गुरुवार, 31 मई 2012

गर्मी छुट्टी डायरीज़ 2: ससुराल गेंदा फूल

ठीक साढ़े सात साल पहले पू्र्णियां आई थी, शादी के बाद पहली बार। रांची से भागलपुर के लिए ट्रेन चलती है, पू्र्णियां या कटिहार तक आने का कोई दूसरा रास्ता नहीं। लालू-राबड़ी के राज में शादी हुई थी, सड़कों की हालत ऐसी थी कि झारखंड-बिहार की सड़कों पर सफ़र करना काला पानी की सज़ा भुगतने से कम नहीं था। भागलपुर से पूर्णियां आने में ऐसी हालत हुई थी कि मेरे भीतर के घुमन्तू और रोडी ने भी सड़क पर ना उतरने की कसम खा ली मन-ही-मन।

तो बस, हमने यूं ही पीठ तोड़ते, खेत-खलिहानों से रास्ते तलाशते हुए भागलपुर से पूर्णियां की करीब नब्बे किलोमीटर की यात्रा साढ़े तीन घंटे में तय की। पूर्णियां पहुंची तो हालत ऐसी थी कि घर लाने के बदले पतिदेव ने होटल ले जाना ठीक समझा। मुंह-दिखाई इस हुलिए में नहीं हो सकती, घर से फोन भी आ गया था। फिर हुलिया बदला और लाल जामावार के ऊपर लाल ज़रदोज़ी की चुनरी डालकर मुझे तैयार कर दिया गया। माथे पर वृत्ताकार बिंदी और चमकते सिंदूर को देखकर आईने को खुद को ही मुंह चिढ़ाने का जी हो आया। बहुत बनती थी ना अनु सिंह, अब लो भुगतो।

धीरे-धीरे ले के चलना, आंगन से निकलना, कोई देखे ना दुल्हन को गली में.... मेरी गर्दन तक घूंघट खींच दिया गया और खुद को स्विच ऑफ करने और मूड दरुस्त रखने के लिए मैं मन-ही-मन गुनगुनाती रही। एक बगल बड़ी ननद और दूसरी ओर एनआरआई जेठानी... ठीक-ठाक आधुनिक लोग लेकिन दुल्हन का भी कोई डेकोरम होता है यार। इसलिए चुप रहो और सिर झुकाए गाड़ी में बैठी रहो... मेरा आत्मालाप जारी था।

हम पता नहीं किन-किन गलियों से होकर निकलते रहे। याद नहीं कि दीदी ने कहा या भाभी ने कि देखो, ये पूर्णियां का इकलौता बाज़ार है - भट्ठा बाज़ार। लेकिन मेरे रक़ीबों, देखूं कैसे कि भट्ठा कितना हट्टा-कट्टा है? घूंघट से अपनी हथेलियां और उंगलियों में फंसी एक दर्ज़न अंगूठियों के डिज़ाईन को छोड़कर कुछ और नहीं दिखता।

पतिदेव ने फोन करके गेट खोलने की ताक़ीद दी और हम सड़क से बाएं मुड़े और किसी अहाते में घुस गए। अब पहुंच चुके हैं का इल्म तब हुआ जब दीदी ने मेरा घूंघट एक हाथ और नीचे खींच दिया। फिर सब फास्ट फॉरवर्ड मोशन में चलना याद है। जाने कितनी बार घूंघट गिरा, कितनी बार उठा। जाने कितनी बार लोगों ने रंग-रूप, नाक-नक्श पर टिप्पणियां कीं, जाने कितनों ने साड़ी के रेशम को छूकर देखा। टुकड़ों-टुकड़ों में कान के झुमके और गले में पड़े हार पर होनेवाली बातचीत याद है। टुकड़ों-टुकड़ों में थमना,चलना, गिरना, संभलना याद है। याद है कि अजनबी चेहरों में अपने रिश्तेदारों का अक्स ढूंढती रही थी। ओह मां! मैं किस देस चली आई थी? कौन-सी भाषा बोलते हैं लोग यहां? मैंने किसी बिहारी से ही शादी की थी ना? फिर इतना अंतर कैसे था?

धीरे-धीरे समझ में आया कि मां और पापा के गांवों में फर्लांग-भर की दूरी थी, लेकिन फिर भी परिवारों में अंतर था। मैं तो छलांग लगाकर भोजपुरी बेल्ट से सीधे अंगप्रदेश पहुंच आई थी, यूपी बॉर्डर से उठकर बंगाल बॉर्डर। शादी का कार्ड दिया तो मेरे सहयोगी सिद्धार्थ पांडे ने चिढ़ाया था, तो शहाबुद्दीन के शहर से उठकर पप्पू यादव के शहर जा रही हो।

शाम को बहू के स्वागत में दिए गए भोज में चार ही शक्लें अपनी थीं - दो अपने भाइयों की, और पतिदेव के जिगरी दोस्त गौरव और उसकी बीवी पर्ल की, जो हमारे लिए दिल्ली से पूर्णियां आए थे। मैं उनके गले से लगकर फूट-फूटकर रोना चाहती थी। याद है कि पर्ल का हाथ पकड़कर धीरे से छत पर कहा था, "हाउ द हेल डू आई सर्वाइव दिस? विल आई एवर?"

"यू विल। ऑल ऑफ अस डू।"

"यस। इट्स ए मैटर ऑफ फ्यू डेज़।" मैंने खुद को तसल्ली दी थी, लेकिन उनके वापस जाने के वक्त फिर क्यों बुक्का फाड़कर रोने का दिल करता रहा था?

वो फ्यू डेज़ भी गुज़रे, साल-दो साल, कई साल भी। हम कई बार उस रास्ते से गुज़रे जिससे पहली बार मैं ससुराल आई। लेकिन आज भी पतिदेव की एक आदत नहीं बदली। आरएन शाह चौक पर पहुंचकर घर पर फोन करते हैं और गेट खोलने की ताक़ीद दी जाती है। अर्स्टवाइल परोरा एस्टेट की बहू को तीस सेकेंड भी गेट पर इंतज़ार क्यों करना पड़े?

जाने क्यों इतने सालों बाद भी मैं ससुराल को विस्मय से देखती हूं, करीब-करीब awestruck होकर। किसी तरह की बंदिश ना होने के बावजूद इस अहाते में घुसते ही जाने क्यों अभी भी धड़कनें तेज़ हो जाती हैं और कुछ वैसी ही घबराहट घेर लेती है जैसे पहली बार हुआ था। दो बच्चों के होने के बावजूद।

मेरे कमरे में कबूतर ने घोंसला बना रखा है और अंडों से निकले चूजे अभी-अभी ज़िन्दगी से रूबरू हुए हैं। मां सफाई देती हैं, कोई आता नहीं था इधर इसलिए... अब कैसे तोड़े इसको?

क्या जरूरत है, मैं कहती हूं। पंखे का डर है तो हम दिनभर इस कमरे में नहीं होने की कोशिश करेंगे। बच्चों को बड़ा होने देते हैं। पहला हक़ उनका है।

मां अंडे और फिर बच्चों की रखवाली करती कबूतरी की हिम्मत और लगन का बखान करने लगती हैं। मां को ऐसा ही होना पड़ता है, मां को क्या - औरत को ही। और अंडों को सेने और बच्चों को बड़ा करने के क्रम में कबूतर कहां होता है, मैं मां से पूछना चाहती हूं, लेकिन चुप रह जाती हूं। औरत के गुणों का बखान करने में विघ्न क्यों डाला जाए? शील, सहदयता, हिम्मत, ईमानदारी, प्रेम, धैर्य, क्षमा, एकनिष्ठता.... इतने सारे विशेषणों के डिब्बों को किसी अनचाहे स्टेशन पर क्यों रोकना? मैं सिनिकल ही सही। इस सिनिसिज़्म के साथ हार्मनी बनी रहे, इसके लिए ख़ामोशी सबसे उत्तम रास्ता है।

खाने की मेज़ पर लगे खाने में आधी से ज्यादा चीज़ें घर की हैं - आम घर का, लीची घर की, चीकू घर का, पुदीने का शर्बत घर का, धनिया पत्ती की चटनी घर की, साग घर का, तोरी घर की, भिंडी घर की, गेहूं घर का, सरसों तेल घर का,  दालचीनी, तेजपत्ता, करीपत्ता भी घर का। एक मैं ही जाने कहां की।

ख़ामोश! छुट्टियां तो शुरू हुई हैं अभी।  
"Vince Ricardo: Just go with the flow, Shel, just go with the flow.

