मैं सुबह-सुबह उठ गई हूं, बच्चों के जागने से बहुत पहले। कुछ लिखने का काम मिला है, और उसका बोझ टूटे-फूटे सपने में लगातार आ रही किसी बेतरतीब छवि की तरह मेरी नींद में भी खलल डालता रहता है। क्या कहूं कि ऐसे ही करती हूं मैं काम! हर सुबह एक लंबी टू-डू लिस्ट के साथ बैठती हूं। ऊपर से जितने कामों पर सही का निशान लगता जाता है, नीचे से वो लिस्ट उतनी ही लंबी होती चली जाती है। जैसे मेरी हथेली पर हर वक़्त रक्खी होती है वो छोटी-सी टैबलेट, जिसमें आग लगा दो तो नकली सांप बनकर फैल जाएगी खुलकर। मेरे कामों की लिस्ट वही टैबलेट है। डेडलाईन आग लगाती रहती है। डायरी में वो टैबलेट खुलकर बिखरता जाता है... खुलता जाता है कि अजगर की तरह।
मुझे इस बात का आभार मानना चाहिए कि जिस देश में बेरोज़गारी दर 3.8 प्रतिशत है, और जहां काम करने वाली आबादी का 94 प्रतिशत वर्कफोर्स अभी भी अनौपचारिक तौर पर यानी सिर्फ कहे भर जाने के लिए काम कर रहा है, वहां मेरे पास कई काम हैं। इनमें कई कामों को मुकम्मल नाम तक नहीं दिया जाता। अपनी मर्ज़ी से अपनी गति से फ्रीलांस तरीके से काम कर रहे लोगों की यही त्रासदी होती है कि उनके कामों में आधे से ज़्यादा अमूर्त होता है, intangible. हम जैसे लोग लगातार प्रोपोज़ल बना रहे होते हैं, लगातार नए विचारों, नए ideas पर काम कर रहे होते हैं, इस उम्मीद में कि कहीं एक दिन कभी कोई लॉटरी ही लग जाएगी, या मरते हुए काम का वॉल्युम देखकर ये सुकून होगा कि दिन ज़ाया नहीं गए, कुछ करते ही रहे हम।
फ्रीलांस काम करे रहे लोगों की एक और त्रासदी है - क्लायंट। ये जो 'क्लायंट' नाम का जंतु होता है न, उसका काम ही आपकी ज़िन्दगी बर्बाद करना, आपके सुख-चैन को नेस्तनाबूद कर देना होता है। क्या कहें, कि ये क्लायंट की कुर्सी ही ऐसी होती है। मुसीबत तो तब होती है कि जब दोनों ओर से ईगो नाम की बंदूक उठाए बैठे हों लोग। एक तरफ से काम करके देते जाओ, दूसरी तरफ से फीडबैक का कभी न ख़त्म होने वाला सिलसिला जारी रहे। दोनों पार्टियां एक-दूसरे की जानी दुश्मन, लेकिन एक के बग़ैर दूसरे का गुज़ारा कैसे हो?
मुझे कई साल लग गए 'क्लायंट' को समझने में। मुझे कई साल ये भी समझने में लग गए कि किसी फीडबैक को अपने अंह पर लेकर अपनी निजी प्रतिभा पर सुना दिया गया आख़िरी फ़ैसला नहीं मानना चाहिए। फिर भी काम के दौरान कई बार ऐसा होता है कि कोई एक चीज़ दिमाग की वायरिंग का शॉर्ट सर्किट कर देने के लिए काफी होती है।
अलग-अलग किस्म के लोगों के साथ काम करते हुए मैं एक और चीज़ भी सीख रही हूं।
मुमकिन है कि जुनूनी लोग काम और निजी ज़िन्दगी के बीच की लकीर को इतनी धुंधली रखते हों कि दोनों के बीच कोई फ़र्क़ न होता है। कम से कम मेरे साथ तो ऐसा ही है। मेरा काम मेरा वजूद का एक बड़ा हिस्सा है। मेरे बच्चे तक जानते हैं कि मां के लिए मां होना जितना ज़रूरी है, उससे थोड़ा सा ही कम ज़रूरी एक राइटर या कन्सलटेंट होना भी है। हमारे घर में हमेशा लिखने-पढ़ने की बात होती रहती है। हम एक-दूसरे को कहानियां सुना रहे होते हैं, hypothesis और imagination में बात कर रहे होते हैं। खेल-खेल में मम्मा उनकी कल्पनाओं से किरदार और हालात चुन रही होती है, और खेल-खेल में वो मम्मा के लंबे, complicated वाक्यों से हिज्जे और व्याकरण सीख रहे होते हैं।
हम अपने खेल को, एक-दूसरे को, एक-दूसरे के काम, एक-दूसरे के बेतुके और नामुमकिन दिखने वाले सपनों को बहुत संजीदगी से लेते हैं।
बावजूद इसके अपना होश-ओ-हवास बचाए रखने के लिए ये ज़रूरी होता है कि अपनी सीमाएं और ख़ुद पर दूसरों के 'feedback' से पड़ने वाले असर को ख़ुद ही तय किया जाए। खेल-खेल में काम करते रहना जितना ज़रूरी है, उतना ही ज़रूरी काम को खेल समझना भी होता है कई बार।
मैं पिछले कुछ महीनों में बहुत बदली हूं। अपने वक़्त के ख़त्म होते जाने का जिस गहरी समझ के साथ मुझपर असर पड़ा है, उसका असर निजी ज़िन्दगी पर भी पड़ा है। हर रोज़ यूं लगता है कि जैसे जिए जाना मशीनी तौर पर नहीं हो सकता, और उस दिल और दिमाग का भरपूर इस्तेमाल किया जाना चाहिए जिसे ऊपरवाले ने इंसानी शरीर को बख्शते हुए एक सीधी रेखा और उनकी जगह भी मुकर्रर कर दी। कोई तो वजह रही होगी कि दिमाग को सबसे ऊपर का खाना दिया गया, नहीं?
क्लायंट्स के साथ काम करते हुए, कई किस्म के लोगों से हर रोज़ संवाद करते हुए जो मैंने सीखा है वो यहां सहेजकर रख देना चाहती हूं। अव्वल तो, काम हमारे वजूद का बड़ा हिस्सा ज़रूर होता है, लेकिन काम इकलौता वजूद नहीं हो सकता। दूसरा, कोई भी दफ़्तर, कोई भी काम, कोई भी असाईनमेंट चुनौतीपूर्ण न हो तो उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए। चुनौतियां आपको अपनी समझ के विस्तार का रास्ता बताती हैं। तीसरा, हम अपनी सीमाएं और अपनी प्राथमिकताएं ख़ुद तय करते हैं, और उन्हें बदलने का हुनर भी ख़ुद ही सीखते हैं। परिस्थितियों का रोना रोना आलस्य का सबसे मूर्त और स्पष्ट रूप है। कोई परिस्थिति आसान नहीं होती, कोई काम आसान नहीं होता। लेकिन कोई काम इतना भी मुश्किल नहीं होता। आपमें रुचि और जुनून बचा रहना चाहिए बस।
एक और चीज़ जो मैं ख़ुद को भी याद दिलाना चाहती हूं - बदलते हम नहीं हैं। सिर्फ हालात को, हमसे परे और हमारे भीतर की चीज़ों को देखने का नज़रिया बदलता है। ये नज़रिया हमारी ही तरह अपरिवर्ती हो जाए तो सबसे ज़्यादा नुकसान हम ख़ुद को पहुंचा रहे होते हैं। इसलिए, विस्तार में सुख है। बदलाव में सुख है। सीखते जाने और करते जाने में सुख है। क्लायंट के साथ रोते-रोते भी पार लग जाने में सुख है। एक-एक करके काम निपटाने जाने में सुख है।
क्या मेरा कोई क्लायंट मेरी ये पोस्ट पढ़ रहा है? फिर जाते-जाते अपने नाम का थैंक यू भी पढ़ते जाईए। :-)
बुधवार, 29 जनवरी 2014
मंगलवार, 28 जनवरी 2014
बेतुके ख़्वाब की कैसे हो तामीर!
दोपहर की धूप ढ़लने को है और हमारे पास दो ही घंटे का समय है। हमने मंडली खुले आसमान के नीचे जिमाने का फ़ैसला किया है। कई लोग आए हैं - आईआईएमसी के मेरे कुछ दोस्त, कुछ स्कूल से आए हुए लोग, कुछ मुंबई के दोस्त, और मैं हूं कि लैपटॉप खोलने की बजाए सामने ढलते हुए सूरज की फोन से तस्वीरें खींचने में लगी हुई हूं। अचानक मुझे लगता है कि हम किसी पहाड़ी नदी के किनारे किसी संकरे से पथरीले टापू पर बैठे हैं, और संतुलन बिगड़ जाने का इतना डर है कि मुझे लग रहा है मेरे पैरे फिसल गए तो मैं नीचे गिर जाऊंगी। नीचे गिरने से इसलिए भी डर रही हूं क्योंकि मेरी बाईं तरफ आदित खड़ा है, जो मेरी शर्ट का कोना खींच-खींचकर फोन में तस्वीर दिखाने की ज़िद कर रहा है।
फिर अचानक लगता है कि हम किसी बगीचे में हैं, या शायद मुग़ल गार्डन जैसी किसी जगह, या किसी गेस्ट-हाउस के ख़ूबसूरत लॉन्स में, जहां हमें बैठने की इजाज़त इसलिए नहीं है क्योंकि हम कोई वीआईपी नहीं हैं। सामने से मुझे पुलिसवालों का जत्था आता दिखता है। मेरे दिमाग़ में अचानक ये डर आ गया है कि ये लोग पक्का हमें यहां से उठा ही देंगे। हमें खुले मैदानों में बैठने की अनुमति नहीं, हम कहीं पार्क में भी नहीं बैठ सकते, पहाड़ी ढलानें भी हमारी अपनी नहीं।
मंडली पता नहीं कहां तितर-बितर हो जाती है और मैं सामने से कई सारी संभ्रांत पढ़ी-लिखी महिलाओं को अपनी ओर आती देखती हूं। कोई मुझसे कहता है कि ये सारी महिलाएं आईपीएस ऑफिसर्स हैं। मैं उनकी उम्र और उनकी पोशाक देखकर हैरान हूं। आईपीएस हैं तो दफ़्तर साड़ियां पहनकर क्यों आई हैं?
मुझे कर्नाटक कैडर की एक आईपीएस मिलती हैं। कहती हैं कि मैं आईजी हूं, लेकिन मुझे पंजाब की डीजीपी से मिलना चाहिए। मेरी कहानी के लिए वही उपयुक्त रहेंगी। कहानी? मैं तो किसी कहानी के बारे में नहीं सोच रही। फिर उन्होंने मुझसे ऐसा क्यों कहा?
इससे पहले कि मैं कोई जवाब दे सकूं, सामने से भड़कीले नीले रंग की सलवार-कमीज़ में एक बेहद ख़ूबसूरत महिला आती दिखती हैं। मुझसे कन्नड अफ़सर कहती हैं कि ये डीजीपी हैं पंजाब की। मैं हैरान हूं! ये तो किसी फिल्मस्टार से भी ज़्यादा सुंदर हैं! और उतनी ही ग्लैमरस भी!
वो मुझसे मिलती हैं और कहती हैं कि ये पहला सीन होगा - उनका ज़मीन पर गिरकर बेहोश हो जाना, और दूसरे सीन में वो अपनी यूनिफॉर्म में होंगी। कहती हैं कि मैं लिखने में मदद करूंगी। तुम लिखो तो। उनमें एक किस्म का तिलस्मी जादू है और मेरी नींद ठीक छह बजे खुली भी है तो भी मैं अपने सपने में मिली उसी जादुई शख़्सियत के बारे में सोच रही हूं।
कहते हैं कि सपने कोई न कोई संदेश दे रहे होते हैं, या फिर अर्धचेतन में बसे किसी ख़्याल को मुकम्मल शक्ल देने का काम कर रहे होते हैं। जिस देश की पुलिस में महज़ 5 फ़ीसदी के आस-पास महिलाएं हों वहां किसी महिला आईपीएस की कहानी किसी को क्या दिलचस्प लगेगी?
