मंगलवार, 29 जनवरी 2013

उलझे रिश्तों को सुलझाने का जज़्बा!

मैं इस बारे में पब्लिक फोरम पर लिखना ही चाहती थी, लेकिन हिम्मत नहीं थी। ना यकीन था इस बात का कि क़ायदे से, बिना किसी पर उंगली उठाए अपनी तकलीफ़ साझा करने का हुनर भी होगा मुझमें। लेकिन बात अगर सिर्फ़ इतनी ही है कि मेरी ज़िन्दगी के दस्तावेज़ ये पन्ने कल को मेरे बच्चों की अमानत होंगे, तो उनसे कोई बात छुपाई जाए, ये सही नहीं होगा। इसलिए भरोसा है कि धीरे-धीरे हर गलत-सही को बांटने का, उनपर चर्चा करके कोई रास्ता निकालने का तरीका एक ना एक दिन आ ही जाएगा मुझको।

ये बात कुछ दस दिन पहले की है। मैं दिल्ली से साढ़े तीन हफ्ते बाहर रहकर आई थी और बहुत सारे सफ़र के बहुत सारे गंदे कपड़ों को धो लेने की बहुत सारी मेहनत के बाद उन्हें अलमारियों में सहेजकर रखने का बहुत बड़ा काम कर रही थी। बच्चों की अलमारियां खुली, मेरी अलमारी खुली और आख़िर में पतिदेव की अलमारी खुली, जिसमें उनके भी पीछे रह गए दो-चार कपड़े डालने थे।

अलमारी खोलते ही मेरी धड़कनों ने तेज़ हो जाने जैसे कुछ महसूस किया। ये नाटकीय लम्हा अपेक्षित नहीं था। क़रीब-क़रीब खाली अलमारी को देखकर मेरी धड़कनों को ऐसे बिल्कुल पेश नहीं आना चाहिए था। सब्र और गरिमा भी कोई शय होती है यार।

लेकिन मैं बहुत देर तक अलमारी का कपाट थामे खड़ी रही थी। ये किसी बहुत अज़ीज़ को ट्रेन में बिठाकर आने के बाद प्लैटफॉर्म पर खड़े रहकर गुज़रे लम्हों की याद के कचोटे जाने के लिए खुद को छोड़ दिए जाने जैसा कोई लम्हा था। ये वो तकलीफ़ थी जो हॉस्टल के अपने कमरे को खाली करते हुए हुई थी - कि जहां लौटकर आना ना था, जहां से जवानी के कहकहों को अलविदा कह दिया जाना था।

हो सकता है कि मैं मेलोड्रेमैटिक हो रही होऊं। एक्चुअली मैं मेलोड्रेमैटिक ही हो रही हूं। लेकिन मेरी तकलीफ़ वो एक बीवी समझ सकती है जो हर छठे महीने एक महीने की छुट्टी के बाद अपने पति को जहाज़ पर सेल करने के लिए विदा करती है। मेरी तकलीफ़ वो एक बीवी समझ सकती है जो भारी मन से फील्ड पोस्टिंग के लिए अपने फौजी शौहर को कर्तव्य की राह पर चलने के लिए भेजती है। मेरी तकलीफ़ हर वो औरत समझ सकती है जो किसी ना किसी वजह से अकेली अपने दम पर अपना घर-परिवार, अपने बाल-बच्चे, नाते-रिश्तेदारियां निभा रही है। मेरी तकलीफ़ मेरी मां समझ सकती है जिसने पच्चीस सालों तक पापा के साथ शहर-शहर, गांव-गांव, जंगल-जंगल भटकने की बजाए एक जगह पर रहकर एक हज़ार पच्चीस तकलीफ़ें झेलते हुए भी हमें अकेले बड़ा करने का फ़ैसला किया। सबसे बड़ी विडंबना है कि मैं मां की तरह जीना नहीं चाहती थी, और मुझे हर मोड़ पर अपनी ज़िन्दगी में उनके जिए हुए की परछाईयां दिखती हैं। 