Sheldon: What flow? There isn't any flow."

~ From the film "The In-laws"
डिस्क्लेमर: इस कोट से मेरा रिश्ता उतना ही समझा जाए जितना मेरे लिखे हुए से होता है - अनइन्टेन्शनल। 

बुधवार, 30 मई 2012

गर्मी छुट्टी डायरीज़: सिलिगुडी से पोस्टकार्ड

मैं साल में कम-से-कम दो से तीन बार इस शहर में आती हूं। बस आती हूं, और गुज़रकर चली जाती हूं। इस शहर से मेरा नाता वन-नाईट स्टैंड जैसा है - जैसे अजनबी भी हो, आत्मीय भी। जैसे दिल-ओ-ज़ेहन में चुभा हुआ कोई ऐसा शूल हो जिसके होने से मीठी-सी तकलीफ़ है, ना होने से खलिश बढ़ जाए शायद। ये शहर भाग जाने के मेरे पुरसूकुन ख़्यालों को हवा देता रहता है। नॉर्थ-ईस्ट का गेटवे है। यहां से दार्जिलिंग-कैलिमपॉन्ग-मिरीक-कर्स्यांग की दूरी एक से डेढ़ घंटे है। एक घंटे में दोआर्स के चाय बागानों तक पहुंचकर उनमें गुम हुआ जा सकता है। सिक्किम चार से पांच घंटे और भारत-भूटान का जयगांव-फुत्शॉलिंग बॉर्डर भी पांच से छह घंटे। जिस जहाज़ में बैठकर आई हूं, उसी से वापस चली जाती तो चालीस घंटे में गुवाहाटी भी पहुंच सकती थी और गुवाहाटी से मेघालय बहुत नज़दीक है। इतने सारे हसीन रास्ते खोलने वाला ये शहर इसलिए मुझे इतना हसीन लगता है।

हर शहर की तरह पिछले आठ सालों में सिलिगुड़ी भी तेज़ी से बदला है। सड़कों पर भीड़ बढ़ी है, गाड़ियों का काफ़िला बढ़ा है और शॉपिंग मॉल्स की संख्या में तो बेतहाशा वृद्धि हुई है। जिस उत्तरायन की नींव पड़ते हुए पतिदेव ने पहाड़ों के तराई में बस जाने की ख्वाहिश जताई थी, वही उत्तरायन एक बड़ी-सी टाउनशिप में तब्दील हो गया है, जिसमें घुसते ही अंसल प्लाज़ा और मल्टीप्लेक्स थिएटर आईनॉक्स आपका स्वागत करता है।

हम विशाल मेगा मार्ट के सामने हैं और मैं दीवार पर बांग्ला में लिखे विज्ञापन के शब्दों को पढ़कर सुनाती हूं,
मनीष, दीवार पर लिखा है कि शिलीगुड़ी ते मूल्येवृद्धि युगे शेष


मतलब?


मतलब नो इन्फ्लेशन इन सिलिगुड़ी। दादा के खराब बजट से ममता दीदी बचा लेंगी, बढ़ती हुई पेट्रोल की क़ीमतों से बचा लेंगी और जो पैसे हम बचाएंगे, विशाल मेगा मार्ट में आकर उड़ाएंगे।

पतिदेव की नज़रें कहती हैं कि दैट वॉज़ अ पुअर जोक। बहरहाल, हम घुसे थे तीन सौ के कप खरीदने और निकले हैं कुल तेरह सौ की शॉपिंग करके।

शहर में हम कुछ देर और भटकते हैं। मैं चलती गाड़ी की खिड़कियों से बाहर होर्डिंग्स और बिलबोर्ड्स पर लिखे बांग्ला के विज्ञापन पढ़ने की कोशिश में अपनी उस दीवानगी पर मंद-मंद मुस्कुराती हूं जो आठवीं क्लास में की थी। रैपिडेक्स बांग्ला स्पीकिंग कोर्स से बांग्ला सीखने की कोशिश की थी, इसलिए क्योंकि शरतचंद्र की कहानियों और उपन्यासों को ओरिजनली बांग्ला में पढ़ना चाहती थी। लेकिन ये भाषा इतनी ही सीख पाई कि कोई भी बांग्ला में गालियां दे तो मैं समझ जाऊंगी और अख़बार ना सही, घटी हुई कॉल रेटों और सेल से जुड़े विज्ञापन तो पढ़ ही लूंगी। उपभोक्तावाद के इस ज़माने में मार्केट को मेरे जैसे साक्षर ही तो चाहिए।


सिलिगुड़ी में आकर आपने एयरपोर्ट मोड़ से शॉपिंग ना की तो क्या किया। एयरपोर्ट मोड़ की दुकानों के सामने तमाम बैंकॉक मार्केट्स फीके पड़ जाएंगे। चीनी मोबाइल्स हों या थाईलैंड के जूते, बोन चाइना की क्रॉकरिज़ हों या इलेक्ट्रॉनिक आईटम्स, यहां सबकुछ मिलेगा और ऐसी मज़ेदार क़ीमतों पर कि आप पूरे घर का सामान बदल डालना चाहेंगे। हां, टिकाऊ होने की गारंटी कोई नहीं लेगा। लेकिन सरकार, यहां घर ही कितने दिन टिका करते हैं?


मुझे अगले दो घंटे के सफ़र के लिए बॉलीवुड संगीत चाहिए और मैं सीडी की एक दुकान के बाहर खड़ी हूं। फेक चीज़ें बेचनेवाले इस बाज़ार में, ज़ाहिर है, संगीत भी पाइरेटेड मिलेगा। ए आर रहमान खोज रही हूं और साथ में शंकर-जयकिशन। बगल में बारह-चौदह साल के तीन लड़के आ खड़े होते हैं। स्कूल ड्रेस से लगता है, किसी सरकारी स्कूल में पढ़ते हैं।


दादा, इंग्लिश फिल्मेर शीडी आछे की?

आछे तो। कि चाई तोमाके?
मेरे भी कान खड़े हो गए हैं। देखना चाहती हूं कि डबल एक्स मांगते हैं या ट्रिपल एक्स। लेकिन जाने मेरे पूर्वाग्रहों को झुठलाना है या बच्चे मुझे देखकर हिचकिचा रहे हैं, उनमें से एक कहता है, ओ आछे की, एच-यू-एल-के, शेई चाई।

हल्क निकाल दीजिए और द इनक्रेडिबल हल्क भी। अवतार है? वो भी निकाल दीजिए बच्चों के लिए। स्पाइडरमैन की सारी सीरिज़ देखी है? सुपरमैन? बैटमैन? हाउ टू ट्रेन योर ड्रैगन? आयरन मैन?  

बच्चे मुझे हैरत से देख रहे हैं और मैं उनके लिए एक के बाद एक सीडीज़ निकलवा रही हूं।    

इतना नहीं देख पाएंगे दीदी, हल्क की स्पेलिंग बताने वाला बच्चा कहता है।
कोई बात नहीं। भैया को नाम लिखवा दो। एक एक करके देख लेना। जी में आया है, कह दूं, पॉर्न देखने से तो बेहतर है सुपरहीरो की फिल्मों देखकर फंतासी की किसी दुनिया में रहना। लेकिन बहती हवा को कौन बांध सका है? चढ़ती उम्र को किसकी सलाह रास आई है? बढ़ती मूंछों पर किसका वश चला है?