वो कौन है जो मुझे ऐसे सपने में नज़र आई है? वो कौन सी कहानी है जिसने अपना सिरा यूं हाथ में थमा दिया है? मैं कहां ढूंढू उसे?
(डायरी में दर्ज कर रही हूं, कि कौन जाने कब कहां कौन-सा ख़्याल ज़िन्दगी के किस मोड़ पर आ मिले। मैंने ऐसे कई सपनों को पूरी की पूरी शक्ल अख़्तियार लेते देखा जो है अक्सर...)
फिर अचानक लगता है कि हम किसी बगीचे में हैं, या शायद मुग़ल गार्डन जैसी किसी जगह, या किसी गेस्ट-हाउस के ख़ूबसूरत लॉन्स में, जहां हमें बैठने की इजाज़त इसलिए नहीं है क्योंकि हम कोई वीआईपी नहीं हैं। सामने से मुझे पुलिसवालों का जत्था आता दिखता है। मेरे दिमाग़ में अचानक ये डर आ गया है कि ये लोग पक्का हमें यहां से उठा ही देंगे। हमें खुले मैदानों में बैठने की अनुमति नहीं, हम कहीं पार्क में भी नहीं बैठ सकते, पहाड़ी ढलानें भी हमारी अपनी नहीं।
मंडली पता नहीं कहां तितर-बितर हो जाती है और मैं सामने से कई सारी संभ्रांत पढ़ी-लिखी महिलाओं को अपनी ओर आती देखती हूं। कोई मुझसे कहता है कि ये सारी महिलाएं आईपीएस ऑफिसर्स हैं। मैं उनकी उम्र और उनकी पोशाक देखकर हैरान हूं। आईपीएस हैं तो दफ़्तर साड़ियां पहनकर क्यों आई हैं?
मुझे कर्नाटक कैडर की एक आईपीएस मिलती हैं। कहती हैं कि मैं आईजी हूं, लेकिन मुझे पंजाब की डीजीपी से मिलना चाहिए। मेरी कहानी के लिए वही उपयुक्त रहेंगी। कहानी? मैं तो किसी कहानी के बारे में नहीं सोच रही। फिर उन्होंने मुझसे ऐसा क्यों कहा?
इससे पहले कि मैं कोई जवाब दे सकूं, सामने से भड़कीले नीले रंग की सलवार-कमीज़ में एक बेहद ख़ूबसूरत महिला आती दिखती हैं। मुझसे कन्नड अफ़सर कहती हैं कि ये डीजीपी हैं पंजाब की। मैं हैरान हूं! ये तो किसी फिल्मस्टार से भी ज़्यादा सुंदर हैं! और उतनी ही ग्लैमरस भी!
वो मुझसे मिलती हैं और कहती हैं कि ये पहला सीन होगा - उनका ज़मीन पर गिरकर बेहोश हो जाना, और दूसरे सीन में वो अपनी यूनिफॉर्म में होंगी। कहती हैं कि मैं लिखने में मदद करूंगी। तुम लिखो तो। उनमें एक किस्म का तिलस्मी जादू है और मेरी नींद ठीक छह बजे खुली भी है तो भी मैं अपने सपने में मिली उसी जादुई शख़्सियत के बारे में सोच रही हूं।
कहते हैं कि सपने कोई न कोई संदेश दे रहे होते हैं, या फिर अर्धचेतन में बसे किसी ख़्याल को मुकम्मल शक्ल देने का काम कर रहे होते हैं। जिस देश की पुलिस में महज़ 5 फ़ीसदी के आस-पास महिलाएं हों वहां किसी महिला आईपीएस की कहानी किसी को क्या दिलचस्प लगेगी?
वो कौन है जो मुझे ऐसे सपने में नज़र आई है? वो कौन सी कहानी है जिसने अपना सिरा यूं हाथ में थमा दिया है? मैं कहां ढूंढू उसे?
(डायरी में दर्ज कर रही हूं, कि कौन जाने कब कहां कौन-सा ख़्याल ज़िन्दगी के किस मोड़ पर आ मिले। मैंने ऐसे कई सपनों को पूरी की पूरी शक्ल अख़्तियार लेते देखा जो है अक्सर...)
जेएलएफ डायरिज़ 3: एक दिग्गी पैलेस, कुल पांच दिन, 240 से ज़्यादा वक्ता, कुल 175 सत्र
अंतिम दिन सुबह की ज़ोरदार बारिश में सबकुछ धुल जाने का डर था - दिग्गी पैलेस में सजे मंच और कुर्सियां तो शायद बेअसर भीगती रहतीं, जेएलएफ में आनेवालों का उत्साह जनवरी की इस ठंड में पहले जम जाता। लेकिन मेरी आशंका निराधार रही। सुबह दस बजे अशोक वाजपेयी और यतीन्द्र मिश्र के साथ "कविता की कहानी" पर जो चर्चा होनी थी, वो बिना एक मिनट की भी देरी से, अपने तय वक़्त पर दिग्गी पैलेस के एक छोटे से कमरे में शुरू हो चुकी थी। हम दस मिनट की देरी से पहुंचे, और उतनी ही देर में पूरा कमरा ठसाठस भर गया था और बिना माइक्रोफोन और स्पीकरों के भी सुननेवाले बड़े ध्यान से अशोक वाजपेयी की "कविता की कहानी" पर कविता-सी चर्चा सुन रहे थे!
थोड़ी ही दूर एक दूसरे कमरे में ग्लोरिया स्टेनेम अमेरिकी सिविल राइट्स मूवमेंट में महिलाओं की भूमिका को हिंदुस्तान के संदर्भ में देखने के लिए प्रेरित कर रही हैं। ठंड में उंगलियों ने हरकत करना बंद कर रखा है तो क्या, दिमाग के लिए ढेरों काम है। आख़िरी दिन भी कीचड़ सने रास्तों से होकर दिग्गी पैलेस में आने वालों का तांता रुका नहीं। कहने वालों का कुछ नहीं जाता, सुनने वाले कमाल करते हैं!
सुनने वालों और गुनने वालों की ये भीड़ हर साल जमा होती है यहां। मैं इस बार पांचों दिन रुककर देखना चाहती थी कि वो क्या चीज़ है कि जिसे देखो वही जयपुर जाने को बेताब रहता है। मैं देखना चाहती थी कि जयपुर के नाम का ये 'स्टेटस सिंबल' है, या वाकई पांच दिनों तक यहां की हवा में कोई सुरूर होता है जिसकी कशिश से खिंचकर लोग जाने कहां-कहां से होते हुए जयपुर पहुंच जाते हैं।
प्रोफेसर अमर्त्य सेन के ओपनिंग एड्रेस - उद्घाटन भाषण - में वो जवाब मिल गया। जब एक नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अपने देश के लिए सात ख़्वाहिशें बयां करते हुए ये कहे कि काश, मेरा देश विज्ञान के ऊपर कला और समाजशास्त्र (आर्ट्स एंड ह्यूमैनिटिज़) को तरजीह दे तो जवाब वहीं मिल जाता है। जाने क्यों अमर्त्य सेन को सुनते हुए रामवृक्ष बेनीपुरी का लिखा स्कूल में पढ़ा हुआ निबंध 'गेहूं और गुलाब' दिमाग में घूमता रहा।
"गेहूं बड़ा या गुलाब? हम क्या चाहते हैं - पुष्ट शरीर या तृप्त मानस? या पुष्ट शरीर पर तृप्त मानस?"
मानव को मानव बनाया गुलाब ने! उस गुलाब ने जो साहित्य और संस्कृति का प्रतीक है। उसी गुलाब की ख़ुशबू में खींचे, थोड़ी देर के लिए अपनी जिज्ञासाओं को शांत करने के उद्देश्य से, अपने तंग समझ की गोल धरती को आकाश बनाने के लिए ऐसे साहित्योत्सवों में पहुंचते हैं लोग। इन लोगों में लिखने वाले या कभी लिखने की ख़्वाहिश रखने वाले ज़रूर होते होंगे शायद। लेकिन इन लोगों में ज़्यादातर जिज्ञासु, न बुझनेवाली प्यास लिए चलनेवाले होते हैं। अपने भीतर की प्यास को बुझा पाने की थोड़ी-सी उम्मीद सुननेवालों को ऐसे महाआयोजन में खींच लाती है।
और कहनेवालों के पास तो कई वजहें हैं। उनके पास कहने, अभिव्यक्त करने को इतना कुछ था,इसलिए उन्होंने किताबें लिखीं। फिल्में बनाईं। गीत और संगीत का ज़रिया चुना। अभिव्यक्त कर चुकने के बाद संवाद की कभी न मिट पाने वाली प्यास कहने वालों को मंच पर ले जाती है, उन लेखकों-कवियों-चिंतकों-दार्शनिकों के भीतर का वक्ता बाहर ले आती है। यूं भी अपनी कहानी सुनाने, अपने अनुभव बांटने की कला में हम सब माहिर होते हैं।
फिर एक बिज्जी पर बात करने के लिए इरफ़ान ख़ान की ज़रूरत क्यों पड़ती है? क्यों कोई स्टार ओमप्रकाश बाल्मिकी की पिछड़े हुए लोगों पर लिखी पिछड़ी हुई कविताएं पढ़ता है तभी कविता अचानक 'ग्लैमरस' लगने लगती है? बेस्टसेलर कौन होता है? पॉपुलर को तवज्जो दी जाए लिटररी को?
जवाब भी इरफान ख़ान की ओर से ही आता है। बिज्जी को शाहरुख या इरफ़ान की ज़रूरत नहीं। बॉलीवुड को बिज्जी की है, क्योंकि बिज्जी पारसमणि थे। तालियां नीरव पटेल के लिए भी बजती हैं, और सीपी देवल के लिए भी। अगर सुननेवाले राज कुंद्रा के थ्रिलर की रचना-प्रेरणा के बारे में जानना चाहते हैं, तो उतने ही सवाल जॉनथन फ्रैनज़न के लिए भी बचाकर रखे जाते हैं।
आख़िर वो कौन सी कड़ी है जो इन सबको जोड़ती है?
एक दिग्गी पैलेस। कुल पांच दिन। 240 से ज़्यादा वक्ता। कुल 175 सत्र। छह अलग-अलग मंच। क्या सुनें और क्या छोड़ें। फिर समझने की शक्ति की भी तो अपनी सीमाएं हैं!
