मुड़कर उसे देख नहीं पाते, और ज़िन्दगी की वादियों में भटकते हुए उसे आवाज़ देते-देते पूरी उम्र निकाल देते हैं। भागते रहते हैं, और सुकून दबे पांवों पीछे-पीछे भागती रहती है। रुककर उसे थाम लेने से अपने हिस्से के संगीत के, अपने हिस्से के इंतज़ार के ख़त्म हो जाने का डर सुकून को बांहों में ले लेने की ज़रूरत से बड़ा होता है।

इसलिए सभी सवालों के जवाब 'आई डोन्ट नो' पर आकर ख़त्म हो जाते हैं।

और ये जो सारी भाषणबाज़ी है न, सब की सब सिर्फ़ और सिर्फ़ नोट टू सेल्फ़ है!
 


3 टिप्‍पणियां:

आशीष अवस्थी ने कहा…

बढ़िया सुपर , अनु जी धन्यवाद !
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~ I.A.S.I.H पोस्ट्स न्यूज़ ~ ( ब्लॉग पोस्ट्स चर्चाकार )

Preeti 'Agyaat' ने कहा…

लगा, जैसे मेरे मन के भाव पढ़ लिए हों, किसी ने ! सार्थक लेखन, अनु जी !

Parmeshwari Choudhary ने कहा…

Very true.Nicely expressed.