मैं गाड़ी में लौट आई हूं और अब पूर्णियां जाने का वक्त हो चला है। छतरी लगाए चाय के बगानों में पत्तियां तोड़तीं औरतें पीछे छूट जाती हैं, अनानास के खेत पीछे छूट जाते हैं, पटुए की हरियाली पीछे रह जाती है और पीछे छूट जाता है मेरा घंटे भर का क्रश।

बड़ी गाड़ी में सफ़र करने का फ़ायदा है कि आप टांगें समेटकर पिछली सीट पर लेट सकते हैं। 
चुपके से लेट जाती हूं और सामने की सीट पर बैठे पतिदेव से कहती हूं, गाना बदल दो प्लीज़।

मन ही मन सोचती हूं, तेरी दुनिया से हो के मजबूर चला जैसे गाने अंत्याक्षरी में ही सुनने में अच्छे लगते हैं, सफ़र में नहीं।                                           

रविवार, 27 मई 2012

नानी के नाम चिट्ठी

मेरी प्यारी नानी,

कई दिनों से सोच रही हूं कि आपको लिखूं चिट्ठी। कुछ वैसी ही निर्दोष, जैसी बचपन में लिखा करती थी। जब लिखा करती थी कि सब कुशलमंगल है, वाकई वैसी होती थी ज़िन्दगी, या शायद उतना ही समझ आता था। हालांकि आपके कुशल हो जाने की कामना की तीव्रता अब भी कम नहीं हुई।

नानी, आपको वैसे ही याद करती हूं इन दिनों जैसे पैरों के तलवे में बेसबब निकल आया कोई ज़ख़्म याद आया करता है, एक अविराम टीस की तरह, जिसके होने से याद आता रहते हों वो तलवे जिनपर शरीर का बोझ होता है और जिनपर वक़्त-वक़्त पर मरहम लगाना ज़रूरी होता है। वरना तो अपनी हर प्रिय और सबसे आवश्यक चीज़ को ग्रान्टेड ले लेने की बुरी बीमारी होती है हम सबको।

इन दिनों गर्मी की छुट्टियां है, इसलिए और याद किया करती हूं वो घर जहां पैदा हुई, जहां अपनी सबसे बड़ी बेटी की सबसे बड़ी बेटी को आपने अपनी सबसे छोटी संतान बना लिया। टुकड़ों-टुकड़ों में याद है कि आपके सीधे पल्ले के आंचल को खींचकर अपने सिर पर डालकर गोद में सो जाना बड़ा मुश्किल होता था। उसपर आपका आंचल तो सिर से खिसकता भी नहीं था नानी। फिर आपकी घिसी हुई हड्डियां चुभती थीं। पूरे शरीर पर कहीं मांस का कोई टुकड़ा नहीं। हड्डियों के ढांचे में भी आपकी झुर्रियों वाली हंसी कितनी ख़ूबसूरत लगती थी। मम्मी भी बिल्कुल आपके जैसी लगने लगी हैं अब। मैं भी तो मम्मी जैसी हो गई हूं।

तो नानी, आप तो अपने पिता की जायदाद की इकलौती वारिस थीं ना? ये भी सुना है कि विरासत में मिले खेत सोना उगला करते थे। सोने-से मकई के दानों पर पूरी दोपहर खेलना तो मुझे याद है। आपके बगीचे के आम-सा कुछ नहीं खाया पूरी ज़िन्दगी। और नानी, वो बनारसी बेर। उफ्फ, भूला नहीं मुझको कि कैसे मुंह में डालते ही घुल जाया करता था। आपकी गौशाला से निकले दूध की गाढ़ी मलाई खाने की ऐसी लत पड़ी कि मदर डेयरी को कोस-कोसकर भी मलाई निकालकर बिल्ली की तरह चाट जाया करती हूं। जब मदर डेयरी की मलाई मुझे गोल-मटोल, चुस्त-दुरुस्त बनाए रखती है तो फिर आपकी गायों में क्या खोट था कि आप पर एक आउंस वज़न भी नहीं चढ़ा?

कुछ अपने लिए रखतीं तब तो बचता, नानी। आपको बांटने की बीमारी थी। बाकी की कमियां सोम-बृहस्पति, एकादशी-पूर्णिमा के व्रत पूरी कर दिया करते थे। किसके लिए व्रत करती थीं इतना, ये मां बनीं हूं तो समझ में आया है। अपने बच्चों की सलामती के लिए एक नास्तिक भी पत्थरों को चूमने लग जाता है, आपका तो ख़ैर ऊपरवाला से सीधा कनेक्शन था। उसी कनेक्शन का नतीजा था कि किसी फरिश्ते-सा सब्र था आपमेँ। आपकी ख़ामोशी अब समझ में आती है कि प्रकृति में संतुलन बनाए रखने के लिए अक्खड़, ज़िद्दी, गुस्सैल और बेहद अनुशासित नाना का साथ निभाने के लिए एक सहृदया, गंभीर और ख़ामोश नानी का होना ज़रूरी था।


मैं अक्सर सोचती हूं कि आर्थिक रूप से आज़ादी औरतों की आज़ादी का रास्ता प्रशस्त करती होगी, लेकिन आपकी मिसाल यहां एन्टीथीसिस का काम करती है। आपको मायके की जायदाद विरासत में मिली, आपके पास एक अदद-सी सरकारी नौकरी थी और क़ायदे से फ़ैसलों की कमान आपके हाथ में होनी थी। लेकिन मेरी पिछले तीस सालों की समझ कहती है कि आप अपनी आर्थिक आज़ादी को लेकर एक अजीब किस्म के गिल्ट से जूझती रहीं। गांव में इकलौती काम-काजी औरत होने का गिल्ट था, मायके में बस जाने का गिल्ट था, तीन बेटियां पैदा करने का गिल्ट था और अपने वजूद का गिल्ट था।

अब समझ में आता है कि दरअसल ये स्त्रियों की डीएनए संरचना का दोष है। आपके गिल्ट को देखकर आपकी बेटी ने कामकाजी ना होना तय किया और ज़िन्दगी भर पति पर आश्रित बने रहने के गिल्ट में रहीं। आपकी बेटी के गिल्ट को देखकर मैंने आर्थिक रूप से आज़ाद होने की पुरज़ोर कोशिश की, और फिर भी गिल्ट में रही। मैं  शायद अपनी बेटी को भी विरासत में वही अपराधबोध सौंप रही हूं। ये कैसा बोझ है नानी? हम कैसे बदलें इसको? अगर मैं, आप अपने आस-पास के कई लोगों से बेहतर और जागरूक हैं तो इसको लेकर अपराधबोध कैसा? हम क्यों भीड़ को खुश करने के लिए भेड़चाल में भेड़ बने रहते हैं? हमें क्यों अपने वजूद पर गुमान करना नहीं सिखाया गया?

नानी, मुझे याद है कि आप स्कूल की मास्साब और अपने घर के लिए बेटा और बहू दोनों बनने की कोशिश में कैसे पिसा करती थीं? याद है मुझे कि स्कूल में वीणा बजाती मां शारदे का आह्वान करते हुए भी आपका ध्यान उस ज़िम्मेदारियों पर होता था जो हर लिहाज़ से गैर-ज़रूरी थीं, लेकिन एक गृहस्थ परिवार की शान बचाए रखने के लिए जिनका उन्मूलन नामुमकिन था। कभी-कभी आपसे बेजां कोफ्त होती है कि आपने सबको खुश रखने के क्रम में अपने देह और अपनी आत्मा की धज्जियां उड़ाईं। एक राज़ की बात बताऊं नानी? आपके गांव से कई सौ किलोमीटर दूर बैठकर एक महानगर में रहते हुए भी, देश के सबसे अच्छे कॉलेज में पढ़ लेने के बाद भी मेरी किस्मत और फितरत पर आपकी परछाईयां दिखाई देती हैं। मैं पचास साल बाद भी भेड़चाल में ही हूं, एक भेड़ की तरह, इस ख़ौफ़ में कि मेरे अलग रंग की ख़बर भीड़ को मिली और मुझे आउटकास्ट क़रार दिया गया तो? आप भी डरती थीं, मैं भी डरती रहती हूं।

नानी, मेरी ट्विन प्रेगनेन्सी के बारे में जानकर डॉक्टर ने फैमिली हिस्ट्री के बारे में पूछा। मैंने ना में जवाब दे दिया और मेरे साथ बैठीं मम्मी चुप रहीं। गाड़ी में उन्होंने धीरे से बताया, नानी को ट्रिप्लेट्स हुए थे, बच नहीं पाए। मैंने मम्मी को सवालिया निगाह से देखा, पांच बच्चों के अलावा? उन दो और बच्चों के अलावा, जो बच नहीं पाए? नानी बच्चा पैदा करने की मशीन थीं? एक स्कूल की प्रिंसिपल होने के बावजूद? पढ़ी-लिखी होने के बावजूद? मम्मी चुप रहीं। नानी से चुप्पी विरासत में मिली थी उन्हें, मुझे भी मिली है। क्या-क्या दिया है मुझे विरासत में मुझे नानी, आपने?

