शुक्रवार, 1 जून 2012

गर्मी छुट्टी डायरीज़ ३: मैं भी करती हूं... जेन्डर डिस्क्रिमिनेशन

मैं जानती थी कि आद्या तो आएगी ही। बेटी के बिना मैंने अपने मां बनने की कल्पना की ही नहीं थी। अल्ट्रासाउंड में पता चला कि जुड़वां बच्चे है, तो मैंने मां से कहा, एक तो आद्या है। दूसरा अदिति है या आदित, ये बताना मुश्किल है। हालांकि सातवें महीने से गट फीलिंग कहने लगी थी कि शांत, बिना उछल-कूद किए, बिना अपनी उंगलियां से गुदगुदी किए भीतर से चुपचाप मां को महसूस करती आद्या रही होगी और शरारती, हाइपरएक्टिव, डिमांडिंग बच्चा आदित रहा होगा।  इसलिए बच्चे बाहर आए तो मुझे कोई हैरत नहीं हुई - इन्हें आद्या और आदित ही होना था, मैं पिछले कई हफ्तों से जानती थी।

सी-सेक्शन के बाद होश आया तो मुझे आईसीयू में ले जाया गया जहां दोनों बच्चे थे। आदित को इन्फेक्शन था, इसलिए उसके मुंह पर ऑक्सीज़न मास्क था, जाने कितनी नसों से जाने क्या क्या एंटिबायोटिक्स दिए जा रहे थे। पैदा होने से पहले आदित डिस्ट्रेस में आ गया था जिसकी वजह से मैं लेबर में चली गई और बत्तीसवें हफ्ते में ही बच्चों को बाहर निकालना पड़ा। आदित को देखकर कलेजा मुंह को हो आया था। पैदा होते ही इतनी तकलीफ़? बच्चे को किस बात की सज़ा मिली है, या ख़ुदा?

आदित के पालने से दूर आद्या लेटी थी। मैंने उसका नाम भी नहीं देखा था, ना नर्स ने अभी बताया ही था कि इन तीस बच्चों में मेरा दूसरा बच्चा कौन-सा है? लेकिन उसकी गहरी, काली, गोल-गोल आंखें और गोल चेहरा देखते ही मैं दूर से ही जान गई थी कि वही है आद्या। पैदा होने के तीसरे दिन ही आद्या की आंखों को बोलते सुना था। उसे पहली बार गोद में लेना और उसका टुकुर-टुकुर ताकना, फिर धीरे से मुंह सीने में छुपा लेना याद आता है तो लगता है, मां बनने का पहला एहसास ऐसा ही होता होगा - निर्मल, अनिर्वचनीय, अद्भुत, अविश्वसनीय।

मेरी बेटी शुरू से फाईटर है। खुद की बेहतरी और सुरक्षा की समझ उसे पैदा होने से पहले से है। उसे बचपन से ही ये भी मालूम है कि कब कितनी ज़िद करनी होगी और कितनी ऊंची आवाज़ में क्या मांगना होगा, कब स्पेस देना होगा, कब रोना होगा और कब चुप हो जाना होगा। आदित कमज़ोर था, इसलिए ज़ाहिर है उसके लिए हम सब को बहुत सावधानी बरतनी होती थी। दो महीने की ही थी आद्या, जब उसे समझ में आ गया था कि मां के पास होने की उससे ज्यादा उसके भाई को ज़रूरत है। बिना किसी नखरे के आद्या ने बोतल से दूध लेना शुरू कर दिया और रात में नानी के पास सोने लगी। सोचकर रुलाई आती है कि मम्मी ने आद्या को पहली बार अपने कमरे में सुलाने के लिए ले जाते हुए कहा था, बेटी है ना, अभी से त्याग करना जानती है। भाई के लिए उसने मां को छोड़ दिया।

फिर तो वो अपने-आप मुझसे दूर होती चली गई। आदित मां को नहीं छोड़ता था और आद्या कभी नानी, कभी दादी, कभी बुआ, कभी मौसी के साथ सोती रही, उनकी कहानियां सुनती रही। मेरे पास दिन में जो थोड़ा-बहुत वक्त होता था, आद्या को देना चाहती थी। लेकिन उसे तब भी मुझसे दूर होना ही रास आता था। जिस बेटी के लिए बचपन से मन्नतें मांगीं, वही बेटी जुदा-जुदा रहने लगी थी।

