एक मम्मा थी। कभी बहुत बोलती थी, कभी ख़ामोश रहती थी। मम्मा का पूरा दिन अपने मन के आंगन से ख़ामख़्याली के पंछियों को उड़ाने में जाता था। मम्मा अच्छी चिड़ीमार नहीं थी, इसलिए ख़्यालों के पंछियों को फुर्र-फुर्र करके उड़ा दिया करती थी, उन्हें शब्दों के पिंजरों में बंद करने का हुनर उसे कभी आया ही नहीं।
ख़्यालों को उड़ाते-उड़ाते जब उलझ जाया करती तो ख़्वाब बुनने लगती - उस हसीन दुनिया के ख़्वाब जहां अमन-चैन हो, जहां बताशों के बदले प्रसाद में मीठी बोलियां बांटी जाती हों, जहां दुख-तकलीफ़ों के बीच हौसले के पुल बनाने को प्रोत्साहन मिलता हो।
फिर कुछ ऊंटपटांग-सी ख़्वाहिशें भी थीं मम्मा की। फर्श पर छितरा गए दूध से सफ़ेद लकीरों वाले रेखाचित्र बनाने की ख़्वाहिश, खुरदुरी और सख़्त हथेलियों की कटी-पीटी लकीरों को बच्चों के इरेज़र से मिटा देने की ख़्वाहिश, अपनी सोच की धार को उनके शार्पनर से और नुकीला कर देने की ख़्वाहिश, पार्क में अकेले बैठे सफेद मूंछोंवाले राजगढ़िया अंकल को खीर खिलाने की ख़्वाहिश, आस-पास तैरती बेनामी कहानियों को डिब्बों में बंद कर देने की ख़्वाहिश...
इन ख़्यालों, ख़्वाबों और ख़्वाहिशों के ख़त मम्मा चलते-फिरते, सोते-जगते, रुकते-थमते, हंसते-बोलते जाने किसको-किसको लिखा करती थी। वक़्त कम पड़ता गया, वो ख़त पूरा नहीं हुआ और एक जो क़ासिद हुआ करता था, वो भी थककर चला गया। इस डाकखाने में नहीं, सारे ज़माने में नहीं... मम्मा गुनगुनाती रही और फिर भी अपने दिमाग में लिखती रही एक के बाद एक चिट्ठियां...
1.
लाल बत्ती के हरियाते ही
गाड़ियों के बीच से
निकल जाएगी
उस मम्मा की गाड़ी
बगल की सीट पर
ख़ामोश बैठे रहेंगे
सुबह पांच बजे
उठकर तैयार किए गए
टपरवेयर के डिब्बे
और पीछे की सीट पर
दो बच्चे
एक को डेकेयर छोड़ने के बाद
दूसरे को 'स्कूल फॉर स्पेशल चिल्ड्रेन'
पर छोड़ आएगी वो
और फ़ीस के लिए
ज़लालत को निगलकर
दिनभर करेगी जद्दोज़ेहद
शाम तो फिर भी होगी,
है ना मम्मा?
2.
खीर में पीसकर डालो इलायची
तो खुशबू
बढ़ा देती है स्वाद
मां की रेसिपी डायरी में
क्यों नहीं मिलता
ज़िन्दगी का अचार डाल सकनेवाला
कोई नुस्ख़ा।
3.
सुरमई रात
बरसती रही
बहाती रही काजल
हम उम्मीद की आंखें मूंदे
तकिए में सिर घुसाए
काटते रहे रात।
4.
चलो छोड़ो
करो ना वक़्त ज़ाया
नहीं पढ़ता इन दिनों कोई चिट्ठियां
हमारे लेटर बॉक्स में भी सिर्फ
टेलीफोन और बिजली के बिल मिलते हैं
फिर भी मैं कैसे फाड़ दूं
तुम्हारे पते वाला लिफ़ाफ़ा?