आपकी तरह मुझे फ़ैसले लेने से डर लगता है नानी, ऊंची आवाज़ में अपनी बात कहने से डरती हूं। डरती हूं कि कुछ कह देने से बात बिगड़ी तो? ज़िद किसी की नाराज़गी का सबब बना तो? इसलिए नानी, ये जानते हुए भी कि आपकी आख़िरी ख़्वाहिश मेरे जुड़वां बच्चों को देख लेना था, मैं अपनी ससुराल से आपके पास जाने की अनुमति मांगने की ज़िद नहीं कर पाई। मैं नहीं आ पाई आपको देखने, और सुना है कि आप आखिरी सांसें लेते हुए भी मेरे बारे में पूछती रही थीं। मम्मी ने मुझे नहीं आने के लिए चार सालों में माफ़ कर दिया होगा मुझे, मैं ज़िद नहीं करने के लिए आजतक ख़ुद को माफ़ नहीं कर पाई।

एक रात सपने में आप आई थीं। मेरे पैर में कांटा चुभा था कोई और मैं ननिहाल में बिस्तर पर बैठी थी, कांटे को निकालने के कोशिश में। आपके हाथ में कोई जंगली पत्ता था। आपने कहा मुझसे, अकवन के दूध से कांटा निकल जाई बाबू, तहार दुख दूर करे खातिर रामजी के आगे हाथ जोड़ब।

आपका रामजी से सीधा कनेक्शन है, हाथ जोड़िएगा नानी। लेकिन मेरे ज़ख़्मों का इलाज मत कीजिए। टीसते रहे ये घाव तो याद आती रहेंगी आप, और याद आता रहेगा मुझे कि मैं किसके जैसा नहीं बनना चाहती थी और क्या बनती रही फिर भी...




पोस्टस्क्रिप्ट: नानी को मैंने आख़िरी बार अपनी शादी में देखा था। शादी में उन्होंने वही सिल्क की साड़ी पहनी जो मैं अपने पैसे से खरीदकर लाई थी उनके लिए। पौ फटते ही पराती गाने बैठी नानी और दादी को देखकर लगता, बस इसी एक खुशी पर सब कुर्बान और शाम को नानी ढोलक के साथ राम-जानकी विवाह के गीत गातीं - जाईं बाबा जाईं अबध नगरिया/जहां बसे दसरथ राज/पान सुपारी बाबा तिलक दीहें/तुलसी के पात दहेज/कर जोरी बिनती करेब मोरे बाबा/मानी जायब श्रीराम हे।

पान सुपारी और तुलसी के पात से ही श्रीराम मान गए। दशरथ भी, नानी। हमें ये क्यों नहीं मालूम कि जानकी की मां का नाम क्या था और उनकी नानी कौन थीं? या धरती-सा धैर्य सारी औरतों का स्वभाव है और इससे भी क्या फर्क पड़ता है कि मेरी भी नानी कौन थी?  

भूल-चूक, सवाल-जवाब की माफ़ी मांगते हुए,
आपकी
अनु

मंगलवार, 22 मई 2012

चलना है मुसाफ़िर का नसीब

हमारे घर के आंगन में चांदनी का एक पेड़ था। चांदनी के फूलों में कोई ख़ास तीखी खुशबू होती नहीं है, लेकिन फिर भी आंगन महका करता था। सोंधी मिट्टी की सुगंध थी या फूलों की खुशबू, ये तब समझ में नहीं आता था। सिर्फ इतना जानती थी कि नीचे गिर गए फूलों को भगवान पर चढ़ाया नहीं करते, लेकिन उन्हें बिना सुई-धागे के गूंथकर बालों में लगनेवाले गजरे बन सकते थे। गजरों में लगनेवालें फूलों को पंद्रह मिनट की ही शोहरत और इज़्जत मयस्सर थी। जो किस्मतवाले फूल थे, उन्हें पेड़ों पर से उतारने के लिए एक तांत्रिक जी आया करते। उनका नाम नहीं जानता था कोई, कम-से-कम बच्चे तो नहीं ही जानते थे। तांत्रिक जी जिन फूलों को चुनकर ले जाते वो काली बाड़ी की शोभा बढ़ाते थे।
फूलों से अपनी झोली भरने के बदले तांत्रिक जी को कीमत भी अदा करनी होती। हर सुबह कोई ना कोई अपनी हथेली पसार दिया करता था उनके सामने और उनकी झूठी-सच्ची भविष्यवाणियों के बीच चाय और बिस्किट की दक्षिणा भी सौंप दी जाती। मेरे पैरों में पहिए होने की बात उन्होंने ही कही पहली बार। तब नहीं जानती थी कि इसका मतलब दरअसल होता क्या है। अब समझ में आता है कि इसका मतलब ये होता है कि आप निकले तो वसंत कुंज जाने के लिए होते हैं लेकिन होते ग्रेटर नोएडा के रास्ते में हैं (और यमुना एक्सप्रेसवे पर आगरा की ओर आगे बढ़ जाने से खुद को ज़ब्त कर रहे होते हैं) या फिर फरीदाबाद जाते-जाते आपको मथुरा पहुंच जाने की तलब सताने लगती है।

एनएच २४ पर पतिदेव चिढ़ाया करते हैं, "तुम ये देख रही हो ना कि लखनऊ कितनी दूर है?" मैं कहती हूं, "ना। ये कि नैनीताल जाने के लिए कहां से कटता होगा रास्ता।" "पिछले जन्म में ग्रां प्री की हारी हुई रेसर थी?" शायद, इसलिए पतिदेव से कहती हूं, एक बार हिमालयन एक्सपडिशन पर ले चलो, अगले सात जन्म तक अपनी ज़िन्दगी तुम्हारे नाम कर दूंगी। ये भी जानती हूं कि मेरी बेवकूफियों को नज़रअंदाज़ कर देने में ही उनकी भलाई है। छह जन्मों तक पिंड छूटा और ऊबड-खाबड़ रास्तों से बच गए, सो अलग। ज़िन्दगी में कम गड्ढे हैं कि एक्सपडिशन के ख़तरे भी मोल लें?

मैं हर महीने कम-से-कम दो नए शहरों में होने की योजना बना रहती हूं, मेरी ज़िन्दगी का इकलौता मकसद ज़िन्दगीनुमा सफ़र (या सफ़रनुमा ज़िन्दगी) पर दार्शनिक होते रहना है। ये और बात है कि सभी ख्वाहिशें पूरी होती नहीं और हम अपने लिए नए मकसद मुकर्रर कर रहे होते हैं।

आज भी खाली घर से भागकर आउटर रिंग रोड पर थी। बिग एफएम इतना सुनती हूं कि अगला गाना करीब-करीब प्रेडिक्ट कर सकती हूं, बावजूद उसके किशोर कुमार के वही पुराने गाने बजते रहे, मैं सुनती रही और चलती रही। मुझे जीके टू नहीं जाना, सीआर पार्क भी नहीं जाना। मुझे चिराग़ दिल्ली भी नहीं जाना, मूलचंद भी नहीं। एम्स मेरी मंज़िल नहीं, ना मालवीय नगर है। जेएनयू नहीं, एयरपोर्ट नहीं। फिर मुझे जाना कहां है? मैं कहां के लिए निकली थी?

