मंगलवार, 19 अगस्त 2014

एक चिट्ठी 'गुलज़ार' के नाम!

गुलज़ार साब,

उड़ीसा में एक इत्तू-सा स्टेशन है - इतना ही इत्तू-सा कि गूगल पर भी बड़ी मुश्किल से मिलता है। इंटरसिटी में बैठने के बाद मुझे कई बार स्टेशन का नाम मन ही मन कई बार रटना पड़ा था - राईराखोल... राईराखोल... राईराखोल... राईरोखोल। कुल दो मिनट ट्रेन रुकती थी वहाँ, और ग़लती से स्टेशन छूट जाता तो अगला स्टेशन कौन-सा होगा, ये भी नहीं मालूम था। उड़िया बोल पाती तो सूरमा बन जाती, लेकिन ज़ुबानों पर मेरी अपनी निर्भरता ने मेरे भीतर की भीरू लड़की के सारे पोल खोल दिए थे।

और ऊपर से ग़ज़ब बात ये कि जिस ड्राईवर को मुझे लेने आना था, वो पहुंचा नहीं वक़्त पर। एक अजनबी प्लैटफॉर्म पर गुम हो जाना फैंटैसी रही है मेरी, लेकिन वो प्लैटफॉर्म राईराखोल नहीं हो सकता था। What a disgrace it would have been!

स्टेशन पर उग आए पलाश के पेड़ों को गिनने में मुझे जितना वक़्त लगा, उतने ही लंबे थे ड्राईवर साब का 'दो मिनट'। गाड़ी में बैठते ही उस ड्राईवर के सात ख़ून माफ़ कर देने का फ़ैसला कर लिया था मैंने। एक तो अप्रैल में जलते उड़ीसा से झूठी राहत मिल गई थी, और दूसरा - गाड़ी में आपकी आवाज़ गूंज रही थी - याद है/मेरी मेज़ पर बैठे-बैठे/सिगरेट की डिबिया पर/छोटे-से एक पौधे का स्केच बनाया था...

मुझे मालूम नहीं था कि मैं किस शहर, किस क़स्बे में हूँ।

मुझे ये भी मालूम नहीं था कि मुझे जाना कहाँ है।

मैं ये भी नहीं जानती थी कि मुझे मंज़िल पर पहुँचाने का बीड़ा उठाने वाले इस ड्राईवर पर यकीन करना भी चाहिए या नहीं।

मुझे रास्ते का पता न था, जिन लोगों से मिलने जाना था उन लोगों के फोन नंबर के अलावा मेरे पास कोई और जानकारी न थी।

(मैं एक फ़ील्ड विज़िट पर थी, और गांवों में जाकर एक रिपोर्ट के लिए डेटा इकट्ठा कर रही थी। उड़ीसा के पांच ज़िलों के सफ़र पर थी, अकेली।)

लेकिन गाड़ी में आपकी आवाज़ सुनते ही सिक्स्थ सेंस ने कहा, इस अजनबी आदमी पर यकीन किया जा सकता है। जिस डाईवर की गाड़ी में गुलज़ार और जगजीत सिंह की आवाज़ मुसलसल बहती हो, वो ड्राईवर मेहमानों की सलामती अपनी ज़िम्मेदारी समझता होगा।

राईराखोल के जंगल-गांवों से निकलते हुए, महानदी के विशालकाय पुल से होकर, किसी नेशनल हाईवे के रास्ते हम सफ़र करते रहे, और गाड़ी में आपकी आवाज़ के पीछे-पीछे चलकर आपकी लिखी ग़ज़लें आती रहीं, गूंजती रहीं।

सारी वादी उदास बैठी है
मौसम-ए-ग़ुल ने ख़ुदकशी कर ली 

किसने बारूद बोया बाग़ों में?


मैं नियमगिरि से कुछ ही दूर थी। मै कालाहांडी के रास्ते में थी। मैं उन जंगलों, पहाड़ों से होकर गुज़र रही थी जिनकी आवाज़ें तभी सुनाई देती हैं जब तरक्कीपरस्त लोग उनपर हमले बोलते हैं। हैरान थी कि हर जगह का अलग-अलग सच एक नज़्म में कैसे बयां हो सकता है? लेकिन ये नज़्मआपकी लिखी थी। जिसने ज़िन्दगी को भरपूर, और भरपूर ईमानदारी से जिया-बोया-काटा-धोया-खंगाला हो, उसका बयां किया हुआ सच यूनिर्वसल सच के बहुत करीब होता है।