गुरुवार, 30 अगस्त 2012
सोमवार, 20 अगस्त 2012
शून्य के सन्नाटे में
गर्मी की छुट्टियों की एक शाम ननिहाल की आंगन में गोटियां खेलने बैठे थे हम। चबूतरों और खंभों वाले आंगन के एक कोने में एक, फिर दो, फिर तीन, फिर चार गोटियों को एक साथ सफाई से समेटते हुए उलझते-झगड़ते खेल जारी था। पीछे विविध भारती बज रहा था। हमारे खेल की मसरूफियत मौसी ने तोड़ी थी, जो नंगे पांव बदहवास रसोई से दौडती हुए रेडियो के पास आई थी। आटे सने हाथ से मौसी ने रेडियो के बगल में रखी अपनी डायरी निकाली थी और वहीं पालथी मारकर बैठ गई और कुछ तेज़ी से लिखने लगी। 'क्या हुआ मौसी' का जवाब होठों पर रखी हुए एक उंगली से दिया था उन्होंने और बदस्तूर लिखती रही थी। गाना ख़त्म हुआ, मौसी के चेहरे पर मुस्कुराहट उतर आई और हंसते हुए कहा, "कितने दिन से इस गाने के बोल लिखना चाह रहे थे। आज पूरा कर ही लिए।" फाउंटेन पेन को धोने और आटे को दुबारा गूंधने के दोहरे काम से बढ़कर थी गाने के बोल लिख लेने की वो खुशी। वैसे मुझे याद नहीं कि गाना कौन-सा था, किसी और के लिखे हुए गीत के बोल अपनी डायरी में उतारते हुए मौसी के चेहरे की चमक याद है बस।
ट्विटर पर छिड़े एक गीत की चर्चा ने आज मेरी वो हालत की तो वो दुपहर याद आई। बोल किसी के होते हैं, उन्हें सुरों में पिरोतो कोई और है, धुन कोई और बजाता है, गाता कोई और है और दिल में किसी के और उतर जाया करते हैं वो गीत दफ्फ़तन।
एक फ़ाकामस्त फ़कीर को इससे बेहतर श्रद्धांजलि और क्या होगी कि अपनी-अपनी ठुड्डियों पर हाथ धरे मैं और मेरे छह साल के जुडवां बच्चे लगातार सुबह से यही एक कॉम्पोज़िशन सुने जा रहे हैं। आज मैंने भी मौसी की तरह गिरते-पड़ते गीत के बोल लिख ही लिए। मेरे पास पॉज और प्ले का ऑप्शन था वैसे।
तो स्वानंद किरकिरे के बोल, मेरे बच्चों के लिए मम्मा की डायरी में सहेजने लगी हूं। कहीं बोल की गलती हो तो माफ़ी की हक़दार समझ लिया जाए। गीत है पिंजरा, जिसे कोक स्टूडियो के दूसरे सीज़ने के लिए स्वानंद किरकिरे, शांतनु मोइत्रा और बॉनी चक्रवर्ती ने मिलकर तैयार किया।
सबपर तेरी साहेबी
तुझपर साहेब नाय
निराकार निरगुन तू ही
और सकल भरमाय
ओए आमार कांखेर कॉलोशी
गैछे जॉले ते बाशी - 2
मांझी रे तोर नोकर ढेवला हिया रे - 2
पांच तत्व का बना पिंजरा
पिंजरे में मैना
पांच लुटेरे घात लगाए
घबराए मैना - 2
बजा ले अनहद शून्य के सन्नाटे में
धड़कन की तिरताल
सिमर ले साहिब जी का नाम
कि दुनिया माया का जंजाल
कोरस
साहिब मेरा एक रखवाला रे
साहिब मेरा दीन दयाला रे
साहिब मेरा तन पे दुशाला रे
साहिब मेरा तन में उजाला रे
साहिब तेरे घट भीतर ही
धूनी रमाए बैठा साधु
साहिब तेरा अंतरमन ना रूप रंग
निरगुनिया साधु
ओ मांझी रे ओ मांझी
मांझी रे तोर नोकर ढेवला हिया रे
साहिब नहीं तात-पांत
ना बंधु सखा सखी सैयां साधु
साहिब नहीं जात-पांत
ना धर्म काज निरगुनिया साधु
कोरस
साहिब मेरा निर्मल जल जैसा
साहिब मेरा बहते पवन जैसा
साहिब मेरा नील गगन जैसा
साहिब मेरा भोला मन जैसा
साहिब मेरा एक रखवाला रे
साहिब मेरा दीन दयाला रे
साहिब मेरा तन पे दुशाला रे
साहिब मेरा तन में उजाला रे
ट्विटर पर छिड़े एक गीत की चर्चा ने आज मेरी वो हालत की तो वो दुपहर याद आई। बोल किसी के होते हैं, उन्हें सुरों में पिरोतो कोई और है, धुन कोई और बजाता है, गाता कोई और है और दिल में किसी के और उतर जाया करते हैं वो गीत दफ्फ़तन।