शिकायत करने का हक़ हमें इसलिए नहीं होता क्योंकि ज़िन्दगी की तरह प्यार भी किसी पर थोपा नहीं जा सकता। जैसे हमें अपनी आसानियां चुनने का हक़ है, वैसे ही हम अपनी दुश्वारियां भी चुनते हैं। वजह कुछ भी हो सकती है। ज़रिया कोई भी हो सकता है। बावजूद इसके लॉग आउट करने का विकल्प किसी के पास नहीं होता, क्योंकि मैं नहीं समझती कि कोई भी इंसान किसी परफेक्ट सेट-अप में, पूरी तरह ख़ुश होता होगा। इसलिए चाहे मानिए या ना मानिए, ज़िन्दगी नाम के शहर का रास्ता समझौतों के जंगलों से होकर  जाता है। हम हर क़दम पर विक्षिप्त हो जाने से बचने के लिए समझौते ही कर रहे होते हैं। उसकी इन्टेन्सिटी ज़रूर कम-ज़्यादा होती होगी, लेकिन फिर भी होते तो समझौते ही हैं - जिसका धैर्य और जिसकी सहनशक्ति जितनी इजाज़त दे, उतना।

इसलिए किसी और तरह की ज़िम्मेदारी को निभाने के लिए पति से दूर होते हुए मैं चाहे भीतर से ज़ार-ज़ार बिलख रही होऊं, क़ायदा और मर्यादा ये है कि उसे विदाई हंसते हुए ही दूं। शिकायत उसपर भारी पड़ेगी। रोना उसको तोड़ेगा। इसलिए अपने अकेलेपन के साथ समझौता कर लो। घर में बनी रहने वाली सुख-शांति की क़ीमत किसी समझौते से बड़ी नहीं होती।

समझौता करने की ताक़त भी तो इसी भरोसे से आती है कि तोड़ना-बिखेरना-टूटना हमारी फ़ितरत में नहीं। ख़ुद से ये भी एक तरह का समझौता ही होता है कि जब हम अपने गिले-शिकवों की बजाए अपनी नेमतें गिनने बैठते हैं। मेरा अपना अनुभव कहता है कि हर वो औरत जो घर बचाए रखने के लिए हरदम उलझे रिश्तों को सुलझा लेने में तत्परता दिखाती है, वो अपनी नेमतें याद करके ख़ुद को बहुत मज़बूत बनाए रखती है।

तो आद्या और आदित, बचाए रखने का हुनर सीखना होगा तुमको। तोड़ना आसान है, बनाना मुश्किल। चीखना-चिल्लाना आसान है, ख़ामोशी से रास्ता बनाना मुश्किल। लेकिन मुश्किलों की आंच पर जो पकता है, खरे सोने-सा होता है। उसके मन की शुद्धता इन्हीं मुश्किलों से होकर गुज़रते हुए निखरती है।

वैसे उस दिन के बाद से अलमारी नहीं खोली मैंने। प्यार के साथ इंतज़ार का तुक शेरों, गज़लों, कविताओं, गीतों में ही नहीं, ज़िन्दगी में भी मिलता है।


शुक्रवार, 18 जनवरी 2013

बाबा के बहाने ज़िन्दगी के मानी-बेमानी फ़लसफ़े

वो भी १८ जनवरी का ही दिन था। २००२ जनवरी का।

मगर वो दिन ऐसा उदास, हाड़ कंपाने और रुलाने वाला नहीं था। सुबह-सुबह धूप छत पर मेहरबान होकर ऐसे बरस रही थी कि जैसे रातभर के ठंडे और बेरहम बिछोह के बदले सारा प्यार बस अभी के अभी उंडेल देगी। हम दो ही लोग थे छत पर - बाबा और मैं। आराम कुर्सी पर बैठे हुए बाबा दूर कांके डैम और उनकी नज़रों के बीच कांटे की तरह उग आए शहर को देख कर मायूस हो रहे थे, मैं अभी नई-नई मिली नौकरी की डींगें हांक रही थी।