घूमकर फिर नेहरू प्लेस पर हूं। मेरे साथ इस चिलचिलाती धूप में कौन बावरा चाय या कॉफी पीने को तैयार होगा और मैं आइसक्रीम नहीं खाती। मुझे कहीं दूर चले जाना है और मेरी फरियाद एक ही बावरी को समझ में आती है। शहर से बहुत दूर बसनेवाली इस बावरी के पास मेरे जैसे बच्चे हैं, अदद-सा पति है और आवाज़ की बेचैनी फोन पर पढ़ लेने का हुनर है।

मुझे तकरीबन अस्सी किलोमीटर का सफ़र करना होगा टू एंड फ्रो, बट हू केयर्स? गाड़ी में अगले अस्सी घंटे काट लेने का इंतज़ाम है, और मैं गाने सुनते हुए जहन्नुम तक जा सकती हूं। ये तो ख़ैर मेरी पसंदीदा जगह है। बच्चों के बिना मां कैसी लावारिस-सी बातें करती है, नहीं? मैं मुद्दतों बाद घड़ी को लेकर बेफ़िक्र हूं। अपने मर जाने का अफ़सोस ऐसे ही लम्हों में नहीं होगा, शायद।

"नताशा, मैं दो ही चीज़ों के लिए कमाती हूं - एक अपनी गाड़ी में पेट्रोल डालने के लिए और दूसरा हवाई जहाज़ की टिकटें कराने के लिए।"

"अच्छा तो है। तभी तो घुमन्टू हो।"

"घुमन्टु नहीं। घुमन्तू।"

"वन्स ए बिहारी, ऑल्वेज़ ए बिहारी", ये नताशा ने अपने लिए कहा है या मेरे लिए, नहीं समझ में आया। फर्क भी नहीं पड़ता कि मैं उससे फिर से बच्चों के साथ शहर से बहुत दूर किसी नई जगह घूमने जाने की बातें करने लगी हूं।

सफ़र करने से मुझे इस कदर मोहब्बत क्यों है? क्यों ज़िन्दगी का इकलौता मंत्र सैर कर दुनिया की गाफ़िल लगता है? सफ़र करते हुए तेज़ी से पीछे भागते लम्हों का डर नहीं सताता इसलिए। मुसाफ़िर की किस्मत में आगे बढ़ना ही लिखा होता है, इसलिए। अजनबी चेहरों के पीछे से झांकती कहानियां मन-ही-मन बुनना अच्छा लगता है, इसलिए। हर शहर की खुशबू में सराबोर होना अच्छा लगता है, इसलिए।

गली-नुक्कड़ों-सड़कों-चौराहों पर बिखरे पहर अपने शहर में कहां उतने हसीन लगते हैं? इसे इन्फेडिलिटी का नाम दिया जा सकता है, लेकिन मेरे लिए यही इन्फेडिलिटी सैक्रोसैंक्ट है - पवित्र, अस्पर्शनीय, पाक़ साफ़। किसी इंसान पर अंधविश्वास करूं, उससे बेहतर है शहर की नब्ज़ टटोलकर तय करूं कि इस अजनबी पर कितना भरोसा किया जा सकता है। मुझे आजतक किसी अजनबी शहर ने धोखा नहीं दिया, साथ नहीं छोड़ा, तन्हाई नहीं दी अपने शहर की तरह ईनाम में। शायद इसलिए भी, कि अपना शहर है कौन-सा, ये तय नहीं कर पाई अभीतक। लेकिन ये तय कर लिया है कि थोड़ी-सी पहचान आत्मीयता और अजनबीपन, दोनों से ख़तरनाक होती है।

फिलहाल पतिदेव के सवाल पर बेहद संजीदगी से विचार किया जा रहा है। पिछले जन्म में क्या थी, ये जानने के लिए पास्ट लाइफ रिग्रेशन का सहारा लूंगी। ईश्वर ने कमबख्त मेरे पैरों में ही क्यों लगा दिए पहिए? हर लिहाज़ से बनाया बेज़ौक़ (इस नए शब्द के लिए शुक्रिया, नताशा) और शौक़ भी लगाया तो रईसों का?

खानाबदोश हो जाने के भी पैसे लगेंगे क्या? बच्चों को भी सिखा दूंगी ऊंट और घोड़ों की सवारी और हम फ़कीरों की तरह भटका करेंगे दर-ब-दर। कुछ बेतुके ख़्यालों में भी कितना सुख है, नहीं? ऐसे ख़्यालों से नींद आती है या हो जाया करती है फ़ाख्ता, ये तो सुबह पता चलेगा। अभी के लिए सफ़र पर जाने की तैयारी करो, अनु सिंह!




रविवार, 20 मई 2012

Dreams and more

The difficult part for me of not being able to write on your laptop is much beyond the unfamiliarity of the keypad. It is also extremely difficult to think and write in an unfamiliar language. (The laptop that I have borrowed from Abhishek doesn't have a Hindi typepad). But I shall still try to juggle with the semantics nonetheless with a hope that most of my feelings do get expressed even when I am trying too hard!

I am sitting in the newly built convention centre of JNU to attend the Young India Fellowship Programme's founding batch convocation. I shouldn't have been here. I am not a parent. I am not a fellow. I am not a faculty either. In fact, YIFP was a client, and I still haven't overcome the fact that I couldn't deliever here, at least not like I would have wanted to. But you either accept your failures gracefully, face them head on and learn from them, or you don't accept them at all. I accept where I have gone wrong, and I want to mend it. That's why I am in this hall, struggling with the fancy Kantha saree and self doubt, both in one go.

The bright young faces come to the stage, one after the other, to collect their certificates. They also have to present a 30-sec 'thank you' speech. Now that could bore you to death. I mean, how will one speech be different from the other? They will thank their parents and faculty and friends, and they will 'look forward' to being in the big bad world and the next fifty students will continue to yap the same thing incessantly.

So why am I here in the first place?!

"Thank you for making us unemployable", says one.

"I was confused when I came here last year. I am all the more confused when I graduate, and I have realised it's a good thing", says the other.

Yet another quotes Van Gogh and the other one some other fancy name I don't remember.

But by now I am soaking into the vibes that are percolating through the auditorium. These vibes are full of courage and belief. They are so youthful they fill you with energy. You are not the only mad one in this big bad world, I tell myself. It is alright to take the less traveled path, and it is perfectly alright to make mistakes as long as you have the inclination to learn from them.

The Dean, Pramath Raj Sinha, takes over the podium to conclude to the ceremony, and he is as candid and informal as one can be. Young India Fellowship was born out of a conversation that he had with his two friends. (Pramath was the Founding Dean of Indian School of Business, Hyderabad and heads 9 dot 9.)  The conversation revolved around how there was no liberal arts based higher education system in India, and  how higher education only meant 'employablity'. They all shared a dream, and they all believed in it.

It took five long years to get UPenn to support their crazy idea of creating a fellowship on the lines of Rhodes Scholarship, which would create a multi-disciplinary learning environment for young minds fresh out of college. It took five long years of self-doubt, hard work and sleepless nights to see this dream turn into reality. It took five long years to accumulate endowments and sponsorship. (Each fellow receives Rs 8 lakh to support the fellowship, and this money comes from sponsors).

And it will take much longer to even make that one bit of difference in the higher education system in India; where education will mean beyond degrees and certificates, when education will mean a learning experience that leaves you inquisitive and leaves you with a desire to contribute to the society. It will take really long to hone the young minds in a way that they begin to think beyond jobs with fat salaries; where they will first think of being a citizen, and then an individual.

It may take really long, but it may not be impossible to achieve for we have dreamers sitting right next to us. I hope their courage and belief becomes contagious and it spreads far and wide. For now I can only wish luck to the designer who will paint to express himself; the occupational therapist who will work in Orissa and the philanthropists who will go on to build a world class liberal arts based university soon in Haryana. (And it's not a scam, if I may quote one of the fellows who candidly told his parents from the stage!)

For now, I have a live example of thinking the impossible, taking baby steps towards it and falling flat on the ground, only to rise again. For now, I will believe that it is good to believe, and hope is the only good thing that happened to this world. For now, I will dream and get more confused, for confusion is a good state of mind to be in.

And here is what I will remember for the rest of my life. Thank you for sharing this quote, Young Fellow.

"Zindagi ek muslasal safar hai/manzilein paate rahe, manzilein badhaate rahe."

(Life is a journey in continuum. I kept reaching my goals, and I kept pushing them further.)

