गुरुवार, 12 अप्रैल 2012

हज़ारों ग़म हैं यूं तो रोने को

ब्लॉग्स लिखती हो, कॉलम लिखती हो, सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर होती हो तो अनाप-शनाप लिखने के अलावा काम की बातें क्यों नहीं लिखती? क्यों नहीं लिखती कि होलिस्टिक एडुकेशन के नाम पर की जानेवाली उगाही हमारे घरों की नींवों को हिलाने लगी है? क्यों नहीं लिखती कि एक आंदोलन लाना होगा, बदलनी होंगी नीतियां, कपिल सिब्बल की हिलानी होगी कुर्सी? क्यों नहीं लिखती कि क्वालिटी हेल्थकेयर के नाम पर हुए कॉरपोरेटाइज़ेशन ने हमारा बीमार पड़ जाना सबसे बड़ा अभिशाप बना डाला है? क्यों नहीं लिखती कि मूलभूत सुविधाओं के नाम पर ही दरअसल हुआ करते हैं सबसे बड़े घोटाले? कितने लोग तो पढते हैं तुमको। कुछ ऐसा लिखा होता जिससे जागरूकता बढ़ती।

हां, मेरे लिखे हुए में कुछ उदात्त नहीं होता। ज्ञान की बातें नहीं होतीं और मुझसे क्रांति के स्वर नहीं फूटते। मैं शब्दों के ज़रिए पलायन के रास्ते ढूंढती रहती हूं। दुनिया में बहुत ज़हानत और समझदारियां भरी हुई हैं। उनमें मेरी टूटी-फूटी समझ कहां काम आएगी? अन्ना ने सोची-समझी मीडिया रणनीति के साथ आंदोलन करके क्या बदल दिया कि मैं बदल पाऊंगी एक लेख लिखकर? और इससे क्या फर्क पड़ता है कि कौन पढ़ता है मुझको। मैं यहां ज्ञान बांचने नहीं आती। तेज़रफ़्तार ज़िन्दगी की डोर थामे पीछे से घिसटती हुई ही सही, जीने के नए-नए तरीके ईजाद करने आती हूं। मैं यहां अपने बच्चों के लिए नाउम्मीदियों के बीच उम्मीद छोड़ने आती हूं।

वैसे तो रोने को, शिकायत करने को तो हज़ार वजहें हैं। हम जिस शहर में रहते हैं वहां घर से बाहर निकलकर गेट तक चले जाने के एवज में पांच सौ का एक नोट साफ कर देना होता है। मैं जानती हूं कि जो दूध हम पीते हैं उसमें चूना मिला हो सकता है, सब्ज़ियों में कीटनाशक हैं, फलों पर कार्बन की कोटिंग। दाल-चावल-आटे की कीमत जानती हूं और ये भी कि मुद्रास्फीति की दर क्या है। थोड़ा-बहुत जीडीपी और इकॉनोमिक ग्रोथ की भी समझ है। ये भी जानती हूं कि उड़ीसा में नक्सलियों ने क्यों बंधक बनाया होगा विधायक को। मालूम है कि गुलबर्ग सोसाइटी मामले में मोदी को क्लिन चिट कैसे मिल गई होगी। लेकिन हर मुद्दे पर संपादकीयनुमा कुछ लिख ही दिया तो क्या बदल जाएगा इससे? मेरे लिए क्या बदलेगा? मेरे बच्चों के लिए क्या बदलेगा? और जिन फूल-पत्तियों-हवा-घटाओं-खुशबू-बारिश-रंग-उम्मीद की बातें लिख-लिखकर ये ब्लॉग भरती रहती हूं ना मैं, वो मुझे बदल देती हैं थोड़ी देर के लिए।

मेरा ब्लॉग पर आना घर-बाहर की ज़िम्मेदारियों और उलझनों को छोड़कर थोड़ी देर के लिए पार्क में आ जाने जैसा है। जैसे मोगरे की खुशबू कोई याद ताज़ा करती है वैसे ही किसी नोस्टालजिया को यहां सहेजकर रख देने से उस एक दिन के लिए जीना आसान हो जाता है। पार्क में उड़ते तोते देखती हूं तो पेट्रोल की क़ीमत याद कर हाथों से उड़े ख़्याली तोते वापस आ जाते हैं। उड़ती फ़ाख्ता के पर गिनना मेरा ध्यान-दर्शन है। पेट्युनिया के रंगों में आशाओं के रंग दिखते हैं। मौलश्री की हल्की-सी छांव यकीन दिलाती है कि जूझने के लिए आज भी निकलोगी घर से तो सहारा मिल ही जाएगा कही ना कहीं। कचनार के पेड़ पर तेज़ी से बढ़ते फूल घटते अकाउंट बैलेंस का ग़म भुला देते हैं। रंग-बिरंगे स्टॉक्स स्टॉक मार्केट में डूब रही गाढ़ी कमाई का अफ़सोस कम कर देते हैं। पार्क के कोने में अंगारे बरसाता पलाश मुझे याद दिलाता है कि आउट ऑफ प्लेस एक तुम ही नहीं अनु सिंह।

