गुरुवार, 25 अक्टूबर 2012

बेंगलुरू डायरिज़ 3: कहीं अह्ले दिल का ठिकाना भी है?

२००२ में इस शहर में आई तो बस जाने के इरादे से। 

हम जाने किन चीज़ों का पीछा कर रहे होते हैं, पता ही नहीं चलता। किस्मत अच्छी रही तो हाथ में ज़िन्दगी का दामन आ जाता है, और किस्मत ख़राब रही तो हर चीज़ मरीचिका बन जाया करती है। वरना हम कहां बदलते हैं? भरोसा और उम्मीद, इन दो ईंटों पर दिल का ठिकाना खड़ा कर दिया जाता है तो वो हर बार उसी सलीके और शिद्दत से किया जाता है जितनी बार वक्त की आंधी एक पुराने को ठिकाने को गिराकर सब तहस-नहस कर जाती है।

तो बस, उम्मीद की डोर ही थी कि कभी ऑटो में, कभी भाई के साथ मोटरसाइकिल पर, कभी एक दोस्त के साथ घूम-घूमकर नौकरी की लिए अर्ज़ियां डाल दी थीं बैंगलोर में। 

मैं इस शहर में क्यों बसना चाहती थी? 

मैं किसी भी शहर में क्यों बसना चाहती हूं? 

एक अदद-सा घर है यहां अब। जो भाई कॉलेज में दाख़िला लेकर यहां पढ़ने आया, जिसका घर बैचपर पैड हुआ करता था, उसका घर है ये। नौवीं मंज़िल पर ड्राईंग रूम की बालकनी से आउटर रिंग रोड नज़र आता है, और उसके परे दूर-दूर तक पसरा शहर। शहर में शोर और ट्रैफिक इतना है कि इतनी ऊपर तक भी गाडियों का शोर, गुज़रते हुए एंबुलेंस का सायरन और ट्रकों के भोंपू सुनाई देते हैं। ऑटोवाले और चोर हो गए हैं और इंदिरानगर से आने-जाने के लिए कम से कम तीन सौ रुपए खर्च करने होते हैं। कमर्शियल स्ट्रीट जाने में हौसला पस्त हो जाता है। 

ये शहर दस साल पहले भी ऐसा ही था, इतने ही शोर-शराबे से भरा हुआ, इतनी ही तेज़ी से पसरता हुआ, इतने ही ट्रैफिक में फंसा हुआ... फिर मैं यहां क्यों बसना चाहती थी?

इस रेसिडेंशियल कॉम्पलेक्स में हज़ारों ऐसे अपार्टमेंट्स होंगे जहां ज़िन्दगी एक ही पैटर्न पर, एक ही ढर्रे पर चलती होगी। कामवाली सुबह आकर घंटी बजाती होगी तो उनींदी हालत में यंग कपल में से एक दरवाज़ा खोलता होगा, अख़बार के पन्नों के साथ चाय-कॉफी की प्याले बांट लिए जाते होंगे, कुक लंच और ब्रेकफास्ट बना दिया करता होगा, फिर दौडते-भागते हुए ऑफिस पहुंचने की जद्दोज़ेहद होती होगी। दिनभर घर बंद हुआ करते होंगे, या फिर इक्का-दुक्का घरों में बच्चों की देखभाल के लिए कामवालियां हुआ करती होंगी, या फिर किसी की सासू मां या मां बच्चों की परवरिश में हाथ बंटाने के लिए सुदूर किसी दूसरे शहर से आई होंगी। शाम होती होगी तो थके-हारे दंपत्ति घर लौटते होंगे। फिर काम भी बंटा होगा शायद - बिस्तर लगाने का, वॉशिंग मशीन चलाने का, कपड़े पसारने और समेटने का, बर्तन समेटकर सिंक में डालने का, बायोडिग्रेडेल कचरे और नॉन-बायोडिग्रेडेबल कचरे को अलग-अलग रखने का (बेंगलुरू में कचरा सेग्रीगेट करना एक नियम है)... फिर ऐसे ही कुकिंग, बेकिंग, क्लीनिंग, वॉशिंग करते हुए वीकेंड आ जाया करता होगा, फिर थोड़ी और कुकिंग, बेकिंग, क्लीनिंग और वॉशिंग। फिर मेड से थोड़ी और झक्क-झक्क। 

ये तो किसी भी शहर की कहानी होती। फिर मैं यहां क्यों बस जाना चाहती थी?

इस शहर में भी हर शहर की तरह ऐसे पावर-सेन्टर्स बना दिए गए हैं जहां पैसे खर्च करके पावरफुल होने का सुख महसूस किया जा सकता है - बनाना रिपब्लिक में एल्फैंज़ो मैंगो पीपल हो जाने का सुख। हर आधे किलोमीटर पर जगमगाते मॉल्स हैं, सब्ज़ियां और फल सुपरमार्केंट्स में मिलते हैं और पानी तक हर रोज़ खरीद कर पीया जाता है। छोटे-छोटे शहरों से अच्छी नौकरी का ख़्वाब लिए हर रोज़ हज़ारों इंजीनियर, एमबीए और सॉफ्टवेयर प्रोफेशनल यहां आते हैं और यहीं बस जाते हैं। बैंगलोर दक्षिण भारतीय कम, रेस्ट ऑफ द इंडिया अधिक हो गया है। नतीजा ये है कि दक्षिण भारतीय खाना ढूंढने के लिए ख़ासी मशक्कत करनी पड़ती है और तंदूरी रेस्टुरेंट्स की भरमार हो गई है।  

बैंगलोर में ज़िन्दगी दिल्ली, गुड़गांव, नोएडा. मुंबई से कहां अलग है? फिर मैं यहां क्यों बस जाना चाहती थी? 

