ये बात कुछ दस दिन पहले की है। मैं दिल्ली से साढ़े तीन हफ्ते बाहर रहकर आई थी और बहुत सारे सफ़र के बहुत सारे गंदे कपड़ों को धो लेने की बहुत सारी मेहनत के बाद उन्हें अलमारियों में सहेजकर रखने का बहुत बड़ा काम कर रही थी। बच्चों की अलमारियां खुली, मेरी अलमारी खुली और आख़िर में पतिदेव की अलमारी खुली, जिसमें उनके भी पीछे रह गए दो-चार कपड़े डालने थे।
अलमारी खोलते ही मेरी धड़कनों ने तेज़ हो जाने जैसे कुछ महसूस किया। ये नाटकीय लम्हा अपेक्षित नहीं था। क़रीब-क़रीब खाली अलमारी को देखकर मेरी धड़कनों को ऐसे बिल्कुल पेश नहीं आना चाहिए था। सब्र और गरिमा भी कोई शय होती है यार।
लेकिन मैं बहुत देर तक अलमारी का कपाट थामे खड़ी रही थी। ये किसी बहुत अज़ीज़ को ट्रेन में बिठाकर आने के बाद प्लैटफॉर्म पर खड़े रहकर गुज़रे लम्हों की याद के कचोटे जाने के लिए खुद को छोड़ दिए जाने जैसा कोई लम्हा था। ये वो तकलीफ़ थी जो हॉस्टल के अपने कमरे को खाली करते हुए हुई थी - कि जहां लौटकर आना ना था, जहां से जवानी के कहकहों को अलविदा कह दिया जाना था।
हो सकता है कि मैं मेलोड्रेमैटिक हो रही होऊं। एक्चुअली मैं मेलोड्रेमैटिक ही हो रही हूं। लेकिन मेरी तकलीफ़ वो एक बीवी समझ सकती है जो हर छठे महीने एक महीने की छुट्टी के बाद अपने पति को जहाज़ पर सेल करने के लिए विदा करती है। मेरी तकलीफ़ वो एक बीवी समझ सकती है जो भारी मन से फील्ड पोस्टिंग के लिए अपने फौजी शौहर को कर्तव्य की राह पर चलने के लिए भेजती है। मेरी तकलीफ़ हर वो औरत समझ सकती है जो किसी ना किसी वजह से अकेली अपने दम पर अपना घर-परिवार, अपने बाल-बच्चे, नाते-रिश्तेदारियां निभा रही है। मेरी तकलीफ़ मेरी मां समझ सकती है जिसने पच्चीस सालों तक पापा के साथ शहर-शहर, गांव-गांव, जंगल-जंगल भटकने की बजाए एक जगह पर रहकर एक हज़ार पच्चीस तकलीफ़ें झेलते हुए भी हमें अकेले बड़ा करने का फ़ैसला किया। सबसे बड़ी विडंबना है कि मैं मां की तरह जीना नहीं चाहती थी, और मुझे हर मोड़ पर अपनी ज़िन्दगी में उनके जिए हुए की परछाईयां दिखती हैं।
शिकायत करने का हक़ हमें इसलिए नहीं होता क्योंकि ज़िन्दगी की तरह प्यार भी किसी पर थोपा नहीं जा सकता। जैसे हमें अपनी आसानियां चुनने का हक़ है, वैसे ही हम अपनी दुश्वारियां भी चुनते हैं। वजह कुछ भी हो सकती है। ज़रिया कोई भी हो सकता है। बावजूद इसके लॉग आउट करने का विकल्प किसी के पास नहीं होता, क्योंकि मैं नहीं समझती कि कोई भी इंसान किसी परफेक्ट सेट-अप में, पूरी तरह ख़ुश होता होगा। इसलिए चाहे मानिए या ना मानिए, ज़िन्दगी नाम के शहर का रास्ता समझौतों के जंगलों से होकर जाता है। हम हर क़दम पर विक्षिप्त हो जाने से बचने के लिए समझौते ही कर रहे होते हैं। उसकी इन्टेन्सिटी ज़रूर कम-ज़्यादा होती होगी, लेकिन फिर भी होते तो समझौते ही हैं - जिसका धैर्य और जिसकी सहनशक्ति जितनी इजाज़त दे, उतना।
इसलिए किसी और तरह की ज़िम्मेदारी को निभाने के लिए पति से दूर होते हुए मैं चाहे भीतर से ज़ार-ज़ार बिलख रही होऊं, क़ायदा और मर्यादा ये है कि उसे विदाई हंसते हुए ही दूं। शिकायत उसपर भारी पड़ेगी। रोना उसको तोड़ेगा। इसलिए अपने अकेलेपन के साथ समझौता कर लो। घर में बनी रहने वाली सुख-शांति की क़ीमत किसी समझौते से बड़ी नहीं होती।
समझौता करने की ताक़त भी तो इसी भरोसे से आती है कि तोड़ना-बिखेरना-टूटना हमारी फ़ितरत में नहीं। ख़ुद से ये भी एक तरह का समझौता ही होता है कि जब हम अपने गिले-शिकवों की बजाए अपनी नेमतें गिनने बैठते हैं। मेरा अपना अनुभव कहता है कि हर वो औरत जो घर बचाए रखने के लिए हरदम उलझे रिश्तों को सुलझा लेने में तत्परता दिखाती है, वो अपनी नेमतें याद करके ख़ुद को बहुत मज़बूत बनाए रखती है।
तो आद्या और आदित, बचाए रखने का हुनर सीखना होगा तुमको। तोड़ना आसान है, बनाना मुश्किल। चीखना-चिल्लाना आसान है, ख़ामोशी से रास्ता बनाना मुश्किल। लेकिन मुश्किलों की आंच पर जो पकता है, खरे सोने-सा होता है। उसके मन की शुद्धता इन्हीं मुश्किलों से होकर गुज़रते हुए निखरती है।
वैसे उस दिन के बाद से अलमारी नहीं खोली मैंने। प्यार के साथ इंतज़ार का तुक शेरों, गज़लों, कविताओं, गीतों में ही नहीं, ज़िन्दगी में भी मिलता है।