शुक्रवार, 15 फ़रवरी 2013

ये प्यार-व्यार क्या है?


ये जो ढाई अक्षर है ना प्रेम का, इसकी ठीक-ठीक परिभाषा कहीं मिल सकेगी, ये कहना मुश्किल है। प्रेम, प्यार, इश्क, मोहब्बत, लव वगैरह वगैरह की जो धारणा मैंने बनाई उसकी नींव बॉलीवुड ने तैयार की। प्यार किया नहीं जाता, हो जाता है। प्यार करनेवाले कभी डरते नहीं। जब प्यार किया तो डरना क्या। चाहिए थोड़ा प्यार, थोड़ा प्यार चाहिए। जब बड़ी हो रही थी तो लगता था कि प्यार वो है जो आंखों-आंखों में होता है। फिर यश चोपड़ा की फिल्मों ने प्यार की परिभाषा को और नए मायने दे दिए। ये वो रोमानी प्यार था जो लाल गुलाब की पंखुड़ियों-सा नाज़ुक और शंकर-जयकिशन के संगीत-सा मधुर था। पर्दे पर दिखाई देने वाला प्यार ही सच्चा प्यार था, ऐसा प्यार जो हीरो-हीरोईन में हो जाता हो, जिसे खूंखार खलनायकों का भी डर ना सताता हो, जो दुनिया के रस्म-ओ-रिवाज़ की बेजां चिंताओं में वक्त ना गंवाता हो। वो प्यार सोलह-सत्रह साल की उम्र वाला प्यार था – सच से दूर अपनी ही किसी दुनिया में मगन।

पहली बार प्यार हुआ तो समझ में आया कि फिल्मों ने जो दिखाया, सब कमबयानी था। शायरों और कवियों ने जितना बताया, वो भी काम ना आया। ये प्यार ऐसी गज़ब की चीज़ है कि जितनी बार जितनों को होता हो, हर बार अलग रूप-रंग में मिलता है। हर बार अलग तरीके से सताता है। मेरे प्यार के किस्से आपके प्यार के किस्से से मेल खाएंगे, इसकी गुंजाईश कम ही है। जिन चीज़ों की शक्लें मिलती होंगी वो है बेचैनी, तकलीफ़ें, आंसू, नाउम्मीदियों और उम्मीद के बीच के हिचकोले...

ये प्यार जिन दो दिलों को बांधेगा वो वाकई दुनिया की परवाह किए बगैर बाग़ी बनकर अपनी नई दुनिया बसाएंगे - क़यामत से क़यामत तक के लिए। लेकिन पर्दे पर दिखाई देने वाला दे लिव्ड हैपिली एवर आफ्टर पर्दे के पीछे कोई और नई कहानी रच रहा होगा। जितनी तेज़ी से प्यार हो जाता है, उतनी ही तेज़ी से प्यार से उबर भी जाते हैं लोग। प्यार ख़ुमारी है तो उसका हैंगओवर बना रहे, उसके लिए बड़ी मशक्कत करनी पड़ती है और सुबह-ओ-शाम प्यार में ढेर सारा भरोसा और सब्र मिलाकर घूंट-घूंट पीना होता है। वरना हमारे आस-पास प्यार में दुनिया भुला देने और सबकुछ लुटा देने के जितने किस्से हैं, उनसे कहीं ज़्यादा किस्से बेवफ़ाईयों और तकलीफ़ों के, ब्रेक-अप्स और अलग हो जाने के हैं। जिन फिल्मों से हमारे प्यार की परिभाषा बनती और पुख़्ता होती है, वो फ़िल्मी दुनिया तो प्यार के ऐसे तमाम किस्सों से भरी पड़ी है। अगर पर्दे पर एक आग, चोरी चोरी, एक बरसात थी तो पर्दे के पीछे राज कपूर-नर्गिस-सुनील दत्त के जिए हुए बनते-बिखरते प्यार के लम्हे भी थे। अभिमान और सिलसिला भी प्यार की कहानियां थीं – कुछ हक़ीकत के टुकड़े थे, कुछ स्क्रीन के लिए रचे गए मोमेन्ट्स थे। बॉलीवुड सफल-असफल प्यार का वो अथाह सागर है कि जिसमें जितनी बार डुबा जाए, उतनी बार किसी नई सीपी में बंद कोई नई कहानी हाथ आएगी। ग्लैम दुनिया से दूर मेरी-आपकी दुनिया का प्यार भी तो इससे अलग कहां है? 

