ये दिल तुम बिन कहीं लगता नहीं...
मेरी हथेलियों पर मेरा नोकिया लुमिया सूरजमुखी-सा खिला हुआ था उस दिन। इतवार की सुबह थी, रक्षा बंधन की, और मैं व्हॉट्सऐप्प पर कहीं दूर से आई अपनी तारीफ़ पढ़कर मुस्कुरा रही थी।
फिर पता नहीं क्या हो गया!
तारीफ़ें शायद इस क़दर फ़रेबी और झूठी थीं कि फ़ोन उस गुनाह को झेल न पाया और बेहोश हो बैठा। मैं अक्सर मज़ाक में कहती थी कि मेरा स्मार्टफ़ोन मेरे हाथ में आकर सिर्फ़ सेन्सिटिव रह गया है, स्मार्टनेस का तो अता-पता नहीं है।
कौन जानता था कि मेरा अपना मज़ाक मुझी पर भारी पड़ेगा!
फिर पूरा अट्टा छान मारा। राखियाँ बाँधने-बँधवाने के लिए जाना था फ़रीदाबाद, और वक़्त हाथ से निकलता जा रहा था। लेकिन संडे की उस बेरहम सुबह किसी भलमानस ने मेरे फ़ोन को रिवाईव करने का बीड़ा न उठाया। ज़ाहिर है, कोमा में पड़े मेरे बिचारे फ़ोन ने उस सुबह उम्र से पहले दम तोड़ दिया।
ये वो सदमा था जिसे बर्दाश्त करना मेरे बस के बाहर की बात हो सकती थी।
अपने फ़ोन को लेकर ओसीडी है मुझे। मैं रास्ते पर चलते-चलते, सब्ज़ियाँ खरीदते-खरीदते, गाड़ी चलाते-चलाते, आधी नींद में सोते-जागते, अस्पताल के बाहर इंतज़ार करते, मेट्रो में शहर के दूसरे छोर जाते, बर्तन और कपड़े धोते-धोते भी फ़ोन चेक करती रहती हूँ। मैं बातचीत का कोई सिरा ज़ाया नहीं होने देती। हर मुमकिन कोशिश करती हूँ कि जवाब दूँ। चाहे उसमें मेरी ऊर्जा का क्षय ही क्यों न हो रहा हो।
जो फ़ोन लाइफ़लाइन था, उस फ़ोन के बिना जी लगता कैसे? फ़ोन का गुज़र जाना किसी प्यार के हमेशा के लिए छूट जाने से कम तकलीफ़देह नहीं था। उस दिन तो बहकी-बहकी परेशान से घूमती रही मैं। लगा कि जैसे कुछ लुट गया है, कुछ छिन गया है।
राखी की तस्वीरें नहीं खींची गईं।
यहाँ से फ़रीदाबाद जाते हुए सड़क के ट्रैफ़िक के हाल पर कोई फ़ेसबुक पोस्ट नहीं लिखा गया।
कोई आड़ी-तिरछी कविता नोट्स में सेव नहीं हुई।
किसी दोस्त से झूठ कहा नहीं व्हॉट्सऐप्प पर कि ये दिल तुम बिन कहीं लगता नहीं...
याद ही नहीं कि उस एक इतवार जाने कैसे शब ढली, जाने कैसे दिन ढला... मुद्दतों बाद ऐसा हुआ था कि मैं जहाँ थी, वहीं थी - कहीं और नहीं। मुद्दतों बाद ऐसा हुआ था कि मेरी फ़ितरती गुमख़्याली को कहीं कोई वर्चुअल दुनिया नहीं मिली थी।
भीतर से कोई और आवाज़ देता रहा, झूठ था... सरासर झूठ था वो सब जो दुनिया से जुड़े रहने के ख़्याल से जोड़ रखा था तुमने।
फ़ोन सबकुछ नहीं ज़िन्दगी के लिए!
मुझे लगता था कि दुनिया में कुछ चीज़ें (और कुछ लोग) ऐसी हैं जिनके बिना मेरा वजूद बेमानी है, और जीना नामुमकिन। इंटरनेट और स्मार्टफ़ोन उन्हीं दो हासिल चीज़ों में से था। फ़ोन मेरे लिए चलता-फ़िरता दफ़्तर था - आप सबकी तरह। अपनी तमाम तन्हाईयों और सुख-दुख के बीच फ़ोन मेरे लिए रियल और वर्चुअल दुनिया से जुड़े रहने का इकलौता ज़रिया था। जो जी में आए, तब के तब बोल देना... उसे पोस्ट कर देना... किसी दोस्त को व्हॉटसऐप्प कर देना... रात-दिन, सुबह-शाम बातचीत के उन सिरों को थामे रहने की कोशिश करना जो कभी अंजाम तक नहीं पहुँचतीं... मेरी ज़िन्दगी ऐसी ही होने लगी थी पिछले दो-ढाई सालों से। ज़िन्दगी जिस रस्ते को अख़्तियार कर चुकी थी वहाँ बेमतलब की वर्चुअल स्माइली, दिल, टूटा हुआ दिल, फूल के गुच्छे, तोहफ़ों के बक्से और बिना सोचे-समझे किसी की ओर भी उछाल दिए जानेवाले बोसे थे।
और अचानक एक फ़ोन के न होने से वो सब ख़त्म हो गया!