फिर आद्या की फितरत, उसके तेवर हैं भी मुझसे बिल्कुल अलग। मुझमें कोई फेमिनिन खूबियां नहीं। मैं बिंदी भी बड़ी मुश्किल से लगाती हूं और पांच सालों में कितनी बार तैयार हुई होऊंगी, मेकअप किया होगा, छोटी उंगली पर गिन सकती हूं। ठीक इसके विपरीत मेरी बेटी को अच्छे कपड़ों, गहनों, अच्छी खुशबूओं का शौक था। मैं क्रीम, शैंपू, लिपस्टिक, काजल छुपाती रहती और आद्या उन्हें ढूंढ-ढूंढकर अपने बार्बी बैग में सजाती रहती थी। दोनों बच्चों के लिए एक-से खिलौने लाने, इंटेलिजेंट गेम्स खिलाने की मेरी तमाम कोशिशें बेकार रहीं। आद्या जितना बार्बी की दुनिया में रहती, मुझे उतनी ही कोफ्त होती। मैं उसको जितना टॉमबॉयिश बनाना चाहती, वो उतनी ही तेज़ी से लड़कियों वाले सारे शौक पालती चली जा रही थी। मैं कहीं से लौटती तो देखती कि बिटिया रानी ने दुल्हन जैसा श्रृंगार कर रखा है अपना, और मेरा पारा चढ़ जाया करता। ये घर में चीखने-चिल्लाने और  कॉन्फ्लिक्ट पैदा करने का सबब बनता जा रहा था। मैं और आद्या दूर होते चले जा रहे थे एक-दूसरे से। इतना कि वो मेरे पास होमवर्क करवाने के लिए भी नहीं बैठा करती थी। उसे मौसी चाहिए होती थी। स्कूल के लिए या तो कामवाली दीदी तैयार कराती या मौसी। मम्मा के लिए जगह नहीं थी। वक्त भी नहीं था। आदित ना चाहते हुए भी मुझे घेरे रहता था।

मैं क्यों अपनी बेटी को वक्त नहीं दे पा रही थी? हममें इतना तनाव क्यों था? पांच साल की आद्या में इतना विद्रोह, कि मां की हर बात को काटना उसका जन्मसिद्ध अधिकार हो जैसे? कहां तो मैं अपनी बेटी को उन तमाम बंदिशों से परे पालना चाहती थी जो बचपन में या अब भी जाने-अनजाने मुझपर डाली गई हों, और कहां हम एक-दूसरे से उलझते जा रहे थे। आद्या में विद्रोह के वो सारे लक्षण थे जिन्हें मैं अपने-आप में खूब मज़े में दबाती  रही हूं। समस्या कहां थी? क्या मैं भी जेन्डर डिस्क्रिमिनेशन कर रही थी? या ये एक स्वाभाविक प्रक्रिया है जिससे एक बेटी और एक बेटे को बड़ा करते हुए आप बच नहीं सकते?

फिर एक दिन मेरी बेटी मेरी बांहों में लौट आई। जाने वजह क्या थी, लेकिन दस दिनों तक बाबा-दादी के पास मां के बगैर रहते हुए आद्या ने मुझे जितनी शिद्दत से याद किया और जिस बेकली से मेरा इंतज़ार करती रही, उस बेचैनी की उम्मीद मुझे आद्या से नहीं, आदित से थी। लेकिन दस दिनों के बाद बच्चे पूर्णियां में मिले तो मैं उनमें आया बदलाव देखकर हैरान थी। आदित अपने पैतृक घर में ठीक उसी आत्मविश्वास और गुरूर के साथ घूम रहा है जो घर के बाकी पुरुषों में होना स्वाभाविक माना जाता है। मेरी बेटी मुझसे पूछती है कि आदित यहीं रह जाएगा और मैं कहां चली जाऊंगी मम्मा? ये सब आदित का है तो मेरा क्या है? उसके चेहरे पर परेशानी की लकीरें हैं और मैं उसका माथा चूम लेना चाहती हूं। अब समझ में आया है कि नताशा क्यों शुक्र मनाती है कि तीन बेटियां ही हुईं उसको। बेटे और बेटी को साथ बड़ा करते हुए उन्हें ये अहसास दिलाते रहना कितनी बड़ी चुनौती है कि कुछ भी नहीं ऐसा कि तुम दोनों को अलग-अलग कर सके। कोई अंतर नहीं तुम दोनों में, फिर भी एक कहलाएगा वारिस और एक को लेनी होगी इस घर से विदाई।