लेकिन बात चाहे ऑनस्क्रीन प्यार की हो या ज़िन्दगी के रंगमंच पर निभाई जानेवाली निस्बतों की, प्यार जो कुर्बानियां मांगता है उनके बग़ैर इसे निभाना मुश्किल है। प्यार सबसे पहले हमारे अहं की कुर्बानी मांगता है। ढाई आखर प्रेम का पाठ पढ़ानेवाले कबीर के शब्दों में कहें तो मेरा मुझमें कुछ नहीं, जो कुछ है सो तोर। प्यार सब्र की सेज पर सोता है, इंतज़ार की चादर ओढ़े कई-कई रातों की नींद अपने महबूब की फ़िक्र और उसके ख़्याल के हवाले कर डालता है। प्यार को नापने का कोई पैमाना नहीं होता, सिवाय इसके कि आपमें तकलीफ़ों को बर्दाश्त करने की कितनी क्षमता है। प्यार जितना गहरा होगा, जितना विशाल होगा उतना ही मज़बूत होगा। प्यार महबूब के लिए जितना ही दरियादिल होगा, अपने लिए उतना ही संगदिल होगा। प्यार माफ़ करना सिखाएगा। प्यार माफ़ी मांगना सिखाएगा। प्यार दर्द भूलना सिखाएगा। प्यार खुशगवार लम्हे ताउम्र याद करना सिखाएगा। प्यार कमज़ोर बनाएगा। प्यार हिम्मत बंधाएगा।

और अब प्यार क्या है ये भी समझ आने लगा है और इस प्यार को कैसे बचाए रखा जाए, ये भी। प्यार वो है जो दादाजी चश्मा लगाकर सुबह की चाय पीते हुए मेरी अनपढ़ दादी को अख़बार पढ़कर सुनाया करते थे। प्यार वो है जो मां डायबिटिक पापा के लिए अलग से खीर बनाते हुए दूध में मिलाया करती है। प्यार पति के खर्राटों में मिलने वाला सुकून है। प्यार गैस पर उबलता हुआ चाय का पतीला है, जिसमें शक्कर उतना ही हो कि जितना महबूब को पसंद हो। प्यार अपनी गैरमौजूदगी में भी मौजूद रहनेवाला शख्स है। प्यार आंखें बंद करके लम्हा भर के लिए उसकी सलामती के लिए मांगी हुई दुआ है। प्यार फिल्मों के ज़रिए हमें सिखाई-बताई-समझाई गई अनुभूति तो है ही, प्यार दी एन्ड के बाद की बाकी पिक्चर है।    

(डेली न्यूज़ 'खुशबू' के लिए वैलेंटाइन्स डे पर लिखा हुआ कॉलम - http://dailynewsnetwork.epapr.in/89442/khushboo/13-02-2013#page/1/1