वो सारे वर्चुअल रिश्ते ख़त्म हो गए!
वो सारे संपर्क और नंबर (कुल सत्रह सौ) ख़त्म हो गए जो मैंने इन दो-चार सालों में अर्जित किए होंगे!
हाथ में आया एक बेसिक फ़ोन, और ठहर जाने का गुमां।
कुल साढ़े चौदह फ़ोन नंबर मुझे मुँहज़ुबानी याद थे। मम्मी-पापा, पतिदेव, सासू माँ, ससुराल का लैंड-लाईन नंबर, भाई-भौजाई के, और कुल मिलाकर साढ़े पाँच दोस्तों के, जो पिछले सालों की सबसे बड़ी कमाई हैं... जिन्हें बचाए रखने में दस साल से ज़्यादा लंबी उम्र लगी है।
स्मार्टफ़ोन के न होने ने मेरी ज़िन्दगी में सबकी अहमियत और जगह भी मुक़र्रर हो गई थी। ये तय हो गया था कि ये वही साढ़े चौदह लोग हैं जो आपको आपकी तमाम ख़ामियों और ख़ूबियों के साथ स्वीकार करेंगे। जो एक आवाज़ पर आपके साथ होंगे, और जिन्हें आपने अच्छे-बुरे दिनों में मुलससल आवाज़ें दी हैं इसलिए इनके नंबर आपको मुँहज़ुबानी याद हैं।
(एक और एपिफ़ैनी - आत्मबोध - ये भी है कि किसी और की ओर से आनेवाला भरोसा हमारे भीतर के भरोसे का रिफ्लेक्शन, उसी का अक्स होता है। हम वही हासिल करते हैं जो हम बाँट रहे होते हैं।)
दिल जज़्बाती है, मजबूर नहीं है
अपने आस-पास क्या होना चाहिए, और किस रिश्ते पर कितना भरोसा किया जाना चाहिए - ये आत्मबोध अपने आप में मोक्ष का दरवाज़ा है। हम कई भ्रांतियों और ग़लतफ़हमियों के साथ जीते हैं। सबसे बड़ी ग़लतफ़हमी इस भंगुर दुनिया में अपनी जगह को लेकर पालते हैं हम। हमें कितने लोग जानते हैं... कितने लोगों को हम पहचानते हैं... हमारा वजूद इससे मुक़र्रर होता है, यही बताया जाता है हमें। बड़े होकर ख़ूब नाम और पैसे कमाओ - यही आशीर्वाद मिलता है न हमें बचपन से? अपने बच्चों को 'बडे होना' सिखाते हुए सही मायने में बड़े होने की परिभाषा क्या होती है, ये बताना भूल जाते हैं हम।
जिसे नापा जा सकता है, जो टैंजिबल है - परिणाम के तौर पर देखा जा सकता है, उसे ही हासिल समझ लिया जाता है। इन्टैंजिबल माइलस्टोन्स - अपने स्वभाव और शख़्सियत में जीते गए बदलावों की क़ीमत नहीं समझी जाती।
अभी हाल ही में एक फ़िल्म आई थी - फॉल्ट इन आवर स्टार्स। दो टीनएजर्स की कहानी है - कैंसर के आगे इनकी उम्र की रेखाओं ने हार मार लिया है, लेकिन इनकी जिजीविषा ने नहीं। मौत का इंतज़ार करते हुए जीने की उत्कट इच्छा रखने वाली सत्रह साल की हेज़ल ग्रेस अठारह साल के अपने कैंसरपीड़ित बॉयफ्रेंड से कहती है - ऑब्लिवियन इज़ इनएविटेबल - गुमनामी लाज़िमी है।
जब गुमनामी लाज़िमी है तो फिर इतनी हाय-हाय क्यों?
