इस शहर में सुबहें बड़ी खाली होती हैं। सड़कें खाली, रास्ते खाली, पार्क खाली, बसें खाली, लोकल ट्रेन खाली। खाली सड़कों पर बहुत देर तक तेज़-तेज़ चलते रहने के बाद भी आराम नहीं आता।
मैं इतनी बेचैन क्यों हूं?
जॉगिंग शूज़ पहनकर निकले इतनी सुबह निकले इतने सारे लोग बेचैनी कम करने के लिए बाहर निकले हैं या अपना वज़न कम करने के लिए?
ये शहर बेचैन लोगों का शहर है। सब बैचैन हैं। या मुझे ही बेचैन दिखते हैं लोग।
एक और बीमारी हो गई है आजकल। जिस औरत को काम पर जाते देखती हूं, उसके पीछे छूट गए घर के बारे में सोचती हूं। कब लौटती होगी वो? उसके बच्चे होंगे क्या? उनका होमवर्क कौन कराता होगा? सुबह कितने बजे उठकर खाना बनाया होगा? पार्क में बच्चों के साथ चलती मांओं को देखती रहती हूं। बच्चे को बड़ा करने के अलावा कोई और मकसद होगा क्या इनकी ज़िन्दगी का?
मैं पार्क के कोने में बेंच पर बैठने लगती हूं तो देखती हूं एक बुज़ुर्ग महिला अपने से भी कहीं ज़्यादा उम्रदराज़ शख़्स को धीरे-धीरे हाथ पकड़कर टहला रही हैं। जाने कौन किसको टहला रहे है, लेकिन इन दोनों को देखकर मैं बहुत बेचैन हो जाती हूं। इनका खाना कौन बनाता होगा? कैसे रहते होंगे इतने बड़े शहर में दोनों? दो लाचार लोग क्या साथ दे पाते होंगे एक-दूसरे का? इनका परिवार नहीं है? बच्चे होंगे या नहीं? इसी अकेलेपन और लाचारी से बचने के लिए तो हिंदुस्तान में लोग परिवार बनाते हैं, बच्चे पैदा करते हैं। बच्चे - बुढ़ापे का सहारा। बेटा - बुढ़ापे की लाठी। फिर भी अकेले रह जाते हैं लोग। बुढ़ापा किसी पर दया नहीं दिखाता। बीमारी किसी को नहीं बख़्शती। बेचारगी और अकेलापन अकाट्य सत्य है। अवश्यंभावी। किसी मां के लिए भी, और पिता के लिए भी।
गले में कुछ अटककर रह जाता है। ऐसे ही किसी लम्हे ने युवराज सिद्धार्थ को घर छोड़ने पर मजबूर कर दिया होगा।
शाम की हवा भी सुकून नहीं लाती। मन है कि मधुमक्खियों का छत्ता हो गया है। कोई एक लम्हा फेंको नहीं इधर कि सवालों के झुंड डंक मारने को दौड़ते हैं।
हम किस तलाश में हैं?
ज़िन्दगी का हासिल क्या हो?
अगर यही लाचारी आख़िरी सच है तो फिर इतनी भागमभाग क्यों?
वक़्त मेरे नाम का बहीखाता खोलेगा तो क्या-क्या निकलेगा बाहर? बच्चों के बड़े होने जाने पर ऐसी ही तन्हाई मिलती है क्या? मैंने अपनी मां को कहां छोड़ दिया? मेरे बच्चे मुझे कहां छोड़ देंगे? मैं ंकिसके लिए कर रही हूं ये सब? ज़िन्दगी में आसानी चुनने से इतना परहेज़ क्यों?
मुझे इतनी घबराहट हो रही है कि लग रहा है कि जैसे पार्क की बेंच पर, यहीं बैठे-बैठे उल्टी हो जाएगी। अंदर कुछ है जो निकल पड़ने को व्याकुल है। ये नॉसिया उसी साइकोसोमैटिक डिसॉर्डर का नतीजा है। मैं इस लम्हे, ठीक इसी लम्हे, लौट जाना चाहती हूं। पता नहीं कहां, लेकिन लौट जाना चाहती हूं कहीं।
घबराकर फोन देखती हूं। किसको फोन करूं? किससे बात करूं? इन बेचैनियों को यूं भी शब्द नहीं दिए जा सकते। क्या कहूंगी, कि बच्चों को घर पर छोड़ आई और बाहर इसलिए भटक रही हूं क्योंकि सवालों की मधुमक्खियां पीछा कर रही हैं?
सोलह साल में ऐसी बेचैनी होती थी। इस उम्र में भी होगी? सोलह साल में भी इतने ही सवाल थे। बड़े होकर करना क्या है? ज़िन्दगी का मक़सद क्या हो? कमबख़्त ये सवाल ऐसा है कि अब भी पीछा नहीं छोड़ता। मेरी ज़िन्दगी का मक़सद क्या था? मैं कहां भटक गई?
फिर ताज़िन्दगी जवाब मिलते क्यों नहीं, कि हम किस चीज़ का पीछा कर रहे होते हैं। मर ही जाना है तो जीने के आरज़ू क्योंकर हो?
ये मैं नहीं, मेरे भीतर से कोई और बोल रहा है। मेरा उस आवाज़ पर कोई बस नहीं चलता और मेरी तमाम समझदारियों को वो एक आवाज़ अक्सर बेक़ाबू कर देती है।
फोन पर गूगल खुल गया है और मैं वर्किंग मदर्स गूगल करती हूं। पता नहीं क्यों? मेरे भीतर की सारी लड़ाई ही यही है। मां होने और प्रोफेशनल होने के बीच की। दोनों होने की कोशिश कई कुर्बानियां मांगती है। जब इतना ही मुश्किल है सबकुछ तो हार क्यों नहीं मान जाती मैं? आसानियों की राह चुन लेना मेरी भी ज़िन्दगी आसान कर देगा, और मेरे बच्चों की भी। शाम को उन्हें सुलाने के बाद देर रात तक लैपटॉप पर आंखें फोड़ने से मुझे निजात मिलेगा, और सुबह तक जलती बत्ती में सोने की मजबूरी से बच्चों को। उन्हें स्कूल से लौटते हुए ये डर नहीं सताएगा कि बस स्टॉप पर उन्हें लेने के लिए कोई होगा या नहीं। मुझे इस तनाव से छुट्टी मिल जाएगी कि बच्चे जिस दिन घर पर हों उस दिन मीटिंग के लिए कैसे जाऊंगी मैं?
मैं क्यों उलझ रही हूं इतना? क्यों ज़रूरी है काम करना?