बुधवार, 6 फ़रवरी 2013

शुरुआत एक ‘सॉरी’ से तो हो ही सकती है



नोट - मेरी क़रीबी दोस्त और लेखिका नताशा बधवार के बारे में मैंने पहले भी यहां लिखा है, कुछ निजी लम्हे बांटें हैं यहां। नताशा की स्पष्ट सोच, हिम्मत और उसके ईमानदार लेखन की मैं तबसे मुरीद हूं जबसे मुझे ये भी ठीक-ठीक नहीं मालूम था कि मैं या मेरे जैसे कई लोग उसके लिखे हुए में अपने वजूद का कौन-सा हिस्सा तलाश करते हैं। पिछले दिनों नताशा ने न्यूज़्‍लॉन्ड्री पर एक लेख लिखा। आउटलुक में शाह रुख के छपे लेख Being Khan को केन्द्र में रखकर लिखा गया नताशा का ये लेख identity, पहचान को एक नए नज़रिए से देखता है। सवाल पूछता है कि अपनी पहचान को लेकर वो क्या बेचैनी होती है कि जिसे हम बांटना चाहते हैं? वो कौन-सी ज़रूरत है कि जो अपने घर, अपने देश, अपने समाज में एक सुपरस्टार को अपने नाम, अपनी पहचान को लेकर सबके सामने आने पर मजबूर करती है? क्या इसलिए क्योंकि हम एक ऐसा असहनशील समाज बनाने पर आमादा हैं जहां हब्बा ख़ातून की ज़मीन की बेटियों को गाने की, अपना संगीत बनाने की आज़ादी नहीं दी जा सकती; जहां धर्म अहसहिष्णु है; जहां श्लील-अश्लील के पैमाने गड्ड-मड्ड हैं। 

अनुवाद लेख के क़रीब रखने की कोशिश की है मैंने। कहीं कोई त्रुटि हो तो क्षमाप्रार्थी हूं। लेकिन वक्त निकालकर लेख पढ़िएगा ज़रूर। और दो मिनट के लिए सोचिएगा कि हम अपने इतने सारे पूर्वाग्रहों के साथ कैसे एक स्वस्थ समाज बना पाएंगे।   

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फिल्म चक दे! इंडिया में एक गाना है जिसका मुझपर अजीब-सा असर हुआ।

पहली बार इसे मैंने गाड़ी में महसूस किया था। अपनी तीन साल की बेटी के साथ मैं तीस हज़ारी ज़िला अदालत के रास्ते में थी। हम मेरी एक दोस्त का साथ देने जा रहे थे जो एक पारिवारिक अदालत में अपनी बेटी का संरक्षण हासिल करने के लिए एक दुखद अदालती लड़ाई लड़ रही थी। मैं यूं भी बहुत भावुक थी। उस बच्ची के मां-बाप, दोनों मेरे अच्छे दोस्त थे और मैंने दोनों को उसी शिद्दत से प्यार किया था। मुझे बहुत बुरा लग रहा था कि मैं बेटी के पापा को दूर से देख रही थी, और एक दोस्त की तरह उसको हिम्मत नहीं दे पा रही थी।

नोएडा से दिल्ली की ओर जाते हुए गाड़ी में चक दे! इंडिया  का गाना बजता रहा।

तीजा तेरा रंग था मैं तो – 2
जिया तेरे ढंग से मैं तो,
तू ही था मौला तू ही आन
,

मौला मेरे ले ले मेरी जान

जाने क्यों मेरी आंखों से बेसाख़्ता आंसू गिरने लगे। मुझे समझ ही नहीं आया कि क्यों। हम कोर्ट पहुंच गए और हमारा पूरा दिन हैरान-परेशान कर देने वाली हमारी न्याय-व्यवस्था से जूझने और उससे समझौते करने में बीता। बाद में दिन में वही गाना फिर से कार स्टीरियो में बजता रहा, मेरी आंखों में फिर से आंसू भर आए।

मिट्टी मेरी भी तू ही
वोही मेरे घी और चूरी
वोही रांझे मेरे वो हीर
वोही सेवईयां वही खीर
तुझसे ही रूठना तुझे ही मनाना
तेरा मेरा नाता कोई दूजा ना जाना

ये मौला कौन है, मैं सोचती रही। ये गाना किसकी यादों को इस तरह कचोट रहा है? वो कौन है जिसने मुझे गलत समझा? जिससे मैं कुछ कहना चाहती हूं और ना कह पाने का मुझे मलाल है? मैं किसके साथ ये सुलह कर लेना चाहती हूं? मेरे ज़ेहन में जवाबों ने आने से पहले एक लंबा वक़्त लिया।