हम किसी शहर में शहर के लिए नहीं, उससे भी बड़ी किसी वजह के लिए ठिकाना बना लेना चाहते हैं। कभी नौकरी वजह होती है, कभी पढ़ाई। कभी प्यार वजह होता है, कभी शादी। मैं दस साल पहले इस शहर में बस जाना चाहती थी क्योंकि दिल्ली से उकता गई थी। उससे ज़्यादा बड़ी वजह एक ये यकीन था कि मुझे भी ज़िन्दगी एक ढर्ऱे पर ही चाहिए - जहां मियां-बीवी काम पर जाते हों, किसी एयरकंडिशन्ड दफ़्तर पर कंप्यूटर या लैपटॉप के कीपैड से उलझने के बाद घर लौटकर आते हों तो उलझे हुए ज़िन्दगी के मसलों पर ज़्यादा दिमाग नहीं लगाते हों, जहां शादी तेईस-चौबीस साल में हो जाती हो और शादी के तीन साल बाद पहला बच्चा होता हो, फिर उसके तीन साल बाद दूसरा। जहां करियर कंपार्टमेंट्स में डिफाइन्ड हो - पहले तीन साल में इतने लाख का पैकेज, उसके बाद के तीन साल में कम-से-कम इतने का, उसके बाद के तीन साल में मार्केट करेक्शन और एक जंप और फिर पैंतीस की उम्र में कम-से-कम वाइसप्रेसिडेंट की पोस्ट। घर खरीदने और गाड़ियों के आकार बदलने की प्लानिंग भी उसी में कहीं फिट कर दी जाती।

लेकिन एक दिन मैंने यू-टर्न ले लिया और अपने लिए एक मुश्किल ज़िन्दगी चुन ली - ऐसी ज़िन्दगी जहां कोई ग्राफ दिखाई नहीं देता था, जहां अगले मोड़ के बाद किस रास्ते पर पहुंचते, इसका तक गुमान नहीं था। शादी एक ऐसे इंसान से कर ली, जिसके अपने ठिकाने का कोई ठिकाना नहीं, जो एक जगह होते हुए भी कई जगह है, और जो कई जगहों पर होते हुए भी एक जगह का होना चाहता है। पैरों में पहियों के होने का मतलब घूमते रहना नहीं है, पैरों में पहियों के होने का मतलब पूरी तरह किसी एक शहर के ना हो सकने का मलाल है। 

मैं बैंगलोर की नहीं हो सकती थी। मैं रांची, सीवान, पूर्णियां, पटना, कोलकाता, दिल्ली, मुंबई की भी नहीं हुई। मैं सिलीगुड़ी की होना नहीं चाहती। इस अह्ले दिल का ठिकाना नहीं है, इसलिए फ़ितरत, किस्मत, चाहत, सोहबत से ये घुमन्तू है। 

13 टिप्‍पणियां:

के सी ने कहा…

घुमंतू एक सच्चा मनुष्य है और चिंतनशील होना श्रेष्ठ गुण है।

shikha varshney ने कहा…

गज़ब है ये घुमंतू ..सबके जैसी पर सबसे अलग :)

sonal ने कहा…

:-) मैं इस शहर में क्यों बसना चाहती थी?

Mukta ने कहा…

We are all essentially like this, so many of us. Enjoying the present, uncertain of the future, but happy nevertheless! Well said :)

travel ufo ने कहा…

अच्छी बात है घुमन्तु होना और रोजगार के साथ हो जाये तो बोनस है

PD ने कहा…

मुझे भी अब सोचना होगा की मैं इस शहर में क्यों बसना चाहता हूँ?

PD ने कहा…

मुझे भी अब सोचना होगा की मैं इस शहर में क्यों बसना चाहता हूँ?

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

बंगलोर अच्छा तो लगता है, पर बस जाने के लिये और बहुत कुछ चाहिये। गतिमय जीवनशैली, उत्साह में चलते नागरिक, ये सब आवश्यक हैं पर सब कुछ नहीं।

राजेश सिंह ने कहा…

really a good write up

Rahul Singh ने कहा…

शहरों के भी अपने चरित्र होते हैं, फक्‍कड़ मौज सा बनारसी, कुछ वैसा ही मिलता जुलता शहर सागर. कभी मेल खाता सा, कभी भाता सा, लेकिन अक्‍सर समझ में न आता सा.

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…

ज़रूर पाँवों में चक्कर (चक्र)होगा आपके .रहना तो पड़ेगा कहीं न कहीं ,रहेंगी और ऊबेंगी !

prachi ने कहा…

veryyy nice :) u really write veryy nice...m surely gonaa read full f ur blog in a day or two....keep writing :) all d best..

अनूप शुक्ल ने कहा…

अच्छा है।