गुमनामियों के इन ख़तरों के बीच हेज़ल ग्रेस को एक और टीनेजर एन्न फ्रैंक की याद में बने म्यूज़ियम में गुमनामी के बीच की शोहरत सेलीब्रेट करने से ज़्यादा ज़रूरी मौत के मुहाने पर खड़े अपने बॉयफ्रेंड को पहली बार किस करना लगा।
हेज़ल के लिए वो लम्हा गुमनामियों के अंधेरों में इकलौती रौशनी रहा होगा। वो लम्हा उसके भीतर के किसी डर पर हासिल की गई जीत का लम्हा था।
मुझे फिल्म देखते हुए वो बात इतनी स्पष्टता से समझ में नहीं आई थी जितनी अब आई है - अपरिहार्य गुमनामी के बीच जो शोहरत का इकलौता शाश्वत कारण होता है, वो किसी इंसान का जज्बा होता है। वही जज्बा डर पर जीत हासिल करने की हिम्मत देता है।
एन्न फ्रैंक का जज्बा था कि चौदह साल की उम्र में गुज़र गई लड़की को पचासी साल बाद भी दुनिया भूल नहीं पाई है।
हेज़ल ग्रेस का जज्बा था कि मरते-मरते भी उसने किसी एक ज़िन्दगी को इस बेरहम, बेवफ़ा, मतलबी दुनिया में वापस आने की वजह दे दी... अपनी बची हुई ज़िन्दगी की सारी तकलीफ़ों और छूटती हुई साँसों के बीच तारों से भरी एक रौशन रात के शामियाने तले गीली आँखों से मुस्कुराना सीख लिया।
ये जज्बा भीड़ पैदा नहीं करती। ये जज्बा हम अकेले अंधेरे कमरे में ख़ुद से जूझते हुए, अपनी हार और नाकामियों के बीच अपने हालातों को अपने हिसाब से ढालते हुए पैदा करते हैं। इस जज्बे का इससे कोई वास्ता नहीं होता कि हम दुनिया से कितने जुड़े हुए हैं और हमारी बातों पर कितनी वाहवाहियाँ मिल रही हैं। इस जज्बे को फोन-बुक में मौजूद हज़ारों नंबरों से भी कोई वास्ता नहीं होता।
हम हर रिश्ते को अपनी वजह से ढोते हैं, झेलते हैं या उन्हें पालते-पोसते हैं। उनकी ज़रूरत हमें होती है क्योंकि हमारे जज्बात उन रिश्तों पर फ़ीड कर रहे होते हैं। उन रिश्तों से हासिल हमदर्दी (और कई बार तरसते हुए बोलों के जवाब भी, जो हम सुनना चाहते हैं), उन रिश्तों से हासिल भरोसा (कभी झूठा, कभी सच्चा) और उन रिश्तों से हासिल ऊर्जा हमें ज़िन्दगी की नीरस और अरुचिकर जद्दोजेहद को झेलने का माद्दा देती है।
हम उस ग़लतगुमानी में ख़ुश रहते हैं कि हमारी ज़रूरत है - हमारे घर-परिवार में, हमारे वर्क प्लेस पर, हमारे सहकर्मियों को, हमारे बॉस को, हमारे जान-पहचान वालों को, हमारे क्लायंट्स को... हम इस बदगुमानी में होते हैं कि जो जब भी, जिस भी तरह आवाज़ लगाए, हमें उसका जवाब देना ही चाहिए क्योंकि अपनी ज़रूरत बचाए रखने का ये इकलौता रास्ता है।
बेताबियों में खुशी ढूंढने वाले बेताबियां भी ढूंढ-ढूंढकर लाते हैं। ये बेताबियां रिश्तों की शक्लों में होती हैं जो हर रोज़ किसी न किसी से बना रहे होते हैं हम। अक्सर क्षणभंगुर। अक्सर छोटी मियाद वाले। अक्सर ज़रूरतपरस्ती।
कितना बड़ा फ़रेब है ये!
फ़ोन नहीं है तो समझ में आया कि इस फ़रेब को जीना मजबूरी नहीं है। हमारे जज़्बातों का सबब भी हम ही, मरहम भी हम ही। हमारी ज़रूरत अगर किसी को सबसे ज़्यादा है, तो वो हम हैं।
मेरे फ़साने पे न जा...
डिस्क्लेमर ये भी है कि ये मेरे अपने तजुर्बे हैं। ये मेरी अपनी राय है। तजुर्बों के आधार पर राय भी बनती-बिगड़ती-बदलती रहती है। मेरा मकसद फ़ोन के बहाने बाहर की दुनिया से जुड़ाव को लेकर अपने हालात और अनुभवों का लेखा-जोखा करना है। मेरा मकसद अपने लिए कुछ फ़ैसले लेना है। ख़ुद को याद दिलाना है कि वेलॉसिटी यदि डिस्प्लेसमेंट और टाईम टेकेन का अनुपात है कि डिस्प्लेसमेंट की वैल्यू को कम करके वेलॉसिटी यानी गति पर काबू पाया जा सकता है।
सारे फ़ैसले अपने हैं - दिल-ओ-दिमाग पर हर लम्हा लगती खरोंचों की तरह। वजह भी मैं ही, मरहम भी मैं ही।
नोकिया लूमिया उर्फ़ डियर सूरजमुखी, तेरा प्यार अनोखा है!