लेकिन उस जगह का प्रताप है कि अपनी तमाम सीमाओं को थोड़ा और धक्का लगाते हुए, खुद को थोड़ा और प्रोत्साहित करते हुए मेरे जैसे हज़ारों सुनने वाले कभी लोकतंत्र पर गहन चर्चा का हिस्सा बने हैं तो कहीं विलुप्त होती भाषाओं पर सिर धुन रहे हैं। हर ओर एक मुद्दा है, हर तरफ उठती,बाहर निकलती आवाज़ें हैं। और ये मलाल भी, कि हर आवाज़ किसी निष्कर्ष पर पहुंचे, ये ज़रूरी नहीं।
इसलिए बिना किसी अपेक्षा के किसी सत्र में बैठ जाने पर बाहर निकलते हुए झोली के भर जाने जैसा गुमां हुआ है। कभी मैंने ये नहीं सोचा था कि अंडमानी भाषा पर गूगल करके गीत सुनूंगी कभी, लेकिन अन्विता अब्बी को उनके शोध के बारे में बोलते हुए सुनकर विलुप्त होती ऐसी भाषाओं की चिंता सताती है। थोड़ी देर के लिए ही सही, समझ में आता है कि गुम होती भाषा कैसे एक समाज को गायब कर सकती है। प्रसून जोशी के बगल में बैठे शेखर पाठक को राग पहाड़ी गुनगुनाते देखकर अफ़सोस होता है कि नानी जो झूमर गाया करती थीं, उसको रिकॉर्ड नहीं किया। तब समझ में आता है कि गीत की एक कॉपी का गुम हो जाना एक परिवार का निजी नुकसान ही नहीं होता, भाषा को भी उससे झटका लगता है।
गूगल के इस दौर में पर्यावरण की चिंताओं पर बहस के लिए मुद्दे खोजने के लिए इंटरनेट बहुत है। लेकिन जब एक मंच पर सुमन सहाय और शेखर पाठक के साथ एक पाकिस्तानी पर्यावरणविद् अहमद रफी आलम को बोलते सुनते हैं तब समझ में आता है कि नदियों, जंगलों, ज़मीन, आसमानों से जुड़ी हुई चिंताएं न सरहदों में बांधी जा सकती हैं न किसी समाजविशेष की जागीर होती हैं। साहित्य के मंच पर पर्यारवरण जैसा मुद्दा क्यों? इसलिए क्योंकि साहित्य रचना सिर्फ ख़ूबसूरत शब्दों में छंदों, कथाओं को बांधना नहीं होता, अपने दौर के पुख़्ता और सटीक दस्तावेज़ तैयार करना भी होता है।
अपने समय और समाज के दस्तावेज़ों के ज़रिए दुनिया भर में पहुंचनेवाले अंतरराष्ट्रीय लेखक 'द ग्लोबल नॉवेल' पर बात करते हुए भी कई-कई समाजों को बांधने के लिए अनुवाद की ज़रूरत पर ज़ोर देते हैं तब समझ में आता है कि ग्लोबल नॉवेल भी दरअसल अंग्रेज़ी का मोहताज नहीं। एक नॉवेल तभी ग्लोबल होता है, जब वो 'यूनिवर्सल' होता है - अपने देशकाल, वातावरण और पात्रों में किसी समाज विशेष की परछाई होते हुए भी अपने कथानक और भावों में पूरी तरह 'यूनिवर्सल।'
सरोकार कई हैं, चिंताएं कईं। विषय कई हैं, बोलनेवाले कई। पक्ष में कई, विपक्ष में कई। लेकिन बहस, विरोध, विवाद, प्रलाप - ये सब एक स्वस्थ समाज की निशानियां हैं। जब कई सारी विचारधाराएं कई सारी भाषाओं और कई सारे विचारों से होती हुई किसी एक मंच पर पहुंचती हो तो उम्मीद बंधाती है कि हर आवाज़ के लिए वक़्त देने वाला ये समाज विकसित होता - इवॉल्व होता समाज है। जो समाज किताबें पढ़ता है, सोचता है, बिना विरोध या नतीजे की चिंता किए अभिव्यक्त करता है, उस समाज को देखकर उम्मीद बंधती है। और ये उम्मीद टोलियां बना-बनाकर घूम रहे स्कूली बच्चों को देखकर और पुख़्ता हो जाती है जो न सिर्फ झोले भर-भरकर किताबें खरीद रहे हैं बल्कि उन किताबों को लिखनेवालों से मुश्किल सवाल भी पूछ रहे हैं। जयपुर साहित्योत्सव का कोई और उद्देश्य हो न हो, इस महाआयोजन की सार्थकता इन बच्चों को देखकर सिद्ध हो जाती है।
ज़रूरी नहीं कि हम हर बात से सहमत ही हों - वर्तिका नंदा की उन कविताओं से भी, जो उन्होंने सुनंदा पुष्कर को श्रद्धांजलि देते हुए आख़िरी दिन के एक सत्र में पढ़ा। लेकिन इन सहमतियों और असहमति के बीच से जो निकलता है, एक बीच का रास्ता है। इस बीच के रास्ते का नाम साहित्य है।
प्रोफेसर अमर्त्य सेन की दुआओं के पूरा हो जाने की दुआ मांगने में मेरा भी एक स्वार्थ निहित है। "अब गुलाब गेहूं पर विजय प्राप्त करे! गेहूं पर गुलाब की विजय - चिर विजय!" और ये गुलाब सिर्फ सौंदर्यबोध का प्रतीक न हो। ये गुलाब सूक्ष्म भावनाओं का प्रतीक हो, संतुलन का प्रतीक हो। ये गुलाब आज़ाद अभिव्यक्ति का प्रतीक हो।
किसने कहा कि एक साहित्योत्सव समाज बदल देगा। लेकिन एक साहित्योत्सव अपने-अपने समाजों में बदलाव की कहानियां लिख रहे लोगों को ज़रूर जुटा देगा हमारे-आपके लिए!
(ये पोस्ट मूलतः 'जानकी पुल' पर प्रकाशित हुई)
शनिवार, 18 जनवरी 2014
जेएलएफ डायरिज़ 2: पैनी हो, लेकिन टेढ़ी हो लिखनेवाले की नज़र
दिग्गी पैलेस में साहित्योत्सव की पहली सुबह माहौल कैसा था, मैं उससे शुरु करना चाहती थी अपनी बात। लेकिन अब मैं ख़ुद को पैलेस एन्ट्रेन्स पर लगी उलटी छतरियों में से एक महसूस करने लगी हूं, जो यूं तो इस्तेमाल में लाए जाएं तो बड़े काम के होते हैं, लेकिन भीड़ में सजावटी पीस के तौर पर टांग दिए जाएं तो उनकी ज़रूरत ख़त्म हो जाती है। :-) पहले ही दिन इतनी भीड़, कि भीड़ में लिखनेवाले भी लापता, सुननेवाले भी। फिर भी भीड़ में कुछ ख़ास आवाज़ें अपनी बात कानों और ज़ेहन में छोड़ जाती हैं।
यूं तो इस तरह के आयोजनों के उद्घाटन समारोहों में दीए जलाने के बाद मुख्य अतिथि की बात में ग़ौर करनेवाली कोई दमदार बात नहीं होती, लेकिन यदि मुख्य अतिथि महामहिम माग्रेट अल्वा जैसी कोई शख़्सियत हो, माफ़ कीजिएगा - कोई महिला शख़्सियत हो - तो लोकतंत्र (democracy), संवाद (dialogues), साहित्य (literature), लिंग समानता (gender equality), महिलाओं के ख़िलाफ़ अत्याचार (atrocities against women) और यौन शोषण (rape and molestation) जैसे शब्द एक ही सांस में, एक ही वाक्य में सुनने को मिलता है। जिस साहित्योत्सव में 'Women Interrupted' और 'Crime and Punishment' पर बा़क़ायदा सीरिज़ में बातचीत होनी हो, उस आयोजन के उद्घाटन मंच पर ही ये चर्चा खोलना लाज़िमी हो जाता है। तब ये उम्मीद बंधती है कि अगले पांच दिनों में इन विमर्शों और संवादों के ज़रिए सर्जनात्मक दिशा में बढ़ा जा सकता है।
प्रोफेसर अमर्त्य सेन की नोट अड्रेस के लिए मंच पर आते हैं तो तालियों की जैसी गड़गड़ाहट उनका स्वागत करती है, उससे अंदाज़ा लग जाता है कि intellect का अपने किस्म का स्टारडम, अपने किस्म का प्रभामंडल होता है।
"A wish a day a week for my country" - अपने देश के लिए हर रोज़ की एक ख़्वाहिश... एक प्रार्थना... कुछ ख़्वाहिशें सरहदों की मोहताज नहीं होतीं। कुछ ख़्वाहिशें सार्वलौकिक होती हैं, और इन्हीं निःस्वार्थ के दम पर तमाम नाउम्मिदियों के बीच दुनिया टिकी है शायद।
बहरहाल, गूगल करते ही आपको न सिर्फ प्रोफेसर सेन के भाषण का टेक्स्ट, बल्कि वीडियो भी मिल जाएगा, इसलिए मैं बहुत कुछ जोड़ना नहीं चाहती। लेकिन प्रोफेसर सेन ने अपनी ये सातों wishes जिस आसानी, विवेक और चातुर्य के साथ अपनी देवी 'जीएमटी' के साथ श्रोताओं के सामने पेश की हैं, वो इस भाषण को मेरे ज़ेहन में इतना ही ख़ास बना देता है कि मैं भविष्य में अपने बच्चों को भी इसे सुनना चाहूंगी, ख़ासकर इसलिए क्योंकि पहली ही विश में उन्होंने अपने देश में कला, साहित्य और संस्कृति से जुड़ी शिक्षा की मज़बूती मांग ली। कमाल है कि जहां विज्ञान और तकनीक विकास की ज़रूरत कहा जाता है, वहां एक नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री और चिंतक ह्यूमैनिटिज़ पढ़ने की ज़रूरत पर ज़ोर दे रहा है। बाद में बच्चों को बताने के लिए मैंने ये बात ख़ासतौर पर अपने दिमाग में नोट कर ली है। बाकी के छह 'wishes' राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक सरोकारों से जुड़े हैं। आख़िरी विश मीडिया के ज़िम्मेदारी पर भी है। उम्मीद ये कि मीडिया ग्लैमर और चमक-दमक के अलावा वास्तविक भारत और असली मुद्दों को उठाए, और मकसद हंगामाख़ेज़ तरीके से नहीं। (आख़िर में जिस 'सोशल मीडिया' के प्रभाव की डॉ सेन ने बात की, उस सोशल मीडिया ने दुर्भाग्य से दिन ख़त्म होते-होते तक अपना असर दिखा दिया था - सुनंदा पुष्कर की मौत की ख़बर के रूप में।) ख़ैर, डॉ सेन की एक और बात मैंने अपने और अपने बच्चों के लिए गांठ बांध ली है - किताबें पढ़ने की ज़रूरत पर। शायद यही किताबें हमें बेहतर इंसान बना पाएं...
हर साल की तरह साहित्योत्सव में वक्ताओं का पैनल इतनी ही विविध है कि काग़ज़-कलम लेकर बैठना पड़ा है - क्या सुनें, क्या छोड़ें। मैंने फिलहाल जहां क़दम ले जाएं, उस ओर चलने का फ़ैसला कर लिया है, और सबसे पहला सेशन हबीब तनवीर को श्रद्धांजलि है जिसमें महमूद फ़ारूख़ी, पीयूष दईया और गीतांजलि श्री बैठे हैं।
हबीब तनवीर की एक याद मेरे ज़ेहन में भी है। साल था 1998। मैं कॉलेज में थी अभी। बैकस्टेज होने की अपनी आदत से मजबूर मैं एक ख़ास कार्यक्रम में वॉलन्टियर कर रही थी। हबीब तनवीर अपना प्रोडक्शन लेकर लेडी श्रीराम कॉलेज आए थे, और मेरा काम उन्हें 'usher' करना था। नाटक बर्टोल्ट ब्रेख़्त के "The Caucasian Chalk Circle' का हिंदी रूपांतरण था, और ईमानदारी से कहूं तो मुझे याद नहीं कि नाटक का नाम क्या था (मैंने गूगल करके देखने की कोशिश भी नहीं की)। मेरी समझ इतनी विकसित नहीं हुई थी जो रंगमंच के शिखरपुरुष से कुछ 'intelligent' संवाद कर पाता। फिर मेरे मन में पूरा नाटक न देख पाने का अफ़सोस भी था, हालांकि शायद मैंने पूरा नाटक रन-थ्रू के दौरान देखा था। ख़ैर, तनवीर साब से बात करने की ख़ुशकिस्मती मिली, उसकी क़ीमत कई सालों के बाद समझ में आई। 'मुझे कम बोलनेवाले लोग पसंद नहीं हैं,' तनवीर साब ने कहा था। मैं उन्हें क्या बताती कि मैं चुप क्यों थी। डर था कि मेरी अज्ञानता पकड़ी जाएगी, (और ऐसी मुश्किल परिस्थिति में अपने काम से काम रखनी की ट्रेनिंग का ख़ामियाज़ा उस दिन के बाद कई और मौकों पर भुगतना पड़ा है मुझे।)
हबीब तनवीर की उम्र सत्तर के पार रही होगी शायद, लेकिन उनकी ऊर्जा सामनेवाले को थका देने के लिए काफी थी। मुझे याद है कि उनके साथ उनकी सहूलियत का ख्याल रखने का जो काम मुझे सौंपा गया था, उस काम ने मुझे इतना थका दिया था कि हॉस्टल में कॉम्बिफ्लैम खाकर सोना पड़ा था वापस जाकर। पल में स्टेज के पीछे, पल में मेकअप रूम में और पल में लाइट्स का मुआयना करने के लिए पहली मंज़िल पर...
