मेरी डायरी में ऐसी दो अधूरी ख़्वाहिशें पड़ी हैं
जिनके अधूरे पड़े रहने का आभार मैं शब्दों में बयां नहीं कर सकती। अपनी डायरी निकाल कर मैंने पिछले एक
हफ़्ते में कई बार इन दोनों अधूरी ख़्वाहिशों को पढ़ा है और सोचती रही हूं कि अगर इन दोनों ख़्वाहिशों में से एक भी पूरी हो जाती तो? इनमें से एक तो एकदम सामान्य-सी लगती है - विशलिस्ट में
लिखी हुई कई नामुमकिन-सी लगने वाली बाग़ी ख्वाहिशों के बीच एक आम मध्यवर्गीय
परिवार की बेटी-बहू होने की ज़िम्मेदारी से लबरेज एक मिडल क्लास ख़्वाहिश –
मम्मी-पापा और सास-ससुर को चार धाम की यात्रा कराने पाने की एक आम-सी ख़्वाहिश।
इस साल मैं इस इच्छा को पूरी करने पर आमादा थी।
एक किस्म की ज़िद पर उतारू। साल के शुरू में ही सबको कह दिया था – अपना वक्त और शक्ति
दोनों बचाकर रखना शुरू कर दें, हमें चार धाम की यात्रा पर जाना है। डायरी में पूरी
तैयारी शुरू हो गई। टूअर ऑपरेटर्स के नंबर और पते, तारीख़ें, यात्रा का ब्यौरा,
बच्चों की छुट्टियों के हिसाब से टिकटों की प्लानिंग... हम आठ लोग थे, जिनमें दो
बच्चे और दो सेट ऑफ़ मम्मी-पापा। इसलिए तैयारी में कोताही नहीं बरती जा सकती थी।
लेकिन पापा (ससुर जी) की एक दिन की गुमशुदगी ने हमारे हौसले पस्त कर दिए। पापा
इतनी लंबी यात्रा पर जाने की हालत में नहीं हैं अब और सासू मां उनके बिना जाती, ये
हो नहीं सकता था। फिर मेरे पापा का इरादा बदल गया और मम्मी वैसे भी आज कल अपने मन
की तीर्थयात्रा हर रोज़ करती हैं, जहां होती हैं चार धाम बसाए चलती हैं। एक मैं घुमन्तू,
जिसकी चार धाम की कम, चार धाम के बहाने पहाड़ों की सैर करने के इरादे को वीटो कर
दिया गया। फिर मैंने तय किया कि केदारनाथ न सही, वैली ऑफ़ फ्लावर्स की ट्रेकिंग के
लिए तो जाऊंगी ही, जिसके लिए मैंने पैसे भी जमा कर लिए थे और तय कर लिया था कि बारह
ट्रेकर्स की टोली के साथ इस साल लंबी ट्रेक कर ही आऊंगी। मेरी किस्मत अच्छी थी कि एक
दोपहर हुई एक छोटी-सी बातचीत ने मेरे ज़िद्दी इरादे पर पानी फेर दिया और इतने लंबे
ट्रेक पर जाने के लिए ख़ुद को मेडिकली अनफ़िट समझते हुए मैंने वो इरादा भी
अनिश्चितकाल के लिए टाल दिया। ये सोचकर वक़्त बर्बाद करना भी फ़िज़ूल है कि दोनों
में से कोई भी एक मनोकामना पूरी हो गई होती तो क्या हुआ होता।
हिमालय के दूसरी तरफ़ पहाड़ों पर बसे एक शहर के
एक होटल के कमरे में बैठे हुए हम पहाड़ों के दूसरी ओर हुई तबाही की ख़बरें टीवी पर
देख रहे हैं। बच्चों की ज़िद और छुट्टी का थोड़ा-सा सदुपयोग करने की इच्छा हमें
पूर्णियां से दार्जिलिंग ले आई है लेकिन सच कहूं तो मुझे इससे पहले पहाड़ों से
इतना डर कभी नहीं लगा। दिन के उजाले में जो धुंध और ठंड पहाड़ों को रोमांचक और अभीष्ट
बनाती है, रात के अंधेरे में वही धुंध और ठंड पहाड़ों को डरावना बना देती है। होटल
की बालकनी में थोड़ी देर भी खड़ा होना मुश्किल हो जाता है। बाहर घुप्प अंधेरा है