गुरुवार, 17 मई 2012

रात चुपचाब दबे पांव चली जाती है

इतनी आज़ादी मुद्दतों में नहीं मिली। एक खाली घर नहीं मिला। अपनी मर्ज़ी से सोने जगने, रतजगे करने का सुख नहीं मिला। बच्चों को गर्मी छुट्टी के लिए भेज देने के बाद उस आज़ादी को जीने के तरीके आने चाहिए। बारह घंटों में ही सांसें उखड़ने क्यों लगी हैं फिर?
उन्हें अभी-अभी छोड़कर आई हूं। इरादा है कि एक महीने का वक्त अपना होगा। लिखूंगी, काम खत्म करूंगी, दोस्तों से मिलूंगी और वो सब करूंगी जो पिछले छह सालों में बड़ी मुश्किल से किया, या किया भी नहीं। घर में घुसते ही बड़े जतन से, बड़ी शांति से दो-चार काम निपटाए हैं। कुछ छह ई-मेल, कुल तीन पन्नों की टेढ़ी-मेढ़ी लिखावट, किताब के कुल बारह पन्ने और सन्नाटा। ना। ऐसे नहीं होगा काम। मुझे घर से निकलना चाहिए। शॉपिंग? हेयर स्पा? खुद ही मुस्कुराती हूं। एक घंटे में आमूलचूल बदल डालोगी खुद को अनु सिंह? फिल्म। फिल्म देखकर आती हूं। अगले पंद्रह मिनट में इश्कज़ादे का शो है। गिरते-पड़ते पहुंची हूं, टिकट तो मिला है लेकिन पांच मिनट की देरी की वजह से सलमान की नई फिल्म का ट्रेलर मिस करने के लिए खुद को शायद कभी माफ ना कर पाऊं। अगले दो-चार दिन तो बिल्कुल नहीं।

फिल्म पर टिप्पणी फिर कभी। परमा और ज़ोया की प्रेम कहानी के बीच मेरे सेलफोन पर छलक आते घर-परिवार-यार-दोस्तों के प्रेम को इग्नोर करना पड़ा है। उन्हें क्या बताऊं कि बच्चों को मिस करनेवाली मां से जिस सहानुभूति को जताने के लिए उन्होंने फोन किया होगा, उस सहानुभूति को बेचकर मैं पॉपकॉर्न खा गई?

तन्हाई तो दरअसल शाम को जवां होती है। भरा-पूरा सेक्टर अठारह मार्केट अब वीरान लग रहा है। घर का ताला खोलकर फिर सन्नाटे में जाऊं या यहीं भटकूं देर तक? उसका हासिल? इसका हासिल? उन किरदारों का क्या जो दिमाग में खलबली मचाएं हैं? जिन्हें मार देने या मुकम्मल अंजाम तक पहुंचाने का बीड़ा मैंने उठा लिया है मन ही मन?

झटका तो दरअसल घर आकर लगा है। मैं पिछले कई सालों से घर में कभी अकेली नहीं रही। अब कैसे कटेगी रात? फेसबुक पर तस्वीरें लाइक की हैं, दो-चार दोस्तों के स्टेटस मेसेज पर बेतुकी टिप्पणियां छोड़ी हूं। भाई-भाभियों की तस्वीरें देखकर खामख्वाह संजीदा भी हुई हूं। अपनी प्रोफाइल पिक्चर भी बदल गई, कवर फोटो भी। अब? घड़ी भी दुश्मन हुई है आज तो। पिछले कई घंटों से दस पर अटकी हुई है। दो ही आवाज़ें हैं कमरे में - एसी की भनभनाहट और आशा भोंसले - रात चुपचाप दबे पांव चली जाती है...

टुकड़ों में नींद है, टुकड़ों में सपने। किसी क्लासरूम में हूं और मैथ्स के सवाल हल नहीं रहे। कैल्क्युलस का है, इंटिग्रेशन। मुझे इम्तिहान में फेल हो जाने का डर सताने लगता है। कैल्क्युलस के सवालों से सांसें उखड़ती हैं भला? मेरी उखड़ती हैं। फिर नींद, फिर सपना, फिर मोबाइल के इन्बॉक्स में आए मेसेज। अभी जवाब दे दूं? जाने वक्त क्या हो रहा है? डेकोरम भी कोई चीज़ होती है यार। तुम बच्चों के बिना लावारिस हो तो ऐसा नहीं कि सब हों। फिर सोने की कोशिश।

आदित कैसे सोया होगा बर्थ पर? उसे तो अकेले नींद भी नहीं आती। मेरा हाथ चाहिए अपने आर-पार। और आद्या मेरे बालों से उलझे बिना नहीं सोती। जाने खाना कैसे खाया होगा? रांची राजधानी का खाना दो-चार दिन पहले फूड प्वायज़निंग का सबब बना था। अखबार में पढ़ा था मैंने। गुवाहाटी राजधानी में भी बच्चों को बासी खाना ना दिया हो... मुझे परांठे पैक करके देने चाहिए थे... वो रह लेंगे। कहां रह पाएंगे? मैं नहीं रह पाऊंगी। टिकट कब का है? अनन्या का जन्मदिन है कल। मौसी ने फोन करके अपनी बेटी की सालगिरह पर विश करना याद दिलाया। बड़ी बहन हो ना, सब इंतज़ार करते हैं। अनन्या कितने साल की होगी, ये भी भूल गई। बारह? चौदह? वेक्टर भी पढ़ा था ग्यारहवीं में। उसके सपने क्यों नहीं आते? ज़ोया को अगला जन्म लेना होगा एमएलए बनने के लिए। कहते हैं, शिद्दत से की गई ख्वाहिश पूरी ना हो तो उसे पूरा करने के लिए लेने होते हैं कई जन्म। मेरी सबसे बड़ी ख्वाहिश क्या है? नहीं जानती। सुबह होने में कितना वक्त बाकी है? नहीं जानती। कल क्या काम निपटाने हैं? नहीं जानती। क्या चाहिए? नहीं जानती। क्या नहीं चाहिए? नहीं जानती। कला कौन-सा मकसद पूरा करती होगी? नहीं जानती। किसलिए जद्दोजेहद है, आसानियों के होते हुए भी? नहीं जानती। सुबह चार बजे उठकर ये अगड़म-बगड़म क्यों लिख रही हूं? जानती हूं। तुम दोनों को ये बताने के लिए कि एक रात ऐसी भी थी जब चांद खिड़की पर से होकर गुज़रा था, मैंने खिड़की से हटाए थे  पर्दे और सुबह को आते देखा था लम्हा-लम्हा। अपने बच्चों के लिए किए कई रतजगों में से एक रात्रि-जागरण ऐसा भी था। (मैं साढ़े पांच साल बाद भी काट नहीं पाई हूं गर्भनाल। उफ्फ।)


(इस वीडियो में गायत्री है, मेरी मुंहबोली ननद। मेरे बच्चों की गायी बुआ। मैं आशाताई को लेकर बायस्ड हूं लेकिन यही खूबसूरत ग़ज़ल आप हेमंत दा की आवाज़ में भी सुन सकते हैं।)

शुक्रवार, 11 मई 2012

भरोसा करना सिखाती, मगर...

अपने बच्चों को मैंने आस-पास, सूरज-चांद, धूप और बारिश, घास और मिट्टी से प्यार करना सिखाया। उन्हें बताया कि ज़र्रे-ज़र्रे में उस ताक़त का नूर बसता है जो हमें दिखाई नहीं देता, लेकिन जिसकी मर्ज़ी से ही दुनिया क़ायम है। उन्हें बार-बार बताती रही कि कुत्ते-बिल्ली-गाय-बकरी और कीड़े-मकोड़े भी ऊपरवाले की रचना हैं, इसलिए दुर्भाव मत रखो किसी के प्रति। मैं उन्हें लोगों पर भी भरोसा करना ही सिखाती, लेकिन सच तो ये है कि शायद संतुलन आवश्यक होता है इस धरती पर इसलिए भला-बुरा, अच्छा-खराब सब यहीं होता है। तभी तो भरोसे जैसी ताक़त भी बचाकर इस्तेमाल की जाए तो अच्छा। मैं अपने बच्चों को बताना तो यही चाहती हूं कि दुनिया इतनी भी कमीनी और ज़ालिम नहीं, ना इंसानियत सोने की वो चिड़िया है जो विलुप्तता की कगार पर है। लेकिन दिल पर पत्थर रखकर ही सही, अपने बच्चों को सिखाना तो यही होगा कि दुनिया वाकई तुम जैसे निर्दोष मासूमों के भरोसे लायक नहीं और इंसानियत वाकई गुम होने लगी है हमारे आस-पास से। उन्हें बताना ही होगा कि अजनबी ही नहीं, तुम्हारी पहचान के लोग भी फ़ायदा उठाएंगे तुम्हारी कमज़ोरी का, इसलिए ध्यान रखना हमेशा। उन्हें सिखाना होगा कि पांच साल में ही अपनी इंद्रियों को शक्ति प्रदान करना सीखो, ख़ासकर अपनी समझ को। इसलिए क्योंकि भरोसे लायक कम लोग बसते हैं इस धरती पर।