जवाब ढूंढने के लिए मैं फोन पर फिर से सक्सेसफुल मदर्स टाईप करती हूं।
फिर पावर वूमैन।
मुझे आजकल उन तमाम औरतों की कहानियां आकर्षित करती हैं जो अपने-अपने स्तर पर अपनी-अपनी किस्मतों से अलग-अलग तरीके से संघर्ष कर रही हैं। अपने सपनों का पीछा करते हुए कड़ी आलोचनाओं और समाज के पूर्वाग्रहों को दरकिनार करते हुए कैसे बनाई जाती होंगी राहें? मां तो वो है न जो दूसरों के ख़्वाबों को पालती-पोसती हो - मेरी मां की तरह - ताकि उनके पति-बच्चे-परिवार अपनी ज़िन्दगियां, अपने ख़्वाब जी सकें।
अपनी मां के ज़रिए मैंने दूसरों का ख़्वाब जीने वालों को बहुत देखा है।
मैं औरतों के लिए गाली जैसा लगने वाला शब्द - 'ambitious' - महत्वाकांक्षी औरतों के बारे में जानना चाहती हूं।
कैसी औरतें होंगी जो घर और बाहर, सबपर काबिज़ दिखाई देती हैं? उनकी बेचैनियों के बारे में किसी ने तो लिखा होगा कहीं।
जवाब फिर भी नहीं मिलते, और नाम वही गिने-चुने - सिंडी क्रॉफर्ड, माधुरी दीक्षित, फराह खान, नैना लाल किदवई, लीला सेठ, सुष्मिता सेन, एंजेलिना जोली और बीच-बीच में कहीं मेरी कॉम, गीता गोपीनाथ...
मैं कई और बहुत सारी औरतों के बारे में सोचती हूं। अपनी मां के बारे में सोचती हूं।
गूगल ही मुझे टॉनी मॉरिसन के एक इंटरव्यू की ओर लेकर चला जाता है।
टोनी मॉरिसन। एक और मां। एक और वो मां, औरत, जिसने अपनी लेखनी के ज़रिए मदरहुड को नए सिरे से परिभाषित किया। टोनी की रची हुई मांएं मातृत्व के सारे स्टीरियोटाईप्स तोड़ती हैं। टोनी की रची हुई औरतें के परिवार समाज के तय किए हुए सभी मापदंडों की अ"द ब्लुएस्ट आई" टोनी मॉरिसन की पहली किताब थी जो मैंने आद्या और आदित के आने के दौरान पढ़ा था, जब मैटरनिटी लीव पर थी। फिर 'Beloved' पढ़ी, और फिर 'Sula'. दोनों नॉवेल्स के ज़रिए मातृत्व पर - मां होने पर - मां की भूमिका पर इन दोनों किताबों ने मेरे भीतर कई पैमाने तय किए थे।
टोनी मॉरिसन की रची हुई मांएं भी अलग-अलग किस्मों की होती हैं। उनमें सेथे जैसी मां होती है जो अपने बच्चों को इस हद तक प्यार करती है कि उन्हें अपनी निजी जागीर समझती है। उनमें बेबी जैसी मां भी होती है जो नाप-तौल कर अपने हिस्से के प्यार इस डर से अपने बच्चों को देती है कि कहीं उसके अपने ही बच्चे उसे बहुत कमज़ोर और बेचारी न बना दें। ये रंगभेद और नस्लभेद, गरीबी और गुलामी के बीच अपने बच्चों को पालने वाली मांएं हैं। ये वो मांएं हैं जो अपने बच्चों को बेचने की बजाए उन्हें मार डालना ज़्यादा उचित समझती हैं। ये वो मांएं हैं जो रचती भी हैं, विनाश भी करती हैं।
और इन सब किरदारों को रचनेवाली मां है टोनी मॉरिसन। टोनी ने जब अपनी पहली किताब - द ब्लुएस्ट आई - शुरू की, वो एक नौकरी करने के साथ-साथ दो बेटों को अकेले पाल रही थीं। नौकरी पर जाने से पहले हर सुबह चार बजे लिखने के लिए उठती थीं। बकौल टोनी, जब भी उनकी हिम्मत जवाब देने लगती, वो अपनी दादी के बारे में सोचतीं जो ग़ुलामी और बेइज़्जती की ज़िन्दगी से बचने के लिए एक दिन अपने सात बच्चों के साथ दक्षिण से भाग आई थी। तब पेट भरने का भी कोई साधन नहीं था उनके पास। लेकिन मां का एक रूप ये भी होता है कि वो हर हाल में अपने बच्चों के पेट भरने का इंतज़ाम कर ही लेती है, चाहे उसे कृपी की तरह दूध के नाम पर पानी में आटा ही घोलकर क्यों न पिलाना पड़े।
टोनी का इंटरव्यू पढ़ते हुए लगता है कि कोई तीसरी आंख है जो खुल गई है भीतर। मैं हर रोज़ तो देखती हूं ये, फिर इस बात का यकीन क्यों नहीं होता कि बच्चों की ज़रूरतें बहुत कम होती हैं। बच्चों की ज़रूरतों से ज़्यादा मां के ज़ेहन में उसे ही काट खाने को बैठा गिल्ट होता है। उससे भी बड़ी रोज़-रोज़ की जद्दोज़ेहद होती है।
जो मां कामकाजी या 'ambitious' होती है, उसके लिए ये संघर्ष और भी बड़ा हो जाता है क्योंकि मां के तौर पर आपके सिर पर रोल मॉडल बन जाने का दबाव भी होता है।
चाहे जो भी हो, मां हैं आप तो अपने बच्चों के सामने बिखर नहीं सकते। उनके सामने कमज़ोर नहीं पड़ सकते। आपको हारते-टूटते हुए देखना आपके बच्चों के लिए सबसे बड़ा सदमा होता है। आपके बच्चे आपको एक adult, एक समझदार adult के तौर पर देखना चाहते हैं। और बच्चों को याद नहीं रहता कि उनकी मां के बाल कैसे हुआ करते थे। उन्हें ये ज़रूर याद रहता है कि हर हाल में मां ने सेंस ऑफ ह्यूमर कैसे बचाए रखा था अपना। ये याद रहता है कि अपनी विपरीत परिस्थितियों से हंसते हुए कैसे जूझा करती थी मां।
बच्चे अगर मां की ज़िन्दगी के दिए हुए लम्हों का योग हैं, तो फिर उनकी ख़ातिर अपने सपनों को बचाए रखना और ज़रूरी हो जाता है। टुकड़ों-टुकड़ों में अपने सपने जीकर दिखाएंगे बच्चों को, तो उन्हें अपने नामुमकिन सपनों पर यकीन होगा। इसके एवज में कई छोटे-छोटे लम्हों की क़ुर्बानियां देनी होती हैं, जिनमें उनके लिए हर शाम ठीक पांच बजे आटे का हलवा बना पाने का संतोष भी होता है।
इसलिए, सारे सवाल बेमानी हैं।
मैं टोनी मॉरिसन को थैंक यू बोलने को उठने को ही हूं कि देखती हूं, वो बुज़ुर्ग महिला फोन पर हंस-हंसकर बात कर रही है। फिर वो फोन अपने साथ बैठे अपने पति की ओर बढ़ा देती है। उनके चेहरों पर आई चमक गौतम सिद्धार्थ ने देखी होती न, तो सिद्धि यहीं मिल गई होती। जरा, मरण और दुखों से मुक्ति दिलाने के लिए जिस मार्ग की खोज में सिद्धार्थ ने घर छोड़ा, उसी घर में अपने नवजात शिशु को बड़ा करते हुए, अपने वृद्ध सास-ससुर की सेवा करते हुए, अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए, अपनी परिस्थितियों के ठीक बीचों-बीच ज़िन्दगी से जूझते हुए साध्वी यशोधरा ने निर्वाण की राह ढूंढ ली। गृहत्याग तभी किया जब कर्तव्यों को पूरा कर लिया. अपने कर्मों को जी लिया।
अभी कुछ देर पहले तक जिसकी लाचारी ने भीतर तक परेशान किया था, उसी कर्मठ बुज़ुर्ग औरत के लिए बहुत सारा प्यार उमड़ आया मन में। बेचैनी और सुकून के बीच एक नैनोसेकेंड की दूरी होती है। सब खेल मन का है।
जवाब मिल गया है। अपने कर्मों को हर दिन जीने में। अपने हालातों को बदलने के लिए बेचैन होने से ज़्यादा उसी के बीच से रास्ता निकालने में।
अब मैं किसी सुपर सक्सेसफुल मदर के बारे में नहीं जानना चाहती।
ज़िन्दगी की जंग का फ़ैसला एक दिन, एक हफ्ते, एक महीने, एक साल में नहीं होता। ज़िन्दगी की जंग आख़िरी सांस तक लड़ी जाती है और ये जो जीत और हार का अहसास है न, वो व्यक्ति सापेक्ष होता है - सफलता की परिभाषा की तरह। और ये पैमाने हम तय करते हैं अपने लिए। कोई और नहीं करता।
मंगलवार, 31 दिसंबर 2013
मंगलवार, 17 दिसंबर 2013
रौंद दिए जाने का सुख
1.