अपनी भरपूर हरियाली के बीचोंबीच जैसे पार्क थोड़ी-सी ही सही, लेकिन खुबसूरती को बचाए रखता है वैसे ही मेरा लिखना मुझे भरोसा दिलाता है कि रो लेने को कई और बहाने हैं, एक तिल-तिल बर्बाद होती ही दुनिया का ग़म ही नहीं। पार्क मुझे रेत में सिर छुपा लेने की इजाज़त देता है, ताकि बाहर निकलकर मैं सिर उठाकर जी सकूं एक और दिन। मेरा लिखना मेरे अंदर की उम्मीद बचाए रखता है ताकि अख़बारों और समाचार चैनलों के फैलाए हुए डर को झेलने की हिम्मत मिल सके।

लिखने दो उनको जो क्रांति लाना चाहते हैं। ईश्वर उन्हें क़ामयाबी दे। लिखने दो मुझे कि मैं जीना चाहती हूं बस। और तो क्या वजह होती है किसी के होने की? मुझे अपना रोना रोने दो। मुझे मेरे पार्क में होने दो। मैं भगोड़ी, कमज़ोर, बेवकूफ़, नासमझ ही सही।

(नीचे उस पार्क की कुछ तस्वीरें है जो है, तो मुझे अपने उन्माद के लम्हों में भी सुधी बनाए रखती है। बाकी मेरे ब्लॉग से आद्या-आदित भी वाकिफ हैं, आप भी।)

सुकून का एक लम्हा, मौलश्री की लम्हाभर छांव

कॉन्क्रीट जंगल में भी खिल ही जाता है, पलाश
बिछड़ जाने से पहले की खुशबू

10 टिप्‍पणियां:

Nidhi Shukla ने कहा…

मेरा लिखना मेरे अंदर की उम्मीद बचाए रखता है - बहुत सही कहा आपने... आखिर उम्मीद पर ही दुनिया कायम है ना !

Neeraj ने कहा…

आप लिखिए... जो आपको पसंद हो ... लिखिए.

Anupama Tripathi ने कहा…

लिखने दो मुझे कि मैं जीना चाहती हूं बस। और तो क्या वजह होती है किसी के होने की? मुझे अपना रोना रोने दो। मुझे मेरे पार्क में होने दो। मैं भगोड़ी, कमज़ोर, बेवकूफ़, नासमझ ही सही।

चैन पाने का ये तरीका बहुत सुंदर है .....what else u need in life more than solace ....!!

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

इतने अच्छे दृश्यों को देखकर समस्याओं से लड़ने की ऊर्जा मिल जाती है।

Arvind Mishra ने कहा…

"और इससे क्या फर्क पड़ता है कि कौन पढ़ता है मुझको।"
फ़िक्र न कीजिये कुछ हमें भी मिलता है जो हम भागे चले आते हैं
आपकी पोस्ट पब्लिश होते ही ..हम भी यहाँ ज्ञान प्राप्त करने आते हों ऐसा भी कोई मुगालता नहीं पाले हैं .
कुदरत की गोंद सचमुच पुरसकूं है ....मगर उससे जुड़ने का प्रशंसा बोध विरलों में ही होता है !
और जिनमें होता है दुनियावी बातें उनके लिए ज्यादा मायने नहीं रखती ..
खूबसूरत तस्वीरें -फूल कुंद का है या गुलायची का या फिर बेला परिवार का ?

Arvind Mishra ने कहा…

कुदरत की गोंद सचमुच पुरसकूं है ....मगर उससे जुड़ने का प्रशंसा बोध विरलों में ही होता है !
और जिनमें होता है दुनियावी बातें उनके लिए ज्यादा मायने नहीं रखती

Arvind Mishra ने कहा…

मेरे पहली टिप्पणी कहाँ गयी :(

Nidhi ने कहा…

और जिन फूल-पत्तियों-हवा-घटाओं-खुशबू-बारिश-रंग-उम्मीद की बातें लिख-लिखकर ये ब्लॉग भरती रहती हूं ना मैं, वो मुझे बदल देती हैं थोड़ी देर के लिए।
....जिसको जो लिखना है ...लिखे...तुम वही लिखो जो तुम्हें अच्छा लगता है.

विभूति" ने कहा…

संवेदनशील रचना अभिवयक्ति...

Arvind Mishra ने कहा…

फूल किसका है इतना तो बता दीजिये !