एक फ़ाकामस्त फ़कीर को इससे बेहतर श्रद्धांजलि और क्या होगी कि अपनी-अपनी ठुड्डियों पर हाथ धरे मैं और मेरे छह साल के जुडवां बच्चे लगातार सुबह से यही एक कॉम्पोज़िशन सुने जा रहे हैं। आज मैंने भी मौसी की तरह गिरते-पड़ते गीत के बोल लिख ही लिए। मेरे पास पॉज और प्ले का ऑप्शन था वैसे।
तो स्वानंद किरकिरे के बोल, मेरे बच्चों के लिए मम्मा की डायरी में सहेजने लगी हूं। कहीं बोल की गलती हो तो माफ़ी की हक़दार समझ लिया जाए। गीत है पिंजरा, जिसे कोक स्टूडियो के दूसरे सीज़ने के लिए स्वानंद किरकिरे, शांतनु मोइत्रा और बॉनी चक्रवर्ती ने मिलकर तैयार किया।
सबपर तेरी साहेबी
तुझपर साहेब नाय
निराकार निरगुन तू ही
और सकल भरमाय
ओए आमार कांखेर कॉलोशी
गैछे जॉले ते बाशी - 2
मांझी रे तोर नोकर ढेवला हिया रे - 2
पांच तत्व का बना पिंजरा
पिंजरे में मैना
पांच लुटेरे घात लगाए
घबराए मैना - 2
बजा ले अनहद शून्य के सन्नाटे में
धड़कन की तिरताल
सिमर ले साहिब जी का नाम
कि दुनिया माया का जंजाल
कोरस
साहिब मेरा एक रखवाला रे
साहिब मेरा दीन दयाला रे
साहिब मेरा तन पे दुशाला रे
साहिब मेरा तन में उजाला रे
साहिब तेरे घट भीतर ही
धूनी रमाए बैठा साधु
साहिब तेरा अंतरमन ना रूप रंग
निरगुनिया साधु
ओ मांझी रे ओ मांझी
मांझी रे तोर नोकर ढेवला हिया रे
साहिब नहीं तात-पांत
ना बंधु सखा सखी सैयां साधु
साहिब नहीं जात-पांत
ना धर्म काज निरगुनिया साधु
कोरस
साहिब मेरा निर्मल जल जैसा
साहिब मेरा बहते पवन जैसा
साहिब मेरा नील गगन जैसा
साहिब मेरा भोला मन जैसा
साहिब मेरा एक रखवाला रे
साहिब मेरा दीन दयाला रे
साहिब मेरा तन पे दुशाला रे
साहिब मेरा तन में उजाला रे
उनका होना ना होना क्या
एक उमसभरी गर्म दोपहर में शूट पर निकलना दुनिया के सबसे वाहियात कामों में से एक हो सकता है, ख़ासतौर पर तब, जब आपका काम एक बड़ी-सी गाड़ी का ख़ूबसूरती कैमरे में बंद करना हो। राहत इतनी-सी है कि इस बड़ी-सी गाड़ी को हाईवे पर चला पाने का सुख सारी तकलीफ़ों को नज़रअंदाज़ कर देने के लिए बहुत है। लेज़र पार्क के बाहर गाड़ी लगाकर हम शूट शुरू करने की तैयारी कर रहे हैं कि एक लड़का खिड़की के शीशे पर आकर लटक जाता है। चाहे देश के किसी भी शहर में जाएं, ट्रैफिक सिग्नलों पर ऐसे दीन-हीन चेहरे दिख ही जाएंगे। नब्बे सेकेंड के इंतज़ार में दस-बारह सेकेंड गाड़ियों की भीड़ में अपने लिए जगह बनाने में गुज़रते जाते है, बाकी इस जद्दोज़ेहद में कि हर लाल बत्ती पर किस-किसको कितना बांटा जाए। किसी-किसी दिन इन्हें इग्नोर करने में सहूलियत नज़र आती है, किसी दिन अपने मन की भड़ास इन्हें झिड़ककर उतार दी जाती है। बगल में कोई बैठा हो तो कुछ वक्त ट्रैफिक सिग्नल बेगिंग माफ़िया के टोटल टर्नओवर के अंकगणित को समझने में भी निकल जाता है।
यहां इसकी गुंजाईश नहीं थी। नज़रअंदाज़ करके देख लिया। आपस में बातचीत करके भी देखा। आंखें तरेरकर देखने का नतीजा भी सिफ़र ही रहा। अबकी तो जाकर वो एक लड़की को भी ले आया था। दोनों की शक्लें ऐसी मिलती थीं कि उनके भाई-बहन होने पर यकीन ना करने की कोई वजह थी नहीं। या काली-कलूटी शक्लें एक-सी ही लगती हैं शायद। मेरे अंदर के पूर्वाग्रहग्रसित गेहुंए दंभ ने गेहुंअन सांप की तरह सिर उठाया तो उसे लंबे शीतस्वापन के लिए भेजने में ख़ासी मेहनत करनी पड़ी।
दस मिनट बाद भाई-बहन हमें वहीं पाकर फिर लौटे तो इस बार मुझे अपनी एयरकंडिशन्ड गाड़ी का शीशा नीचे करना ही पड़ा।
"क्या है?"