उड़ उड़ जाने दो
और फिसल जाने दो
रोक कर थाम कर जो रक्खे हैं क़दम
थोड़ी ठोकर लगे
थोड़े घुटने छिलें
तब तो मानेंगे कि हम थे चले दो क़दम
हर हमेशा संभाला है चलते हुए
फ़िक्र की है कि कोई भी जाने नहीं
कोई देखे नहीं हमको गिरते हुए
गिन लिए फॉर्मूले, तय किए रास्ते
पढ़ लिए क़ामयाबी के कुछ फ़लसफ़े
कभी ढूंढा नहीं
कभी पूछा नहीं
इनमें क्या सच रहा और क्या था वहम
मैं भी डरती रही, तुम भी डरते रहे
जो न देखा सुना वो नया ही रहा
ख़ौफ़ खाते रहे हर नई दुनिया से हम
हर बदलते हुए को बेमुरव्वत कहा
चुन लीं कुछ गालियां, हाथ पत्थर लिए
जो बदलने चला वो ज़हर ही पिए
मैं तो फिर भी कहूं
कि चलो कुछ करें
कुछ बदलने का बाकी रहे इक भरम
उड़ उड़ जाने दो
और फिसल जाने दो
रोक कर थाम कर जो रक्खे हैं क़दम
2.
गुल्लक में बचाकर रखे
छोटी ईया के दिए हुए पैसे
उनसे खरीदी हुई पेंसिलें,
चुकाई हुई फ़ीस
रिक्शेवाले के चार रुपए
पानी में घुली हॉर्लिक्स
और सबके हिस्से में आया
दो मिल्क बिकिस
एस्बेस्टस की छत से
छनकर आती धूप
टूटी हुई प्लास्टर वाली
एक कच्ची-पक्की दीवार
और रफू की हुई फ्रॉक में
चमकता कच्चा रूप
एक अंतर्देशीय में आया
नानी का 'शुभासीस'
कोनों पर लटकते जाले
सोफे पर गिरे हल्दी के दाग़
बूंद-बूंद रिसता
वॉश बेसिन का नल
बेमौसम उजड़ गया
एक बदकिस्मत बाग़
धूल खाती साइकिल
मुंह चिढ़ाता अलीगढ़ी ताला
घर बंद कर शहर-शहर
भटकने की कोई एक टीस
कविता नहीं होती
सुंदर, शीतल शब्दों, भावों,
बिंबों का मायाजाल
बिंबों का मायाजाल
कविता नहीं होती
सिर्फ प्रेम की ऊष्णता
कविता होती है
नोस्टालजिया के प्रति कृतज्ञता
और कभी-कभी रौंद दिए जाने का
सुख भी होती है कविता!
शनिवार, 14 दिसंबर 2013
कई कामों के बीच एक काम
ये कहने की बात नहीं है कि मैं अपने बाबा के बारे में सबसे ज़्यादा सोचती हूं। ये भी कहने की बात नहीं है कि मेरी ज़िन्दगी के फ़लसफ़ों, सही और ग़लत, जीने के तरीकों, निस्बत निभाने और तोड़ने की रस्मों का आधार रहे हैं बाबा।
दो दिन से मैं बिस्तर का एक कोना और एक लैपटॉप पकड़े बैठी हूं। गले से आवाज़ नहीं निकल रही, जिसका फ़ायदा ये है कि बोलना - बच्चों से, या किसी और से - आपकी मजबूरी नहीं। आप किसी से फ़ोन पर बात नहीं कर सकते। आप किसी से न मिलने जा सकते हैं, न बुलाने आ सकते हैं। तबीयत ठीक न होने का बहाना है, इसलिए नहाना, खाना, कपड़े धोना, दूध और सब्ज़ियों की चिंता करना, बच्चों के पीटीएम के बारे में याद रखना, होमवर्क कराना - ये सारे काम यकायक बेमानी और ग़ैर-ज़रूरी हो जाते हैं। जब ज़रूरी काम बेमानी हो जाएं तो ज़ाहिर है, ग़ैर-ज़रूरी कामों को तवज्जो दिया जाना चाहिए। इन ग़ैर-ज़रूरी कामों में ये सोचना कि मुझे कई महीनों से पार्क में बैठने की फ़ुर्सत नहीं मिली, भी एक है। इन्हीं ग़ैर-ज़रूरी कामों में बेवजह अपनी ज़िन्दगी के बारे में सोचना, चिंतन करना भी एक है।
मैं आजकल बहुत काम करने लगी हूं। बहुत सारे काम। ऐसे कि जैसे उन गुज़रे हुए सालों की भरपाई करनी है जब बच्चों को बड़ा करते हुए काम से ख़ुद को बहुत दूर रखा था। ऐसा लगता है जैसे सिर पर जुनून सवार है कोई। इतनी मेहनत का हासिल क्या है, ये सोच ही रही हूं कि अचानक बाबा का ख़्याल आता है। बाबा का, और मम्मी का क्योंकि मेरी ज़िन्दगी पर इन्हीं दो लोगों का सबसे गहरा असर रहा है।
मुझे एक वाकया याद आ रहा है। मेरे बाबा को गठिया की बीमारी थी, इतनी ही भयंकर कि सूजे हुए पांवों की तकलीफ़ चलना-फिरना तक मुश्किल कर दिया करती थी। उनकी सुबहें पांवों की सिंकाई से होती और उनका इतवार शहर के दूर-दराज़ कोनों में जाकर वैद्य-हकीमों से दवाईयां लाने में गुज़रता। लेकिन इतने दर्द के बावजूद मुझे कम से कम अपने होश में तो याद नहीं कि बाबा ने छुट्टी ली हो, या काम पर नहीं गए हों। उनमें ग़ज़ब की सहनशक्ति थी।
ख़ैर, हुआ यूं कि बाबा के बाएं पांव में फ्रैक्चर आ गया, बस ऐसे ही चलते-चलते। डॉक्टरों ने प्लास्टर लगा दिया और कहा कि गठिया की वजह से हड्डी कमज़ोर हो गई होगी, इसलिए फ्रैक्चर हो गया। फ्रैक्चर था जो छह हफ्ते उन्हें आराम करना चाहिए था। बाबा फिर भी काम पर, अपनी फैक्टरी जाते रहे। एक दिन तो हद ही हो गई। बाबा ठीक साढ़े सात बजे ऑफिस के लिए निकल जाया करते थे। आंधी-तूफान, जाड़ा-गर्मी, ईद-दीवाली - कोई भी बहाना साढ़े सात का पौने आठ नहीं कर सका। उस दिन बाबा का ड्राईवर वक़्त पर नहीं आया। प्लास्टर लगे हुए पांव से लंगड़ाते हुए बाबा गाड़ी तक पहुंचे, और उन्होंने वैसे ही गाड़ी निकाल ली। सब बदल सकता था, काम पर जाने का वक़्त नहीं बदल सकता था।
