शाम के गिरते-गिरते तक, ठंड के बढ़ते रहने तक, अंधेरा और गहरा होते जाने तक हम वैसे ही बैठे रहे थे - एक-दूसरे की कहानियां सुनने और उसपर अपनी प्रतिक्रियाएं देने के लिए। वक़्त तेज़ी से भागने की अपनी लत से मजबूर न होता तो हम कई और घंटे वैसे ही बैठे रहने को तैयार थे।
अब 'मंडली' के बारे में कुछ बताती चलूं। बाकी और लोगों की तरह मैंने भी मंडली के बारे में पहली बार फ़ेसबुक पर ही पढ़ा था और कुछ तस्वीरें देखीं थी वहीं। वो तब का दौर था जब बच्चों को प्ले-स्कूल भेज देने के बाद अपने मन का गुबार निकालने के लिए मैंने इसी ब्लॉग का सहारा ले लिया था। कई और लिखने वालों की तरह मैं भी सात या आठ साल की उम्र से लिखती रही हूं, और दस साल की उम्र से लिखते हुए मैंने अपनी जेबखर्च का इंतज़ाम भी शुरू कर दिया था। तब साठ रुपए बहुत होते थे और एआईआर, रांची या दूरदर्शन रांची में बच्चों के कार्यक्रम में कविताएं पढ़ने वाले बहुत सारे बच्चे थे नहीं। लेकिन लिखना एक शगल भर था - एक फ़ितूर - जिसपर आईआईएमसी जाकर फुल स्टॉप लग गया। उसके बाद का लिखना सिर्फ और सिर्फ रनडाउन भरने और एंकर लिंक्स लिखने तक ही सीमित रह गया। नौकरी छोड़ी तो लिखना शुरु किया - बड़ी बेतरतीबी से।
मैं ये बात इसलिए बता रही हूं क्योंकि मंडली के लिए जमा हुए अमूमन सभी लोगों की कहानी कुछ ऐसी ही थी - कम से कम लड़कियों और महिलाओं की तो थी ही। इनमें से कुछ ने डायरी के पन्ने भरे और उन पन्नों को या तो फाड़कर फेंक दिया या फिर तकियों के नीचे छुपाए रखा। कुछ नौकरी-गृहस्थी में इतने मशगूल हो गए कि लिखना बेमानी लगने लगा और फिर धीरे-धीरे कुछ कहने, बांटने की ज़रूरत भी मरने लगी। कुछ थे जो बेचैन रहे मेरी तरह। इसलिए फ़ेसबुक स्टेटस अपडेट्स में कविताएं लिखते हुए ख़ुद को जिलाए रखने का काम करते रहे। जो भी था, लिखना सब चाहते थे। चाहते हैं, उतनी ही शिद्दत से जितनी शिद्दत से मैं चाहती रही हूं, लेकिन कई सवाल रास्ता रोके रहते हैं।
मसलन, इस लिखने का हासिल क्या हो? ये दीवानगी, लिखने का ये जुनून कौन-सी दुनिया बदल देगा कमबख़्त? कितने लोग कालजयी लिख पाते हैं? कितने लोगों की पहचान बन पाती है लिखकर? लिखकर क्या करेंगे?
मैंने भी ये सवाल कई बार पूछे हैं ख़ुद से, और इसी ब्लॉग को कई बार उन सवालों के आड़े-तिरछे, बेमानी जवाबों से भर भी दिया है।
किसी ने लिखकर दुनिया न बदली है, न बदल पाएगा कोई। लेकिन लिखना ख़ुद को ज़रूर बदल देता है भीतर से। इसे एक क्लेनज़िंग प्रोसेस भी मान लिया जाए तो इस सफाई की ज़रूरत हर रूह को किसी न किसी रूप में होती ही है। वैसे लिखना इतना ही ग़ैर-ज़रूरी काम होता तो वाल्मिकी ने क्यों रची थी रामायण? स्वयं सिद्धिविनायक को क्यों बैठना पड़ा था एक महाकाव्य लिखने के लिए? एक पल को इन एपिक्स के बारे में भूल भी जाएं तो हम क्यों बेचैन होकर लिखते हैं चिट्ठियां? लव लेटर्स ही प्यार के इज़हार का ज़रिया क्यों बनते हैं? बहरहाल, ये विमर्श का एक अलग मुद्दा है और मैं तो कोई एक्सपर्ट भी नहीं।
अपने अनुभव से इतना ज़रूर जानती हूं कि लिखने की ख़्वाहिश रखने वाले हर इंसान को संबल ज़रूर दिया जाना चाहिए, उसे पढ़ा बेशक न जाया जाए, एक बार सुना ज़रूर जाना चाहिए। कोई कितना भी ख़राब क्यों न लिखता हो, हम सबके भीतर बैठे किस्सागो को थोड़ी-सी इज़्जत बख़्शने का मतलब दूसरे इंसान की कद्र करना होता है और हर इंसान उस थोड़ी-सी इज़्जत का हक़दार है - लिखनेवाले के तौर पर न सही, इंसान के तौर पर सही और मेरे लिए लिखना-पढ़ना इंसानियत बचाए रखने का एक्सटेंशन है।
सच कहूं तो शुरू में मुझे लगता था कि क़ाबिल लेखकों की एक मंडली एक स्मार्ट बिज़नेस मूव है (और यहां पब्लिक स्पेस में ये स्वीकार करते हुए मुझे बेहद हिचकिचाहट हो रही है) और कमर्शियल राइटिंग स्पेस में इससे बेहतर कोई बिज़नेस आईडिया शायद ही हो (सॉरी नीलेश! मैं पहले ऐसा सोचती थी। अब नहीं सोचती।)
