मंगलवार, 28 जनवरी 2014

बेतुके ख़्वाब की कैसे हो तामीर!

दोपहर की धूप ढ़लने को है और हमारे पास दो ही घंटे का समय है। हमने मंडली खुले आसमान के नीचे जिमाने का फ़ैसला किया है। कई लोग आए हैं - आईआईएमसी के मेरे कुछ दोस्त, कुछ स्कूल से आए हुए लोग, कुछ मुंबई के दोस्त, और मैं हूं कि लैपटॉप खोलने की बजाए सामने ढलते हुए सूरज की फोन से तस्वीरें खींचने में लगी हुई हूं। अचानक मुझे लगता है कि हम किसी पहाड़ी नदी के किनारे किसी संकरे से पथरीले टापू पर बैठे हैं,  और संतुलन बिगड़ जाने का इतना डर है कि मुझे लग रहा है मेरे पैरे फिसल गए तो मैं नीचे गिर जाऊंगी। नीचे गिरने से इसलिए भी डर रही हूं क्योंकि मेरी बाईं तरफ आदित खड़ा है, जो मेरी शर्ट का कोना खींच-खींचकर फोन में तस्वीर दिखाने की ज़िद कर रहा है।

फिर अचानक लगता है कि हम किसी बगीचे में हैं, या शायद मुग़ल गार्डन जैसी किसी जगह, या किसी गेस्ट-हाउस के ख़ूबसूरत लॉन्स में, जहां हमें बैठने की इजाज़त इसलिए नहीं है क्योंकि हम कोई वीआईपी नहीं हैं। सामने से मुझे पुलिसवालों का जत्था आता दिखता है। मेरे दिमाग़ में अचानक ये डर आ गया है कि ये लोग पक्का हमें यहां से उठा ही देंगे। हमें खुले मैदानों में बैठने की अनुमति नहीं, हम कहीं पार्क में भी नहीं बैठ सकते, पहाड़ी ढलानें भी हमारी अपनी नहीं।

मंडली पता नहीं कहां तितर-बितर हो जाती है और मैं सामने से कई सारी संभ्रांत पढ़ी-लिखी महिलाओं को अपनी ओर आती देखती हूं। कोई मुझसे कहता है कि ये सारी महिलाएं आईपीएस ऑफिसर्स हैं। मैं उनकी उम्र और उनकी पोशाक देखकर हैरान हूं। आईपीएस हैं तो दफ़्तर साड़ियां पहनकर क्यों आई हैं?

मुझे कर्नाटक कैडर की एक आईपीएस मिलती हैं। कहती हैं कि मैं आईजी हूं, लेकिन मुझे पंजाब की डीजीपी से मिलना चाहिए। मेरी कहानी के लिए वही उपयुक्त रहेंगी। कहानी? मैं तो किसी कहानी के बारे में नहीं सोच रही। फिर उन्होंने मुझसे ऐसा क्यों कहा?

इससे पहले कि मैं कोई जवाब दे सकूं, सामने से भड़कीले नीले रंग की सलवार-कमीज़ में एक बेहद ख़ूबसूरत महिला आती दिखती हैं। मुझसे कन्नड अफ़सर कहती हैं कि ये डीजीपी हैं पंजाब की। मैं हैरान हूं! ये तो किसी फिल्मस्टार से भी ज़्यादा सुंदर हैं! और उतनी ही ग्लैमरस भी!

वो मुझसे मिलती हैं और कहती हैं कि ये पहला सीन होगा - उनका ज़मीन पर गिरकर बेहोश हो जाना, और दूसरे सीन में वो अपनी यूनिफॉर्म में होंगी। कहती हैं कि मैं लिखने में मदद करूंगी। तुम लिखो तो। उनमें एक किस्म का तिलस्मी जादू है और मेरी नींद ठीक छह बजे खुली भी है तो भी मैं अपने सपने में मिली उसी जादुई शख़्सियत के बारे में सोच रही हूं।

कहते हैं कि सपने कोई न कोई संदेश दे रहे होते हैं, या फिर अर्धचेतन में बसे किसी ख़्याल को मुकम्मल शक्ल देने का काम कर रहे होते हैं। जिस देश की पुलिस में महज़ 5 फ़ीसदी के आस-पास महिलाएं हों वहां किसी महिला आईपीएस की कहानी किसी को क्या दिलचस्प लगेगी?

वो कौन है जो मुझे ऐसे सपने में नज़र आई है? वो कौन सी कहानी है जिसने अपना सिरा यूं हाथ में थमा दिया है? मैं कहां ढूंढू उसे?

(डायरी में दर्ज कर रही हूं, कि कौन जाने कब कहां कौन-सा ख़्याल ज़िन्दगी के किस मोड़ पर आ मिले। मैंने ऐसे कई सपनों को पूरी की पूरी शक्ल अख़्तियार लेते देखा जो है अक्सर...)

2 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

एक नौकरी में कितना कुछ लिखने को होता है, बहुत रोचक।

चला बिहारी ब्लॉगर बनने ने कहा…

एक ख़्वाब सी पोस्ट!! दिलोदिमाग़ पर किसी डायरी की तरह दर्ज़ हो गई है!!