मेरे जैसी मांएं अपने बच्चों के पीछे-पीछे पार्क में, सड़कों पर, घर में और बाहर परछाई की तरह घूमती हैं तो उन्हें हेलिकॉप्टर मदर के ख़िताब से नवाज़ दिया जाता है। मैं तंज कसनेवाले लोगों को जवाब देना नहीं चाहती, क्योंकि ये भी सच है कि अपने बच्चों को आप एक हद तक ही सुरक्षा प्रदान कर सकते हैं। घर से बाहर, स्कूल और पड़ोस में बच्चों की सुरक्षा नागरिक समाज की ज़िम्मेदारी भी बनती है। ये और बात है कि नागरिक समाज भी भरोसे लायक नहीं। वरना बच्चों के यौन शोषण जैसे मुद्दों पर एक पब्लिक फोरम में आकर लिखने की ज़रूरत ही क्यों पड़ती? दुर्भाग्यवश हम ऐसी दुनिया में रहते हैं जहां हवस और हैवानियत ना उम्र देखती है ना जगह। समाज और रिश्तों की मर्यादा का झूठा लबादा कमज़ोर और शोषित उठाए चलता है, और बार-बार उसी चक्रव्यूह में फंसता चलता है। जुल्म करनेवालों से ज़्यादा जुल्म का शिकार हुए लोगों को अपने बचाव में पक्ष मज़बूत करने होते हैं और सफाई लेने-देने की ये प्रक्रिया इतनी दुरूह और जटिल होती है कि कई बार अन्याय और शोषण के ख़िलाफ़ मुंह बंद कर लेने में ही भलाई मान लेने की सलाह दी जाती है। ख़ासकर इसलिए क्योंकि शोषण करनेवाले अधिकांश हमारे अपने करीबी रिश्तेदार या दोस्त या वो लोग होते हैं जिनपर भरोसा ना करने की कोई वजह नहीं होती।


लेकिन मुंह बंद रखा कैसे जाए जब बात हमारे बच्चों की हो? ऐसे में किया क्या जाए, सिवाय ज़ालिम और बेरहम दुनिया को कोसने के? क्या अपने बच्चों की सुरक्षा को वाकई किस्मत के सहारे छोड़ दिया जाए और बंद कर ली जाएं आंखें? जिस देश की तकरीबन चालीस फ़ीसदी आबादी पंद्रह साल से कम की हो, वहां उनकी सुरक्षा के मामलों को कैसे दरकिनार किया जाएगा? गूगल की मदद से ख़ौफनाक आंकड़े पेश किए जा सकते हैं, लेकिन क्या ये सच नहीं कि इन आंकड़ों के बगैर भी हम इस घिनौनी सच्चाई को अनदेखा नहीं कर सकते?

हमारे समाज में बच्चों से यही उम्मीद की जाती है कि वो बड़ों की इज्ज़त करें, बिना कोई सवाल पूछे, बिना आवाज़ ऊंची किए। ख़ासकर घर के बड़ों और शिक्षकों के ख़िलाफ़ तो कभी कुछ कहा ही ना जाए। विरोध का कोई भी स्वर अनुचित और कई बार अक्षम्य माना जाता  है और इसे सीधा परवरिश से जोड़ दिया जाता है। ये भी होता है कि किसी भी तरह के यौन शोषण के मामले में अभिभावक इसलिए भी आवाज़ नहीं उठाना चाहते क्योंकि शर्मिंदगी के साथ-साथ वो अपने मन पर अपराध बोध का बोझ लिए भी चलते हैं। यही शर्मिंदगी और गैर-ज़रूरी अपराधबोध यौन शोषण को बढ़ावा देता है क्योंकि अपराधकर्ता जानता है, उसे ना समाज मुजरिम करार देगा ना भारतीय दंड संहिता में बाल यौन शोषण के ख़िलाफ कोई प्रावधान है। राष्ट्रीय स्तर पर चाइल्‍ड सेक्सुअल अब्युज़ के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई जाए और कोई समेकित रक्षा अभियान शुरू हो, इससे पहले ज़रूरी है कि हम अपने और अपने आस-पास के बच्चों को जहां तक मुमकिन हो, सुरक्षित रखें। फिलहाल दो ही क़दम काफी होंगे – शोषण के खिलाफ किसी भी वजह से मुंह बंद ना रखा जाए, और जितना हो सके, भरोसे जैसे बेशकीमती इंसानी स्वभाव का सोच-समझकर इस्तेमाल किया जाए क्योंकि यहां बस्तियों में आग अपने कुल-खानदान वाले ही लगाते हैं अक्सर। 


(२१ अप्रैल २०१२ को दुनिया मेरे आगे, जनसत्ता में प्रकाशित)

मंगलवार, 8 मई 2012

तेरे सिरहाने गुज़रे जो रात और दिन

सुघड़ मां? मैं? तीर-ए-नीमकश-सा कुछ गया है दिल के आर-पार। छह साल मैंने गुज़ार दिए तुम दोनों के बहाने। इरादा ये नहीं था कि सुघड़ मां का तमगा हासिल कर लेना है। लेकिन मां होने की आड़ में खुद से बड़ी ज्यादतियां की हैं, तुमलोगों से भी, आस-पास से भी।

छह साल बर्बाद होने दिए, आबाद होने दिए। जब औंधे मुंह गिरी, मातृत्व के माथे फोड़ दिया ठीकरा। ट्विन् यू सी, वेरी डिफिकल्ट टू डू द जगलिंग। सफल हो गई तो वाहवाहियां भी इन्हीं के नाम। दोनों मेरी प्रेरणा हैं, म्यूज़ हैं, बचाए-जिलाए रखते हैं मुझे। इनसे ही तो सीखती हूं सबकुछ।

मुमकिन हो आधी हक़ीकत, आधा फ़साना जैसा कुछ आलम यहां भी हो। थोड़ा-बहुत लिखने का शऊर है तो किसी भी बात को अपने तरीके से तोड़-मरोड़ ही डालूंगी। इसलिए एक कन्फेशन करना चाहती हूं। मेरे होने-ना होने में तुम दोनों का उतना ही हाथ है, जितना मेरी मां ने मुझे बनाया-बिगाड़ा होगा। मां के ना चाहते हुए भी मैं भीतर की घुन्नी, विद्रोहिणी, अव्वल दर्ज़े की पाखंडी और बहानेबाज़ निकली। मेरे पास मेरी हर असफलता का बहाना था, मेरी हर नाकामियों के लिए जस्टिफिकेशन।

अब ये जस्टिफिकेशन तुम लोगों के  नाम कर दिया है। बच्चों को स्कूल भेजना है, इसलिए जल्दी सोना पड़ता है। उन्हें सुबह तैयार करना होता है इसलिए मॉर्निंग वॉक के लिए कैसे जाऊं? उनके लिए घर में होना होता है, तो काम कैसे करूं? बच्चे बीमार हैं तो डेडलाईन गई भाड़ में। सिरहाने बीस-बाईस किताबें रखी हैं सजाकर। हर दूसरे दिन मैगज़ीनवाला नई मैगज़ीन दे जाता है और मैं बिना पढ़े उसको पत्रिकाएं लौटा दिया करती हूं। बच्चों के साथ वक्त कहां मिलता है? नालायकी और आलस्य की हद है।

सुघड़ मां का एक किस्सा सुनाऊं? पिछले हफ्ते की बात है। आदित बीमार था, और घर पर था। याद नहीं ठीक-ठीक कि मैं लैपटॉप पर क्यों थी? फेसबुक पर थी या जीटॉक पर, असाईनमेंट लिखकर रही थी या कॉन्सेप्ट नोट, इससे फर्क नहीं पड़ता। बच्चा बगल में लेटा हुआ था, और मैं कीबोर्ड पर लगी हुई थी।

"मैं टेन तक गिनूं तो आपका काम हो जाएगा, मम्मा?"

"हूं? हूं।"

"वन, टू, थ्री, फोर.... टेन। मम्मा हो गया। आपका हुआ?"

"हूं? नहीं हुआ।"

"हन्ड्रेड तक गिनूं, मम्मा?"

बिना उसकी तरफ देखे मैं स्क्रीन पर आंखें गड़ाए बैठी रही।

"गिन लो।" मकसद टालना था।

"ट्वेन्टी... थर्टी एट... सिक्सटी सेवेन.... नाईन्टी वन... हन्ड्रेड.... मम्मा, हो गया।"

"अच्छा।"

मेरा काम अब भी खत्म नहीं हुआ था। जाने कौन-सा महाकाव्य लिखने में लगी थी।

"मम्मा... हो गया..."