उसी ऊर्जा को शायद महमूद फ़ारूखी ने उनके संस्मरण का उर्दू से अंग्रेज़ी में अनुवाद करते हुए महसूस किया होगा, क्योंकि किताब से एक हिस्सा पढ़ते हुए, हबीब तनवीर पर बात करते हुए उनमें भी उतनी ही ऊर्जा, उतना ही जोश था। तफ़्सील से कही हर बात को उतनी ही तफ़्सील से रिकॉर्ड करना मुमकिन नहीं होता, लेकिन जिन संस्मरणों, यादों, किरदारों, बातों के ज़रिए हबीब तनवीर की शख़्सियत को और जानने का मौका मिला इस सत्र के दौरान, उन बातों ने हबीब तनवीर से मुलाक़ात के उस एक मौके को अपनी अज्ञानता में बेजां गंवा देने के अफ़सोस को ज़रूर और बढ़ा दिया।
बिज्जी को श्रद्धांजलि के अगले सत्र में बैठी मैं। इस सत्र में जाने भीड़ विजयदान देथा को नमन देने के लिए जमा हुई थी या इरफान ख़ान को देखने के लिए, लेकिन 'बीज जैसी पुरानी, फल जैसी नई' कहानियां लिखने वाले बिज्जी को और पढ़ने का कौहहातूहल मुझमें तो शायद न जागता अगर मैंने महमूद फ़ारूखी को उनकी कहानी 'चौबोली' सुनाते न सुना होता। कई बार अपनी अज्ञानता और तंग समझ को दूर करने के लिए ऐसे ही किसी catalyst की ज़रूरत पड़ती है।
मैं डॉ नरेन्द्र कोहली के साथ वर्तिका नंदा की 'महासमर' पर बातचीत के अगले सत्र की बातचीत से पहले डॉ कोहली से अपनी मुलाक़ात के बारे में लिखना चाहती थी, लेकिन कहीं मुझे pretentious और फेंकू न मान लिया जाए, इसलिए उसके बारे में फिर कभी लिखूंगी। :-)
मैं वर्तिका की बातचीत करने की शैली की कायल हूं। वे बहुत तैयारी के साथ मंच पर होती हैं, और बड़े आराम से, बहुत सोच-समझकर चुने गए शब्दों से सजे सवाल पेश करती हैं। जितना मज़ा वक्ता को सुनने में आता है, उतना ही मज़ा उनके सवालों को सुनने में आता है। वर्तिका के सवाल सवाल नहीं होते, अपने आप में मुकम्मल Insights और comments होते हैं। 'महासमर' की प्रासंगिकता पर सीधा सवाल पूछने की बजाए उन्होंने आज की राजनीति में कृष्ण और पांडवों की जिस ज़रूरत को जिस ख़ूबसूरती से पूछा उतनी सहजता से डॉ कोहली उस सवाल से बचकर निकल गए। हालांकि डॉ कोहली ने आख़िर में ये स्वीकार किया कि कोई भी लेखक अपने समय से स्वतंत्र नहीं होता। ये बात चर्चा में कई बार आई, इस सवाल के जवाब में भी कि उन्हें महाभारत या रामायण पर आधारित रचनाएं करने की प्रेरणा कहां से मिली? इसके जवाब में डॉ कोहली ने एक किस्सा उद्धृत किया, जो समाज में 'धर्म' और 'अनासक्त राजा' की वापसी की आवश्यकता को रेखांकित करता है।
साहित्योत्सव के आख़िरी सत्रों में से एक 'आक्रोश' में हाशिए पर जीनेवाले लोगों से जुड़े साहित्य पर चर्चा के लिए नीरव पटेल और हरिराम मीणा के साथ महमूद फ़ारूखी और इरफान खान बैठे तो फ्रंट लॉन्स में खड़े होने की जगह तक नहीं थी। फ़ारूखी ने चुटकी लेते हुए कहा भी कि इरफान की मौजूदगी ने जिस भीड़ को यहां इकट्ठा किया है, वो भीड़ शायद इस सत्र से और enlightened होकर लौटे।
सच कहूं तो दलित और आदिवासी साहित्य पर मेरी अपनी समझ शून्य है (बल्कि आज पहले ही दिन मुझे अहसास हो गया कि मैं कितना कम जानती हूं, कितना कम पढ़ा है मैंने!) लेकिन हरिराम मीणा की इस बात से मैं पूरी तरह इत्तिफाक रखती हूं कि आदिवासियों को हम हमेशा एक रंगीन चश्मे से देखते हैं - या तो उन्हें बर्बर मान लिया जाता है, या फिर राज कपूर की फिल्मों में झींगालाला करते हुए प्रकृति की गोद में हंसते-गाते लोगों की रोमांटिक छवि में स्टीरियोटाईप कर दिया जाता है। मैं झारखंड में पली-बढ़ी, इसलिए मीणा साहब की बात शायद बेहतर तरीके से समझ पाई कि आदिवासियों को लेकर जो संकुचित दृष्टिकोण है, उसे बदलने की ज़रूरत है और उनपर सहूलियतें थोपने से पहले उनका विश्वास जीतना होगा। इरफान ने ओमप्रकाश बाल्मिकी दो कविताएं भी पढ़ीं - 'ठाकुर का कुंआ' और 'सदियों का संताप'। सिनेमा से गायब इन कहानियों पर बोलते हुए इरफान ने वो कड़वा सच बयां किया जो हम सब जानते हैं - सिनेमा सपनों का सिनेमा होता है, यथार्थ से दूर ले जाने का सिनेमा होता है।
आज का दिन ख़त्म हुआ लेकिन एक बात जो मेरी समझ में आई है वो ये है कि अपना नज़रिया single dimensional नहीं रखा जा सकता। रचनात्मकता का मतलब पैनी नज़र रखना तो है ही, लेकिन अपनी नज़र को टेढ़ी बनाए रखना भी है (ये बात दरअसल हबीब तनवीर के संदर्भ में किसी वक्ता ने भी कही थी, लेकिन फिलहाल याद नहीं आ रहा कि किसने कही थी - शायद महमूद फ़ारूखी ने।)
और जाते-जाते ये भी सुन जाईए कि कल कैसा faux pax, कितनी बड़ी बेवकूफी की है हमने। क्लार्क्स आमेर से होटल लौटते हुए हमें जो गाड़ी दी गई, उसमें सामने एक विदेशी बैठे थे। हम तीन महिलाएं पिछली सीट पर जा बैठीं, और महिलाओं के स्टीरियोटाईप्ड छवि को अकाट्य सत्य साबित करते हुए अपनी फुसफुसाहटों में लग गईं। होश तक न रहा कि सामने बैठे सज्जन से कुछ बात भी की जाए। हममें से कोई ख़ैर उन्हें वैसे भी नहीं पहचानता था। आज सुबह अख़बार देखा तो समझ में आया कि हमें आधे घंटे के लिए जोनथन फ्रान्ज़न के साथ सफ़र करने का मौका मिला, और अपनी बेवकूफी में हमने वो मौका गंवा दिया। (जोनथन इस सदी के सबसे बड़े अमरिकी उपन्यासकारों में एक गिने जाते हैं, और आपने बिल्कुल सही अंदाज़ा लगाया - इस कम पढ़ी-लिखी बदबख़्त औरत ने उन्हें भी नहीं पढ़ा, सिर्फ उनके interviews पढ़े हैं)।
कहने का मतलब कि हबीब तनवीर से लेकर डॉ कोहली, और अब जोनथन फ्रैन्ज़न - लेकिन चिकना घड़ा तो ख़ैर हर हाल में चिकना ही रहेगा न...। न टेढ़ी, न पैनी - मेरी सीधी और घोड़े की तरह पट्टियां (blinkers) लगी हुई नज़र मुझे कहीं नहीं ले जा सकती। ख़ैर, ये अफसोस फिर और कभी...
यूं तो इस तरह के आयोजनों के उद्घाटन समारोहों में दीए जलाने के बाद मुख्य अतिथि की बात में ग़ौर करनेवाली कोई दमदार बात नहीं होती, लेकिन यदि मुख्य अतिथि महामहिम माग्रेट अल्वा जैसी कोई शख़्सियत हो, माफ़ कीजिएगा - कोई महिला शख़्सियत हो - तो लोकतंत्र (democracy), संवाद (dialogues), साहित्य (literature), लिंग समानता (gender equality), महिलाओं के ख़िलाफ़ अत्याचार (atrocities against women) और यौन शोषण (rape and molestation) जैसे शब्द एक ही सांस में, एक ही वाक्य में सुनने को मिलता है। जिस साहित्योत्सव में 'Women Interrupted' और 'Crime and Punishment' पर बा़क़ायदा सीरिज़ में बातचीत होनी हो, उस आयोजन के उद्घाटन मंच पर ही ये चर्चा खोलना लाज़िमी हो जाता है। तब ये उम्मीद बंधती है कि अगले पांच दिनों में इन विमर्शों और संवादों के ज़रिए सर्जनात्मक दिशा में बढ़ा जा सकता है।
प्रोफेसर अमर्त्य सेन की नोट अड्रेस के लिए मंच पर आते हैं तो तालियों की जैसी गड़गड़ाहट उनका स्वागत करती है, उससे अंदाज़ा लग जाता है कि intellect का अपने किस्म का स्टारडम, अपने किस्म का प्रभामंडल होता है।
"A wish a day a week for my country" - अपने देश के लिए हर रोज़ की एक ख़्वाहिश... एक प्रार्थना... कुछ ख़्वाहिशें सरहदों की मोहताज नहीं होतीं। कुछ ख़्वाहिशें सार्वलौकिक होती हैं, और इन्हीं निःस्वार्थ के दम पर तमाम नाउम्मिदियों के बीच दुनिया टिकी है शायद।
बहरहाल, गूगल करते ही आपको न सिर्फ प्रोफेसर सेन के भाषण का टेक्स्ट, बल्कि वीडियो भी मिल जाएगा, इसलिए मैं बहुत कुछ जोड़ना नहीं चाहती। लेकिन प्रोफेसर सेन ने अपनी ये सातों wishes जिस आसानी, विवेक और चातुर्य के साथ अपनी देवी 'जीएमटी' के साथ श्रोताओं के सामने पेश की हैं, वो इस भाषण को मेरे ज़ेहन में इतना ही ख़ास बना देता है कि मैं भविष्य में अपने बच्चों को भी इसे सुनना चाहूंगी, ख़ासकर इसलिए क्योंकि पहली ही विश में उन्होंने अपने देश में कला, साहित्य और संस्कृति से जुड़ी शिक्षा की मज़बूती मांग ली। कमाल है कि जहां विज्ञान और तकनीक विकास की ज़रूरत कहा जाता है, वहां एक नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री और चिंतक ह्यूमैनिटिज़ पढ़ने की ज़रूरत पर ज़ोर दे रहा है। बाद में बच्चों को बताने के लिए मैंने ये बात ख़ासतौर पर अपने दिमाग में नोट कर ली है। बाकी के छह 'wishes' राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक सरोकारों से जुड़े हैं। आख़िरी विश मीडिया के ज़िम्मेदारी पर भी है। उम्मीद ये कि मीडिया ग्लैमर और चमक-दमक के अलावा वास्तविक भारत और असली मुद्दों को उठाए, और मकसद हंगामाख़ेज़ तरीके से नहीं। (आख़िर में जिस 'सोशल मीडिया' के प्रभाव की डॉ सेन ने बात की, उस सोशल मीडिया ने दुर्भाग्य से दिन ख़त्म होते-होते तक अपना असर दिखा दिया था - सुनंदा पुष्कर की मौत की ख़बर के रूप में।) ख़ैर, डॉ सेन की एक और बात मैंने अपने और अपने बच्चों के लिए गांठ बांध ली है - किताबें पढ़ने की ज़रूरत पर। शायद यही किताबें हमें बेहतर इंसान बना पाएं...