पूरी ज़िन्दगी हमने बाबा को ऐसे ही काम करते देखा है। वो धुनी थे, जुनूनी। जो ठान लेते थे, करते थे। बातें बहुत कम करते थे, काम बहुत ज़्यादा करते थे। बारह सौ लोगों के कारखाने में लगी असेम्बली लाइन्स की मशीनें नाम और मैन्युफैक्चरिंग डेट से याद दी उन्हें। ख़राब, बंद पड़ी मशीनें उन्हें नापसंद थीं। हर मशीन का सुचारु रुप से चलते रहना अपनी नैतिक ज़िम्मेदारी मानते थे।
कमाल है कि वर्कॉहोलिक होते हुए भी हमें अपनी ज़िन्दगी के जो सबसे ख़ुशनुमा लम्हे मिले, वो बाबा से ही मिले। पिकनिक्स, रोड-ट्रिप्स, छुट्टियां, होली-दीवाली की शॉपिंग, पार्टियां, स्कूल फंक्शन्स में बाबा की उपस्थिति, बीमार होने पर उनके पेट का तकिया... मेरी सारी यादों में बाबा ही हैं। ये भी याद है कि मुझे पहली बार चम्मच पकड़ना भी उन्होंने ही सिखाया और vowel-consonant में अंतर भी। मुझे ये भी याद है कि फैक्ट्री जाने से पहले बाबा अपनी चाय में बिस्कुट डुबो-डुबोकर खिलाते थे और उसके बाद मुझे नहलाकर, स्कूल के लिए तैयार कर काम पर जाते थे। ये भी याद है कि फैक्ट्री से आने के बाद एक उन्हीं के पास मेरे दिन का लेखा-जोखा सुनने के लिए वक्त होता था। ये भी याद है कि मैंने सबसे ज़्यादा फिल्में बाबा के साथ देखीं, और सबसे ज़्यादा लोगों से उन्हीं की बदौलत मिली।
कैसे करते थे ये सब बाबा? लेकिन करते थे। हर साल दिवाली पर घर की सफाई के बाद पहले फैक्ट्री जाते थे, फिर वापस लौटकर पंजाब स्वीट हाउस (और बाद में स्वीटको) से मिठाई पैक कराकर शहर के दूसरे कोनों में रहने वाले अपने करीबी दोस्तों के घर जाते थे और फिर लौटकर हमारे साथ पटाखे भी खरीद आते थे, दिए भी लगा दिया करते थे। बाबा के जितने दोस्त, जानकार, चाहने वाले थे उनके लिए उन्हें वक़्त कैसे मिलता था, पता नहीं। लेकिन हर शादियों का न्यौता कर आते थे। किसी का आमंत्रण नज़रअंदाज़ नहीं करते थे कभी। और ये सब पंद्रह-सोलह घंटे काम करने के बाद! घर में सब्ज़ी है या नहीं, किसे डॉक्टर के पास जाना है और किसके जूते छोटे हो गए हैं, ये भी एक बाबा को ही पता रहता था। मेरी सहेलियों के नाम और उनके घरों के पते भी एक उन्हीं को मालूम थे।
अब ऐसे किसी सुपर-ह्युमन ने आपको पाल-पोस कर बड़ा किया हो, ऐसा कोई इंसान आपका वजूद हो, ऐसे किसी इंसान की पहचान आपकी रगों में बहता हो तो आप ख़ुद उतने ही जुनूनी, फ़ितूरी, पागल नहीं होंगे?
मैं अक्सर सोचती हूं कि इतनी मेहनत करने का क्या फ़ायदा होता है? आख़िर एक दिन सबकुछ छोड़कर चला तो जाता है इंसान। क्या रख जाता है पीछे? ये इतनी हाय-तौबा किसलिए है? इस हाय-तौबा का हासिल क्या है? मैं क्यों पागलों की तरह अपने सिर पर लादे रहती हूं एक हज़ार काम? रोज़ी-रोटी तो कतई वजह नहीं है।
फिर बाबा का ही जवाब याद आता है जो एक दिन छत पर धूप सेंकते हुए, तिलकुट का टुकड़ा मुंह में डालते हुए कहा था उन्होंने, "ये दुनिया वैसी की वैसी ही रहेगी चाहे हम काम करें या कामचोरी, चाहे हम अपनी ज़िन्दगियों को बदलें या जैसे थे, वैसे ही रहें। बदलता कुछ और थोड़े है? हम किसी और के लिए काम थोड़े न करते हैं? हम अपने लिए काम करते हैं। हम यहां इस नश्वर दुनिया में कुछ जोड़ना चाहते हैं, इसलिए काम करते हैं। मरना तो हर हाल में है। ज़रूरी ये है कि आपने ज़िन्दगी जी किस तरह। तुम तय कर लो कि तुम कैसे जीना चाहती हो।" मुश्किल ये है कि मैंने बड़ी छोटी उम्र में ही बाबा की तरह जीना तय कर लिया था अपने लिए।
काम तो एक बहाना है। ख़ुद को कारगर बनाए रखने का एक सबब भर है। अहम बात ये है कि आपने क्या-क्या बदला। अपने इर्द-गिर्द ही नहीं, अपने भीतर भी। आपने कौन-कौन सी चुनौतियां स्वीकार कीं। आपने हर रोज़ ख़ुद को ज़ाया होने से कैसे बचाया। आप ख़ुद के प्रति कितने ईमानदार रहे।
ये भी नहीं कि जीने का यही एक तरीका सही है और बाकी सारे ग़लत। मुश्किल ये है कि मैंने जीने का यही एक तरीका सीखा है। और ये भी समझ गई हूं कि हम जब कुछ भी नहीं कर रहे होते न, तब भी कई ज़रूरी काम कर रहे होते हैं। बाबा के सिखाए हुए ज़िन्दगी के फ़लसफ़ों में से अपने काम की चीज़ें निकाल कर रख लेना भी तो एक बेहद ज़रूरी काम है!
