जुड़वां बच्चों की
प्रेगनेंसी मेरे लिए कई लिहाज़ से मुश्किल रही थी। जिस वक्त मैं एक अदद-सी नौकरी छोड़ने का मन बना रही थी, उस वक्त मेरे साथ के लोग
अपने करियर के सबसे अहम पायदानों पर थे। मैं बेडरेस्ट में थी – करीब-करीब हाउस
अरेस्ट में। न्यूज़ चैनल देखना छोड़ चुकी थी क्योंकि टीवी पर आते-जाते जाने-पहचाने
चेहरे देखकर दिल डूबने लगता था। किताबें पढ़ना बंद कर चुकी थी क्योंकि लगता था, अब
क्या फायदा। यहां से आगे का सफ़र सिर्फ बच्चे पालने, उनकी नाक साफ करने और फिर उनके
लिए रोटियां बेलने में जाएगा। गाने सुनती थी तो अब नहीं सोचती थी कि बोल किसने लिखे,
और कैसे लिखे। फिल्में देखती थी तो हैरत से नहीं, तटस्थता से देखती थी। ये स्वीकार
करते हुए संकोच हो रहा है कि बच्चों के आने की खुशी पर अपना वक्त से पहले नाकाम हो
जाना भारी पड़ गया था। सिज़ेरियन के पहले ऑपरेशन टेबल पर पड़े-पड़े मैं ओटी में
बजते एफएम पर एक गाना सुनते हुए सोच रही थी कि मैं अब कभी लिख नहीं पाऊंगी – न
गाने, न फिल्में, न कहानियां और न ही कविताएं। दो बच्चों की मां की ज़िन्दगी का रुख़
यूं भी बदल ही जाता होगा न?
मेरी
कॉम ऑपरेशन थिएटर के टेबल पर डॉक्टर से बेहोशी के आलम में पूछती है, “सिज़ेरियन के बाद मैं बॉक्सिंग कर पाऊंगी न?”
वो
मेरी कॉम थी – वर्ल्ड चैंपियन बॉक्सर। लेकिन उस मेरी कॉम में मुझे ठीक वही डर दिखाई
दिया था जो मुझमें आया था बच्चों को जन्म देते हुए। फिल्म में कई लम्हे ऐसे थे
जिन्हें देखते हुए लगा कि इन्हें सीधे-सीधे मेरी ज़िन्दगी से निकालकर पर्दे पर रख
दिया गया हो। सिर्फ शक्लें बदल गई थीं, परिवेश बदल गया था, नाम बदल गए थे। लेकिन तजुर्बा
वैसा ही था जैसा मैंने जिया था कभी।
इसलिए
इस लेख को शुरु करते हुए मुझे इस बात का डर लग रहा था कि ये लेख ‘मेरी कॉम’ फिल्म की समीक्षा की बजाए आत्मकथात्मक अधिक हो जाएगा। लेकिन मेरा डर इसलिए
निराधार है क्योंकि अगर कोई कहानी, कोई फिल्म या किसी की कही हुई कोई बात में अपना
अक्स नज़र आता है तो स्टोरीटेलिंग के उस फॉर्मैट को सफल मान लिया जाता है।
हालांकि रॉजर एबर्ट का एक
मशहूर कोट है – It’s not what a movie is about, it’s how it is about.