"हम इंटरनेट पर गाने सुनते हुए काम करते हैं। दफ़्तर में कहीं कोई औपचारिकता नहीं है।" मैं डॉटकॉम के ज़माने में जवान होती बेपरवाह लड़की, बाबा ब्लू-कॉलर से व्हाईट-कॉलर हो जाने की मशक्कत में ज़िन्दगी के पैंतालीस साल निकाल देनेवाले मेहनतकश इंजीनियर। बाबा में फिर भी मेरी बातें सुनने का सब्र रहा, मेरी पैदाईश से। सब कहते थे कि बाबा का गुस्सा दो ही चीज़ों से पिघलता है - सलीके से परसी हुई थाली से और अनु रानी के थोबड़े से। मुझे लेकर उनमें बेइंतहा धैर्य था, मेरी तमाम ज़्यादतियों और ज़िद के बावजूद।

"आपका फेवरिट गाना कौन-सा है?" बाबा से ऐसे सवाल पूछने की ज़ुर्रत एक मैं ही कर सकती थी।

बाबा सोचते रहे।

"चलिए रैपिड फ़ायर खेलते हैं। हम सवाल पूछेंगे, आप जवाब दीजिए।"

बाबा के साथ ऐसे बेतुके खेल खेलने की ज़ुर्रत भी एक मैं ही कर सकती थी।

"फेवरिट एक्टर?"

"राज कपूर।"

"और फेवरिट हीरोईन?"

"वहीदा रहमान।"

"फेवरिट खाना?"

"खीर। चावल-चिकन। मीठा पान।"

 "फेवरिट सिंगर?"

"मुकेश और लता मंगेशकर।"

"फेवरिट गाड़ी?"

"ओपेल एस्ट्रा।"

"फेवरिट गाना?"

"एक दिन बिक जाएगा माटी के मोल... और अब हमको शांति से अख़बार पढ़ने दो।" बाबा ने बात बंद कर दी, और मैं बात करने को कुलबुलाती रही।

"हम अगले तीन घंटे में चले जाएंगे।"

"हां, तो? रहने के लिए तो आई नहीं थी?"

"रह जाते हैं। यहीं रांची में। हम कहीं भी, किसी भी जगह किसी भी हाल में रह सकते हैं।"

"रांची में रहकर क्या करोगी?"

"कुछ भी। शादी की तैयारी करेंगे। किसी स्कूल में पढ़ा लेंगे। घर में आराम करेंगे।"

बाबा ने अख़बार नीचे ज़मीन पर रख दिया, बल्कि फेंक दिया और अपनी कुर्सी मेरी ओर खींच ली।

"शादी के बाद क्या करोगी अनु?" बाबा का ये सवाल बेहद गंभीर था।

अपनी कमअक्ली और बीस के ऊपर आ जाने वाले जुवेनाईल आत्मविश्वास का बेबाक परिचय देते हुए मैंने सास-ससुर की सेवा और ससुराल में रिश्तों को बनाए रखने के लिए किए जाने वाले बलिदान पर कुछ तो छोटा-सा भाषण दे दिया।

बाबा के चेहरे पर पसर गई हैरानी मुझे आज भी नहीं भूली।

"मुझे तुमसे ये उम्मीद नहीं थी," बाबा ने कहा।

क्या सोचा था अनु सिंह? सरदार खुश होगा? शाबाशी देगा? 