और सन्नाटे को झींगुरों की आवाज़ तोड़ती है। अभी थोड़ी देर पहले तक जिस घाटी पर
उतरते हुए बादलों को देखकर सुकून मिल रहा था, उसी घाटी की ओर अब देखा नहीं जा रहा।
अंधेरे में अंधेरे के भी पर निकल आते हैं। अंधेरे में अंधेरा और डराता है। अंधेरे
में पहाड़ और दुरूह हो जाता है। ऐसी ही किन्हीं पहाड़ की अंधेरी घाटियों और जंगलों
में आई आपदा और उसकी चपटे में आई सड़ रही लाशों और भटकने वाल घायलों का सोचकर डर और बढ़ जाता है।
हम सैलानी हो गए हैं, पहाड़ हमारी दिल्लगी का,
हमारे मन बहलाने का, हमारे आराम का ज़रिया। अपने स्वार्थ के लिए हमने ईश्वर को जहां
चाहे बैठा दिया, फिर जैसे चाहा ईश्वर के दर्शन के लिए रास्ते खोल दिए। अपनी तमाम शक्तियां
लगाकर पहाड़ों के सीनों को चीरकर अपने लिए रास्ते बना दिए। पहाड़ों की धमनियों में
बहने वाली नदियों को जैसे चाहा बांधा, जहां चाहा रोक दिया। वो पहाड़ फिर कैसे बदला
न लेता? जिस गंगा पर कई राज्यों की अर्थव्यवस्था निर्भर है, करोड़ों लोगों की
रोज़ी जिस गंगा पर आश्रित है, शिव की चोटी तक जाकर उस बहती गंगा में हाथ धोने से भी बाज़ न आए। उस
गंगा और उन पहाड़ों का दोहन करने वाले कितने? हम सब। उस गंगा और उन पहाड़ों को
समझने वाले कितने? स्वामी निगमानंद जैसे गिने-चुने लोग जो गंगा के लिए लड़ते हुए अपनी
जान भी गंवा देते हैं फिर भी अपने संघर्ष में अकेले रह जाते हैं।
हम जिस पहाड़परस्ती का दावा करते हैं वो दरअसल एक
फ़ैशन स्टेटमेंट है। लोनली प्लानेट और फ़िफ्टी टू वीकेंड गेटअवेज़ फ्रॉम डेल्ही के
पन्नों से निकालकर जमा की गई वो इच्छाएं जो जितनी ही तीव्र होती हैं, हम अपने पीयर
ग्रुप में उतने ही कूल और सक्सेसफ़ुल मान लिए जाते हैं। हमने किन-किन पहाड़ों पर
बैठकर उगते हुए सूरज को सलामी दी है, किन-किन नदियों की धाराओं से जूझ चुके हैं – हमारी
पहचान उससे बनती है। पहाड़ के इस बाज़ारीकरण ने पहाड़ों को, पहाड़ों के बाशिंदों
को बर्बाद कर दिया। जितनी तेज़ी से इंसानी ख़्वाहिशों की सूचियां बढ़ती चली गईं, पहाड़, जंगल और नदियां उतनी ही तेज़ी से कम होते गए। लेकिन जिस प्रकृति को संतुलन की आदत है, वो बर्बादी के स्तर तक उतर कर संतुलन बना ही डालती है और अपना बदला पूरा करती है।
मैंने भी दार्जिलिंग में पहाड़ों को बर्बाद करने
का अपना काम बख़ूबी निभाया है। मॉल रोड पर लिलिपुट और कैफ़े कॉफ़ी डे के आने का
जश्न मनाया है। पहाड़ों पर टंगे घरों में बस गई बस्तियों की छतों पर लगी डीटीएच
प्लेटों को वहां की तरक्की का सबब मान लिया है और टैक्सी ड्राईवर को दो सौ रुपए
एक्स्ट्रा देकर समझ लिया है कि पहाड़ पर अहसान किया – यूं कि जैसे हम जैसे सैलानी
न होते तो पहाड़ के लोगों को भूखे मरने की नौबत आ जाती शायद। आपकी जानकारी के लिए
ये बता दूं कि दार्जिलिंग में 1899 में पहाड़ नाराज़ हुए, फिर 1988 में और उसके
बाद 2011 में। हर बार की नाराज़गी ने ठीक-ठाक तबाही और बर्बादी मचाई है। बाज़ आना
हमारी फ़ितरत नहीं। प्रकृति भी कभी-कभी ही इस तरह नाराज़ होती है।