दो दिन से मैं बिस्तर का एक कोना और एक लैपटॉप पकड़े बैठी हूं। गले से आवाज़ नहीं निकल रही, जिसका फ़ायदा ये है कि बोलना - बच्चों से, या किसी और से - आपकी मजबूरी नहीं। आप किसी से फ़ोन पर बात नहीं कर सकते। आप किसी से न मिलने जा सकते हैं, न बुलाने आ सकते हैं। तबीयत ठीक न होने का बहाना है, इसलिए नहाना, खाना, कपड़े धोना, दूध और सब्ज़ियों की चिंता करना, बच्चों के पीटीएम के बारे में याद रखना, होमवर्क कराना - ये सारे काम यकायक बेमानी और ग़ैर-ज़रूरी हो जाते हैं। जब ज़रूरी काम बेमानी हो जाएं तो ज़ाहिर है, ग़ैर-ज़रूरी कामों को तवज्जो दिया जाना चाहिए। इन ग़ैर-ज़रूरी कामों में ये सोचना कि मुझे कई महीनों से पार्क में बैठने की फ़ुर्सत नहीं मिली, भी एक है। इन्हीं ग़ैर-ज़रूरी कामों में बेवजह अपनी ज़िन्दगी के बारे में सोचना, चिंतन करना भी एक है।
मैं आजकल बहुत काम करने लगी हूं। बहुत सारे काम। ऐसे कि जैसे उन गुज़रे हुए सालों की भरपाई करनी है जब बच्चों को बड़ा करते हुए काम से ख़ुद को बहुत दूर रखा था। ऐसा लगता है जैसे सिर पर जुनून सवार है कोई। इतनी मेहनत का हासिल क्या है, ये सोच ही रही हूं कि अचानक बाबा का ख़्याल आता है। बाबा का, और मम्मी का क्योंकि मेरी ज़िन्दगी पर इन्हीं दो लोगों का सबसे गहरा असर रहा है।
मुझे एक वाकया याद आ रहा है। मेरे बाबा को गठिया की बीमारी थी, इतनी ही भयंकर कि सूजे हुए पांवों की तकलीफ़ चलना-फिरना तक मुश्किल कर दिया करती थी। उनकी सुबहें पांवों की सिंकाई से होती और उनका इतवार शहर के दूर-दराज़ कोनों में जाकर वैद्य-हकीमों से दवाईयां लाने में गुज़रता। लेकिन इतने दर्द के बावजूद मुझे कम से कम अपने होश में तो याद नहीं कि बाबा ने छुट्टी ली हो, या काम पर नहीं गए हों। उनमें ग़ज़ब की सहनशक्ति थी।
ख़ैर, हुआ यूं कि बाबा के बाएं पांव में फ्रैक्चर आ गया, बस ऐसे ही चलते-चलते। डॉक्टरों ने प्लास्टर लगा दिया और कहा कि गठिया की वजह से हड्डी कमज़ोर हो गई होगी, इसलिए फ्रैक्चर हो गया। फ्रैक्चर था जो छह हफ्ते उन्हें आराम करना चाहिए था। बाबा फिर भी काम पर, अपनी फैक्टरी जाते रहे। एक दिन तो हद ही हो गई। बाबा ठीक साढ़े सात बजे ऑफिस के लिए निकल जाया करते थे। आंधी-तूफान, जाड़ा-गर्मी, ईद-दीवाली - कोई भी बहाना साढ़े सात का पौने आठ नहीं कर सका। उस दिन बाबा का ड्राईवर वक़्त पर नहीं आया। प्लास्टर लगे हुए पांव से लंगड़ाते हुए बाबा गाड़ी तक पहुंचे, और उन्होंने वैसे ही गाड़ी निकाल ली। सब बदल सकता था, काम पर जाने का वक़्त नहीं बदल सकता था।
पूरी ज़िन्दगी हमने बाबा को ऐसे ही काम करते देखा है। वो धुनी थे, जुनूनी। जो ठान लेते थे, करते थे। बातें बहुत कम करते थे, काम बहुत ज़्यादा करते थे। बारह सौ लोगों के कारखाने में लगी असेम्बली लाइन्स की मशीनें नाम और मैन्युफैक्चरिंग डेट से याद दी उन्हें। ख़राब, बंद पड़ी मशीनें उन्हें नापसंद थीं। हर मशीन का सुचारु रुप से चलते रहना अपनी नैतिक ज़िम्मेदारी मानते थे।
कमाल है कि वर्कॉहोलिक होते हुए भी हमें अपनी ज़िन्दगी के जो सबसे ख़ुशनुमा लम्हे मिले, वो बाबा से ही मिले। पिकनिक्स, रोड-ट्रिप्स, छुट्टियां, होली-दीवाली की शॉपिंग, पार्टियां, स्कूल फंक्शन्स में बाबा की उपस्थिति, बीमार होने पर उनके पेट का तकिया... मेरी सारी यादों में बाबा ही हैं। ये भी याद है कि मुझे पहली बार चम्मच पकड़ना भी उन्होंने ही सिखाया और vowel-consonant में अंतर भी। मुझे ये भी याद है कि फैक्ट्री जाने से पहले बाबा अपनी चाय में बिस्कुट डुबो-डुबोकर खिलाते थे और उसके बाद मुझे नहलाकर, स्कूल के लिए तैयार कर काम पर जाते थे। ये भी याद है कि फैक्ट्री से आने के बाद एक उन्हीं के पास मेरे दिन का लेखा-जोखा सुनने के लिए वक्त होता था। ये भी याद है कि मैंने सबसे ज़्यादा फिल्में बाबा के साथ देखीं, और सबसे ज़्यादा लोगों से उन्हीं की बदौलत मिली।
कैसे करते थे ये सब बाबा? लेकिन करते थे। हर साल दिवाली पर घर की सफाई के बाद पहले फैक्ट्री जाते थे, फिर वापस लौटकर पंजाब स्वीट हाउस (और बाद में स्वीटको) से मिठाई पैक कराकर शहर के दूसरे कोनों में रहने वाले अपने करीबी दोस्तों के घर जाते थे और फिर लौटकर हमारे साथ पटाखे भी खरीद आते थे, दिए भी लगा दिया करते थे। बाबा के जितने दोस्त, जानकार, चाहने वाले थे उनके लिए उन्हें वक़्त कैसे मिलता था, पता नहीं। लेकिन हर शादियों का न्यौता कर आते थे। किसी का आमंत्रण नज़रअंदाज़ नहीं करते थे कभी। और ये सब पंद्रह-सोलह घंटे काम करने के बाद! घर में सब्ज़ी है या नहीं, किसे डॉक्टर के पास जाना है और किसके जूते छोटे हो गए हैं, ये भी एक बाबा को ही पता रहता था। मेरी सहेलियों के नाम और उनके घरों के पते भी एक उन्हीं को मालूम थे।
अब ऐसे किसी सुपर-ह्युमन ने आपको पाल-पोस कर बड़ा किया हो, ऐसा कोई इंसान आपका वजूद हो, ऐसे किसी इंसान की पहचान आपकी रगों में बहता हो तो आप ख़ुद उतने ही जुनूनी, फ़ितूरी, पागल नहीं होंगे?