"तीन रुपया दे दीजिए। सात रुपया हो गया है। तीन और मिलेगा तो रोटी खा लेंगे," बहन ने कहा।
"अच्छा! पूरा हिसाब करके आई हो। तीन रुपया न दें तो?"
"और कहीं जाकर मांगना पड़ेगा। यहां तो कोई है भी नहीं आस-पास।"
"तो मांगना क्यों पड़ेगा," मैंने पूछ तो लिया, लेकिन अपने ही सवाल पर शर्म आ गई।
"यही करते हैं। भीख मांगते हैं।"
"किधर? इधर ही?"
"इधर भी। पीछे उधर की तरफ बत्ती पर भी।"
"और मां-बाप?"
मैंने दोनों से पूछा। दोनों का जवाब एक साथ आया, लेकिन अलग-अलग। "मां मर गई। बाप उधर रहता है।" और "बाप मर गया। मां मजदूरी करती है।"
"अब तय कर लो कि कहना क्या है। झूठ तो पकड़ा गया तुम्हारा। क्यों जी, मां-बाप में से कौन मरा है?"
दोनों ने एक-दूसरे को देखा और मेरा सवाल नज़रअंदाज़ कर दिया।
"तीन रुपया दे दो ना। हम चले जाएंगे।"
"चले तो तुम जाओगे ही। अपने साथ घर थोड़े ना ले जाऊंगी तुमको?"
"सच्ची में खाना खाने के लिए पैसे मांग रहे हो?"
"हां, ये देखो, सात रुपए हैं। तीन रुपए चाहिए," बड़ी बहन ने मेरे सामने हथेली खोल दी। इसकी हाथों में तो मेरे जैसी लकीरें थीं - कटी-फटी, गड्डमड्ड और किस्मत कितनी अलग!
"कहां मिलेगी रोटी यहां?"
"उधर पीछे..."
"उस दुकान में मिलेगी?" मैंने दूर एक ठेले की ओर इशारा किया।
"चाय मिलती है वहां..."
"आओ देखते हैं, लेकिन सच-सच बताना पड़ेगा कि मां-बाप कहां हैं?"
"मां दूसरे के साथ भाग गई। बाप दारू पीकर पड़ा रहता है। दादी सुबह भीख मांगने भेज देती है। अपने भी उधर इफको के पास भीख मांगती है। सड़क पर रहते हैं, उधर ही, दादी के साथ।"
"और कब से हो इधर गुड़गांव में?"
"एक महीना हुआ। राजस्थान से आए। चितौड़ से।"
"मीराबाई के देश से?"