हर साल की तरह साहित्योत्सव में वक्ताओं का पैनल इतनी ही विविध है कि काग़ज़-कलम लेकर बैठना पड़ा है - क्या सुनें, क्या छोड़ें। मैंने फिलहाल जहां क़दम ले जाएं, उस ओर चलने का फ़ैसला कर लिया है, और सबसे पहला सेशन हबीब तनवीर को श्रद्धांजलि है जिसमें महमूद फ़ारूख़ी, पीयूष दईया और गीतांजलि श्री बैठे हैं।
हबीब तनवीर की एक याद मेरे ज़ेहन में भी है। साल था 1998। मैं कॉलेज में थी अभी। बैकस्टेज होने की अपनी आदत से मजबूर मैं एक ख़ास कार्यक्रम में वॉलन्टियर कर रही थी। हबीब तनवीर अपना प्रोडक्शन लेकर लेडी श्रीराम कॉलेज आए थे, और मेरा काम उन्हें 'usher' करना था। नाटक बर्टोल्ट ब्रेख़्त के "The Caucasian Chalk Circle' का हिंदी रूपांतरण था, और ईमानदारी से कहूं तो मुझे याद नहीं कि नाटक का नाम क्या था (मैंने गूगल करके देखने की कोशिश भी नहीं की)। मेरी समझ इतनी विकसित नहीं हुई थी जो रंगमंच के शिखरपुरुष से कुछ 'intelligent' संवाद कर पाता। फिर मेरे मन में पूरा नाटक न देख पाने का अफ़सोस भी था, हालांकि शायद मैंने पूरा नाटक रन-थ्रू के दौरान देखा था। ख़ैर, तनवीर साब से बात करने की ख़ुशकिस्मती मिली, उसकी क़ीमत कई सालों के बाद समझ में आई। 'मुझे कम बोलनेवाले लोग पसंद नहीं हैं,' तनवीर साब ने कहा था। मैं उन्हें क्या बताती कि मैं चुप क्यों थी। डर था कि मेरी अज्ञानता पकड़ी जाएगी, (और ऐसी मुश्किल परिस्थिति में अपने काम से काम रखनी की ट्रेनिंग का ख़ामियाज़ा उस दिन के बाद कई और मौकों पर भुगतना पड़ा है मुझे।)
हबीब तनवीर की उम्र सत्तर के पार रही होगी शायद, लेकिन उनकी ऊर्जा सामनेवाले को थका देने के लिए काफी थी। मुझे याद है कि उनके साथ उनकी सहूलियत का ख्याल रखने का जो काम मुझे सौंपा गया था, उस काम ने मुझे इतना थका दिया था कि हॉस्टल में कॉम्बिफ्लैम खाकर सोना पड़ा था वापस जाकर। पल में स्टेज के पीछे, पल में मेकअप रूम में और पल में लाइट्स का मुआयना करने के लिए पहली मंज़िल पर...
उसी ऊर्जा को शायद महमूद फ़ारूखी ने उनके संस्मरण का उर्दू से अंग्रेज़ी में अनुवाद करते हुए महसूस किया होगा, क्योंकि किताब से एक हिस्सा पढ़ते हुए, हबीब तनवीर पर बात करते हुए उनमें भी उतनी ही ऊर्जा, उतना ही जोश था। तफ़्सील से कही हर बात को उतनी ही तफ़्सील से रिकॉर्ड करना मुमकिन नहीं होता, लेकिन जिन संस्मरणों, यादों, किरदारों, बातों के ज़रिए हबीब तनवीर की शख़्सियत को और जानने का मौका मिला इस सत्र के दौरान, उन बातों ने हबीब तनवीर से मुलाक़ात के उस एक मौके को अपनी अज्ञानता में बेजां गंवा देने के अफ़सोस को ज़रूर और बढ़ा दिया।
बिज्जी को श्रद्धांजलि के अगले सत्र में बैठी मैं। इस सत्र में जाने भीड़ विजयदान देथा को नमन देने के लिए जमा हुई थी या इरफान ख़ान को देखने के लिए, लेकिन 'बीज जैसी पुरानी, फल जैसी नई' कहानियां लिखने वाले बिज्जी को और पढ़ने का कौहहातूहल मुझमें तो शायद न जागता अगर मैंने महमूद फ़ारूखी को उनकी कहानी 'चौबोली' सुनाते न सुना होता। कई बार अपनी अज्ञानता और तंग समझ को दूर करने के लिए ऐसे ही किसी catalyst की ज़रूरत पड़ती है।
मैं डॉ नरेन्द्र कोहली के साथ वर्तिका नंदा की 'महासमर' पर बातचीत के अगले सत्र की बातचीत से पहले डॉ कोहली से अपनी मुलाक़ात के बारे में लिखना चाहती थी, लेकिन कहीं मुझे pretentious और फेंकू न मान लिया जाए, इसलिए उसके बारे में फिर कभी लिखूंगी। :-)
मैं वर्तिका की बातचीत करने की शैली की कायल हूं। वे बहुत तैयारी के साथ मंच पर होती हैं, और बड़े आराम से, बहुत सोच-समझकर चुने गए शब्दों से सजे सवाल पेश करती हैं। जितना मज़ा वक्ता को सुनने में आता है, उतना ही मज़ा उनके सवालों को सुनने में आता है। वर्तिका के सवाल सवाल नहीं होते, अपने आप में मुकम्मल Insights और comments होते हैं। 'महासमर' की प्रासंगिकता पर सीधा सवाल पूछने की बजाए उन्होंने आज की राजनीति में कृष्ण और पांडवों की जिस ज़रूरत को जिस ख़ूबसूरती से पूछा उतनी सहजता से डॉ कोहली उस सवाल से बचकर निकल गए। हालांकि डॉ कोहली ने आख़िर में ये स्वीकार किया कि कोई भी लेखक अपने समय से स्वतंत्र नहीं होता। ये बात चर्चा में कई बार आई, इस सवाल के जवाब में भी कि उन्हें महाभारत या रामायण पर आधारित रचनाएं करने की प्रेरणा कहां से मिली? इसके जवाब में डॉ कोहली ने एक किस्सा उद्धृत किया, जो समाज में 'धर्म' और 'अनासक्त राजा' की वापसी की आवश्यकता को रेखांकित करता है।
साहित्योत्सव के आख़िरी सत्रों में से एक 'आक्रोश' में हाशिए पर जीनेवाले लोगों से जुड़े साहित्य पर चर्चा के लिए नीरव पटेल और हरिराम मीणा के साथ महमूद फ़ारूखी और इरफान खान बैठे तो फ्रंट लॉन्स में खड़े होने की जगह तक नहीं थी। फ़ारूखी ने चुटकी लेते हुए कहा भी कि इरफान की मौजूदगी ने जिस भीड़ को यहां इकट्ठा किया है, वो भीड़ शायद इस सत्र से और enlightened होकर लौटे।
सच कहूं तो दलित और आदिवासी साहित्य पर मेरी अपनी समझ शून्य है (बल्कि आज पहले ही दिन मुझे अहसास हो गया कि मैं कितना कम जानती हूं, कितना कम पढ़ा है मैंने!) लेकिन हरिराम मीणा की इस बात से मैं पूरी तरह इत्तिफाक रखती हूं कि आदिवासियों को हम हमेशा एक रंगीन चश्मे से देखते हैं - या तो उन्हें बर्बर मान लिया जाता है, या फिर राज कपूर की फिल्मों में झींगालाला करते हुए प्रकृति की गोद में हंसते-गाते लोगों की रोमांटिक छवि में स्टीरियोटाईप कर दिया जाता है। मैं झारखंड में पली-बढ़ी, इसलिए मीणा साहब की बात शायद बेहतर तरीके से समझ पाई कि आदिवासियों को लेकर जो संकुचित दृष्टिकोण है, उसे बदलने की ज़रूरत है और उनपर सहूलियतें थोपने से पहले उनका विश्वास जीतना होगा। इरफान ने ओमप्रकाश बाल्मिकी दो कविताएं भी पढ़ीं - 'ठाकुर का कुंआ' और 'सदियों का संताप'। सिनेमा से गायब इन कहानियों पर बोलते हुए इरफान ने वो कड़वा सच बयां किया जो हम सब जानते हैं - सिनेमा सपनों का सिनेमा होता है, यथार्थ से दूर ले जाने का सिनेमा होता है।
आज का दिन ख़त्म हुआ लेकिन एक बात जो मेरी समझ में आई है वो ये है कि अपना नज़रिया single dimensional नहीं रखा जा सकता। रचनात्मकता का मतलब पैनी नज़र रखना तो है ही, लेकिन अपनी नज़र को टेढ़ी बनाए रखना भी है (ये बात दरअसल हबीब तनवीर के संदर्भ में किसी वक्ता ने भी कही थी, लेकिन फिलहाल याद नहीं आ रहा कि किसने कही थी - शायद महमूद फ़ारूखी ने।)
और जाते-जाते ये भी सुन जाईए कि कल कैसा faux pax, कितनी बड़ी बेवकूफी की है हमने। क्लार्क्स आमेर से होटल लौटते हुए हमें जो गाड़ी दी गई, उसमें सामने एक विदेशी बैठे थे। हम तीन महिलाएं पिछली सीट पर जा बैठीं, और महिलाओं के स्टीरियोटाईप्ड छवि को अकाट्य सत्य साबित करते हुए अपनी फुसफुसाहटों में लग गईं। होश तक न रहा कि सामने बैठे सज्जन से कुछ बात भी की जाए। हममें से कोई ख़ैर उन्हें वैसे भी नहीं पहचानता था। आज सुबह अख़बार देखा तो समझ में आया कि हमें आधे घंटे के लिए जोनथन फ्रान्ज़न के साथ सफ़र करने का मौका मिला, और अपनी बेवकूफी में हमने वो मौका गंवा दिया। (जोनथन इस सदी के सबसे बड़े अमरिकी उपन्यासकारों में एक गिने जाते हैं, और आपने बिल्कुल सही अंदाज़ा लगाया - इस कम पढ़ी-लिखी बदबख़्त औरत ने उन्हें भी नहीं पढ़ा, सिर्फ उनके interviews पढ़े हैं)।
कहने का मतलब कि हबीब तनवीर से लेकर डॉ कोहली, और अब जोनथन फ्रैन्ज़न - लेकिन चिकना घड़ा तो ख़ैर हर हाल में चिकना ही रहेगा न...। न टेढ़ी, न पैनी - मेरी सीधी और घोड़े की तरह पट्टियां (blinkers) लगी हुई नज़र मुझे कहीं नहीं ले जा सकती। ख़ैर, ये अफसोस फिर और कभी...
गुरुवार, 16 जनवरी 2014
जेएलएफ डायरिज़ 1: दिग्गी पैलेस में दिग्गजों के बीच
मुझे पर्दे की पीछे की दुनिया हमेशा मंच पर चल रहे तमाशे से ज़्यादा रोमांचित करती है। अगर फिल्म बांधकर रखने वाली नहीं होती तो सीन-दर-सीन पर्दे के पीछे की दुनिया दिखाई दे रही होती है मुझे - ट्रॉली पर बैठा हुआ सिनेमैटोग्राफर, स्पूल लिए बैठा साउंड रिकॉर्डिस्ट, टंगस्टन-एचएमआई-एलईडी के पीछे कहीं छत ले लटकता कोई लाइट असिस्टेंट, कोने में थर्मस लिए खड़ा स्पॉट बॉय, डायलॉग्स बांटता सेकेंड असिस्टेंट डायरेक्टर...
फ्लोर पर कैमरे के पीछे मची अफरा-तफरी कैमरे के सामने दिखाई देने वाले बनावटी फ्रेम से कहीं ज़्यादा सजीव... कहीं ज़्यादा जानदार...