मैं अक्सर सोचती हूं कि इतनी मेहनत करने का क्या फ़ायदा होता है? आख़िर एक दिन सबकुछ छोड़कर चला तो जाता है इंसान। क्या रख जाता है पीछे? ये इतनी हाय-तौबा किसलिए है? इस हाय-तौबा का हासिल क्या है? मैं क्यों पागलों की तरह अपने सिर पर लादे रहती हूं एक हज़ार काम? रोज़ी-रोटी तो कतई वजह नहीं है।
फिर बाबा का ही जवाब याद आता है जो एक दिन छत पर धूप सेंकते हुए, तिलकुट का टुकड़ा मुंह में डालते हुए कहा था उन्होंने, "ये दुनिया वैसी की वैसी ही रहेगी चाहे हम काम करें या कामचोरी, चाहे हम अपनी ज़िन्दगियों को बदलें या जैसे थे, वैसे ही रहें। बदलता कुछ और थोड़े है? हम किसी और के लिए काम थोड़े न करते हैं? हम अपने लिए काम करते हैं। हम यहां इस नश्वर दुनिया में कुछ जोड़ना चाहते हैं, इसलिए काम करते हैं। मरना तो हर हाल में है। ज़रूरी ये है कि आपने ज़िन्दगी जी किस तरह। तुम तय कर लो कि तुम कैसे जीना चाहती हो।" मुश्किल ये है कि मैंने बड़ी छोटी उम्र में ही बाबा की तरह जीना तय कर लिया था अपने लिए।
काम तो एक बहाना है। ख़ुद को कारगर बनाए रखने का एक सबब भर है। अहम बात ये है कि आपने क्या-क्या बदला। अपने इर्द-गिर्द ही नहीं, अपने भीतर भी। आपने कौन-कौन सी चुनौतियां स्वीकार कीं। आपने हर रोज़ ख़ुद को ज़ाया होने से कैसे बचाया। आप ख़ुद के प्रति कितने ईमानदार रहे।
ये भी नहीं कि जीने का यही एक तरीका सही है और बाकी सारे ग़लत। मुश्किल ये है कि मैंने जीने का यही एक तरीका सीखा है। और ये भी समझ गई हूं कि हम जब कुछ भी नहीं कर रहे होते न, तब भी कई ज़रूरी काम कर रहे होते हैं। बाबा के सिखाए हुए ज़िन्दगी के फ़लसफ़ों में से अपने काम की चीज़ें निकाल कर रख लेना भी तो एक बेहद ज़रूरी काम है!
शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013
मेरी बर्बादियों का वो आग़ाज़ था
स्कूल रिक्शे से जाया करती थी। चौथी या पांचवीं में पढ़ती थी तब। न जाने कैसे कविताएं लिखने का शौक सवार हो गया। आड़ी-तिरछी, बेतुकी लेकिन तुकवाली कविताओं से स्कूल की कॉपियों के पिछले पन्ने भरने लगे। कुछ अपनी कविताएं होतीं, कुछ नंदन-चंपक में छपी कविताओं की नकल होती। लेकिन शौक़ था और ख़ूब था। घर में किसी को मेरा ये फ़ितूर समझ में नहीं आता था। या शायद समझ में आता भी हो तो इसका क्या किया जाए, ये समझ में नहीं आता होगा। बहरहाल, मैं आड़ा-तिरछा लिखती रही।
एक दिन रेडियो पर संडे की सुबह 'बाल सभा' के नाम का कार्यक्रम क्या सुन लिया, शौक़ को तो पंख ही लग गए। अगले ही दिन स्कूल से घर लौटते हुए रास्ते में रिक्शा रुकवाया, सड़क पार करके रेडियो स्टेशन के गेट के पास पहुंच गई। चौकीदार से कहा, बाल सभा वालों से मिलना है। चौकीदार ने वापस लौटा दिया और मैं अगले दिन फिर लौटने का अनकहा वादा करके रिक्शे पर बैठकर घर लौट आई। तीन दिन में ही चौकीदार ने हथियार डाल दिए और मुझे बाल सभा की प्रोड्युसर से मिलने के लिए भीतर भेज दिया। अगले संडे मैं रेडियो पर थी, अपनी वही आड़ी-तिरछी कविताएं पढ़ती हुई और फिर वो सिलसिला चल पड़ा।
मुद्दा ये नहीं कि मैं कविताएं लिखती थी और रेडियो स्टेशन पर पढ़ती थी। (मैं तब भी बहुत ख़राब कविताएं लिखती थी और अब तो उससे भी ख़राब लिखती हूं) मुद्दा ये है कि पहले महीने मुझे साठ रुपए का एक चेक मिला था। उस चेक को घर लाते हुए जितनी ख़ुशी हुई थी, उतनी इतने सालों बाद उसके बारे में सोचकर अब भी होती है। उससे ज़्यादा ख़ुशी इस बात की हुई थी कि बाबा ने तुरंत मम्मी को कहा था कि मुझे बैंक लेकर जाएं और एक ज्वाइंट अकाउंट खुलावाएं मेरा और मम्मी का। अब तो ये हर महीने साठ रुपए लेकर आया करेगी, उनके चेहरे पर फख़्र था।
जिस दिन बाबा के चेहरे पर, मम्मी की आंखों की चमक को मैंने फ़ख्र का नाम दे दिया था, ठीक उसी दिन मेरी बर्बादी शुरू हो गई थी, जो आज तक रुकी नहीं।
कल पूरी शाम परेशान रही। मैं कहीं और थी, ध्यान कहीं और। दस साल की उम्र में कैसी बेचैनी थी ये? मैं क्या बदलना चाहती थी, और क्यों? मेरी उम्र के बाकी बच्चे तो कुछ और कर रहे थे मेरे आस-पास। मैं नॉर्मल क्यों नहीं थी? हर बार अपने हालात बदलते जाने की ये कैसी बेतुकी ज़िद थी? नियति स्वीकार क्यों नहीं कर लिया करती थी? सवाल क्यों पूछती थी इतना? क्या बदलना चाहती थी? किसे बदलना चाहती थी?
शांति से न बैठने की ज़िद दस साल के बाद भी कम नहीं हुई, बढ़ती चली गई। मैं हिंदी मीडियम स्कूल में पढ़ती थी, और दोनों भाई इंग्लिश मीडियम में। पता नहीं किससे स्पर्धा थी, लेकिन मैं सुबह नौ बजे से पांच बजे तक स्कूल में होने से पहले साढ़े सात से साढ़े आठ अंग्रेज़ी सीख रही होती थी - बक़ायदा क्लास में बैठकर। उस क्लास में सबसे छोटी थी - दस साल की। बाकी सारे कॉलेज में पढ़ रहे थे। स्कूल से लौटने के बाद होमवर्क और अपनी पढ़ाई करने के बाद मैं भाई की किताबें पढ़कर, लाइब्रेरी से किताबें लाकर अंग्रेज़ी पढ़ा रही होती ख़ुद को। मेरे लिए हर रोज़ एक चुनौती होता था। मैं हर रोज़ ख़ुद से बेहतर होना चाहती थी।
मेरी बर्बादी का ग्राफ ऊंचा चढ़ता रहा, और ऊंचा...