दोनों मेरी शक्ल देखते रहे, और मैं उनकी। फिर ठेलेवाले से पूछा कि क्या मिलेगा खाने को। रोटी और दाल फ्राई के साथ दो चाय का ऑर्डर कर मैं वापस उनके पास आ गई।
"चलो अब मैं फोटो खीचूंगी तुम्हारी। खाना खिलाने की फ़ीस। दांत दिखाओ कि मंजन किया या नहीं सुबह-सुबह।"
दोनों झेंप गए, लेकिन दांत निपोड़ ही दिया।
"ये बाल तो बड़े अच्छे हैं तुम्हारे," मैंने लड़की की चोटी की ओर इशारा किया। बिना तेल के रूखे उलझे बालों में नकली बालों की चोटी अलग से नज़र आ रही थी।
"उधर एक आंटी ने लाकर दिया। कपड़े भी लाकर दिए। लेकिन घुटने तक के कपड़े पहनने पर दादी गुस्सा करेगी।"
"अच्छा चलो नाम तो बता दो अपना-अपना। मेरा नाम अनु है वैसे।"
"मैं मौरी। ये मेरी भाई सुलीन। बाप का नाम खेमराज। हम चितौड़ से तो हैं लेकिन मीराबाई को नहीं जानते।"
"मैं भी नहीं जानती। यूं ही पूछ लिया था।"
उनका खाना आ गया था और हमारे लंच का भी वक्त हो चला था। ऐसे कितने बच्चे हर रोज़ शहर में आते होंगे, कितने भीख मांगते होंगे, कितनों का शोषण होता होगा, उनका क्या हश्र होता होगा, बड़े होकर क्या करते होंगे, शिक्षा का अधिकार इनके लिए क्या मायने रखता है, इनकी ज़िन्दगी का होना-ना होना क्या... इतने सारे बेतुके सवालों का जवाब ढूंढने का ना वक्त है ना कोई हासिल है उसका। मौरी और सुलीन तो फिर भी भीख ही मांगेंगे। मौरी और सुलीन अपना काम करेंगे, मैं अपना।
यहां इसकी गुंजाईश नहीं थी। नज़रअंदाज़ करके देख लिया। आपस में बातचीत करके भी देखा। आंखें तरेरकर देखने का नतीजा भी सिफ़र ही रहा। अबकी तो जाकर वो एक लड़की को भी ले आया था। दोनों की शक्लें ऐसी मिलती थीं कि उनके भाई-बहन होने पर यकीन ना करने की कोई वजह थी नहीं। या काली-कलूटी शक्लें एक-सी ही लगती हैं शायद। मेरे अंदर के पूर्वाग्रहग्रसित गेहुंए दंभ ने गेहुंअन सांप की तरह सिर उठाया तो उसे लंबे शीतस्वापन के लिए भेजने में ख़ासी मेहनत करनी पड़ी।
दस मिनट बाद भाई-बहन हमें वहीं पाकर फिर लौटे तो इस बार मुझे अपनी एयरकंडिशन्ड गाड़ी का शीशा नीचे करना ही पड़ा।
"क्या है?"
"तीन रुपया दे दीजिए। सात रुपया हो गया है। तीन और मिलेगा तो रोटी खा लेंगे," बहन ने कहा।
"अच्छा! पूरा हिसाब करके आई हो। तीन रुपया न दें तो?"
"और कहीं जाकर मांगना पड़ेगा। यहां तो कोई है भी नहीं आस-पास।"
"तो मांगना क्यों पड़ेगा," मैंने पूछ तो लिया, लेकिन अपने ही सवाल पर शर्म आ गई।
"यही करते हैं। भीख मांगते हैं।"
"किधर? इधर ही?"
"इधर भी। पीछे उधर की तरफ बत्ती पर भी।"
"और मां-बाप?"
मैंने दोनों से पूछा। दोनों का जवाब एक साथ आया, लेकिन अलग-अलग। "मां मर गई। बाप उधर रहता है।" और "बाप मर गया। मां मजदूरी करती है।"
"अब तय कर लो कि कहना क्या है। झूठ तो पकड़ा गया तुम्हारा। क्यों जी, मां-बाप में से कौन मरा है?"
दोनों ने एक-दूसरे को देखा और मेरा सवाल नज़रअंदाज़ कर दिया।
"तीन रुपया दे दो ना। हम चले जाएंगे।"
"चले तो तुम जाओगे ही। अपने साथ घर थोड़े ना ले जाऊंगी तुमको?"
"सच्ची में खाना खाने के लिए पैसे मांग रहे हो?"
"हां, ये देखो, सात रुपए हैं। तीन रुपए चाहिए," बड़ी बहन ने मेरे सामने हथेली खोल दी। इसकी हाथों में तो मेरे जैसी लकीरें थीं - कटी-फटी, गड्डमड्ड और किस्मत कितनी अलग!
"कहां मिलेगी रोटी यहां?"
"उधर पीछे..."