लेकिन मैं जैसे-जैसे ख़ुद मंडली से गहराई और ईमानदारी से जुड़ती गई, वैसे-वैसे समझ में आने लगा कि ये एक पागलपन है - एक किस्म का सिरफिरापन, जिसका कोई रिटर्न, कम-से-कम वक़्त और ऊर्जा के अनुपात में आने वाला फाइनैन्शियल रिटर्न बहुत कम है। इस तरह का पागलपन उसी किस्म का कोई इंसान कर सकता है जिसने अपने लिखने और सीखने के क्रम में कई सारी गलतियां की हों, और बड़ी गहराई से ये महसूस किया हो कि इन गलतियों से हासिल सबक को इकट्ठा करके उन्हें अपने जैसे कई और सिरफिरे लोगों के साथ बांटा जाना चाहिए।
लिखनेवालों की एक टोली जुटाने की हिम्मत वैसा ही कोई शख़्स कर सकता है जिसने अपना ईगो, अपना दंभ एक हद तक क़ाबू में कर लिया हो। वरना ये आसान नहीं होता कि आप बड़ी ईमानदारी से ये स्वीकार कर सकें कि जो लोग आपसे सीखने आए हैं, वो दरअसल आपसे कहीं बेहतर हैं। ये भी आसान नहीं कि अपना लिखना छोड़कर आप बाकी लोगों को लिखने के लिए प्रेरित करते रहें, उनके लिए अवसर ढूंढते रहें।
लेखक या आर्टिस्ट या किसी किस्म का कलाकार अपने एकाकीपन में ही सबसे बेहतर रच पाता है - अपनी उदासियों में। उसकी उलझनें ही दूसरों को बांधती हैं। ये वो सूक्ष्म तंतु होते हैं जिनसे लेखक जितना कस कर ख़ुद को घेरे रखता है, उतनी ही ज़ोर से पढ़नेवालों को, सुननेवालों को बांध पाता है। आर्टिस्ट का सिरफिरापन, उसका अवसाद, उसके दुख उसकी सबसे बड़ी ताक़त होते हैं - उसके हथियार होते हैं। वो दुनिया को जितनी शिद्दत से नकारता है, उतना ही अच्छा और नया लिख पाता है।
और हम मंडली में क्या कर रहे हैं? लिखनेवालों (या खुद को लेखक समझनेवालों) की फ़ितरत के ठीक विपरीत हम भीड़ जुटा रहे हैं। हम कह रहे हैं कि लिखो, और कुछ सकारात्मक लिखो। हम कह रहे हैं कि तुम्हारे पास जो ताक़त है न लिखने की, उसमें दुनिया को तो नहीं, लेकिन कुछ लोगों की सोच को बदलने का माद्दा ज़रूर है। इसलिए अच्छा लिखो। बदलो तो कुछ बदलो बेहतरी के लिए। बांटों तो उम्मीदें। लफ़्ज़ गिरें तो हौसलों के हों। अपनी टूटन का फ़साना बयां भी हो तो किसी और के टूटे हुए दिल को जोड़ पाने के लिए।
धत्त तेरे की!!! एक और सिरफ़िरी बात।
लेकिन ये मंडली है ही इसी के लिए। सिरफ़िरों की टोली है, जो अभी और बड़ी होगी। मुंबई और दिल्ली से देश के कई और शहरों में जाएगी। अगले कई सालों तक कई सारे लोगों को लिख पाने का भरोसा देगी।
अपने प्यार का इज़हार कर पाने के लिए जो चिट्ठी किसी ने कभी न लिखी, उसे वो चिट्ठी लिख पाने का हौसला देने के लिए।
अपने बॉस को assertive होकर जो ई-मेल कभी हम लिख न पाए, वो polite assertiveness बाहर लेकर आने के लिए।
अपनी मां की सालगिरह पर एक कविता लिख पाने के लिए। अपने भाई को राखी पर एक गीत सुना पाने के लिए।
अपने दोस्तों के बीच बैठकर कहानियां रच पाने के लिए।
अपने बच्चों को सुलाते हुए नई-नई कहानियां बुन पाने के लिए।
मंडली इसी के लिए तो है। रेडियो, टीवी या फिर किताबों-पत्र-पत्रिकाओं में अपना लिखा हुआ देख पाना तो सेकेंडरी है। कम-से-कम मंडली के लिए। दो क़दम आगे और एक क़दम पीछे चलते हुए हम अपना नया रास्ता तय कर ही लेंगे। मंडली के बारे में और बताऊंगी लौटकर। अभी के लिए इतना बता दूं कि दिल्ली में हुई चार मंडली बैठकों से होकर पांच नए (और बेहतरीन) writers निकले हैं, जिनकी कहानियां आप आनेवाले हफ्तों में बिग एफएम पर सुन सकेंगे। इनके अलावा एक मां (जो नानी भी हैं) ने बीस-पच्चीस साल पहले बंद की गई कविताओं और कहानियों की डायरी एक बार फिर निकाल ली है। अंबुज खरे नाम के साथी ने पंद्रह साल के बाद कलम उठाने का वायदा किया है। कॉरपोरेट नौकरियों और ज़िन्दगी की आपाधापी के बीच चार लेखिकाओं ने (जो मां भी हैं, और कामकाजी भी) अपनी कहानियां बांटी हैं।
अब और क्या कहूं कि ये मंडली आख़िर है क्या?