मैं प्रोडक्शन वाली रही हूं। बचपन से। स्टेज पर होने से ज़्यादा विंग्स में होने को आतुर। उस तैयारी का हिस्सा होने को आतुर जो एक फंक्शन को ग्रैंड बनाता है, लार्जर दैन लाइफ... बड़ा... बहुत बड़ा... और यादगार। मैं इस बात पर यकीन करती हूं कि स्टेज पर नहीं, किरदार तो विंग्स और मेक-अप रूम में मिलते हैं, कभी किसी की माइक ठीक करते हुए, कभी किसी का मेक-अप।
मेरा यही फितूर मेरी किस्मत से जुड़कर मेरे लिए मौके तलाश करता मुझे दिग्गी पैलेस ले आया है, जयपुर। जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के ठीक एक शाम पहले। पिछले साल आई थी एक विज़िटर के तौर पर। इस साल आई हूं यात्रा बुक्स की टीम का हिस्सा बनकर। किसी हुनर से ज़्यादा मेरा कौतुहल मुझे खींच लाया है यहां, और खींच लाई है उस बेचैनी का हिस्सा बनने की ख़्वाहिश, जो महीनों पहले किसी की नींद हराम करने के लिए काफ़ी होती है।
जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल अपने किस्म का दुनिया का सबसे बड़ा साहित्योत्सव है जहां प्रवेश निःशुल्क होता है। इस कार्यक्रम की तैयारी में कितने महीने लगते होंगे, इसका अंदाज़ा इसी से लगा लीजिए कि तकरीबन 15 देशों से कुल मिलाकर 240 वक्ता पहुंचेंगे यहां इस साल, बीस भाषाओं पर बातचीत होगी, और दो से ढाई लाख लोग दिग्गी पैलेस आकर किसी ने किसी रूप में इस बातचीत का हिस्सा बनेंगे। अंदाज़ा इसी बात से लगा लीजिए कि प्रशासन और प्रोडक्शन टीम के अलावा 500 से ज़्यादा volunteers आज की शाम दिग्गी पैलेस में अलग-अलग जगहों पर ब्रीफ ले रहे थे। स्केल का अंदाज़ा इसी बात से लगा लीजिए कि 21 जनवरी को 2014 का साहित्योत्सव ख़त्म होते ही तुरंत अगले साल की तैयारी शुरु हो जाती है, और शुरु हो जाती है स्पॉन्सरों को अगले साल के लिए मनाने की क़वायद। इतने बड़े स्तर पर लॉजिस्टिक्स संभालना ही अपने आप में एक विशालकाय प्रॉजेक्ट होता है, जो सिर्फ पांच दिन नहीं बल्कि पूरे साल चलता है।
और सुनिए कि ये वो आयोजन है जिसने अपने पहले साल में कुल मिलाकर 14 अतिथि देखे थे, और जो थोड़े-बहुत लोग दिग्गी पैलेस तक पहुंच भी गए थे, वो सैलानी थे जो रास्ता भूलकर एसएमएस अस्पताल के सामने की इस तंग गली में गलती से मुड़ गए थे। उसके अगले साल भी इतने ही मेहमान थे कि दरबार हॉल भी नहीं भरा था पूरी तरह। फिर सात-आठ सालों में क्या हो गया कि जेएलएफ में आना प्रतिष्ठा का सवाल बन गया - लिखनेवालों के लिए भी, पढ़नेवालों के लिए भी और मेरी तरह किताबें जमा करने का शौक पालनेवालों के लिए भी?
मुझे लगता है कि हम वाकई अच्छी बातचीत के भूखे होते हैं। जेएलएफ का विस्तार सिर्फ एक आयोजन के विस्तार से कहीं बढ़कर लिखने-पढ़नेवालों या लिखने-पढ़ने की ख़्वाहिश रखनेवालों (या ढोंग रचनेवालों) के मानस-पटल के विस्तार की उत्कट इच्छा का नतीजा है। ये उस जिज्ञासा का नतीजा है जो अपने सीमित दायरे से परे नई बातें, नए विचार, नई आवाज़ें सुनने का आकांक्षी होता है। मुमकिन है कि आनेवालों में एक फ़ीसदी ही इस मकसद के साथ आएं, लेकिन उसी एक फ़ीसदी दर्शक या श्रोतावर्ग की संजीदगी और समझ एक इतने बड़े साहित्यिक आयोजन को साल-दर-साल दोहराने की वजह देता है।
बात सत्रों में बैठे चंद बुद्धिजीवी लेखकों या विचारकों की नहीं है, बात उनके सामने बैठे उस ऑडिएंस की है जिनके पास मंच पर बैठे लोगों से सहमत या असहमत होने का अधिकार है और जिनकी जेबों में इतने पैसे हैं कि दरबार हॉल से निकलकर चार बाग़ की ओर लगे किताब के स्टॉल में जाकर वे किताबें खरीदेंगे, पढ़ेंगे या फिर किसी दिन पढ़ लेने की उम्मीद में उसे अपनी लाइब्रेरी में सजाएंगे। जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल मुझे सिर्फ स्तब्ध नहीं करता क्योंकि यहां देश के ए-लिस्टर लेखक, बुद्धिजीवी और विचारक मौजूद होते हैं। ये जगह मुझे इसलिए स्तब्ध करती है क्योंकि उन लेखकों, बुद्धिजीवियों और विचारकों के विचारों को सुनने की ललक चंद सौ लोगों में तो होती ही है जो एक के बाद सेशन्स में बैठे-बैठे अपने दिमाग के आवर्धक लेंस - मैग्निफाइंग ग्लास - का इस्तेमाल करते हुए समकालीन समाज को नए नज़रिए से देखने की कोशिश करते हैं। यही मुट्ठी भर लोग दिग्गी पैलेस में दिग्गजों के जमावड़े को एक उद्देश्य देते हैं। इन्हीं मुट्ठी भर लोगों की वजह से पूरे साल की मेहनत के बाद निकल कर आने वाला ये साहित्यिक आयोजन सार्थक होता है।
शाम को तैयारियों में आकंठ डूबा दिग्गी कल सुबह से पहचान में नहीं आएगा। गले में डाले हुए पट्टों से लोगों की पहचान होगी। बातों से बात निकलेगी और बहस के मुद्दे खुलेंगे। मुमकिन है कि अहं और ज्ञान कौतूहल पर भारी पड़े। लेकिन मेरे लिए जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल इस लिहाज़ से भी ख़ास होगा क्योंकि निजी तौर पर मेरे लिए जेएलएफ वो माइलस्टोन है जो दिल्ली से आते हुए एक पाठक, श्रोता और इंसान के रूप में मेरे विकास या पतन का पिछले एक साल का ग्राफ मुझे ही दिखाता आया है। पिछले जेएलएफ से अबतक गुज़रे एक साल में मैंने क्या कुछ खोया और क्या कुछ पाया - रास्ते भर सोचती आ रही थी मैं। अगर कुछ नए दोस्त और साथी मिले हैं तो कईयों का साथ छूटा भी है, (और मैंने खो दिए हैं पिस्ता ग्रीन रंग के झुमकों की जोड़ी का एक झुमका, जो बड़े शौक़ से पिछले ही साल पहना था मैंने, वो भी सिर्फ एक बार - एक दिन।) इस एक साल में मैंने अपनी बहुत सारी बेचैनी भी खो दी है, और खो दिए हैं कई सारे झूठे ग़म जिनकी वजह से मेरे हिस्से बहुत सारी प्यारी उदासियां आया करती थीं, और उनसे भी बढ़कर, मिला करती थीं बहुत सारी सांत्वनाएं, बहुत सारा प्यार। और एक साल में जो मैंने हासिल किया है वो अभी भी अमूर्त है, इनटैन्जिबल।
लेकिन इस एक साल में मैंने बहुत सारा कौतूहल हासिल किया है और इस बात की समझ हासिल की है कि मंच पर होने जितना ही ज़रूरी और गौरवशाली मंच के पीछे और मंच के सामने होना होता है - वो भी एक संजीदा और जिज्ञासु श्रोता के रूप में।
फ्लोर पर कैमरे के पीछे मची अफरा-तफरी कैमरे के सामने दिखाई देने वाले बनावटी फ्रेम से कहीं ज़्यादा सजीव... कहीं ज़्यादा जानदार...
मैं प्रोडक्शन वाली रही हूं। बचपन से। स्टेज पर होने से ज़्यादा विंग्स में होने को आतुर। उस तैयारी का हिस्सा होने को आतुर जो एक फंक्शन को ग्रैंड बनाता है, लार्जर दैन लाइफ... बड़ा... बहुत बड़ा... और यादगार। मैं इस बात पर यकीन करती हूं कि स्टेज पर नहीं, किरदार तो विंग्स और मेक-अप रूम में मिलते हैं, कभी किसी की माइक ठीक करते हुए, कभी किसी का मेक-अप।
मेरा यही फितूर मेरी किस्मत से जुड़कर मेरे लिए मौके तलाश करता मुझे दिग्गी पैलेस ले आया है, जयपुर। जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के ठीक एक शाम पहले। पिछले साल आई थी एक विज़िटर के तौर पर। इस साल आई हूं यात्रा बुक्स की टीम का हिस्सा बनकर। किसी हुनर से ज़्यादा मेरा कौतुहल मुझे खींच लाया है यहां, और खींच लाई है उस बेचैनी का हिस्सा बनने की ख़्वाहिश, जो महीनों पहले किसी की नींद हराम करने के लिए काफ़ी होती है।
जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल अपने किस्म का दुनिया का सबसे बड़ा साहित्योत्सव है जहां प्रवेश निःशुल्क होता है। इस कार्यक्रम की तैयारी में कितने महीने लगते होंगे, इसका अंदाज़ा इसी से लगा लीजिए कि तकरीबन 15 देशों से कुल मिलाकर 240 वक्ता पहुंचेंगे यहां इस साल, बीस भाषाओं पर बातचीत होगी, और दो से ढाई लाख लोग दिग्गी पैलेस आकर किसी ने किसी रूप में इस बातचीत का हिस्सा बनेंगे। अंदाज़ा इसी बात से लगा लीजिए कि प्रशासन और प्रोडक्शन टीम के अलावा 500 से ज़्यादा volunteers आज की शाम दिग्गी पैलेस में अलग-अलग जगहों पर ब्रीफ ले रहे थे। स्केल का अंदाज़ा इसी बात से लगा लीजिए कि 21 जनवरी को 2014 का साहित्योत्सव ख़त्म होते ही तुरंत अगले साल की तैयारी शुरु हो जाती है, और शुरु हो जाती है स्पॉन्सरों को अगले साल के लिए मनाने की क़वायद। इतने बड़े स्तर पर लॉजिस्टिक्स संभालना ही अपने आप में एक विशालकाय प्रॉजेक्ट होता है, जो सिर्फ पांच दिन नहीं बल्कि पूरे साल चलता है।
और सुनिए कि ये वो आयोजन है जिसने अपने पहले साल में कुल मिलाकर 14 अतिथि देखे थे, और जो थोड़े-बहुत लोग दिग्गी पैलेस तक पहुंच भी गए थे, वो सैलानी थे जो रास्ता भूलकर एसएमएस अस्पताल के सामने की इस तंग गली में गलती से मुड़ गए थे। उसके अगले साल भी इतने ही मेहमान थे कि दरबार हॉल भी नहीं भरा था पूरी तरह। फिर सात-आठ सालों में क्या हो गया कि जेएलएफ में आना प्रतिष्ठा का सवाल बन गया - लिखनेवालों के लिए भी, पढ़नेवालों के लिए भी और मेरी तरह किताबें जमा करने का शौक पालनेवालों के लिए भी?