"उस दुकान में मिलेगी?" मैंने दूर एक ठेले की ओर इशारा किया।
"चाय मिलती है वहां..."
"आओ देखते हैं, लेकिन सच-सच बताना पड़ेगा कि मां-बाप कहां हैं?"
"मां दूसरे के साथ भाग गई। बाप दारू पीकर पड़ा रहता है। दादी सुबह भीख मांगने भेज देती है। अपने भी उधर इफको के पास भीख मांगती है। सड़क पर रहते हैं, उधर ही, दादी के साथ।"
"और कब से हो इधर गुड़गांव में?"
"एक महीना हुआ। राजस्थान से आए। चितौड़ से।"
"मीराबाई के देश से?"
दोनों मेरी शक्ल देखते रहे, और मैं उनकी। फिर ठेलेवाले से पूछा कि क्या मिलेगा खाने को। रोटी और दाल फ्राई के साथ दो चाय का ऑर्डर कर मैं वापस उनके पास आ गई।
"चलो अब मैं फोटो खीचूंगी तुम्हारी। खाना खिलाने की फ़ीस। दांत दिखाओ कि मंजन किया या नहीं सुबह-सुबह।"
दोनों झेंप गए, लेकिन दांत निपोड़ ही दिया।
"ये बाल तो बड़े अच्छे हैं तुम्हारे," मैंने लड़की की चोटी की ओर इशारा किया। बिना तेल के रूखे उलझे बालों में नकली बालों की चोटी अलग से नज़र आ रही थी।
"उधर एक आंटी ने लाकर दिया। कपड़े भी लाकर दिए। लेकिन घुटने तक के कपड़े पहनने पर दादी गुस्सा करेगी।"
"अच्छा चलो नाम तो बता दो अपना-अपना। मेरा नाम अनु है वैसे।"
"मैं मौरी। ये मेरी भाई सुलीन। बाप का नाम खेमराज। हम चितौड़ से तो हैं लेकिन मीराबाई को नहीं जानते।"
"मैं भी नहीं जानती। यूं ही पूछ लिया था।"
उनका खाना आ गया था और हमारे लंच का भी वक्त हो चला था। ऐसे कितने बच्चे हर रोज़ शहर में आते होंगे, कितने भीख मांगते होंगे, कितनों का शोषण होता होगा, उनका क्या हश्र होता होगा, बड़े होकर क्या करते होंगे, शिक्षा का अधिकार इनके लिए क्या मायने रखता है, इनकी ज़िन्दगी का होना-ना होना क्या... इतने सारे बेतुके सवालों का जवाब ढूंढने का ना वक्त है ना कोई हासिल है उसका। मौरी और सुलीन तो फिर भी भीख ही मांगेंगे। मौरी और सुलीन अपना काम करेंगे, मैं अपना।
सुलीन ने मंजन नहीं किया था शायद! |
बुधवार, 15 अगस्त 2012
दुआ दीजिए कि दुआओं में दम हो
पारूल नाम है उसका। वैसे प्यार से सब सीपू बुलाते हैं उसके। शहद-सी बोली, उतनी ही मीठी शक्ल और उतने ही ख़ूबसूरत दिल की नेमत किसी एक को मिलती है तो कैसे मिलती है, ये सीपू को पहली बार देखा था तो समझा था। उससे मेरा ख़ून का रिश्ता नहीं। यूं भी अक्सर ख़ून पानी हो जाता है और जो बचा रहता है, दिल का रिश्ता होता है। उसके भाई से मेरा एक धागे का रिश्ता है, पिछले कई सालों से। इतने ही सालों से कि याद भी नहीं आता कि उसने क्यों मुझे 'दीदी' कहना शुरू कर दिया था जबकि उम्र के इतने से फ़ासले पर हम एक-दूसरे को नाम से ही बुलाया करते है।