"हम नहीं जानते हैं कि मेरी बात तुमको कितनी समझ आएगी। हो सकता है तुम कई बातों से डिसएग्री भी करो। लेकिन फिर भी सुनो अनु। ये ज़िन्दगी एक बार मिलती है - सिर्फ एक बार। इसको अपनी शर्तों पर जीना सीखो और याद रखो कि आसानियां नहीं चुननी हैं। दिल... यहां देखो यहां... एक दिल होता है, जो रास्ता दिखाता है। उसकी सुनो। दूसरों के लिए जीने से पहले अपने लिए जीना सिखोगी तो खुश रहोगी - खुद भी खुश रहोगी और दूसरों को भी खुश रखोगी। याद रखना अनु, यहां तक पहुंचने के लिए तुमने बहुत-बहुत मेहनत की है। अपनी उम्र के बच्चों से कहीं बहुत ज़्यादा। इसलिए इतनी आसानी से किसी के लिए भी सबकुछ छोड़ देने की बात मत करो।"

बाबा नाराज़ थे और मैं हैरान थी क्योंकि मुझे पूरी उम्मीद थी कि कुर्बानियों की बात सुनकर बाबा को मुझे दिए गए संस्कारों पर फ़ख्र होगा। आख़िर हमको समझौतों के पाठ ही तो पढ़ाए जाते हैं पूरी ज़िन्दगी। घर के लिए समझौता। परिवार के लिए समझौता। बच्चों की ख़ातिर समझौता।

बाबा ने कहा था कि एक आना बचाए रखना खुद को। उस वक्‍त इस बात का ठीक-ठीक मतलब समझ आया नहीं था। इतने सालों बाद कुछ-कुछ समझने लगी हूं कि एक आना ख़ुद को बचाने का मतलब पंद्रह आनों की कुर्बानियों के खर्च के बीच थोड़ा-सा स्वार्थी बन जाना होता है। बाबा ने कहा था कि दिल की सुनूं। बाबा होते तो उनसे पूछती कि अपने दिल की सुनने में किसी और के दिल को ठेस पहुंचने के बीच के हेयरलाईन डिफरेंस की सफ़ाई कैसे दी जाती है। बाबा ने कहा था कि आसानियां मत चुनना। होते आप तो पूछती आपसे, ज़िन्दगी आसानियां चुनने के मौके देती ही कहां है। शायद झगड़ती भी आपसे कि ये क्या सिखाया आपने कि हर बार, जिस मोड़ पर भी होती हूं कोई रास्ता सीधा जाता हुआ नहीं दिखता। क्या सिखाया कि जूझना फ़ितरत बन गई और संघर्ष करना शख्सियत।
(बाबा की ये तस्वीर १९७४ की है)

बाबा से वो मेरी आख़िरी बातचीत थी। कुछ घंटे बाद बाबा मुझे एयरपोर्ट छोड़ने आए थे, और हम गाड़ी में उनका फेवरिट गाना - एक दिन बिक जाएगा माटी के मोल - सुनते रहे थे। डिपार्चर गेट पर खड़े-खड़े उन्होंने  मुझे ख़ूब-ख़ूब मेहनत करने और किसी क़ीमत पर हार ना मानने की सीख दी थी। ये भी कहा था कि सिर उठाकर जीने के लिए आत्मनिर्भर होना ज़रूरी है। ये भी कहा था कि उन्हें अपने पोतों से ज़्यादा मेरे स्वावलंबी होने की फिक्र है क्योंकि इस पेट्रियार्कल सोसाइटी में लड़के तो किसी ना किसी तरह अपना मुकाम हासिल कर ही लेंगे, लड़कियों को पीछे खींचनेवालों में से परिवार और समाज का हर वो शख्स होगा जिससे उसके स्वार्थ की सिद्धि होती है। बाबा ने ये भी कहा था कि तुम्हारे आगे बढ़ने से सबसे ज़्यादा तकलीफ़ तुम्हारे अपनों को होगी, क्योंकि कोई परिवार अपनी औरत को घर के भीतर और चौखट के बाहर की दुनिया में बंटते देखकर खुश नहीं रहता। परिवार उसी औरत को सिर-आंखों पर लेता है जो सवाल नहीं उठाती, सिस्टम को चुनौती नहीं देती, जो सेवा में तल्लीन रहती है और जो उस पानी की तरह होती है जिसे किसी भी बर्तन में डाल दिया जाए, वो उसी बर्तन का रूप ले लेती है। तुम्हें बहती हुई धारा बनने का हुनर सीखना होगा और ये अपने आप में एक बहुत मुश्किल काम है, बाबा ने चेताया था। 