मेरे मां-बाप पंजाबी हैं। बंटवारे से पहले मेरी मां लाहौर में पैदा हुई। अमृतसर में स्वर्ण मंदिर के पास बड़ी हुई। उनके लिए मंदिर जाने का मतलब गुरुद्वारे जाना था। मां की हनुमान चालीसा और सुखमनी साहिब अभी भी एक साथ रखी होती हैं। दोनों के आजू-बाजू में काफ़ी जगह बाकी है।  जब हम अपने बचपन में रांची से दिल्ली और पंजाब अपने रिश्तेदारों से मिलने आया करते थे तो हमें बिहारी कहकर छेड़ा जाता था। मेरी मामी कहतीं, ये लो आ गए एक ठो, दो ठो, तीन ठो गिनने वाले और चावल खाने वाले बिहारी। तो हम अपने-आप को हिंदू-सिख-बिहारी भी महसूस करते थे।
मैं जब बड़ी हुई और पहली बार लाहौर गई तो मैंने सोचा कि मैं एक मुसलमानसंस्कृति के बीच जा रही हूं। वहां पहुंचकर ख़ुद को कमाल के जोशीले पंजाब में पाकर मैं हैरान थी। मैं वहां पहली बार अपनी पंजाबी पहचान से रूबरू हुई। लाहौर में सब मेरे मामाजी की तरह बात करते थे। और क्यों नहीं! मेरे ननिहाल के लोग तो लाहौरी ही थे। तब मैं एक हिंदू-सिख-बिहारी-पंजाबी की तरह महसूस करने लगी।

लाहौर में हमें एक टैक्सी ड्राईवर मिला जावेद। जावेद हमें पर्ल कॉन्टिनेन्टल से पिक अप करता, हमारे टीवी कैमरे से जुड़े ताम-झाम को हैरत से देखता और हमें कई ख़ास लोगों का इंटरव्यू करते देखता। जावेद हमें खाने की सबसे अच्छी जगहों पर लेकर गया, मुझे अपने इश्क के किस्से सुनाए और ज़ाहिर है, इस महाद्वीप की राजनैतिक हलचल पर अपनी बेबाक राय भी बांटी। जब मेरे लौटने का वक्त हुआ तो उसने मुझे मेरे भविष्य के लिए एक सलाह भी दी।

ख़्याल रखिएगा कि आप शादी किससे कर रही हैं”, उसने कहा। ज़्यादातर आदमी आपके पैसों के पीछे होंगे, आपके नहीं। फिर मैंने ये भी सुना है कि हिंदुस्तानी आदमी लोग अपनी बीवियों को मारते-पीटते हैं। अपना ख़्याल रखिएगा।

मैं ज़ोर से हंस पड़ी। उसकी बात से मुझे मिलने वाला झटका मेरे साथ एक लंबे वक्त तक रहा। ख़ासतौर पर इसलिए क्योंकि इससे वो अदृश्य पूर्वाग्रह सामने आता था जिसके साथ मैं बड़ी हुई थी कि ज्‍यादातर मुसलमान आदमी अपनी बीवियों के साथ दुर्व्यवहार करते हैं। हमें ये लगता है कि हम सबकुछ जानते-समझते हैं, लेकिन ठीक से गहरे देखो तो समझ में आता है कि हमारी ज्‍यादातर जानकारियां पूर्वाग्रहों पर आधारित है। अपने भीतर की हलचल से ध्यान केन्द्रित करने से बचने का ये और तरीका है, कि दूसरेसे ही नफ़रत करते रहो।

मेरे पति उत्तर प्रदेश के मुसलमान हैं और हमारे बच्चों को हिंदू-मुस्लिम-पंजाबी-यूपी-दिल्ली की साझा पहचान विरासत में मिली है। मेरे दादाजी उर्दू लहज़े में पंजाबी बोलते हैं और हर रोज़ उर्दू में ही गीता पढ़ते हैं। मेरे ससुर फ़ारसी शेर-ओ-शायरी सुनाते हैं। मेरे पिता पंजाबी लहज़े में हिंदी बोलते हैं और हमारे बच्चे वॉल्ट डिज़नी फिल्मों के लहज़े में अंग्रेज़ी बोलते हैं। एक तरीके से देखा जाए तो ये ख़ास है लगता है लेकिन इसमें कुछ भी असाधारण नहीं है।

