जाने क्यों बाबा की कही हुई ये बात बड़ी ज़ोर से याद आ रही है। बाबा यानी मेरे दादाजी। पूरी ज़िन्दगी एक कंपनी की नौकरी खटते रहे, एक मालिक के लिए काम करते रहे, एक टीम का ख़्वाब बुनते रहे - पूरी एकनिष्ठता के साथ। चालीस सालों तक। या शायद पैंतालीस सालों तक। ठीक-ठीक मालूम नहीं और फ़र्क भी क्या पड़ता है?
बाबा ऑन्ट्रोप्रॉन्योर नहीं थे, लेकिन उद्यमी थे। बाबा बिज़नेस मैन नहीं थे, लेकिन जिस कंपनी के लिए काम किया उसका बिज़नेस पांच गुना बढ़ाया। बाबा इनोवेटर - आविष्कारक - नहीं थे। लेकिन हर जगह नई पहल को शुरु करते देखा है हमने उन्हें। बाबा मशहूर भी नहीं थे। बड़े आदमी भी नहीं थे। लेजेंड भी नहीं थे। महान भी नहीं थे। कालजयी भी नहीं थे। उनके नाम पर कोई सम्मान, कोई पुरस्कार, कोई सड़क, कोई मोहल्ला नहीं है। लेकिन बाबा ने जिसकी ज़िन्दगी को थोड़ा सा भी छुआ, वो उनके गुज़र जाने के कई साल बाद भी उन्हें हर रोज़ याद करता है। बाबा पर्स में रखी जानेवाली तस्वीर हैं। बाबा किसी किताब के बीच से झांकते ज़िन्दगी के फ़लसफ़े हैं। बाबा सपनों में आकर रास्ता बतानेवाले फ़कीर हैैं।
हम बेशक उन्हें बात-बात पर याद न करते हों, लेकिन उनके बारे में जो बात हममें से कोई नहीं भूलता वो उनका वर्क एथिक्स है। काम में कोई कोताही उन्हें मंज़ूर न थी और अपने काम, अपनी प्रोफेशनल ज़िम्मेदारियों के लिए उस स्तर का कमिटमेंट मैंने तो क्या, उन्हें जो भी जानता होगा, उसने कभी नहीं देखा होगा, ये बात मैं दावे के साथ कह सकती हूं। अब सोचती हूं कि बाबा को इसके बदले मिला क्या?
घर की छत पर खड़े खड़े एक दिन मैंने पूछा था उनसे - आपकी पहचान क्या?
बाबा ने कहा था, मेरा काम। मेरी ड्यूटी। मेरी ज़िम्मेदारियां।
मैंने पूछा कि आपका नाम कहां? बाबा ने कहा था, हर उस शख़्स की ज़ुबान पर जिसने मेरे साथ काम किया है। जो मुझे थोड़ा भी जानता है।
मैंने पूछा था कि आपका हासिल क्या? बाबा कहते थे, इज्ज़त, भरोसा और प्यार।
मैंने पूछा था कि आपकी कमाई क्या? बाबा कहते थे, सिर पर तीन पीढ़ियों के लिए अदद-सी छत और सुकून कि जो किया, ईमानदारी से किया। मेरी शोहरत मेरी वाहवाहियों में नहीं, बल्कि इसमें है कि कितने लोग मेरे जाने के बाद मुझे याद करेंगे।
ये सब उल्टे-सीधे पाठ पढ़ाकर आप किस दुनिया में चले गए बाबा?
अब जब अपने आस-पास इतनी स्पर्द्धा और गला-काट प्रतियोगिता देखती हूं तो दिल बैठने लगता है। ये तो आपने सिखाया नहीं था। ये कैसी दुनिया है जिसमें इतनी घबराहट होती है? हर चीज़ बेचनी क्यों पड़ती है यहां? हर चीज़ की क़ीमत क्यों है? हर बात का पिच नोट क्यों?
मुझे तो सिर्फ काम करना था न। हम सबको करना चाहिए था। फिर हर चीज़ ख़ुदगर्ज़ी के तराजू पर क्यों तौली जाती है? सबकुछ गिव एंड टेक क्यों है? हम सबकी क़ीमत क्यों लगाना चाहते हैं? हर 'मौके' का 'फ़ायदा' उठाना हमें क्यों सिखाया जाता है? सबकुछ 'opportunity' ही क्यों? रिश्ते भी? सबकुछ एक्सपायरी डेट के साथ क्यों आता है?
ये दुनिया मेरे लिए नहीं है बाबा। इस अंधदौड़ में हम कहां होना चाहते हैं? हमारा वजूद क्या है और सपनों का रूप क्या? उनकी क़ीमत क्या? मेरे सपनों की क़ीमत पैसे-शोहरत-बैंक बैलेंस में कैसे नापी जाए? इनमें से कुछ भी तो नहीं बचता बाबा। आपने क्या छोड़ा था हमारे लिए? इन ऊटपटांग सीखों, वर्क एथिक्स और बेमानी मूल्यों के अलावा? पैसे छोडे होते। घर छोड़ा होता। संपत्ति छोड़ी होती। तो हम इस दुनिया में जीने का शऊर सीख पाते।
सिखाया भी तो क्या - देना? प्यार करना? ईमानदार होना? काम करना - हर रोज़, बेशुमार?
दिया भी तो क्या दिया कि देख लीजिए, आज बैरागी हो जाने के अलावा कोई रास्ता नहीं सूझता। छोटे-छोटे और बड़े-बड़े ख़्वाबों की इस भीड़ में मेरा जी डूब रहा है। मुझे नहीं देखने ख़्वाब।
इसलिए क्योंकि ख़्वाब का मालूम नहीं और पता नहीं कि इनकी अहमियत क्या? लेकिन मुझसे फिलहाल जो हो सकता है वो रोज़-रोज़ का जीना है। रोज़-रोज़ के तय किए हुए रास्ते हैं। रोज़-रोज़ का कमाया हुआ यकीन है। रोज़-रोज़ की इस दिहाड़ी मजदूरी में आज का दिन कमाए हुए को एक साथ जमा करके किसी शीशे में उतारकर पी जाने का है।