‘व्हाट‘ के बारे में बात की जाए तो मेरी कॉम का सफल होना लाज़िमी है। उमंग कुमार और
प्रियंका चोपड़ा की अथक मेहनत के साथ-साथ मेरी कॉम की कहानी अपने आप में इस कदर
मुकम्मल है कि उसमें एक बेस्टसेलर के सारे तत्व स्वाभाविक तौर पर मौजूद हैं। मेरी कॉम
की ज़िन्दगी खुली किताब है। ‘अनब्रेकेबल’ नाम की ऑटोबायोग्राफी
में मेरी अपनी ज़िन्दगी के बारे में बहुत बेबाकी और ईमानदारी से पहले ही लिख चुकी
हैं।
इस
लिहाज़ से ‘हाउ’ के पैमाने पर फिल्म का खरा उतरना ज़रूरी हो जाता है।
और यही आकर प्रियंका चोपड़ा की मेरी के रूप में अदाकारी पर वाहवाहियां लुटाती मेरे
भीतर बैठी मां और औरत पर एक सचेत दर्शक भारी पड़ जाता है। बायोपिक रिसर्च के दम पर
बनाई जाती है, और वहां उमंग कुमार के हिस्से की वाहवाही इसलिए कम हो जाती है
क्योंकि मेरी एक लिविंग लेजेन्ड तो है, लेकिन उसकी कहानी हर रोज़ लिखी जा रही है।
इसलिए सब्जेक्ट के लिहाज़ से मेरी कॉम एक आसान विषय है। निर्देशक के हिस्से में इस
बात का क्रेडिट ज़रूरत जाता है कि उन्होंने एक जीती-जागती बॉक्सर पर फिल्म (और वो
भी पूरी तरह कमर्शियल फिल्म) बनाने की हिम्मत की। कई बार आसानियां ही हमारी लिए
सबसे बड़ी चुनौती होती है। उमंग के साथ भी यही हुआ है।
उमंग
पहले खुद प्रोडक्शन डिज़ाईनर और आर्ट डायरेक्टर रहे हैं, इसलिए उनकी डिटेलिंग को
देखकर हैरानी नहीं होती। बल्कि एक सीन है जिसमें ऑनलर मेरी को पहली बार अपनी मोटरसाइकिल
पर बिठाकर घर छोड़ने जा रहा है। बिना स्ट्रीटलाइट वाली अंधेरी सड़क से गुज़रती हुई
बाइक की हेडलाइट को देखकर एक झुरझुरी सी होती है। ठीक ऐसी ही हैं इम्फाल की सड़कें
– अंधेरी, डरावनी, सुनसान। वो एक सीन मेरी कॉम के होम स्टेट मणिपुर के बारे में
सबकुछ कह जाता है।
प्रोडक्शन
में छोटी-छोटी बारीकियों का ख्याल रखा गया है – कोयले का चूल्हा, एक मरियल-सी गाय,
घर और घर के सामान, इमा और इपा (मेरी के मां-बाप) की पोशाकें, कोच सर का बदहाल जिम
और ट्रेनिंग सेंटर... हालांकि फिल्म मणिपुर में शूट हुई नहीं है, लेकिन एक बार भी
मणिपुर में न होने का गुमां नहीं होता।
मेरी
के किरदार के लिए प्रियंका चोपड़ा को साईन किए जाने पर उमंग की बहुत आलोचना हुई
थी। मैं भी उन लोगों में से थी जो मेरी के रोल में किसी मणिपुरी एक्ट्रेस को देखना
चाहते थे। एक ग्लैमरस प्रियंका चोपड़ा जैसी हीरोईन भला सीधी-सादी मेरी कॉम की तरह
दिख भी कैसे सकती है? लेकिन प्रियंका चोपड़ा ने अपने अभिनय से सबकी बोलती बंद कर
दी है।
मनाली
की वादियों में कम-बैक की तैयारी करती मेरी कॉम के रूप में प्रियंका का शरीर वाकई
किसी फाइटर का शरीर लगता है। पूरी फिल्म में प्रियंका के चेहरे पर कोई न कोई भाव
है। एक लम्हे के लिए भी उनकी आंखें हमें नहीं छोड़तीं। कभी जोश, कभी ज़िद और कभी
कमज़ोर दिखने वाली उन आंखों और उस चेहरे में असली मेरी कॉम का चेहरा बड़ी सहजता से
घुल-मिल जाता है। दर्शन कुमार, रॉबिन दास और सुनील थापा अपने अपने किरदारों में