हम एक बिस्तर पर बैठे हैं - सासू मां, दोनों बच्चे और मैं। पतिदेव थोड़ी दूर कुर्सी पर हैं। चर्चा किसी ज़मीन की हो रही है, वैसी एकड़ों ज़मीन में से कोई एक टुकड़ा जो मैंने देखा तक नहीं। बच्चों की दादी आदित को अपनी ओर ओर खींचते हुए गले से लगाती हैं और कहती हैं, उत्तराधिकारी, ओ उत्तराधिकारी। आद्या खिसककर मेरी ओर चली आती है। मैं दादी की गोद में लेटे आदित को देखती हूं, फिर आद्या को अपनी ओर खींचकर गले से लगा लेती हूं और उसके कान में धीरे से फुसफुसाती हूं, यू विल इन्हेरिट माई मैडनेस, माई इनसैनिटी। तुम्हें मम्मा का पागलपन, मम्मा का जुनून मिलेगा विरासत में।

नहीं करना चाहती जेन्डर डिस्क्रिमिनेशन, फिर भी....

  



26 टिप्‍पणियां:

Arvind Mishra ने कहा…

निःशब्द!

अनूप शुक्ल ने कहा…

महसूस करने की कोशिश कर रहे हैं एक मां के उद्गार!

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

मेरे लिये मेरे दोनों बच्चे एक जैसे ही हैं, प्यारे। बालक शान्त पर बिटिया साधिकार।

रचना ने कहा…

what a post just what a post !!
commendable writng

संजय कुमार चौरसिया ने कहा…

बेहतरीन,

mere blog par aapka swagat hai,

http://sanjaykuamr.blogspot.in/

वाणी गीत ने कहा…

कोई फर्क नहीं करना चाहती फिर भी ....
माँ नहीं भी करेगी , किस -किस को मना करेगी !!

Rahul Singh ने कहा…

डिस्क्रिमिनेशन का अपना सौंदर्य होता है, डिस्क्रिमिनेट करने वाला और होने वाला, जेन्‍डर से उपर हो कर हमारी समग्र सामाजिक संरचना और सोच का प्रतिनिधि हो जाता है.

Nidhi ने कहा…

बेहतरीन !!

Amrendra Nath Tripathi ने कहा…

आपने बड़े करीने से पकड़ी है बात!

Manish Kumar ने कहा…

Well expressed.

vandana gupta ने कहा…

कुछ कहते नही बन रहा ………

harshential ने कहा…

Amazing piece..i love the moistness in my eyes by the time i read "you will inherit my madness.."

shikha varshney ने कहा…

रुला दिया तुमने .

सागर ने कहा…

निर्मल, अनिर्वचनीय, अद्भुत, अविश्वसनीय।

Pallavi saxena ने कहा…

सही है वाकई बहुत मुश्किल है मुश्किल क्या एक चुनौती से कम नहीं एक बेटे और बेटी को एक साथ पालना हालांकि मुझे अनुभव नहीं है इस बात का क्यूंकी मेरे एक बेटा है बेटी नहीं है मगर तब भी समझ सकती हूँ यह बात बहुत अच्छे से....इसलिए कह सकती हूँ कि ना चाहते हुए भी जेन्डर डिस्क्रिमिनेशन, आही जाता है बच्चों में हम नहीं भी लाये तो भी दादा-दादी या नाना-नानी जैसे रिश्ते एहसास करा ही जाते हैं बच्चों को इस जेन्डर डिस्क्रिमिनेशन,का...संवेदन शील रचना...