मुझे लगता है कि हम वाकई अच्छी बातचीत के भूखे होते हैं। जेएलएफ का विस्तार सिर्फ एक आयोजन के विस्तार से कहीं बढ़कर लिखने-पढ़नेवालों या लिखने-पढ़ने की ख़्वाहिश रखनेवालों (या ढोंग रचनेवालों) के मानस-पटल के विस्तार की उत्कट इच्छा का नतीजा है। ये उस जिज्ञासा का नतीजा है जो अपने सीमित दायरे से परे नई बातें, नए विचार, नई आवाज़ें सुनने का आकांक्षी होता है। मुमकिन है कि आनेवालों में एक फ़ीसदी ही इस मकसद के साथ आएं, लेकिन उसी एक फ़ीसदी दर्शक या श्रोतावर्ग की संजीदगी और समझ एक इतने बड़े साहित्यिक आयोजन को साल-दर-साल दोहराने की वजह देता है।
बात सत्रों में बैठे चंद बुद्धिजीवी लेखकों या विचारकों की नहीं है, बात उनके सामने बैठे उस ऑडिएंस की है जिनके पास मंच पर बैठे लोगों से सहमत या असहमत होने का अधिकार है और जिनकी जेबों में इतने पैसे हैं कि दरबार हॉल से निकलकर चार बाग़ की ओर लगे किताब के स्टॉल में जाकर वे किताबें खरीदेंगे, पढ़ेंगे या फिर किसी दिन पढ़ लेने की उम्मीद में उसे अपनी लाइब्रेरी में सजाएंगे। जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल मुझे सिर्फ स्तब्ध नहीं करता क्योंकि यहां देश के ए-लिस्टर लेखक, बुद्धिजीवी और विचारक मौजूद होते हैं। ये जगह मुझे इसलिए स्तब्ध करती है क्योंकि उन लेखकों, बुद्धिजीवियों और विचारकों के विचारों को सुनने की ललक चंद सौ लोगों में तो होती ही है जो एक के बाद सेशन्स में बैठे-बैठे अपने दिमाग के आवर्धक लेंस - मैग्निफाइंग ग्लास - का इस्तेमाल करते हुए समकालीन समाज को नए नज़रिए से देखने की कोशिश करते हैं। यही मुट्ठी भर लोग दिग्गी पैलेस में दिग्गजों के जमावड़े को एक उद्देश्य देते हैं। इन्हीं मुट्ठी भर लोगों की वजह से पूरे साल की मेहनत के बाद निकल कर आने वाला ये साहित्यिक आयोजन सार्थक होता है।
शाम को तैयारियों में आकंठ डूबा दिग्गी कल सुबह से पहचान में नहीं आएगा। गले में डाले हुए पट्टों से लोगों की पहचान होगी। बातों से बात निकलेगी और बहस के मुद्दे खुलेंगे। मुमकिन है कि अहं और ज्ञान कौतूहल पर भारी पड़े। लेकिन मेरे लिए जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल इस लिहाज़ से भी ख़ास होगा क्योंकि निजी तौर पर मेरे लिए जेएलएफ वो माइलस्टोन है जो दिल्ली से आते हुए एक पाठक, श्रोता और इंसान के रूप में मेरे विकास या पतन का पिछले एक साल का ग्राफ मुझे ही दिखाता आया है। पिछले जेएलएफ से अबतक गुज़रे एक साल में मैंने क्या कुछ खोया और क्या कुछ पाया - रास्ते भर सोचती आ रही थी मैं। अगर कुछ नए दोस्त और साथी मिले हैं तो कईयों का साथ छूटा भी है, (और मैंने खो दिए हैं पिस्ता ग्रीन रंग के झुमकों की जोड़ी का एक झुमका, जो बड़े शौक़ से पिछले ही साल पहना था मैंने, वो भी सिर्फ एक बार - एक दिन।) इस एक साल में मैंने अपनी बहुत सारी बेचैनी भी खो दी है, और खो दिए हैं कई सारे झूठे ग़म जिनकी वजह से मेरे हिस्से बहुत सारी प्यारी उदासियां आया करती थीं, और उनसे भी बढ़कर, मिला करती थीं बहुत सारी सांत्वनाएं, बहुत सारा प्यार। और एक साल में जो मैंने हासिल किया है वो अभी भी अमूर्त है, इनटैन्जिबल।
लेकिन इस एक साल में मैंने बहुत सारा कौतूहल हासिल किया है और इस बात की समझ हासिल की है कि मंच पर होने जितना ही ज़रूरी और गौरवशाली मंच के पीछे और मंच के सामने होना होता है - वो भी एक संजीदा और जिज्ञासु श्रोता के रूप में।
रविवार, 12 जनवरी 2014
अरी ओ किस्मत! हमें घुमन्तू बनाए रखना
हम तीन जनों के बीच में डेढ़ सीटें हैं - आरएसी वाली। बच्चों के साथ ट्रेन में सफ़र करने का मेरा अनुभव शायद ही कभी खराब रहा है, इसलिए मैं एक मिनट के लिए भी परेशान नहीं होती। कुछ न कुछ हो ही जाएगा। लोग इतने भी उदासीन नहीं कि दो बच्चों के साथ अकेली चलती मां के लिए जगह न बना सकें।
अगस्त क्रांति राजधानी में बैठते हुए समझ में आया है कि एक मैं ही नहीं, एसीटू की इस बोगी में कुल मिलाकर दस लोग ऐसे हैं जो आरएसी में हैं। इनमें से तो एक बिचारी लड़की को छोड़ने आए मां-बाप इतना घबराए हुए हैं कि अंधेरी से बोरिवली तक उसके वेटलिस्ट एक टिकट को किसी तरह कन्फर्म कराने की नाकाम कोशिश करते हुए बोरिवली में मायूस उतर गए हैं। लड़की फिर भी दिल्ली जाने पर अड़ी हुई है। सोमवार से उसका कॉलेज खुल रहा है शायद।
सामान कहीं, मैं कहीं, बच्चे कहीं।
लेकिन ये अव्यवस्था कुल मिलाकर बीस मिनट की ही है। मेरे साथ की सीट वाले सज्जन अपनी पत्नी और एक बेटी की परिवार को लेकर बगल की सीट में एडजस्ट हो गए हैं और उन्होंने अपनी एक सीट हमारे लिए छोड़ दी है। अब हमारे पास पूरी दो सीटें हैं, वो भी ऊपर-नीचे की।
बच्चों ने इतनी ही देर में अपना सामान खोल लिया है और ऊपरवाली सीट पर ऐसे जा बैठे हैं कि ये उनका रोज़-रोज़ का काम है - मुंबई सेंट्रल से बोरिवली तक रोज़ आते-जाते राजधानी लेने वाले चंद रेलवे कर्मचारियों की तरह, जिनके लिए यही ट्रेन दफ़्तर जाने का साधन है।
वो लड़की भी कहीं जगह बनाकर बैठ ही गई है। मेरे सामने वाली सीट पर एक और लड़की है, जो फोन पर अपनी मां से पहले उड़िया में बात करती है और उसके बाद अपने भैया से हिंदी में - झारखंडी हिंदी में। मैं ये जानने के लिए उत्सुक हूं कि ये लड़की रांची या बोकारो या जमेशदपुर से है क्या? ट्रेन में लोगों से बात करने और दोस्त बनाने की यूं भी बीमारी है मुझे।
लेकिन हम किसी से कुछ नहीं कहते और मेरी आंखें सिडनी शेल्डन के उस थ्रिलर में जा घुसी हैं जो घर से निकलते हुए मेरी भाभी ने मुझे पकड़ाया था - सफ़र बैठकर काटना पड़े तो उसके लिए।
नाश्ता आता है, खाली ट्रे वापस लौटा दी जाती हैं। ट्रेन में एक ख़ास किस्म की ऊर्जा होती है, एक ख़ास किस्म का माहौल। आवाज़ें, गंध, हलचल, बोलियां, गतिविधियां - सब एक ख़ास किस्म की। हमारे व्यक्तित्व के वो हिस्से रेल यात्राओं में बाहर निकलकर आते हैं जिनपर हमने भी शायद कभी ध्यान दिया हो।
मसलन, सामने बैठी उस लड़की ने शायद ही कभी सोचा हो कि मदद करना उसका स्वभाव है। वो बड़ी आसानी से दे सकती है, मदद कर सकती है, खुल सकती है किसी अजनबी से। होता यूं है कि वेटिंग में सफ़र कर रही लड़की को वो अपनी सीट पर बुला लेती है, और कहती है कि डोंट वरी, हम दोनों रात इसी सीट पर काट लेंगे। सफ़र करो तो इतना एडजस्ट करना ही पड़ता है!
मैं इस बातचीत से हैरान किताब से आंखें निकालकर उसकी ओर देखने लगती हूं। बीस-बाईस साल की उम्र में हम ज़्यादा समझदार होते हैं। हमारे दिलों का आकार वक़्त के साथ-साथ संकुचित होता चला जाता है शायद।
बच्चे नीचे उतर आए हैं और उनकी ज़िद है कि मैं बगल वाली महिला से इसलिए दोस्ती कर लूं ताकि उनके बच्चों के साथ खेलने का मौका उन्हें मिल सके।
"मम्मा, आपने बैंगलोर जाते हुए भी तो सजीव की मम्मा से दोस्ती कर ली थी। कितना मज़ा आया था! आप प्लीज़ बात करो न बगल वाली आंटी से। आपको भी तो एक नई फ्रेंड मिलेगी।"
लेकिन मेरे पास करने को कई काम हैं और एक रात के लिए दोस्ती करने की प्रेरणा भी नहीं रही अब। (मैंने कहा था न कि उम्र के साथ-साथ दिल भी छोटे होने लगते हैं!)
बच्चे अब मेरी पहल का इंतज़ार नहीं करते और पास बैठे देव और उसके बड़े भाई से दोस्ती कर लेते हैं। थोड़ी ही देर में किताबें, क्रेयॉन्स और सादे काग़ज़ के पन्नों के साथ-साथ सीटों की भी अदला-बदली हो चली है।
बच्चों का ऊधम चालू है, लेकिन सफ़र करने वालों में शायद बहुत सारा सब्र भी आ जाता है।
अचानक मुझे इस बात का फ़ख़्र हो आता है कि हम इतना सफ़र करनेवालों में से एक हैं। मुझे इस बात की खुशी होती है कि हम घुमंतू हैं, और पैरों में पहिए हैं हमारे।
अरी ओ किस्मत, हमें घुमंतू ही बनाए रखना।
घुमंतू ही बनाए रखना ताकि हम खिलौनों और चीज़ों की बजाए ऐसे बेमानी लम्हों के अनुभवों को संभालना सीखें। घुमंतू बनाए रखना ताकि हम बांटना सीखें - अपनी चीज़ें भी, अपनी सीटें भी।
घुमंतू बनाए रखना ताकि सफ़र हमारे लिए जितना अहम हो, उतनी तवज्जो हम मंज़िलों को कभी न दें। सफ़र में रहें हम, और ये ज़िन्सदगी सफ़र में ही गुज़र जाए।
घुमंतू बनाए रखना ताकि हैरत भरी नज़रों से नए लोगों, नई जगहों, नए शहरों, नए ठिकानों को देखते रहें हम, उनसे अपने वजूद में कुछ न कुछ लेते रहे हम और कभी जड़ न बनें - न शरीर से, न विचारों से।
घुमंतू बनाए रखना क्योंकि दूर-दूर जाकर हम दरअसल बाहर कुछ और नहीं खोज रहे होते। ये सफ़र हमें आत्मान्वेषी बनाते हैं।
घुमंतू बनाए रखना क्योंकि तभी फेसबुक पर हमारे दोस्तों की संख्या में इज़ाफ़ा हो सकेगा, फोनबुक में और नंबर जुड़ सकेंगे, अपनी दुआओं का दायरा बढ़ा सकेंगे हम।
घुमंतू बनाए रखना क्योंकि यूं इस तरह एक घंटे में ज़िन्दगी भर के लिए दोस्त बना सकने का मौका ज़िन्दगी किसी और तरह से नहीं देती।
घुमंतू बनाए रखना क्योंकि हमारे भीतर का कौतूहल तभी ज़िंदा रहेगा और दिलों का आकार तंग न होता जाए, इसके लिए ऐसी यात्राओं पर बने रहना ज़रूरी है।
घुमंतू बनाए रखना क्योंकि सुख 'कम्फर्ट ज़ोन' में बने रहने में नहीं होता। घुमंतू बनाए रखना ताकि कह सकें हम - बहुत ख़ूबसूरत है लत्ताओं, पत्तियों की झांझरी है, लेकिन हमें हमारा सफ़र प्यारा है।
घुमंतू बनाए रखना क्योंकि जीवन सफ़र में चलने का नाम होता है तो घूमते रहने से बेहतर जीने का और तरीका क्या होगा?