आओ हम सब पहन लें आईने 
सारे देखेंगे अपना ही चेहरा 

सबको सारे हसीं लगेंगे यहां 

हम सब ज़रूरतमंद लोग हैं। पेट और जिस्म की भूख से ज़्यादा बड़ी भूख दिल और ज़ेहन की होती है। किसी की छुअन, प्यार से थाम ली गई उंगलियां, दाएं गाल पर बेख़्याली में उतार दिया गया कोई बोसा, तारीफ़ में कहे गए चार सच्चे-झूठे अल्फ़ाज़, और किसी का दिलाया हुआ ये यकीन कि तुम्हारी ज़रूरत है - ये हर बार एक बड़ा फ़रेब होता है। लेकिन हर बार इस बड़े फ़रेब को सच मानने की बदगुमानी हर रोज़ जीना का हौसला देती है। हर शख़्स टूटा-फूटा है यहां।

और ये पहली बार नहीं था कि आपके अल्फ़ाज़ों में किसी कच्चे भरोसे को जोड़ने की पक्की कोशिश सुनाई दी थी फिर एक बार। मैं उन दिनों उलझनों में थी। कई सवाल के जवाब हम ज़िन्दगी भर ढूंढते रहते हैं। वैसे ही कुछ सवालों को बालों के क्लच में उलझाए हुए सिर पर बोझ-सा डाले घूम रही थी गांव-गांव, शहर-शहर।

अपना ही चेहरा देखना चाहते हैं हम गुलज़ार साब - हर रिश्ते में, हर दोस्ती में। हम सब थोड़े कम थोड़े ज़्यादा हैं तो नारसिस ही। हम सबको अपने-अपने एको... अपनी-अपनी ही परछाईयों से मोहब्बत है।

है नहीं जो दिखाई देता है
आईने पर छपा हुआ चेहरा 


तर्जुमा आईने का ठीक नहीं!

और जो दिखता नहीं, वो ऐसा सच है जिसे रेत में सिर घुसाए शुतुमुर्ग की तरह हम देखना ही नहीं चाहते। दोष आईने के किए हुए तर्जुमे का है ही नहीं। दोष हमारी नज़रों का है, जो आईने में सिर्फ़ अपनी झूठी शक्लें देखना चाहती है। नज़रें सच को झुठलाती हैं। नज़रें अपने दोष छुपाती हैं। नज़रें अपने ही गुनाहों, ग़लतियों, बेवकूफ़ियों से आंखें चुराती हैं। नज़रें को नज़र में नज़र डालकर बात करने वाली परछाईयां अच्छी ही नहीं लगतीं।

इसलिए हम बदलते नहीं। इसलिए हम सुधरते नहीं। 

ऐसे बिखरे हैं रात-दिन जैसे 
मोतियों वाला हार टूट गया 

तुमने मुझको पिरो के रखा था! 

कई बार हुआ है कि भीतर के गर्द-ओ-गुबार को साफ़ करने की ज़रूरत होती है हमको। कई बार होता है कि रोने के लिए कोई अनजान रास्ता मंसूब होता है। जब कोई न देख रहा हो तो खुलकर रोना आसान होता है। जब कोई न सुन रहा हो तो अपनी रूह के कन्फेशन बॉक्स में बैठे-बैठे अपने भीतर के किसी पादरी के सामने अपने गुनाहों को क़ुबूल करना आसान हो जाता है।

जिस दिन रूह किसी अनजान रास्ते पर खुलकर ज़ेहन से बात करती है उस दिन गुलज़ार साब, उस सदी में पैदा होने के लिए यूनिवर्स को हज़ारों शुक्रिया भेजता है दिल कि पैदा हुए तो उसी ज़माने में जिस ज़माने ने आप जैसा कोई शायर देखा। चले उन्हीं सड़कों पर, जिए वही सरोकार, हासिल की वही तकलीफ़ें जो आपकी कलम से बरसती रहती है लगातार।

आपकी सालगिरह पर और क्या कहूं, सिवाए इसके कि

हमको ग़ालिब ने ये दुआ दी थी
तुम सलामत रहो हज़ार बरस 


हमको ग़ालिब ने ये दुआ दी थी
तुम सलामत रहो हज़ार बरस 

ये बरस तो फ़क़त दिनों में गया!

और ये जो दिन हों न, उनकी उम्र हज़ार बरसों की हो। है तो क्लिशे ही, फिर आपसे मुआफ़ी के साथ। आपके आगे आप ही की बात करने की ज़ुर्रत की मुआफ़ी भी दे दी जाए!

आप गुलज़ार रहें, सदियों तक।

 अनु


   

1 टिप्पणी:

Manish Kumar ने कहा…

वाह...मजा आया पढ़ कर। आपने ड्राइवर से नहीं पूछा कि उड़ीसा की उस नामालूम सी जगह में वो गुलज़ार का शैदाई कैसे बन गया?