बहुत आसानी से ढल जाते हैं।
हालांकि
कई बार लगता है कि डायरेक्टर ने फिल्म के लिए संवाद लिखवाते हुए काश इतनी ही
बारीकियों का ख्याल रखा होता। फिल्म में संवाद कई जगह ढीले हैं, और फेडरेशन के
प्रमुख के रूप में सिन्हा के जिस किरदार को और दिलचस्प बनाया जा सकता था, वो तो
बहुत ही ढीला और स्टीरियोटिपिकल है। मेरी कॉम की ज़िन्दगी के सभी अहम
हाई-प्वाइंट्स को दिखाने की जल्दी में कई ख़ूबसूरत सीन से समझौता करना पड़ा है।
मेरी का अपने पिता के साथ का रिश्ता, ओनलर की भूमिका, कोच की नाराज़गी, परिवार की
परेशानियां, फेडरेशन की ज़्यादतियां, देशभक्ति, नॉर्थ-ईस्ट और इन्सर्जेंसी, महिला
सशक्तिकरण – ये सबकुछ दिखाने के चक्कर में लगता है कि हम कहानी के एक पन्ने से
दूसरे पन्ने पर इतनी तेज़ी से जा रहे हैं कि हमें कहानी ख़त्म कर देने की जल्दी है
बस। फ्लैशबैक के जिस स्ट्रक्चर का इस्तेमाल हुआ है, उसकी कोई ज़रूरत नहीं लगती।
कहानी लिनियर हो सकती थी, और तब शायद ज़्यादा बांधती। क्लाइमैक्स का मेलोड्रामा तो
ज़रा भी नहीं पचता। तब डायरेक्टर के लिए भी अफ़सोस होता है, और एक्टर के लिए भी।
बॉक्स ऑफिस पर तालियों और सिक्कों की खनक इतना बड़ी प्रेरणा होती है कि इसके लिए हम
अपनी मूल कहानी के साथ समझौता करने को भी तैयार हो जाते हैं। आख़िर में आए
राष्ट्रगीत ने रही-सही कसर पूरी कर दी। जो देश के नाम की भक्ति हमारे भीतर आनी भी
हो, तो वो अपने आप नहीं आनी चाहिए?
बावजूद इसके फिल्म के कई हिस्सों
में मेरी के किरदार में अपना अक्स दिखाई देता है – अपनी भीतर की बेचैन लड़की जिसका
महत्वाकांक्षी होना उसकी शख्सियत का सबसे खराब पहलू माना जाता है, प्यार में पड़ी
हुई औरत जिसे घर उतनी ही शिद्दत से चाहिए जितनी शिद्दत से मेडल चाहिए, एक मां जो
अपने करियर के सबसे अहम मुकाम पर अपनी सबसे बड़ी फैमिली क्राइसिस भी झेल रही होती है,
वो भी परिवार से दूर रहकर।
मेरी का ये किरदार एक शख्सियत
न होकर महज़ एक काल्पनिक चरित्र होता तो क्या फिल्म को एक सार्थक कोशिश माना जा
सकता था? मेरा जवाब हां में इसलिए है क्योंकि हाल की फिल्मों में फिल्म के ‘हीरो’ की जो परिभाषा बदली है, मेरी कॉम उसी परिपाटी पर चलती है। मेरी कॉम अलग तरह
से ‘क्वीन’ है, और बिल्कुल अलग तरह से एक औरत के वजूद का, उसके रोज़मर्रा के संघर्षों पर उसकी जीत का
सेलीब्रेशन है।
मुझ जैसी कई मांओं के लिए
सबक भी है ये फिल्म – कि मदरहुड एक नई शुरुआत होती है। जब हम किसी नए चैप्टर की
शुरुआत के लिए ज़िन्दगी का दूसरा चैप्टर ख़त्म कर रहे होते हैं तो कोई भी तजुर्बा
बर्बाद नहीं जाता। हम अपने तजुर्बे का, अपने अलग-अलग वजूदों का कुल योग होते हैं,
और ये कुल योग हमेशा टुकड़ों में बंटे हमारे वजूद से बड़ा होता है। ये बात हमारे
मामले में उतनी ही सच है, जितनी मेरी कॉम के मामले में रही।
वैसे ये फिल्म पुरुषों के
लिए भी एक सबक है। कोई और न सोच रहा हो तो ऑनलर की कहानी पर मैं फिल्म बनाना
चाहूंगी एक दिन।