घुमंतू बनाए रखना क्योंकि हम नदी की वो धारा बने रहना का सुख चाहते हैं जो बहती रहती है। यूं भी नदी अपने स्रोत से जितनी दूर होती है, उतनी ही लंबी होती है और उतने ही ज़्यादा किनारों को पाटती है।
घुमंतू बनाए रखना क्योंकि तभी हम (और ख़ासकर बच्चे) हर हाल में मज़ा करना सीखेंगी - चाहे इसके लिए तंग सीटों और गंदे टॉयलेट्स से भी क्यों न समझौता करना पड़े।
घुमंतू बनाए रखना क्योंकि तभी ज़िन्दगी से शिकायतें कम होंगी और बाहर की दुनिया को देखने के नज़रिए में करुणा, प्यार, दरियादिली और समझ घुलेगी।
घुमंतु बनाए रखना क्योंकि जो बाहर की दुनिया जितना ही ज़्यादा देखते हैं, दुनिया पर भरोसा भी उतनी ही आसानी से करते हैं। यही भरोसा दुनिया को जिलाए रखता है।
घुमंतू बनाए रखना क्योंकि दुनिया के बारे में जितना ज्ञान अख़बारों और क़िताबों से नहीं मिलता, उतना मुसाफ़िरों के फ़लसफ़ों, उनकी टिप्पणियों से मिलता है।
घुमंतू बनाए रखना हमें क्योंकि हमारी यही फ़ितरत जितनी आसानी से जुड़ना और प्यार करना सिखाती है, उतनी ही आसानी से जाने देना और पीछे से दुआ का एक क़लमा पढ़ने की हिम्मत भी देती है। घुमंतू बनाए रखना क्योंकि विदाई का, जुदाई का सदमा कम होगा फिर।
मैं जीना चाहती हूं और चलते रहना चाहती हूं। इसलिए अरी ओ किस्मत! पैरों में पहिए और घुमंतुओं की ऐसी सोहबतें मेरे लिए भी बचाए रखना, मेरे बच्चों के लिए भी।
अगस्त क्रांति राजधानी में बैठते हुए समझ में आया है कि एक मैं ही नहीं, एसीटू की इस बोगी में कुल मिलाकर दस लोग ऐसे हैं जो आरएसी में हैं। इनमें से तो एक बिचारी लड़की को छोड़ने आए मां-बाप इतना घबराए हुए हैं कि अंधेरी से बोरिवली तक उसके वेटलिस्ट एक टिकट को किसी तरह कन्फर्म कराने की नाकाम कोशिश करते हुए बोरिवली में मायूस उतर गए हैं। लड़की फिर भी दिल्ली जाने पर अड़ी हुई है। सोमवार से उसका कॉलेज खुल रहा है शायद।
सामान कहीं, मैं कहीं, बच्चे कहीं।
लेकिन ये अव्यवस्था कुल मिलाकर बीस मिनट की ही है। मेरे साथ की सीट वाले सज्जन अपनी पत्नी और एक बेटी की परिवार को लेकर बगल की सीट में एडजस्ट हो गए हैं और उन्होंने अपनी एक सीट हमारे लिए छोड़ दी है। अब हमारे पास पूरी दो सीटें हैं, वो भी ऊपर-नीचे की।
बच्चों ने इतनी ही देर में अपना सामान खोल लिया है और ऊपरवाली सीट पर ऐसे जा बैठे हैं कि ये उनका रोज़-रोज़ का काम है - मुंबई सेंट्रल से बोरिवली तक रोज़ आते-जाते राजधानी लेने वाले चंद रेलवे कर्मचारियों की तरह, जिनके लिए यही ट्रेन दफ़्तर जाने का साधन है।
वो लड़की भी कहीं जगह बनाकर बैठ ही गई है। मेरे सामने वाली सीट पर एक और लड़की है, जो फोन पर अपनी मां से पहले उड़िया में बात करती है और उसके बाद अपने भैया से हिंदी में - झारखंडी हिंदी में। मैं ये जानने के लिए उत्सुक हूं कि ये लड़की रांची या बोकारो या जमेशदपुर से है क्या? ट्रेन में लोगों से बात करने और दोस्त बनाने की यूं भी बीमारी है मुझे।
लेकिन हम किसी से कुछ नहीं कहते और मेरी आंखें सिडनी शेल्डन के उस थ्रिलर में जा घुसी हैं जो घर से निकलते हुए मेरी भाभी ने मुझे पकड़ाया था - सफ़र बैठकर काटना पड़े तो उसके लिए।
नाश्ता आता है, खाली ट्रे वापस लौटा दी जाती हैं। ट्रेन में एक ख़ास किस्म की ऊर्जा होती है, एक ख़ास किस्म का माहौल। आवाज़ें, गंध, हलचल, बोलियां, गतिविधियां - सब एक ख़ास किस्म की। हमारे व्यक्तित्व के वो हिस्से रेल यात्राओं में बाहर निकलकर आते हैं जिनपर हमने भी शायद कभी ध्यान दिया हो।
मसलन, सामने बैठी उस लड़की ने शायद ही कभी सोचा हो कि मदद करना उसका स्वभाव है। वो बड़ी आसानी से दे सकती है, मदद कर सकती है, खुल सकती है किसी अजनबी से। होता यूं है कि वेटिंग में सफ़र कर रही लड़की को वो अपनी सीट पर बुला लेती है, और कहती है कि डोंट वरी, हम दोनों रात इसी सीट पर काट लेंगे। सफ़र करो तो इतना एडजस्ट करना ही पड़ता है!
मैं इस बातचीत से हैरान किताब से आंखें निकालकर उसकी ओर देखने लगती हूं। बीस-बाईस साल की उम्र में हम ज़्यादा समझदार होते हैं। हमारे दिलों का आकार वक़्त के साथ-साथ संकुचित होता चला जाता है शायद।
बच्चे नीचे उतर आए हैं और उनकी ज़िद है कि मैं बगल वाली महिला से इसलिए दोस्ती कर लूं ताकि उनके बच्चों के साथ खेलने का मौका उन्हें मिल सके।
"मम्मा, आपने बैंगलोर जाते हुए भी तो सजीव की मम्मा से दोस्ती कर ली थी। कितना मज़ा आया था! आप प्लीज़ बात करो न बगल वाली आंटी से। आपको भी तो एक नई फ्रेंड मिलेगी।"
लेकिन मेरे पास करने को कई काम हैं और एक रात के लिए दोस्ती करने की प्रेरणा भी नहीं रही अब। (मैंने कहा था न कि उम्र के साथ-साथ दिल भी छोटे होने लगते हैं!)
बच्चे अब मेरी पहल का इंतज़ार नहीं करते और पास बैठे देव और उसके बड़े भाई से दोस्ती कर लेते हैं। थोड़ी ही देर में किताबें, क्रेयॉन्स और सादे काग़ज़ के पन्नों के साथ-साथ सीटों की भी अदला-बदली हो चली है।
बच्चों का ऊधम चालू है, लेकिन सफ़र करने वालों में शायद बहुत सारा सब्र भी आ जाता है।
अचानक मुझे इस बात का फ़ख़्र हो आता है कि हम इतना सफ़र करनेवालों में से एक हैं। मुझे इस बात की खुशी होती है कि हम घुमंतू हैं, और पैरों में पहिए हैं हमारे।
अरी ओ किस्मत, हमें घुमंतू ही बनाए रखना।
घुमंतू ही बनाए रखना ताकि हम खिलौनों और चीज़ों की बजाए ऐसे बेमानी लम्हों के अनुभवों को संभालना सीखें। घुमंतू बनाए रखना ताकि हम बांटना सीखें - अपनी चीज़ें भी, अपनी सीटें भी।
घुमंतू बनाए रखना ताकि सफ़र हमारे लिए जितना अहम हो, उतनी तवज्जो हम मंज़िलों को कभी न दें। सफ़र में रहें हम, और ये ज़िन्सदगी सफ़र में ही गुज़र जाए।
घुमंतू बनाए रखना ताकि हैरत भरी नज़रों से नए लोगों, नई जगहों, नए शहरों, नए ठिकानों को देखते रहें हम, उनसे अपने वजूद में कुछ न कुछ लेते रहे हम और कभी जड़ न बनें - न शरीर से, न विचारों से।
घुमंतू बनाए रखना क्योंकि दूर-दूर जाकर हम दरअसल बाहर कुछ और नहीं खोज रहे होते। ये सफ़र हमें आत्मान्वेषी बनाते हैं।
घुमंतू बनाए रखना क्योंकि तभी फेसबुक पर हमारे दोस्तों की संख्या में इज़ाफ़ा हो सकेगा, फोनबुक में और नंबर जुड़ सकेंगे, अपनी दुआओं का दायरा बढ़ा सकेंगे हम।
घुमंतू बनाए रखना क्योंकि यूं इस तरह एक घंटे में ज़िन्दगी भर के लिए दोस्त बना सकने का मौका ज़िन्दगी किसी और तरह से नहीं देती।
घुमंतू बनाए रखना क्योंकि हमारे भीतर का कौतूहल तभी ज़िंदा रहेगा और दिलों का आकार तंग न होता जाए, इसके लिए ऐसी यात्राओं पर बने रहना ज़रूरी है।
घुमंतू बनाए रखना क्योंकि सुख 'कम्फर्ट ज़ोन' में बने रहने में नहीं होता। घुमंतू बनाए रखना ताकि कह सकें हम - बहुत ख़ूबसूरत है लत्ताओं, पत्तियों की झांझरी है, लेकिन हमें हमारा सफ़र प्यारा है।
घुमंतू बनाए रखना क्योंकि जीवन सफ़र में चलने का नाम होता है तो घूमते रहने से बेहतर जीने का और तरीका क्या होगा?
घुमंतू बनाए रखना क्योंकि हम नदी की वो धारा बने रहना का सुख चाहते हैं जो बहती रहती है। यूं भी नदी अपने स्रोत से जितनी दूर होती है, उतनी ही लंबी होती है और उतने ही ज़्यादा किनारों को पाटती है।
घुमंतू बनाए रखना क्योंकि तभी हम (और ख़ासकर बच्चे) हर हाल में मज़ा करना सीखेंगी - चाहे इसके लिए तंग सीटों और गंदे टॉयलेट्स से भी क्यों न समझौता करना पड़े।
घुमंतू बनाए रखना क्योंकि तभी ज़िन्दगी से शिकायतें कम होंगी और बाहर की दुनिया को देखने के नज़रिए में करुणा, प्यार, दरियादिली और समझ घुलेगी।
घुमंतु बनाए रखना क्योंकि जो बाहर की दुनिया जितना ही ज़्यादा देखते हैं, दुनिया पर भरोसा भी उतनी ही आसानी से करते हैं। यही भरोसा दुनिया को जिलाए रखता है।
घुमंतू बनाए रखना क्योंकि दुनिया के बारे में जितना ज्ञान अख़बारों और क़िताबों से नहीं मिलता, उतना मुसाफ़िरों के फ़लसफ़ों, उनकी टिप्पणियों से मिलता है।
घुमंतू बनाए रखना हमें क्योंकि हमारी यही फ़ितरत जितनी आसानी से जुड़ना और प्यार करना सिखाती है, उतनी ही आसानी से जाने देना और पीछे से दुआ का एक क़लमा पढ़ने की हिम्मत भी देती है। घुमंतू बनाए रखना क्योंकि विदाई का, जुदाई का सदमा कम होगा फिर।
मैं जीना चाहती हूं और चलते रहना चाहती हूं। इसलिए अरी ओ किस्मत! पैरों में पहिए और घुमंतुओं की ऐसी सोहबतें मेरे लिए भी बचाए रखना, मेरे बच्चों के लिए भी।
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