हमारे अपने फ़ैसलों के साथ हमारी समेकित, घुली-मिली जड़ें हमें एक वो बहुआयामी पहचान देती है जो हमारी ज़िन्दगी की रोज़मर्रा की हक़ीकत बन चुका है। एक रचनात्मक और सृजनशील ज़िन्दगी जीने के लिए हम कई बार कहीं के ना होने का, किसी प्रबल और प्रभावशाली वैल्यू सिस्टम को पूरी तरह स्वीकार ना करने का एक अहम चुनाव करते हैं।

ऐसी किसी एक या कई पहचानों के लिए अलग-थलग कर दिया जाना और भेदभाव से सामना भी हम सबके लिए एक आम अनुभव है। हममें से कुछ इसको नकार कर इसका सामना करते हैं तो कुछ इसके बारे में बात करते हैं, अपने अनुभव बांटते हैं, उसे अभिव्यक्त करते हैं। कुछ इसका सामने से मुक़ाबला करते हैं तो कुछ तबतक छुप जाना पसंद करते हैं जबतक महफ़ूज़ होकर बाहर आने का रास्ता ना हो। हम कई बार अपने आप को बेघर महसूस करते हैं, और इसके लिए ज़रूरी नहीं कि हम अपनी जड़ों से उखाड़े ही गए हों। घर एक फिज़िकल स्पेस, एक जगह भर ही नहीं होता। घर वो होता है जहां हम नपा-तुला हुआ महसूस नहीं करते, जहां हमें किसी की राय का डर नहीं सताता, जहां हम वो हो पाते हैं जो हम हैं।

कहीं के होने की, अपनी किसी पहचान से जुड़ाव की हसरत होना लाज़िमी है अपनी निजी और बाहर की दुनिया से कुछ ऐसे जुड़े होने की हसरत होना कि जिसमें दोनों का बराबरी का योग हो।
अपनी ज़िन्दगी पर लिखे एक प्रकाशित लेख में सुपरस्टार शाह रुख खान ने लिखा है:

मैं कई बार नेताओं द्वारा बेपरवाही से चुनी हुई चीज़ हो जाता हूं जिसे भारत में मुसलमानों के ग़लत या देशद्रोही होने का प्रतीक बना दिया जाता है। मुझपर अपने देश से ज़्यादा पड़ोसी देश का वफ़ादार होने के आरोप लगाए गए हैं। तब, जबकि मैं ऐसा एक भारतीय हूं जिसके पिता ने आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा लिया।

उसी लेख में शाह रुख ने अपने मां-बाप से मिली पठान पहचान और गौरी से अपनी शादी की बात लिखी है। ये भी लिखा है कि अपनी पहचान से जुड़े बच्चों के सवालों का वो कैसे जवाब देते हैं, जिसके जवाब में वो या तो तुम पहले हिंदुस्तानी हो और तुम्हारा धर्म इंसानियत हैकहते हैं या फिर गंगनम स्टाईल में तू हिंदू बनेगा ना मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है इंसान बनेगा गाकर सुनाते हैं।

एक पत्रिका में शाह रुख के लिखे हुए लेख पर बवाल तब शुरू हुआ जब वेंकी वेंबु ने एक लेख में उनपर कृतघ्न और नाशुक्रा होने के तोहमत लगाए। लेखक ने शाह रुख के लिए मेडियॉकर (औसत) और असभ्य जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया, और लिखा, इसलिए बड़े हो जाए शाह रुख, और एक पुरुष की तरह इसका सामना करना सीखो (So, grow up, Shah Rukh, and learn to take it on the chin like a man).ये भी लिखा कि किसी विदेशी पत्रिका के पास जाकर शाह रुख उन हाथों को ना काट डालें जो उन्हें खाना खिला रहे हैं, जिससे हाफ़िज़ सईद जैसे आतंकवादियों को हिंदुस्तान की खिल्ली उड़ाने का मौका मिले।

कुल मिलाकर उनका तात्पर्य ये है कि अगर हिंदुस्तान में रहते हुए आप मुसलमान होने की बात करते हैं तो आपका मज़ाक उड़ाया जाएगा, और आपको देशद्रोही होने का तमगा दे दिया जाएगा। आतंक के ख़िलाफ़ खड़े होने की बजाए हम अपना ज़हर अपनों के ऊपर ही उगलेंगे। हममें वाकई अपने विचारों और मतभेदों को अभिव्यक्त करने की हिम्मत नहीं है।