दसवीं के इम्तिहानों के बाद मेरे आस-पास के लोग छुट्टियां मना रहे थे और मैं सुबह साढ़े आठ से साढ़े बारह एक नर्सरी स्कूल में पढ़ा रही थी - ढाई सौ रुपए की तनख़्वाह पर। बारहवीं के बाद सब आराम फ़रमा रहे थे। मैं बेवकूफ़ कलकत्ते जाकर अमेरिकन लाइब्रेरी की खाक छान रही थी और पता करने की कोशिश कर रही थी कि सैट या टोफ़ल - बाहर की यूनिवर्सिटी में दाख़िले का रास्ता क्या होता है।
कॉलेज फर्स्ट ईयर के बाद की गर्मी छुट्टियों में आराम नहीं किया, रांची एक्सप्रेस में डेढ़ महीने डेस्क की नौकरी की। सेकेंड ईयर के बाद उसी इंस्टीट्यूट में कॉलेज के बच्चों को अंग्रेज़ी पढ़ायी, जहां से ख़ुद अंग्रेज़ी सीखी और पढ़ी थी। थर्ड ईयर के बाद रांची से कलकत्ता इसलिए चली गई क्योंकि मुझे हर हाल में आईआईएमसी और टिस का एंट्रेंस एक्ज़ाम क्लियर करना था। आईआईएमसी के बाद मुंबई चली गई, बाईस साल की उम्र में, क्योंकि तब तक फिल्में कैसे बनती हैं, ये जानने का भूत सवार हो गया था सिर पर।
मेरी बर्बादी उस समय चरम पर थी।
फिर कई सारे छल मिले, कई बार औंधे मुंह गिरी। हर बार पता नहीं कौन सी ज़िद आगे का रास्ता ख़ुद ही तलाश करने के लिए ले जाती रही, वो भी मेरे कान पकड़कर। मुझे हार में भी चैन नहीं था। काश कि तब हार मान ही ली होती। बर्बादियां यहां तक तो लेकर न आई होतीं मुझे!
कल बच्चों और पति के साथ बाज़ार में थी। सामने नारंगी रंग की साड़ी में एक महिला अपने पति और बच्चों के साथ जूते खरीद रही थी। उस महिला को देखकर बड़ी देर तक सोचती रही कि ये मेरी तरह जी से बर्बाद है या आबाद? कितने औरतें हैं इस दुनिया में जिन्होंने मेरी तरह बर्बादी का रास्ता अख़्तियार कर लिया और हमेशा ख़ुद से उलझती रहती हैं? कितनी औरतें हैं जिन्हें अपने हालात पर संतोष नहीं, और उन हालातों को बदलने की कोशिश में ख़ुद को घिसती चली जा रही हैं वो? पितृ-सत्तात्मक समाज ने कितनी तो आसान सीमा-रेखाएं खींच रखी हैं। उन्हें क्यों नहीं मान लेती ये बर्बाद महिलाएं? अपनी सीमाओं में रहतीं तो ज़्यादा ख़ुश न रहतीं? ये किस तरह का पागलपन है, जो चैन से रहने नहीं देता? मैं भी हाथ में कॉलिन लिए घर की सफ़ाई करते हुए ख़ुश क्यों नहीं रह सकती?
लेकिन नहीं। ज़िद है कि अपनी कविताएं रेडियो स्टेशन में ही सुनाएंगे। अपने हुनर का सदुपयोग करेंगे। हालात से कभी समझौता नहीं करेंगे और हालात की बेहतरी के लिए लड़ते रहेंगे, हाथ पर हाथ धरे बैठेंगे नहीं। बेचैन रहेंगे और बेचैन रखेंगे। बस यूं समझ लीजिए कि बर्बाद होंगे और होते रहेंगे।
मुझे बिगाड़ने और बर्बाद करने में मेरे घरवालों का भी ख़ूब हाथ रहा। उन्होंने तभी पंख कतर दिए होते तो यहां तक पहुंची न होती। यहां तक पहुंची न होती तो अपने साथ-साथ अपने आस-पास कई लोगों का जीना आसान कर दिया होता। लेकिन मुझ जैसे बर्बाद लोगों को आसानियों से ही उलझन है।
कल रात से सोच रही हूं कि बर्बाद न होती तो क्या होती? लम्हा-लम्हा संघर्ष करने का ये जुनून न होता तो कैसा होता? हर रोज़ ख़्वाबों को पाला-पोसा न होता और पहली बार में ही उनका गला घोंटकर आसानी से अपनी किस्मत स्वीकार कर लेती तो कितना अच्छा होता। इतनी मेहनत, इतना संघर्ष किसलिए है आख़िर? मैं किसके लिए लड़ रही हूं, और किससे? ये जुनून और दीवानगी क्या है कि कल कुछ और बेहतर हो। मैं क्या बदलना चाहती हूं? इसी एक ज़िन्दगी में क्या-क्या बदलूंगी?
लेकिन बर्बादी जब शुरू ही हो गई तो संतोष कैसे हो? जिसका दस साल की उम्र में आग़ाज़ हुआ था, उसे मुकम्मल अंजाम तक पहुंचाना भी तो होगा। इसलिए पूरी तरह से बर्बाद हो जाओ अनु सिंह। रुको मत। करती रहो। उलझती रहो ख़ुद से। जो ठहर गई तो नदी कैसी? याद रखना कि बहता हुआ पानी ही साफ़ और प्यास बुझाने लायक होता है। याद रखना कि एक पीढ़ी को आबाद करने के लिए एक पीढ़ी को पूरी तरह बर्बाद होना पड़ता है।
एक दिन रेडियो पर संडे की सुबह 'बाल सभा' के नाम का कार्यक्रम क्या सुन लिया, शौक़ को तो पंख ही लग गए। अगले ही दिन स्कूल से घर लौटते हुए रास्ते में रिक्शा रुकवाया, सड़क पार करके रेडियो स्टेशन के गेट के पास पहुंच गई। चौकीदार से कहा, बाल सभा वालों से मिलना है। चौकीदार ने वापस लौटा दिया और मैं अगले दिन फिर लौटने का अनकहा वादा करके रिक्शे पर बैठकर घर लौट आई। तीन दिन में ही चौकीदार ने हथियार डाल दिए और मुझे बाल सभा की प्रोड्युसर से मिलने के लिए भीतर भेज दिया। अगले संडे मैं रेडियो पर थी, अपनी वही आड़ी-तिरछी कविताएं पढ़ती हुई और फिर वो सिलसिला चल पड़ा।
मुद्दा ये नहीं कि मैं कविताएं लिखती थी और रेडियो स्टेशन पर पढ़ती थी। (मैं तब भी बहुत ख़राब कविताएं लिखती थी और अब तो उससे भी ख़राब लिखती हूं) मुद्दा ये है कि पहले महीने मुझे साठ रुपए का एक चेक मिला था। उस चेक को घर लाते हुए जितनी ख़ुशी हुई थी, उतनी इतने सालों बाद उसके बारे में सोचकर अब भी होती है। उससे ज़्यादा ख़ुशी इस बात की हुई थी कि बाबा ने तुरंत मम्मी को कहा था कि मुझे बैंक लेकर जाएं और एक ज्वाइंट अकाउंट खुलावाएं मेरा और मम्मी का। अब तो ये हर महीने साठ रुपए लेकर आया करेगी, उनके चेहरे पर फख़्र था।
जिस दिन बाबा के चेहरे पर, मम्मी की आंखों की चमक को मैंने फ़ख्र का नाम दे दिया था, ठीक उसी दिन मेरी बर्बादी शुरू हो गई थी, जो आज तक रुकी नहीं।
कल पूरी शाम परेशान रही। मैं कहीं और थी, ध्यान कहीं और। दस साल की उम्र में कैसी बेचैनी थी ये? मैं क्या बदलना चाहती थी, और क्यों? मेरी उम्र के बाकी बच्चे तो कुछ और कर रहे थे मेरे आस-पास। मैं नॉर्मल क्यों नहीं थी? हर बार अपने हालात बदलते जाने की ये कैसी बेतुकी ज़िद थी? नियति स्वीकार क्यों नहीं कर लिया करती थी? सवाल क्यों पूछती थी इतना? क्या बदलना चाहती थी? किसे बदलना चाहती थी?