बाबा की कही हुई सारी बातें मेरे सिर के ऊपर से गुज़र गई थीं। तब मुझे शादी कर लेना और परिवार बसा लेना ज़िन्दगी का इकलौता और सबसे ज़रूरी काम लगता था। बाकी सब स्टॉप-गैप अरेंजमेंट था - आज है तो ठीक, कल नहीं तो भी बहुत अच्छा।

मैं मूर्ख थी कि बाबा मुझको अजर-अमर लगते थे। उस आख़िरी बातचीत के ठीक सवा महीने बाद बाबा गुज़र गए। मुझे सिर्फ़ इस बात का सुकून है कि किस्मत ने उनकी ज़िन्दगी के आख़िरी पंद्रह दिनों में मुझे उनके सिरहाने होने का मौका दिया। बाबा ने आख़िरी निवाला, पानी का आख़िरी घूंट मेरे हाथ से लिया और जाते-जाते आख़िरी बार मेरी हथेली को यूं कसकर थामे रखा कि जैसे अपनी सारी शक्ति, अपना सारा भरोसा उसी एक लम्हे में हथेलियों के उसी एक स्पर्श में सौंपकर जाएंगे। बाबा के जाने के बाद समझ में आया कि किसी बेहद क़रीबी, किसी बेहद अज़ीज़ को खोने की तकलीफ़ वो तकलीफ़ होती है जिसकी भरपाई वक़्त जैसी कमाल की ताक़तवर शय भी नहीं कर पाती। जिस आख़िरी बार जाने से पहले बाबा ने हाथ पकड़ा था और कातर आंखों से मेरे चेहरे की ओर देखा था उसे याद करती हूं तो समझ में आता है कि मरना कोई नहीं चाहता, तब भी नहीं जब ज़िन्दगी हज़ार धोखे देती है, मुंह के बल बार-बार पटकती है। इतनी बेमुरव्वत ज़िन्दगी के लिए मोह कभी ख़त्म नहीं होता क्योंकि ज़िन्दगी है तभी सुख-दुख, समझ-नासमझियां, हार-जीत, लड़ाई-झगड़े, प्यार-वफ़ा, रिश्ते-नाते, खुशनसीबी-बदनसीबी सब है।

बाबा ने जो समझ बांटी वो अभी तक पूरी तरह कारगर हुई नहीं है। अव्वल तो इतनी सारी समझ बांटने के ठीक एक महीने भीतर ही बाबा ने ज़िन्दगी का सबसे बड़ा फ़लसफ़ा सीखा दिया कि सांसें हैं तभी तक ये उलझनें हैं। इसलिए, जितना हासिल है उसके लिए शुक्रगुज़ार रहो और हर रोज़ ऐसे जियो कि जैसे कल की सुबह देखने का सुख मयस्सर ना होगा। दूसरा, दिल की बातें सुनकर उनपर अमल करने की हिम्मत कहां आ पाती है हममें? ये जानते हुए भी कि अपने लिए जीना ज़रूरी होता है, हम फिर भी दूसरों की ख़ुशी की ख़ातिर खुद को हज़ार बार ठुकराते चलते हैं। बाकी, ये ज़िन्दगी भी हर रोज़ इम्तिहान लेती है। हर रोज़ हम ख़ुद को नए दिलासे दे दिया करते हैं। फिर भी, आसानियां नहीं चुनने की सलाह पर क़ायम हूं, और ये भी याद रखूंगी कि दूसरों को खुश रख सकूं, इसके लिए ख़ुद खुश रहना बेहद ज़रूरी है। याद  रखूंगी कि जब तक बहती हुई सांसें हैं, रगों में बहती हिम्मत और सेहत है तबतक बहती हुई धारा बनना है, बर्तन में डाला जा सकने वाला ठहरा हुआ पानी नहीं। 

आई लव यू, बाबा।