इस लेख ने एक बार फिर मुझे चक दे! इंडिया के उस गाने की याद दिला दी। मेरे दिमाग में एक बार फिर इसको लेकर उठी हलचल ने सवाल खड़ा किया कि वो कौन-सा शख्स है कि जिसकी स्वीकृति मेरे लिए इतनी अहम है? मैं किसके लिए मरने तक को तैयार हूं?

मेरे सामने आनेवाले जवाब किसी पहेली के जवाबों की तरह एक साथ सामने आने लगे। इन शब्दों में अपने देश, अपनी ज़मीन, अपने घर, अपने समाज, अपनी संस्कृति का हो जाने की चाहत छुपी है। उन रसूखवाले सत्ताधारियों और हमारी भावनाओं और फ़ैसलों पर अख्तियार रखनेवाले लोगों की, कठमुल्लाओं की स्वीकृति की चाहत छुपी है जिन्होंने हमें हमारे चुनावों की वजह से ठुकरा दिया। जो हम थे वो होने की वजह से ठुकरा दिया।

हम आज़ाद होने की मांग करते हैं और सबके द्वारा स्वीकार कर लिए जाने की अपनी ज़िद पर क़ायम हैं। किसी भी उत्तम संबंधों में यही कारगर होता है। हम अपने आस-पास की ज़िन्दगी के अनुरूप ख़ुद को ढालते चले जाते हैं, बावजूद इसके हमें कई बार अलग कर दिया जाता है और उन्हीं बातों का मज़ाक उड़ाया जाता है जो हमें ख़ास बनाते हैं।

आउटलुक पत्रिका के टर्निंग प्वाइंट में अपने लेख को स्पष्ट करते हुए एक प्रेस रिलीज़ में शाह रुख ने लिखा है, मैं एक अभिनेता हूं और मुझे शायद उन्हीं सारी बातों तक खुद को सीमित रखना चाहिए जिनपर आप मेरी राय सुनना चाहते हैं। बाकी सब... हो सकता है मीडिया का ऐसा उपयुक्त वातावरण ही ना हो कि राय ज़ाहिर की जा सके। इसलिए मैं इससे (राय ज़ाहिर करने से) दूर रहूंगा।.

ये सही नहीं होगा। शाह रुख खान, आपको और कहानियां कहनी होंगी। कई और बातों पर दिल से अपनी राय देनी होगी। जो कायर होते हैं, वो धौंस दिखाते हैं। उनके शब्द अक्सर खोखले होते हैं।
जब एनडीटीवी के एक कार्यक्रम द सोशल नेटवर्क में वेंकी वेंबू से बातचीत की गई तो उन्होंने स्वीकार किया कि जब उन्होंने शाह रुख के लेख पर अपने विचार ज़ाहिर किए थे तो उससे पहले शाह रुख के लेख को पूरा पढ़ा तक नहीं था। हो सकता है, ऐसा वो अपने बचाव में कह रहे हों, लेकिन इससे उनकी कमज़ोरी ही ज़ाहिर होती है। मीडिया में इस तरह बिना पढ़े राय ज़ाहिर करने की जगह कब से बनने लगी?

ज़िन्दगी बहुत जटिल है। कहानियों के भी कई चेहरे हुआ करते हैं। फिल्में कहानियों को सरल बनाने की कोशिश ज़रूर करती है, लेकिन असल ज़िन्दगी में इस तरह की कोशिश की कोई आवश्यकता नहीं। हम सबमें अपनी कल्पना के आधार पर अपने खोए हुए हिस्सों को पुनर्जीवित करने का, दुबारा हासिल करने का अधिकार है। हमें खुद को हासिल करने और दूसरों को दी गई तकलीफ़ों के लिए क्षमा मांगने - दोनों का अधिकार है। शुरूआत एक सॉरी से तो हो ही सकती है।
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रविवार, 3 फ़रवरी 2013