"हूं..."

"मम्मा, प्लीज़... हो गया... मेरी तरफ देखो न।"

"एक मिनट, बेटा... ये कर लूं?"

"मम्मा, वॉशरूम।"

"क्या?"

"वॉशरूम, मम्मा।"

"तो चले जाओ ना आदित।"

"ठीक है।" बच्चा बुखार में उठा, और लड़खड़ाते हुए बिस्तर से नीचे उतरने लगा। तब होश आया कि मेरा बेटा बीमार है। गिल्ट मिटाने के लिए इतना ही कहा मैंने, "मम्मा चले साथ?"

"हां, प्लीज़ मम्मा। चक्कर आ रहा है।"

मुझे होश तब आया और मैंने उसे गोद में उठाया।

मेरी गर्दन के दोनों ओर हाथ बांधकर उसने धीरे-से कान में कहा, "उतार दो मम्मा। डॉक्टर ने आपको भारी चीज़ उठाने से मना किया है। पीठ में दर्द होगा।"

"तुम इतने भी भारी नहीं हो आदित", हम फिर से एक-दूसरे में मसरूफ हो गए। आदित भी मुस्कुरा उठा। वॉशरूम से लौटने के ठीक पांच मिनट बाद तक मैं उसके माथे पर हाथ फेरती रही। फोन की घंटी बजी। क्लायंट। जिसका डर था, वही हुआ।

"आर यू डन, अनु? आधे घंटे में मेल कर सकोगी?"

"नहीं यार। हैव जस्ट बीन सो टेरिबली कॉट अप। माई सन इज़ नॉट वेल।"

"ओ हो। टेक योर टाईम देन। शाम को बात करते हैं।"

हां, लेकिन बेटे ने मुझे काम करने से कब रोक लिया था? मैं रात में जाग सकती थी। सुबह काम कर सकती थी। उसे वक्त देते हुए चार पन्ने लिखने में कितना वक्त लगता है?

हेन्स प्रूव्ड, मां सुघड़ नहीं, निहायत ही डिसऑर्गनाइज़्ड और बेसलीका है। उसका वक्त कहां किसी का हो पाता है? उसका वक्त अपना भी नहीं होता।

बच्चों के सिरहाने गुज़ारनेवाले रात और दिन के नाम मां ने अपनी तमाम नाकामियां कर दी हैं। दस साल बाद कहना शुरू कर दूंगी, मैं दुनिया की सबसे बेहतरीन प्रोफेशनल होती मगर... आई कुडन्ट बिकॉज़ ऑफ यू। ये मेरे बच्चों के लिए सबसे बड़ी सज़ा हो शायद और मेरे लिए अपना आलस छुपाने का सबसे बड़ा कवच।

हैप्पी मदर्स डे, मम्मा!

शुक्रवार, 4 मई 2012

जब से हुई है शादी

जी में आता है शादी नाम की मुसीबत के लिए टोकरी भर-भर के गालियां निकालूं। जाने वो कौन-सी सभ्यता रही होगी जिसने दुनिया भर के जाहिल-गंवार-नाकारा-असभ्य-गैरज़िम्मेदार लोगों को इस एक बंधन में डालकर सभ्य और ज़िम्मेदार बना डालने का बेहद बेहूदा काम किया होगा?

और बंधन कैसे इंसानों को इंसान बनाए रखते हैं, शादी क्यों जरूरी होती है और परिवार की भूमिका क्या होती है समाज में, इसके तर्क तो मेरे सामने ना ही पेश किए जाएं। मैंने भी शादी की है भाई। दो बच्चों को बड़ा कर रही हूं। ठीक-ठाक खुशहाल परिवार चला रही हूं, और भली-भांति विवाह के समस्त नियमों को निभा भी रही हूं। सात फेरों के सातों वचन भी याद हैं और पतिदेव की यादाश्त पर भी पूरा भरोसा है। फिर भी दोस्तों, शादी क्यों करते हैं लोग?

कल रात से ढूंढने की कोशिश कर रही हूं, एक वो दंपत्ति जो मिसाल हो कि जनाब, शादी हो तो ऐसी वरना सब कुंआरे ही अच्छे। ना किसी ने ऐसी मिसाल पेश की है अबतक ना शादी के खिलाफ आवाज़ उठाता है कोई। बल्कि गैर शादीशुदा लोगों से तो परिवार-समाज को इस कदर परेशानी होती है कि राह चलते-चलते भी मैचमेकिंग से बाज़ नहीं आते लोग।

बैंड बाजा बारात देखती हूं तो एक ही ख़्याल आता है, चलो भईया, दो और के शहीद हो जाने का जश्न मनाते हैं मिलकर। पनीर मटर, मुर्ग मुसल्लम और खोए के साथ गाजर का हलवा खाते हैं कि आज के बाद तो इधर का ज़ायका यूं भी बिगड़ ही जाना है बुरी तरह।

शादी की सालगिरह भी अपनी उसी गलती की घनघोर याद दिलाने के लिए आया करती है।

फोन करती हूं पापा को और शादी के पैंतीस साल पूरे होने की बधाई देती हूं। पापा चुप हैं थोड़ी देर, फिर से धीरे से अपने ख़ास अंदाज़ में कहते हैं - ठीक बा... (माने, दर्द-ए-दिल का हाल मत ही पूछो तो अच्छा)। हम इधर-उधर की बातें करते हैं पूरे अठतालीस सेकेंड, जिसके बाद मैं मम्मी के बारे में पूछती हूं।

उनका फोन नहीं लगा? ये सवाल है या जवाब, सूझा नहीं। अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं कि दोमंज़िला मकान में रहनेवाले दो लोग अलग-अलग मंज़िलों पर होंगे सुबह के इस वक्त। पापा ने टेरेस पर चापाकल चलाकर गमलों में पानी दिया होगा, सूखी हुई पत्तियां चुनी होंगी, ये भी मुमकिन है कि छत पर झाडू भी लगा दिया हो सुबह-सुबह।

मम्मी भी उठते ही सफाई अभियान में लग गई होंगी। मच्छरदानियां खोलकर, बिस्तर बनाए होंगे, डस्टिंग की होगी और चार बार फ्रिज की कटोरियां अंदर-बाहर की होंगी। दूध खौलाया होगा, चाय बनाई होगी और पापा के लिए बिना चीनी की चाय ऊपर भिजवा दी होगी ड्राईवर से।

एक घर में होते हुए दोनों बड़े कमाल के तारतम्य के साथ उतनी ही तन्मयता से अपने अपने कामों में लगे होंगे। मम्मी को मंदिर जाना होगा, पापा को साईट। ये भी मुमकिन है कि साथ ही निकले होंगे दोनों। हो सकता है, पापा के लिए अपनी पसंद की शर्ट मम्मी ने निकालकर रख दी हो बिस्तर पर, और खुद बांध ली हो उनके पसंद की कोई साड़ी। बिंदी और चूड़ी का रंग भी शायद मैच करता हो साड़ी से। शादी की सालगिरह साल में एक बार ही तो आती है। ये भी मुमकिन है कि शुगर-फ्री डालकर शाम को पापा के लिए खीर भी बना दें।

शादी इसलिए करते हैं लोग, अब समझ में आया है। साथ होते हुए साथ ना होना, साथ ना होते हुए होना... इसलिए करते हैं शादी। तमाम बंधनों को स्वीकारने के साथ जीवनसाथी को कोसते रहने का सुख शादी में दिलचस्पी बचाए रखता है। गंदे तौलियों और बिखरी चप्पलों के साथ किसी की उपस्थिति का जो सुकून होता है उसे कोई और रिश्ता नहीं दे सकता, यहां तक कि मातृत्व भी नहीं। शादी दरअसल ज़िन्दगी में आस्था बनाए रखने का एक और रूप है। वरना बिन घरनी घर भूत का डेरा और बिन शौहर के कैसा बसेरा।

रही बात मां-पापा की, तो मुझे यू टू का गाया गाना याद आ गया है दफ्फ़तन - कान्ट लिव विद और विदाउट यू! वेल, इन्डीड!


सही पहचाना। मैं इतने ही हैंडसम पेरेन्ट्स की उतनी ही हैंडसम बेटी हूं। :p