ख़ैर, उसी एक धागे और इसी एक धड़कते दिल का रिश्ता रहा कि हम महीनों ना मिलते, लेकिन फिर भी एक-दूसरे की ख़बर ले रहे होते। उन्हीं ख़बरों में एक-दूसरों के परिवारों की, दोस्त-यारों की ख़बर शामिल होती। उन्हीं ख़बरों में ब्रेक-अप्स, हैंगअप्स, करियर ब्रेक्स, बदलते हुए पते, बदलती हुई पहचान और बदलती हुई ज़िन्दगियों की निशानियां भी बंटती रहीं। उन्हीं ख़बरों में सीपू की शादी होने की ख़बर भी थी, जिसका जश्न मैंने फेसबुक पर उसकी सगाई और फिर शादी की तस्वीर देखकर मनाया। उन्हीं ख़बरों में सीपू के गोद में एक नए मेहमान के आने की ख़बर भी शामिल थी। और उन्हीं ख़बरों में सीपू की डिलीवरी से कुछ ही हफ्ते पहले उसके ब्रेस्ट कैंसर की ख़बर भी शामिल थी। बीबीएम, फेसबुक और फोन पर उन्हीं ख़बरों में सीपू की जीवटता और कैंसर से जूझने के किस्से भी शामिल होते रहे हैं।
कल एक और ख़बर मिली। छह महीने के आरव की मां सीपू की हड्डियों में भी कैंसर फैलने लगा है। ना ना। कोई मातमपुर्सी के लिए नहीं बैठे हम। हम बात सीपू की कर रहे हैं, जिसके अदम्य साहस और जीजिविषा की बात करते हुए मुझे अपनी शब्दावली के अतिसंकुचित होने का अहसास होता है। दस दिनों के रेडिएशन और हॉर्मोनल इंजेक्शन के बाद सीपू ठीक हो जाएगी। लेकिन उसकी हिम्मत मुझे हैरान करती है। लिखने तो बैठी हूं और सोचा तो है कि सीपू की तकलीफ़ और तकलीफ़ पर हर बार मिलती उसकी जीत के बारे में बताऊं आपको, लेकिन शब्द कम पड़ रहे हैं।
ज़िन्दगी वाकई सबसे बड़ी और कठोर अध्यापिका होती है। जिन पाठों को हम सीखना नहीं चाहते, जिस सच को स्वीकार नहीं करना चाहते, उसे सामने ला पटकने के कई हुनर मालूम हैं उसे। कहां तो हम छोटी-छोटी परेशानियों का हज़ार रोना रोते हैं और कहां संघर्ष ऐसा होता है कि हर पल भारी पड़े। अब अपनी तन्हाई का रोना रोना चाहती हूं तो सीपू याद आती है। मन को तो फिर भी बहला लें, लेकिन उसके शरीर का दर्द लाख चाहकर भी कौन कहां बांट पाता होगा? हमें अपने-अपने हिस्से का दुख ख़ुद झेलना होता है और उस दुख को झेलकर जो निकलता है, वही सच्चा सुपरस्टार होता है।
सीपू, कैंसर से एक लड़ाई तुम लड़ रही है और तुम्हारे साथ-साथ सीख हम रहे हैं। ज़िन्दगी के इम्तिहान में सीढ़ी-दर-सीढ़ी ऊपर तुम चढ़ रही हो, हिम्मत हमें मिल रही है। तुमसे सीखा है कि तकलीफ़ों को हंसकर झेल जाने पर कविता-कहानियां लिखना बहुत आसान है, उन्हें महीनों लम्हा-लम्हा जीए जाना बहुत मुश्किल। तुमसे सीखा है कि जैसे दर्द की कोई सीमा नहीं होता, वैसे ही सब्र और हिम्मत का कोई पैमाना नहीं होता। तुमसे सीखा है कि हज़ार शिकायतों हों तब भी ज़िन्दगी अनमोल है और जीने के काबिल बनाया जा सकने वाला हर पल बेशकीमती। सीपू, तुमसे सीखा है कि जब तकलीफ, मुसीबत और परेशानियां हर ओर से घेरती हैं तभी हमारी सही औकात सामने आती है। तुमने तो ऐसी मिसाल कायम की है कि हम अपने बच्चों को बताएंगे - सीखना है तो सीपू मौसी से सीखो।
तुम्हारे लिए इस पब्लिक फोरम पर लिख रही हूं पंद्रह अगस्त की सुबह-सुबह, इस दुआ के साथ कि तुम्हारी तकलीफ़ों और दर्द से तुम्हें जितनी जल्दी हो सके, आज़ादी मिले। दुआ है कि मेरी एक दुआ में कई दुआएं शामिल हों और सबमें इतना असर तो हो कि तुम्हारी तकलीफ़ कम हो सके। दुआ ये भी है कि तुम्हारी हिम्मत का एक क़तरा ही सही, हमें भी मिल सके।
लव यू, सीपू।
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