फ़र्ज़ करो ये दोनों बातें झूठे हो, अफ़साने हों

एक बहुत बड़े मैदान में बहुत सारी लड़कियां हैं, सफ़ेद यूनिफॉर्म और सफेद मोज़े-जूतों में। छोटी लड़कियों के बालों में लाल फीते हैं। वो प्राइमरी स्कूल की लड़कियां हैं। हाई स्कूल की लड़कियों ने बालों में काले फीते लगा रखे हैं। इतनी ही भीड़ है कि जैसे अभी-अभी असेम्बली शुरू होने वाली हो जैसे। या शायद ख़त्म हुई होगी। ठीक-ठीक ये मालूम नहीं चल रहा। लड़कियों की भीड़ कतारों में बंटकर अपनी-अपनी कक्षाओं में जाने लगी है। उस भीड़ से कटकर एक टुकड़ा उस ऑडिटोरियम की ओर जाने लगता है जो बाहर से किसी चैपल की तरह दिखता है। ऑडिटोरियम के बाहर बारह-चौदह फ़ुट का बरामदा है। वहां कई लड़कियां घूम-घूमकर अपने पाठ याद कर रही हैं। आज कोई इम्तिहान हो शायद। ऑडिटोरियम के भीतर एक छोटे से झुंड को गरबा की प्रैक्टिस कराई जा रही है - वन टू वन टू वन टू वन टू थ्री फोर फाईव वन टू थ्री फोर फाईव। म्यूज़िक के बीट्स को अंकों में बांट दिया गया है। वन टू थ्री वन टू थ्री वन टू थ्री थ्री फोर फाईव... बीट पर लड़कियों ने थिरकना शुरू कर दिया है।

एक लड़की जिस महिला के साथ चल रही है वो यहां की प्रिंसिपल हैं - सिस्टर क्रिस्टिना। लेकिन सिस्टर क्रिस्टिना ने जाने क्यों रंगीन कपड़े पहन रखे हैं। लड़की और सिस्टर क्रिस्टिना जिस रास्ते मुड़े हैं वो रास्ता स्कूल के छोटे से बगीचे की ओर जाता है। मेहमानों के लिए गुलदस्ता बनाना होगा, सिस्टर क्रिस्टिना कहती हैं। इसी स्कूल में ऊपर लड़कियों का एक हॉस्टल है जिन्हें दिन के खाने में एलमुनियम की प्लेटों में उसना भात, पानी-जैसी दाल और आलू और सेम की सूखी सब्ज़ी मिलती है। हॉस्टल की लड़कियों को मिलनेवाले खाने को देखकर जो भूख मर जाया करती है उसे आमड़े के पेड़ के नीचे काग़ज़ की पुड़िया में मिलने वाले दस पैसे के मसाले चने फांककर ही जगाया जा सकता है। लड़की ने अभी-अभी चने खाए हैं और उसे डर है कि मिर्ची के हाथों लाल गुलाब छू लेने से उस गुलाब की ख़ुशबू जाती रहेगी। उसी हाथ से फिर भी उसने फूल तोड़ लिए हैं।

स्कूल का अहाता बहुत बड़ा है और उसकी चहारदीवारी भी उतनी ही ऊंची है। मोटरसाइकिल और साइकिल पर सवार लड़कों की आंखें फिर भी उन चहारदीवारियों के पार जिसे ढूंढना हो, उसे ढूंढ लेती है और यदा-कदा चिट्ठियां खिड़कियों के शीशों-सी सारी सीमाओं को चूर-चूर करते हुए लड़कियों की गोद में आ गिरती हैं। सिस्टर क्रिस्टिना फिर भी स्कूल को लड़कियों का स्कूल बनाए रखने पर अडिग हैं।