rashmi ravija ने कहा…

विषयांतर है.....पर एक अंग्रेजी फिल्म याद आ रही है...'Raising Helen' .. जिसमें एक माँ अपने तीन बच्चों की जिम्मेवारी...अपनी एक नियर परफेक्ट बहन को नहीं सौंप कर उस बहन को सौंपती है... जो थोड़ी सी झल्ली है...कोई काम नियम के अनुसार सलीके से नहीं करती. माँ को लगता है...ये बहन उसके स्वभाव के ज्यादा करीब है...और उसके बच्चे बिलकुल सांचे में ढले बच्चों की तरह नहीं होकर थोड़े से अलग होंगे...अपने मन की करेंगे .

जैसा तुमने आद्या के लिए सोचा है...इस आज़ादी की दौलत के बाद उसे और कौन सी दौलत चाहिए .

Ramakant Singh ने कहा…

खुबसूरत आत्मकथन जहाँ हम अपने आप जीवन के आनंद या कहें क्षणों के साक्षी होतें हैं .

राजन ने कहा…

बहुत अच्छा लगा इसे पढना.पल्लवी जी की बात से सहमत हूँ कि केवल माँ बाप ही नहीं घर के दूसरों सदस्यों के व्यवहार का भी बच्चों पर असर पडता हैं.लेकिन एक बात समझ नहीं आई जब आपने बताया कि आपकी बेटी बचपन से तेज हैं,समझदार हैं और अपनी सुरक्षा करना जानती हैं पर फिर भी आप उसे टॉमब्वायिश क्यों बनाना चाहती थी.आपके हिसाब से यह क्यों जरूरी है? कुछ अंतर लडके लडकी में प्राकृतिक रुप से होते हैं हालाँकि ये बहुत कम हैं लेकिन हम उन्हें स्वाभाविक क्यों नहीं मानते ? बल्कि मुझे तो लगता है थोड़ा सा अंतर दोनों में होना भी चाहिए तभी तो दोनों ही 'विशेष' माने जाएँगे.

रेखा श्रीवास्तव ने कहा…

बहुत सुंदर अभिव्यक्ति !

Shilpa Mehta : शिल्पा मेहता ने कहा…

excellent excellent post - lovely - thanks ....

राजेश उत्‍साही ने कहा…

अपने ही दो बच्‍चों के बीच मां की दुविधा और द्वंद्व है यह।

बेनामी ने कहा…

Heartbreaking. :(

बेनामी ने कहा…

But actually, legally, they both are equal heirs - mother's love, mother's madness, mother's intensity and also mother's and father's inheritance, they have equal right to all.

Abhishek Ojha ने कहा…

Goose bumps !

arbuda ने कहा…

पहली बार पढ़ा है आपको. पर सच पूछें तो लगा खुद ही की कहानी पढ़ रही हूँ. मेरे पास भी ऊपर वाले की रहमत से जुड़वाँ बच्चे हैं: बेटी इला और बेटा ईशान. उनके जन्म से लेकर की कहानी आपकी इस पोस्ट से काफी मिलती है. बहुत अच्छा और संवेदनशील लगा पढ़ कर. अभी तक तो यही महसूस किया है की माँ के लिए बेटी और बेटे में कोई भेद नहीं होता है. हो सकता है की किसी खास परिस्थिति में आपके मन में ये बात बैठ गयी हो. खैर, आप ऐसे ही लिखते रहिये...बहुत अच्छा लिखती हैं आप. दोनों बच्चों को प्यार ...

banakatamishra ने कहा…

आप के द्वारा लिखे गये लेख से पता चलता है कि लड़कियां समय के अनुसार अपने को ढ़ालने मे सक्षम होती हैं । फिर भी इससे यह तो स्पष्ट होता है कि हम चाहे-अनचाहे लिंग आधारित भेदभाव का हिस्सा हो जाते है । खैर इस प्रकार के लेखों से अपने अन्तर्मन में झांकने और उसपर मनन करने का मौका मिलता है । सोचने का एक नया आयाम मिलता है । वास्तविक विकास या परिवर्तन यही तो है ।