शांति से न बैठने की ज़िद दस साल के बाद भी कम नहीं हुई, बढ़ती चली गई। मैं हिंदी मीडियम स्कूल में पढ़ती थी, और दोनों भाई इंग्लिश मीडियम में। पता नहीं किससे स्पर्धा थी, लेकिन मैं सुबह नौ बजे से पांच बजे तक स्कूल में होने से पहले साढ़े सात से साढ़े आठ अंग्रेज़ी सीख रही होती थी - बक़ायदा क्लास में बैठकर। उस क्लास में सबसे छोटी थी - दस साल की। बाकी सारे कॉलेज में पढ़ रहे थे। स्कूल से लौटने के बाद होमवर्क और अपनी पढ़ाई करने के बाद मैं भाई की किताबें पढ़कर, लाइब्रेरी से किताबें लाकर अंग्रेज़ी पढ़ा रही होती ख़ुद को। मेरे लिए हर रोज़ एक चुनौती होता था। मैं हर रोज़ ख़ुद से बेहतर होना चाहती थी।
मेरी बर्बादी का ग्राफ ऊंचा चढ़ता रहा, और ऊंचा...
दसवीं के इम्तिहानों के बाद मेरे आस-पास के लोग छुट्टियां मना रहे थे और मैं सुबह साढ़े आठ से साढ़े बारह एक नर्सरी स्कूल में पढ़ा रही थी - ढाई सौ रुपए की तनख़्वाह पर। बारहवीं के बाद सब आराम फ़रमा रहे थे। मैं बेवकूफ़ कलकत्ते जाकर अमेरिकन लाइब्रेरी की खाक छान रही थी और पता करने की कोशिश कर रही थी कि सैट या टोफ़ल - बाहर की यूनिवर्सिटी में दाख़िले का रास्ता क्या होता है।
कॉलेज फर्स्ट ईयर के बाद की गर्मी छुट्टियों में आराम नहीं किया, रांची एक्सप्रेस में डेढ़ महीने डेस्क की नौकरी की। सेकेंड ईयर के बाद उसी इंस्टीट्यूट में कॉलेज के बच्चों को अंग्रेज़ी पढ़ायी, जहां से ख़ुद अंग्रेज़ी सीखी और पढ़ी थी। थर्ड ईयर के बाद रांची से कलकत्ता इसलिए चली गई क्योंकि मुझे हर हाल में आईआईएमसी और टिस का एंट्रेंस एक्ज़ाम क्लियर करना था। आईआईएमसी के बाद मुंबई चली गई, बाईस साल की उम्र में, क्योंकि तब तक फिल्में कैसे बनती हैं, ये जानने का भूत सवार हो गया था सिर पर।
मेरी बर्बादी उस समय चरम पर थी।
फिर कई सारे छल मिले, कई बार औंधे मुंह गिरी। हर बार पता नहीं कौन सी ज़िद आगे का रास्ता ख़ुद ही तलाश करने के लिए ले जाती रही, वो भी मेरे कान पकड़कर। मुझे हार में भी चैन नहीं था। काश कि तब हार मान ही ली होती। बर्बादियां यहां तक तो लेकर न आई होतीं मुझे!
कल बच्चों और पति के साथ बाज़ार में थी। सामने नारंगी रंग की साड़ी में एक महिला अपने पति और बच्चों के साथ जूते खरीद रही थी। उस महिला को देखकर बड़ी देर तक सोचती रही कि ये मेरी तरह जी से बर्बाद है या आबाद? कितने औरतें हैं इस दुनिया में जिन्होंने मेरी तरह बर्बादी का रास्ता अख़्तियार कर लिया और हमेशा ख़ुद से उलझती रहती हैं? कितनी औरतें हैं जिन्हें अपने हालात पर संतोष नहीं, और उन हालातों को बदलने की कोशिश में ख़ुद को घिसती चली जा रही हैं वो? पितृ-सत्तात्मक समाज ने कितनी तो आसान सीमा-रेखाएं खींच रखी हैं। उन्हें क्यों नहीं मान लेती ये बर्बाद महिलाएं? अपनी सीमाओं में रहतीं तो ज़्यादा ख़ुश न रहतीं? ये किस तरह का पागलपन है, जो चैन से रहने नहीं देता? मैं भी हाथ में कॉलिन लिए घर की सफ़ाई करते हुए ख़ुश क्यों नहीं रह सकती?
लेकिन नहीं। ज़िद है कि अपनी कविताएं रेडियो स्टेशन में ही सुनाएंगे। अपने हुनर का सदुपयोग करेंगे। हालात से कभी समझौता नहीं करेंगे और हालात की बेहतरी के लिए लड़ते रहेंगे, हाथ पर हाथ धरे बैठेंगे नहीं। बेचैन रहेंगे और बेचैन रखेंगे। बस यूं समझ लीजिए कि बर्बाद होंगे और होते रहेंगे।
मुझे बिगाड़ने और बर्बाद करने में मेरे घरवालों का भी ख़ूब हाथ रहा। उन्होंने तभी पंख कतर दिए होते तो यहां तक पहुंची न होती। यहां तक पहुंची न होती तो अपने साथ-साथ अपने आस-पास कई लोगों का जीना आसान कर दिया होता। लेकिन मुझ जैसे बर्बाद लोगों को आसानियों से ही उलझन है।
कल रात से सोच रही हूं कि बर्बाद न होती तो क्या होती? लम्हा-लम्हा संघर्ष करने का ये जुनून न होता तो कैसा होता? हर रोज़ ख़्वाबों को पाला-पोसा न होता और पहली बार में ही उनका गला घोंटकर आसानी से अपनी किस्मत स्वीकार कर लेती तो कितना अच्छा होता। इतनी मेहनत, इतना संघर्ष किसलिए है आख़िर? मैं किसके लिए लड़ रही हूं, और किससे? ये जुनून और दीवानगी क्या है कि कल कुछ और बेहतर हो। मैं क्या बदलना चाहती हूं? इसी एक ज़िन्दगी में क्या-क्या बदलूंगी?
लेकिन बर्बादी जब शुरू ही हो गई तो संतोष कैसे हो? जिसका दस साल की उम्र में आग़ाज़ हुआ था, उसे मुकम्मल अंजाम तक पहुंचाना भी तो होगा। इसलिए पूरी तरह से बर्बाद हो जाओ अनु सिंह। रुको मत। करती रहो। उलझती रहो ख़ुद से। जो ठहर गई तो नदी कैसी? याद रखना कि बहता हुआ पानी ही साफ़ और प्यास बुझाने लायक होता है। याद रखना कि एक पीढ़ी को आबाद करने के लिए एक पीढ़ी को पूरी तरह बर्बाद होना पड़ता है।
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