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फूल गुलदस्तों में लगे नहीं और खिड़की के रास्ते आकर रौशनी ने कमरे में जगह बना ली है। संडे की सुबह कोई जल्दी नहीं होती, लेकिन मुझे बेचैन रहने की बीमारी है। ख़्वाब में दिखाई देने वाला मेरा स्कूल मॉर्निंग वॉक तक मेरे साथ-साथ चलता है। मैं ख़्वाब की गुत्थियां सुलझाने की नाकाम कोशिश करती हूं और आख़िर हार मान लेती हूं। जागते हुए तो समझ में आता है, सोते हुए भी मिल जाने वाले लम्हे किसी कारण के आएं, ये यकीन करना मुश्किल है। औऱ फिर वो लड़की तो यूं भी जाने कहां रह गई। चुनी हुई ये ज़िन्दगी आख़िर अपनी ही तो है।

जब सारे फ़ैसले अपने होते हैं तो फिर इतनी बेकली क्यों होती है? क्या वाकई मैन्युफैक्चरिंग डिफेक्ट ही होता है ये कि दिमाग सोचना बंद नहीं करता और सवालों का पिटारा कभी खाली नहीं होता? हम कौन हैं? क्यों हैं? हमारे होने का हासिल क्या? हार क्या और जीत क्या? मिलना क्या और पाना क्या? सही कौन और ग़लती कौन-सी? फ़िराक़ क्या और विसाल क्या? हम किस इंतज़ार में जिए जाते हैं? हौसले का ये समंदर कहां से आता है? क्या है भीतर जो खाली है और क्या है कि जो रीतता नहीं फिर भी?

फोन पर मुझसे एक दोस्त ने पूछा, क्या किया इन दिनों? मेरे पास कोई पुख़्ता जवाब नहीं होता। इन दिनों दिन-रात के पर निकल आए हैं। मेरे हाथ कुछ नहीं आता। दिन पंछी बन उड़ जाता है, हम खोए-खोए रहते हैं। फिर भी तो कितना काम है। बच्चों को स्कूल भेजना है। उनका होमवर्क कराना है। उनके इम्तिहानों की तैयारी करानी है। बच्चों के बाल क टवाने हैं। उन्हें पार्क लेकर जाना है। उन्हें टीवी देखते रहने से रोकना है। कपड़े धोने है। आयरन के कपड़े अलग करने हैं। किचन के सामान की लिस्ट बनानी है। किचन के खानों की सफ़ाई करनी है। बच्चों की अलमारी सरियानी है। नीले कुर्ते की शलवार बनवानी है, काली शलवार के साथ का दुपट्टा लेना है। इस बीच कहानियां लिखनी हैं। अनुवाद करना है। कॉलम लिखने हैं। कविताएं बांचनी हैं। और ये कमबख़्त दिन है कि फिर भी उड़ता फिरता रहता है।

सब कामों से जी चुराकर मैं जाकर पार्लर में बैठ गई हूं। आंखों के आगे एक आधी-अधूरी मैग़जीन है। बाल कितने छोटे कर दूं पूछने पर कहती हूं, इतने ही छोटे कि मैं पहचान में ना आऊं। आंखें बंद हैं और हेयर स्टाईलिस्ट बाल कतर-कतरकर मेरी शख्सियत को नई पहचान देने पर आमादा है। आंखें खुली हैं तो शीशे में से दिखाई देनेवाली लड़की की शक्ल ख़्वाब वाली लड़की से मिलती-जुलती नज़र आई है। मिर्ची वाले हाथों से लाल गुलाब को छू लेने का डर एक बार फिर सता गया है। ख़ैर,बाल तो मैं फिर भी कई महीनों तक नहीं बांध पाऊंगी और एक इसी बात का सुकून है। बाकी,  बेचैनियों ने जन्म-जन्मांतर तक साथ ना छोड़ने की कसम खा ली है।

ये डेजा वू क्या है दोस्तों? मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि ये पहले भी लिखा है कहीं, ये पहले भी कहा है कभी। हम एक ही ज़िन्दगी में एक ही दिन दुबारा-दुबारा भी जीते हैं क्या?

ये आत्मालाप किसी काम का नहीं और जो काम की है, इब्ने इंशा की लिखी हुई ये क़माल की बात है।

फ़र्ज़ करो ये जी की बिपता जी से जोड़ सुनाई हो
फ़र्ज़ करो अभी और हो बाकी, आधी हमने छुपाई हो